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चारा ‘घोटाले’ के घोटाले का एक पेंच (डायरी 16 फरवरी, 2022)

कल फिर चारा घोटाला से संबंधित पांचवे मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने अपना फैसला सुनाया। इसकी अपेक्षा पहले से की जा रही थी कि लालू प्रसाद एक बार फिर से दोषी करार दिए जाएंगे। और यही हुआ भी। उनके साथ 74 अन्य आरोपियों को अदालत ने दोषी माना। वहीं 25 आरोपियों कोर्ट ने […]

कल फिर चारा घोटाला से संबंधित पांचवे मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने अपना फैसला सुनाया। इसकी अपेक्षा पहले से की जा रही थी कि लालू प्रसाद एक बार फिर से दोषी करार दिए जाएंगे। और यही हुआ भी। उनके साथ 74 अन्य आरोपियों को अदालत ने दोषी माना। वहीं 25 आरोपियों कोर्ट ने निर्दोष माना। कल लालू प्रसाद समेत सभी आरोपियों को अदालत में सशरीर उपस्थित होने का आदेश दिया था। दोषी करार देने के बाद अदालत ने सजा की घोषणा आगामी 21 फरवरी को करने की बात कही। इसके बाद स्वास्थ्य कारणों से जमानत पर चल रहे लालू प्रसाद को पुलिस हिरासत में ले लिया गया तथा बाद में उन्हें बिरसा मुंडा जेल भेज दिया गया।

लालू प्रसाद को पहले ही चार मामलों में दोषी करार दिया जा चुका है और सजा के तौर पर उन्हें 14 साल की जेल व 60 लाख रुपए का दंड दिया जा चुका है। हालांकि लालू प्रसाद ने हार नहीं मानी है और उन्होंने सीबीआई कोर्ट के फैसलों को रांची हाई कोर्ट में चुनौती दी है। परंतु, हाई कोर्ट में उनकी अपील को तवज्जो नहीं दी जा रही है। लिहाजा हो यह रहा है कि उनके मामले लंबित हैं।

कल ही उनके बेटे तेजस्वी प्रसाद यादव का बयान आया जिसमें उन्होंने डोरंडा कोषागाार से गबन मामले में सीबीआई कोर्ट के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है।

[bs-quote quote=”अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या 105 के रूप में अमित खरे ने लालू के वकीलों द्वारा किए गए क्रॉस एक्जामिनेशन के दौरान इस तथ्य को स्वीकार किया कि 19 जनवरी, 1996 को सबसे पहले वित्त विभाग की ओर से उसे एक अलर्ट फैक्स के जरिए एक आदेश प्राप्त हुआ, जिसमें पशुपालन विभाग में अधिक निकासी की बात कही गयी थी। खरे की स्वीकारोक्ति इसलिए भी चौंकाती है क्योंकि चाईबासा के उपविकास आयुक्त होने के कारण जिले में होनेवाले सभी सरकारी खर्चों पर उसकी सहमति आवश्यक थी। नियमों के अनुसार, बिना उसके हस्ताक्षर के किसी प्रकार का सरकारी खर्च नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा एक सरकारी पदाधिकारी के रूप में यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह सभी प्रकार के खर्चों के बारे में सीएजी को सूचित करे।.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बहरहाल, उपरोक्त सूचनाएं वे सूचनाएं हैं, जिन्हें इतिहास याद रखेगा। लेकिन इसके पीछे की बातें  शायद ही इतिहास संरक्षित रखेगा। चारा घोटाला के संबंध में कुछ दस्तावेजों और रपटों की पड़ताल मैंने वर्ष 2012 में की थी। तब एक घोटाले के एक आरोपी नौकरशाह अरमुगम ने मुझे कुछ दस्तावेज उपलब्ध कराये थे। हालांकि जब पहली बार सीबीआई कोर्ट के भूमिहार न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने लालू प्रसाद को दोषी करार दिया था, तब अमित खरे नामक एक नौकरशाह, जिसे चारा घाेटाले का नायक कहा गया था, उसने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था– ‘अंत में ही सही, इंसाफ हुआ है।’ लेकिन वह कौन था, जिसने खरे को सबसे पहले पशुपालन विभाग के कार्यालयों में छापा मारने काे कहा था?

आज इसी सवाल की पड़ताल करते हैं। अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या 105 के रूप में अमित खरे ने लालू के वकीलों द्वारा किए गए क्रॉस एक्जामिनेशन के दौरान इस तथ्य को स्वीकार किया कि 19 जनवरी, 1996 को सबसे पहले वित्त विभाग की ओर से उसे एक अलर्ट फैक्स के जरिए एक आदेश प्राप्त हुआ, जिसमें पशुपालन विभाग में अधिक निकासी की बात कही गयी थी। खरे की स्वीकारोक्ति इसलिए भी चौंकाती है क्योंकि चाईबासा के उपविकास आयुक्त होने के कारण जिले में होनेवाले सभी सरकारी खर्चों पर उसकी सहमति आवश्यक थी। नियमों के अनुसार, बिना उसके हस्ताक्षर के किसी प्रकार का सरकारी खर्च नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा एक सरकारी पदाधिकारी के रूप में यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह सभी प्रकार के खर्चों के बारे में सीएजी को सूचित करे। इसमें पशुपालन विभाग के खर्चे भी शामिल थे। तो सवाल उठता है कि उसने फैक्स के जरिए आदेश मिलने से पहले पशुपालन विभाग में अवैध निकासी की जांच क्यों नहीं की? इसके बावजूद न तो सीबीआई और ना ही जज प्रवास कुमार सिंह ने उसे इसके लिए जिम्मेवार माना।

