जिस दौर में सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में दे देने का सरकारी अभियान ही चल रहा हो उस दौर में यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि क्या आनेवाले दिनों में खरीदी जानेवाली शिक्षा के उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ी है या हालात कुछ और बयान कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि देहातों और ग्रामीण इलाकों में ड्रॉपआउट का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। गुणवत्ता वाली पढ़ाई की तुलना में मिड डे मील का हौवा अधिक खड़ा किया है। इसके साथ ही प्राथमिक विद्यालयों की कीमती ज़मीनों को अंबानी-अदानी जैसे कॉर्पोरेट घराने को मुफ्त में सौंप देने के प्रयास तेजी से हो रहे हैं और कुल मिलाकर हालात ये बन रहे हैं कि शिक्षा गरीब की पहुँच से दूर कर दी जा रही है।
ऐसे समय में किसी व्यक्ति की ज़िद समाज के सबसे उपेक्षित हिस्से के रहनेवाले बच्चों को पढ़ाने के लिए पागलपन की हद तक बढ़ चुकी हो तो आप कितना भी उदासीन रहिए लेकिन लंबे समय तक उसे उपेक्षित नहीं कर सकते। ऐसे ही जब मुझे मनोज के बारे में पता चला तो मैं इस बात को जानने के लिए उनके गाँव पंडापुर जाने के लिए तैयार हो गई। मनोज एक दिन गाँव के लोग कार्यालय आए थे और जब उन्होंने यह बताया कि वे चार सौ बच्चों को पढ़ाते हैं तो एकबारगी यह भरोसा करना कठिन था कि दो अध्यापिकाओं के साथ इतनी बड़ी भीड़ को संभालते होंगे।
साथ ही मुझे उस गाँव को देखना भी था जहां अभी भी इतने बच्चे सरकारी स्कूलों से उपेक्षित बचे हुये हैं। मनुष्य एक घुम्मकड़ी प्रकृति का प्राणी है जिसे संसार के प्रत्येक वस्तुओं के बारे में जानने की जिज्ञासा होती है, इस वाक्य से मैं भी इत्तेफाक रखती हूं। मुझे हमेशा से ही नई जगहों और वस्तुओं के बारे में जानने की इच्छा रही है।
बहरहाल, मैं वाराणसी-गाजीपुर मार्ग पर स्थित उगापुर पंडापुर (चौबेपुर) गई, मनोज जहां के रहने वाले हैं। वे अपने गांव में प्रभावती वेलफेयर एण्ड एजुकेशनल ट्रस्ट चलाते हैं। इस ट्रस्ट के तहत मनोज अपने गांव में उन बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास करते हैं जो बच्चे पढ़ने- लिखने के लिए स्कूल जाने में असमर्थ हैं। उन्होंने अपने इस अभियान के बारे में बताया कि उन्होंने किस तरह से अपने आपको यहां तक पहुंचाया है।
मनोज के बताए अनुसार, वे एक साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनकी जिंदगी संघर्षों भरी रही है। वे बचपन से ही पढ़ाई को लेकर बहुत संजीदा थे, लेकिन परिवार कि आर्थिक हालत सही नहीं होने के कारण पढाई के दौरान उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वे बताते हैं कि कई बार तो उन्हें मजदूरी करके पढाई करनी पड़ी। जैसे-तैसे 12वीं पूरी करने के बाद उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से स्नातक किया। मनोज आईएस बनाना चाहते थे लेकिन कमजोर आर्थिक स्थति और परिवार कि समस्याओं ने उनके सपने को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
लेकिन कहते हैं ना कि जिसपर मुश्किलों की मार पड़ी हो उसका दर्द वही समझता है। मुश्किलों में अपनी जिंदगी गुजार रहे मनोज ने फैसला लिया कि जिस मुश्किल के कारण उन्हें अपने सपनों से समझौता करना पड़ा, वे मुश्किलें उनके जैसी हालत से आने वाले बच्चों के साथ न हो । इसके लिए मनोज ने अपने गांव के साथ- साथ अपने आसपास के गाँव में बच्चों को शिक्षित करने के लिए एक मुहिम चलायी जिसका नाम है – मिशन स्कूल चलो अभियान, जिसमें आज लगभग 400 बच्चे ऐसे जुड़े हैं जिन्होंने कभी स्कूल में कदम तक नहीं रखा था।
इनमें ज्यादातर ऐसे बच्चे शामिल हैं जिनके पास न रहने को घर है न पहनने को अच्छे कपड़े और न ही खाने के लिए भोजन, जिनके परिवार में सभी लोग गावं में भीख मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं। मनोज जिन बच्चों को पढ़ाते हैं उनमें ज्यादातर बच्चे नट और राजभर जातियों से आते हैं। हालांकि मनोज के पास एक विकल्प यह था कि वह बाहर जाकर किसी कंपनी में काम कर अपनी आर्थिक स्थिति को मज़बूत करते, लेकिन मनोज ने बच्चों को शिक्षित करना ज्यादा जरूरी समझा।
मनोज ने एक शिक्षण संस्था बनाया जिसका नाम प्रभावती वेलफेयर एंड एजुकेशनल ट्रस्ट है। हालांकि अभी कुछ हफ्ते पहले ही बड़ी मुश्किलों से इसका बैंक खाता खुल सका है। इसके तहत बच्चों को शिक्षित करने का कार्य कर रहें हैं। इनका यह कार्य 2017 से जारी है, वर्तमान में उनकी पत्नी अनिता यादव भी साथ मिलकर कार्य कर रही हैं।
कोरोना के कहर के दौरान भी मनोज ने साइकल से घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ाने का कार्य किया। पढ़ाने के साथ-साथ मनोज बच्चों के जरुरत अनुसार कॉपी, पेन, पेंसिल, कपड़े जैसी वस्तुओं का भी वितरण करते हैं। बेशक आज भी मनोज कि आर्थिक हालत नाजुक ही है और वे अपने अभियान में सहृदय लोगों द्वारा आर्थिक सहयोग की उम्मीद रखते हैं। कुछ लोगों की आर्थिक मदद से बच्चों कि ही जरूरतें पूरी कर पाते हैं।
मनोज कहते हैं कि ‘अब मेरी यही ख्वाहिश है कि इस मुहिम को बड़े स्तर पर चलाकर शिक्षा से वंचित सभी बच्चों को शिक्षित किया जाये लेकिन आर्थिक हालत कमजोर होने के कारण अभी मैं पूरी तरह से बच्चों की मदद नही कर पा रहा हूँ।’
क्या सचमुच मनोज ने कोई स्कूल खोला है ?
अपने कार्यालय में सविस्तार उनकी कहानी सुनने के बाद मुझे लगा कि मुझे इनके गांव जाना चाहिए, देखना चाहिए कि आखिर उस गांव की स्थिति कैसी है? क्या वास्तव में एक ऐसा गांव भी है जहां शिक्षा का इतना अभाव है? इन सभी सवालों के साथ मैंने तय किया कि मैं रविवार को उनके गांव जाऊँगी। मैं रविवार की सुबह अपने सभी काम खत्म करके मनोज के गांव के लिए लगभग निकली। मुझे उनके गांव जाते-जाते दोपहर के 12 बज गए। हिचकोले खाते पुरानी चाल के विक्रम से हाइवे और पक्की-टूटी सड़कों से होते हुए मैं चौबेपुर बाज़ार पहुंची जहां मनोज पहले से ही मौजूद थे। फिर वहां मैं मनोज के साथ दोपहिए वाहन से उनके गांव के लिए निकल पड़ी।