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सीबीआई कोर्ट ने भी अमित खरे को कन्फेस करने के लिए नहीं कहा। जबकि अदालत में यह बात खरे द्वारा लिखित रूप में रखी जा चुकी थी। 27 जनवरी, 1996 को बिहार के वित्त आयुक्त को लिखते हुए उसने लिखा– ‘मुझे सूचित करना है कि वित्त विभाग के अतिरिक्त वित्त आयुक्त के द्वारा 19 जनवरी, 1996 को प्राप्त हुए फैक्स संदेश (3/ए/एएफसी दिनांक 19 जनवरी, 1996) में पशुपालन व मत्स्य विभाग के द्वारा नवंबर से दिसंबर, 1995 के दौरान किए गए निकासी का विवरण देने की बात कही गई थी। इस पत्र में यह भी कहा गया कि केवल दो महीने के अंदर बीस करोड़ रुपए की निकासी की गई है, जो पूरे वर्ष के लिए आवंटित निकासी से भी बहुत ज्यादा है।’

[bs-quote quote=”खरे ने आगे लिखा कि ‘चाईबासा जिले के पशुपालन पदाधिकारी द्वारा की गयी अधिक निकासी की जांच के दौरान यह बात सामने आयी कि जानबूझकर प्राप्ति रसीदों पर रकम दस लाख रुपए से कम रखी गई है ताकि ऐसे सभी बिलों को एक ही दिन में स्वीकृत किया जा सके। अधिकांश खरीद फर्जी थे, क्योंकि किसी भी रसीद में ट्रक नंबर आदि का जिक्र नहीं था।'” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खरे ने आगे लिखा– ‘पशुपालन विभाग द्वारा अतिसाधारण व बहुत अधिक निकासी किए जाने के आलोक में मेरे द्वारा 27 जनवरी, 1996 को शुरू की गयी थी, जिसमें दिनांक 1 अप्रैल, 1995 से लेकर 31 दिसंबर, 1995 के बीच 59 करोड 23 लाख रुपए की निकासी हुई। दिसंबर, 1995 के विभिन्न प्राप्ति रसीदों की जांच के दौरान बात सामने आई है। लगता है कि जिन सप्लायरों/कंपनियों से खरीदा गया है, वे सेल्स टैक्स के तहत पंजीकृत नहीं हैं, जो कि किसी भी सरकारी विभाग में निजी संस्थानों की गयी खरीद के लिए अनिवार्य है।’

ऐसा लगभग सभी मामलों में हुआ। खरे ने आगे लिखा कि ‘चाईबासा जिले के पशुपालन पदाधिकारी द्वारा की गयी अधिक निकासी की जांच के दौरान यह बात सामने आयी कि जानबूझकर प्राप्ति रसीदों पर रकम दस लाख रुपए से कम रखी गई है ताकि ऐसे सभी बिलों को एक ही दिन में स्वीकृत किया जा सके। अधिकांश खरीद फर्जी थे, क्योंकि किसी भी रसीद में ट्रक नंबर आदि का जिक्र नहीं था।’

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प्रथम जांच अधिकारी होने के नाते अमित खरे को सबसे पहले कार्रवाई करनी चाहिए थी। लेकिन उसकी नींद तो तब खुली जब राज्य मुख्यालय ने उसे अलर्ट किया। बेशक खरे ने अदालत में यह स्वीकार किया उसने चाईबास केस में एफआईआर कराया, लेकिन यह तब हुआ जब राज्य मुख्यालय में बैठे उसके सीनियर अधिकारियों ने उसे ऐसा करने के लिए दिनांक 31 जनवरी, 1996 को कहा गया। बाद में यह बात सामने आयी कि यह निर्देश मुख्यमंत्री के आदेश के आलोक में दिया गया था। लेकिन खरे ने इस स्पष्ट निर्देश के बावजूद 20 फरवरी, 1996 को एफआईआर दर्ज कराया। वह भी तब जब इस बारे में उसे दुबारा स्मरण पत्र भेजा गया। इस प्रकार बीस दिनों तक वह क्यों और किसके इशारे पर रूका रहा, यह अनुत्तरित है।

खैर, अमित खरे को उसके कारनामों के लिए सम्मानित किया गया। वह दो साल पहले ही केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय में सचिव पद से सेवानिवृत्त हो गया था। परंतु उसे दो सालों का सेवा विस्तार देते हुए प्रधानमंत्री ने अपना विशेष सलाहकार बनाया।

बहरहाल, लालू प्रसाद दोषी हैं अथवा निर्दोष, इसके बारे में फैसला अदालतें करें। लेकिन यदि राजनीतिक और सामाजिक हालातों की बात करें तो यह बात तो साफ है कि लालू प्रसाद जहां एक ओर राजनीति में मिसाल स्थापित करने में कामयाब रहे तो अपने राजनीतिक कैरिअर को बचाने में असफल रहे हैं। उनकी यह असफलता दलित और पिछड़े वर्ग के उनलोगों के लिए एक संदेश है कि ऊंची जाति के जबड़े से सत्ता को खींचकर बाहर निकालना ही बहादुरी नहीं है, बल्कि उसपर पूर्ण नियंत्रण के लिए भी सतर्क  रहना चाहिए।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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