गांव तो अभी भी गाँव ही हैं। भले ही सड़कें चार लेन की हों। गाँव में प्रवेश करते ही हवा के झोंके से आती मिट्टी की खुश्बू ने मेरी यादें ताज़ा कर दी। मनोज ने सबसे पहले अपने मिशन में मदद करने वाले और मार्गदर्शक रहे गांव के डॉ. साहब के क्लिनीक के सामने गाड़ी रोक दी। उन्होंने बताया कि पूरे गाँव में जब मैंने यह कार्य करना शुरु किया था तो लोग मुझे पागल समझते थे, लेकिन गांव के कुछ लोगों ने मेरे कार्य का समर्थन भी किया इनमें से एक हैं डॉ. राजू यादव जो पेशे से डॉक्टर हैं।
डॉ. साहब ने मनोज का इस कार्य में मार्गदर्शन ही नहीं किया बल्कि आर्थिक मदद भी की। हम क्लीनिक पहुंचे। वहां कई मरीज़ बैठे थे और कुछ लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। डॉ. साहब गले में आला लटकाए हुए हाथ में इंजेक्शन लिए हुए मरीज़ों के इलाज में व्यस्त थे।
जाते ही मनोज ने उनसे मेरा परिचय कराया और फिर हमारी बात शुरू हुई। डॉ. साहब ने बताया कि मनोज जी बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। बस आप लोग इनके कार्यों के बारे में सभी को अपने लेख के माध्यम से बताइए। इनके कार्यों को और आगे बढ़ाने में आर्थिक स्तर पर मदद करिए। डॉ. साहब गाँव में सभी लोगों का इलाज करते हैं। उनके यहां बहुत दूर–दूर से मरीज आते हैं। गाज़ीपुर, सादात और आजमगढ़ जैसी जगहों से भी। इनकी सभी तरह की बीमारियों के इलाज़ की फीस मात्र 30 रूपए होती है।
वहां बैठे मरीजों ने बताया जब कोरोना उच्च स्तर पर था तब आस-पास के डॉक्टर मरीजों को हाथ लगाने से मना कर दिया था फिर भी डॉक्टर साहब अपनी ड्यूटी में डटे रहे और तत्परता से सभी मरीजों का इलाज किया। इनकी दवाइयां तुरंत असर दिखाती हैं।
10-15 मिनट के बाद डॉ. साहब को हमने अलविदा कहा गांव की ओर बढ़े। थोड़ी दूर जाने के बाद हमारी गाड़ी रेलवे लाइन के फाटक पर जा रुकी जहां से गोरखपुर जाने के लिए ट्रेन हमारे सामने से गुजर रही थी। फाटक उठते ही हम निकल पड़े अपने आगे के रास्ते, गांव में पक्के रोड, लहलहाते खेत, हरे भरे मैदान, पीपल-बरगद नीम-बबूल आदि के पेड़, बारिश के पानी में डूबे तालाब, आदि गांव कि शोभा बढ़ा रहे थे।
शुरुआत ईंट भट्ठे और मंदिर की दीवार से हुई थी
मैं इन नज़ारों को देख ही रही थी तभी मनोज जी ने मुझसे कहा कि मैं आपको सबसे पहले गांव की उस जगह को दिखाता हूं जहां से बच्चों को शिक्षित करने के मिशन की शुरूआत हुई थी। इस प्रकार हम सबसे पहले बहरामपुर नामक गावं में पहुंचे जहां पर मनोज जी ने एक भट्ठा (जहां ईंटे बनती हैं) दिखाते हुए कहा कि मैंने यहां बच्चों को पढ़ाना शुरु किया था। वहीं भट्ठे के ठीक बगल में मिट्टी की झोंपड़ियाँ थीं जिन पर कुश की मड़ई रखी हुई थी। वहां वे लोग रह रहे हैं जो भट्ठे में ईंट बनाने का कार्य करते हैं।
मनोज ने बताया कि यहां पर भी मैं बच्चों को पढ़ाता हूं। हम आगे बढ़े। उसी रास्ते पर थोड़ी दूर जाने पर एक मंदिर था जिसके सामने एक विशालकाय बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरा बना हुआ था, जहां कुछ लोग शुद्ध एंव ठंडी हवा में नीद के गोंते लगा रहे थे। एक बात तो सच है कि गांव के मीठे पानी और ठंडी हवा में जो सुकून है वह शहर में कहां मयस्सर होगा।
हमने मंदिर में प्रवेश किया, हालांकि मंदिर बंद था। मंदिर के ठीक पीछे एक तालाब था। वहां के लोगों के अनुसार यह स्थान बाबा अड़गढ़ नाथ की तपस्थली था। मनोज ने बताया कि वहां सिमेंट की दीवाल पर कालिख से हिंदी और अंग्रेजी के वर्णमाला लिख कर बच्चों को पढ़ाते थे।
मैंने देखा कि वहां किसी ने कालिख से पागल लिख दिया था। वहां लिखावट की स्पष्ट तो नहीं थी लेकिन कुछ धुंधंली-सी परछाई थी। उसके बाद हम दूसरे गांव आराजी चन्द्रावती पहुंचे। यहां यादव और नट जाति को मिलाकर 1500 लोग रहते हैं। इस गाँव के 120 बच्चे ऐसे हैं जिनको मनोज पढ़ाते हैं। जहां आसपास पक्के मकान तो थे लेकिन घरों के हालत अच्छी नहीं थी।
नट बस्ती में वर्तमान इतना भारी है कि भविष्य की कोई चिंता नहीं
लोग घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। औरतें आपस में बात कर रही थीं तो पुरुषों की अलग सभा चल रही थी। बच्चे खेलने में व्यस्त थे। पास में ही छोटे तालाब के रूप में बारिश का पानी जमा था। जैसे ही हम पहुंचे सबकी निगाहें हमारी ही तरफ मुड़ गईं। सभी यह जानने के उत्सुक थे ये कौन हैं और क्यों आए हैं।
मनोज ने उतरते ही बताया कि ये नट बस्ती है। यहां ज्यादातर लोगों के पूर्वजों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था। मैं 2017 से इस प्रयास में लगा हुआ हूं कि यहां के सभी बच्चों को शिक्षित कर पाऊं। मैंने कई बच्चों का स्कूल में प्रवेश भी करवाया लेकिन यहां के लोग अपने बच्चों को भेजते ही नहीं हैं और जो भेजते हैं उनके बच्चे खुद नहीं जाते।
आगे बढ़ते हुए मनोज ने मेरा परिचय लोगों से कराते हुये कहा कि ‘ई ईहां ई जान बदे आयल हईन कि ईहां क बच्चन पढ़ लन कि नाहीं। आउर हम पढ़ाईला कि नाहीं।’ भीड़ में शर्ट और धोती पहने एक वृद्ध ने मनोज के बारे में बताते हुए कहा कि ‘ई बहुत अच्छा काम करत हउअन। बच्चन के पकड़- पकड़ के लेजालन पढ़ावे बदे।’
अभी इनकी बात खत्म हुई नहीं कि दूसरे वृद्ध, जिनके तन पर एक धोती थी और दाढ़ी बढ़ी हुई थी, ने कहना शुरू किया-‘अरे का होई मारे पढ़-लिख के गिनती आजाए एतन बहुत ह।’ वहीं उनका एक लड़का भी खड़ा था जो कि कक्षा 4 तक स्कूल में पढ़ने के बाद 4 सालों से मदरसे की शिक्षा ले रहा है। इसी दौरान एक महिला भी बोली कि ‘फ्री में पढ़ावलन। एक्को रुपया भी ना लेलन। बाकी त इ कुल पढ़ही ना जालन।’
हम इनकी बातें सुनते आगे बढ़े। गांव में साफ-सफाई तो कुछ ख़ास नहीं थी सभी तरफ आधे-अधूरे बने पक्के मकान नजर आ रहे थे। लोगों की मानसिकता पढाई के लिए उतनी विकसित नहीं हो पायी है। हम एक के बाद एक घर देखते सबसे मिलते आगे बढ़े। सबकी कहानी एक जैसी ही थी। तभी हमारी नजर एक झोंपड़ी पर गई जहां 7-8 बच्चे थे। कुछ नंगे सो रहे थे। कुछ खेल रहें थे कुछ खा रहे थ। लेकिन पूरा वस्त्र किसी के तन पर नहीं था और रहने के लिए झोंपड़ी थी।
वहीं पर एक महिला से मिलाते हुए मनोज ने कहा कि इनके 8 बच्चे हैं लेकिन ये अपने बच्चे को पढ़ने नहीं भेजतीं। इतना सुनते ही महिला बोली ‘हमार 8 बच्चन हउवन तौ आप हमार बच्चन के पीछे पड़ल रहलन।’ तभी अन्दर से उनके पति आए बोले ‘हम त भेजीला लेकिन कुल जइब ना करतन अब का करीं? मारीं?’
ये सारी बातें हो ही रही थीं तभी मेरी नज़र पक्के मकान से लगी झोंपड़ी में गई जहां कई पुरुष और लड़के बैठकर जुआ और ताश खेल रहे थे। मनोज ने बताया कि “देखा मैडम जी ई लोगन क ईह काम ह। दिनभर जुआ खेलिहन और इनकर औरत और बच्चा कुल भीख मंगिहन, दिन भर जवन कमाई होई रात में ओही से दारू और खाना का इंतजाम होई। लइकन(लड़की/लड़का) या त भीख मंगिह नहीं त बकरी चरइहन।’
मनोज के घर पर सचमुच स्कूल है
पूरे गाँव का दृश्य देखने के बाद हम मनोज के घर की तरफ मुड़े। सबसे पहले उन्होंने अपना जन्म स्थान दिखाया जो की कच्चा मकान था। थोड़ी ही दूर आगे चलने के बाद हम वहां पहुंचे जहां वे वर्तमान में रहते हैं। मनोज का यह घर तीन कमरे का था जिसकी दीवाल ईंट की, छत करकट की और फर्श मिट्टी की है। सामने थोड़ी सी जगह खाली थी जहां लगभग 60 से 70 बच्चे बैठे हुए थे। सामने खाट पड़ी थी, जिसपर मनोज की माता जी बैठी हुई थीं। दो कुर्सियां और एक व्हाइट बोर्ड लगा हुआ था।
रविवार बच्चों के लिए छुट्टी का दिन होता है इसके बावजूद वहां बच्चों की काफी संख्या थी। इनमें 4 से 15 साल तक के बच्चे रहे होंगे। मनोज के परिवार में उनकी पत्नी अनिता यादव स्नातक हैं और वह भी बच्चों को पढ़ाने का कार्य करती हैं। इसके साथ ही गांव की एक और महिला हैं जो मनोज के इस मिशन से जुड़ी हुई हैं और बच्चों को पढ़ाती भी हैं। हम जैसे ही पहुंचे सभी बच्चों ने खड़े होकर ‘जय हिंद’ का उच्चारण कर हमें सल्यूट किया।
मनोज यादव का 10 महीने का बेटा पूरा आंगन और घर एक किए हुआ था। मैंने बच्चों से बात करनी शुरू की। मैंने बच्चों से पूछा पढ़ने में मन लगता है? बच्चों ने तेज आवाज में हां कहा। एक छोटा सा बच्चा, जो कि लगभग 4 साल का रहा होगा, जिसका नाम आदित्य था उसका जवाब था। नहीं और वह बच्चों के विपरीत मुंह करके बैठा हुआ था। कॉपी और पेंसिल लेकर कभी A तो कभी क लिख रहा था। जब तक मैं थी तब तक वह बच्चा लिखता ही रहा।
उनमें से कुछ बच्चे पढ़ाई को लेकर बहुत गंभीर नज़र आए और कुछ बहुत छोटे होने के कारण पढ़ाई के प्रति अभी इतनी रुचि नहीं दिखा पा रहे थे। बच्चों से मिलने के बाद मैंने मनोज के घरवालों और बच्चों से विदा ली। हम आगे बढ़े। एक मैदान पार करने के बाद हम तीसरे गाँव में पहुंचे। यहां से मनोज के यहां बच्चे पढ़ने आते हैं। वहां पूछने पर पता चला कि बच्चे भीख मांगने गए हुए हैं। उनकी माँओं से पूछने पर उनका जवाब था कि ‘हमार घर के लोग खाए बिना मर जाएँ। पढ़ाई जरूरी ह।’ मनोज ने बताया कि ये लोग यही करते हैं यहां। पढ़ने नहीं भेजते लेकिन भीख मांगने के लिए भेज देते हैं।
इसके बाद हम मारकंडेय महादेव मंदिर पहुंचे जहां मनोज के गांव साथ ही आस- पास के गांव के कई बच्चे भीख मांगते नजर आए। हम उनसे बात तो करना चाह रहे थे लेकिन वे हमारी सुनने के मनोदशा में नहीं थे। उनकी इस जल्दबाजी की वजह जानने के बाद पता चला कि कहीं खाना बंट रहा है जिसको लेने के लिए सारे लोग उधर भाग रहे थे। फिर हम वहां से घर के लिए प्रस्थान किए।
आखिर कहाँ कमी है ?
पूरे गाँव में भ्रमण करने के दौरान मेरे जेहन यह सवाल कई बार आया कि कैसे मनोज इन बच्चों को पढ़ाते हैं और यह भी अन्दाजा लगा कि हर रोज़ इन बच्चों के पढ़ाने के पीछे वे कितनी मुश्किलों का सामना करते होंगे। हर रोज़ उन बच्चों के पीछे भागना, जिनके परिवार के लोग ही पढ़ाई- लिखाई के प्रति जागरूक ही नहीं हैं। वास्तव में यह अपने आप में बहुत ही मुश्किल का कार्य है।
बीते कुछ वर्षों में प्राथमिक शिक्षा में उपस्थिति को मिड डे मील से जोड़कर देखा जा रहा है। एक विचार यह है कि मिड डे मील ने जहां बच्चों में एक लालच पैदा किया है वहीं पढ़ाई की गुणवत्ता पर भी प्रभाव डाला है। लेकिन दूसरा विचार है कि स्कूल के बहाने अगर देश के कुछ लाख बच्चे दोपहर का भोजन पा रहे हैं तो बुरा क्या है? लेकिन सवाल यह है कि भारत के मध्यवर्ग के बच्चों के सामने मिड डे मील की बाध्यता क्यों नहीं है? क्योंकि उनके अभिभावकों के पास अच्छा रोजगार है जबकि मनोज जिन बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित हैं वहाँ सबसे बड़ा संकट आजीविका का ही है।
ऐसे में क्या यह सोचा जा सकता है कि ये अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य को लेकर कोई सपना देखें? शायद यह ज्यादती होगी। फिर भी मनोज जैसे जुनूनी व्यक्ति की कोशिश है कि वे इनके बीच शिक्षा की रौशनी लेकर जाएँ। उनके पास यहाँ-वहाँ से जुटाई गई कॉपी-पेंसिल तो है लेकिन मिड डे मील की कोई सुविधा नहीं है।
मनोज जिन वर्ग-समाजों के बीच काम कर रहे हैं वे एक तरह से अर्थव्यवस्था के बहिष्कृत समाज हैं जिनको सरकारों ने धोखे के सिवा कुछ नहीं दिया है और राजनीतिक पार्टियों ने उनको वोट बैंक भर समझा है। उनको लेकर कोई स्पेशल कॉम्पोनेंट प्लान नहीं है। लिहाजा इस युवा शिक्षक दंपत्ति को अपनी राजनीतिक समझदारी बढ़ाते हुये स्कूल चलाने के साथ ही राजनीतिक-सामाजिक भेदभाव और बहिष्करण के खिलाफ अपने विचारों को भी अभिव्यक्त करना चाहिए।
बच्चों को शिक्षित करने का कार्य मनोज ने अपने गांव से शुरुआत की लेकिन आज वो 3 से 4 गांव के बच्चों को उनके घर जा- जाकर पढ़ाते हैं। इनमें उगापुर गांव, जिसकी जनसंख्या 3000 हैं जिनमें 90 बच्चों को मनोज पढ़ाते हैं। आराजी चन्द्रावती गाँव, जहां यादव और नट को मिलाकर लगभग 1500 लोग रहते हैं, जिसमें नट बस्ती के 120 बच्चे ऐसे हैं जो मनोज के स्कूल छात्र हैं। धौरहरा मिश्रान की जनसंख्या लगभग 500 है और 35 बच्चे ऐसे है जो मनोज से पढ़ते हैं। श्रीकंठपुर में धौवैया बस्ती है। यहाँ 1500 लोग रहते हैं, जिनमें से 60 बच्चे ऐसे हैं जो मनोज के छात्र हैं। इन गाँवों के बच्चों की 70% आबादी को मनोज ने स्कूलों में दाखिला कराया है।
बहुजन परंपरा की एक कड़ी को आगे बढ़ाने में समाज को आगे आना चाहिए
आज कोई भी आदर्श संदेह की नज़र से इसलिए देखा जाता है कि हर व्यक्ति के दृष्टिकोण में मुनाफाखोर उपयोगितावाद एक बुनियादी घटक बन गया है। जबकि मनोज जैसे न जाने कितने जुनूनी देश के अलग-अलग हिस्सों में शिक्षा, रोजगार , स्वास्थ्य , पर्यावरण और सामाजिक बराबरी के मुद्दों पर काम कर रहे हैं। जाहिर है इस काम को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहूलियत होनी चाहिए।
मनोज ने भी लोगों से अनेक बार अपील की लेकिन अधिकतर लोगों ने अनसुनी कर दी। फिर भी वे अपने काम में लगे हुये हैं। बहुजन समाज का इतिहास बताता है कि उसके बीच आई हर जागृति के पीछे ऐसे ही लोगों की बुनियादी भूमिकाएँ होती हैं जिन्हें सहयोग कम मिलता है लेकिन जहां वे काम करते हैं वहाँ कोई न कोई उनको पागल लिख जाता है। लेकिन मैं समझती हूँ कि इस तरह की कोशिशों को समाज का समर्थन और सहयोग मिलना चाहिए।
धन्यवाद आभार में आपने हमारे जीवन के ऊपर इतना अच्छा लेख लिखा है इसका मैं सदा आभारी रहूंगा मनोज यादव समाजसेवी वाराणसी ऑल N.9451044285
बेहतरीन रिपोर्टिंग पूजा।
मैं भी सरकारी विद्यालय और उसके आसपास के गाँव और उनकी स्थिति को कई दिनों से देखने , लिखने, समझने की कोशिश कर रहा हूँ। किंतु अब तक व्यवस्थित नहीं हो पाया हूँ। आपने मनोज के गाँव पंडापुर की स्थिति को सामने रखकर पूरे गरीब निचले तपके की सामाजिक आर्थिक शैक्षिक स्थितियों को उकेर कर रख दिया।
इस लेख से मैं अत्यंत प्रभावित हूँ।
बहुत बधाई आपको.
धन्यवाद आभार सर जी मनोज यादव समाजसेवी वाराणसी ALL N.9451044285
Nice work Manoj Yadav social worker good ap aise hi lge rho hm aapke sath hai
मनोज और उनकी पत्नी अनिता अत्यंत गरीब और वंचित बच्चों को पढ़ाने /साक्षर बनाने की दिशा में बेहद कम संसाधनों/सहयोग से अत्यंत सराहनीय और अनुकरणीय प्रयास कर रहे हैं। इनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। इन्हें यथासंभव सहयोग और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ताकि उनकी मेहनत सही आकार ले सके और इनका मनोबल और हौसला बढ़े।
शुभकामनाओं के साथ,
– गुलाबचंद यादव