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तमाम दावों के बीच स्त्रियों के सामने बढ़ती हुई चुनौतियाँ

भारतीय संस्कृति में स्त्रियों के गौरव के लिए कहा गया है, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता रमते हैं। जहाँ उनकी पूजा नहीं होती, वहाँ सब काम निष्फल होते हैं। भारत के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ […]

भारतीय संस्कृति में स्त्रियों के गौरव के लिए कहा गया है, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता रमते हैं। जहाँ उनकी पूजा नहीं होती, वहाँ सब काम निष्फल होते हैं। भारत के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ इस तरह से स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया हो। परंतु जब वास्तविकता के धरातल पर इसकी पड़ताल करते हैं तो दूसरी ही तस्वीर सामने आती है। विडंबना यह है कि समाज में स्त्री के प्रति व्यवहार में कथनी और करनी दोनों स्तरों पर गहरा विभेद है। देश के अधिकतर हिस्सों में यह बात दिखाई देती है। आजादी के छः दशकों बाद भी संविधान द्वारा प्रदत्त तमाम अधिकारों के बावजूद स्त्री को समाज में अपना हक पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। घर और परिवार में उसके प्रति रवैये में लैंगिक समानता नहीं दिखाई देती। आज भी लिंग आधारित भेदभाव और नारियों के प्रति हिंसा व अत्याचार की घटनाएँ खत्म नहीं हुई हैं। गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक उसे विभिन्न पड़ावों पर लैंगिक भेदभाव और सामाजिक कुरीतियों का सामना करना पड़ता है।

भ्रूण हत्या का एक प्रतीक चित्र

समाज प्रगतिशीलता का कितना भी दम भर ले, पर नारी को कमतर मानने की मानसिकता से अभी भी नहीं उभर पाया है। नवरात्र के दिनों में अपने आसपास नौ कन्याओं को ढूँढकर उनकी पूजा करने वाला समाज गर्भ में कन्या की आहट की खबर सुनकर ही उसकी जीवन लीला वहीं खत्म कर देने से गुरेज नहीं करता। आँंकडे़ गवाह हैं कि 1980 के दशक में कन्या भ्रूण का चुनिंदा गर्भपात 0.20 लाख था, जो 1990 के दशक में बढ़कर 12 लाख से 40 लाख तथा 2000 के दशक में 31 लाख से 60 लाख तक हो गया। प्रतिष्ठित लैंसेट पत्रिका में प्रकाशित होने वाले एक अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार 1980 से 2010 के बीच इस तरह के गर्भपातों की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच है।

[bs-quote quote=”नारी शिक्षा और स्वास्थ्य आज भी तमाम परिवारों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है, तभी तो देश की 52 प्रतिशत बेटियाँ प्राथमिक स्तर पर ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं और 64 फीसदी माध्यमिक कक्षाओं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पातीं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में महिला साक्षरता मात्र 65.46 है और इनमें भी मात्र तेईस प्रतिशत को रोजगार मिल पाया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

नारी का संघर्ष गर्भ से आरम्भ होता है और बाहर आने के बाद भी उसे अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई निरंतर जारी रखनी पड़ती है। लालन-पोषण से लेकर शिक्षा तक, घर की देहरी से लेकर खेल के मैदान तक, उस पर तमाम बंदिशें थोपी जाती हैं। बचपन से ही लड़के-लड़कियों में भेदभाव आरंभ हो जाता है। पहनावे से लेकर खिलौनों के चुनाव, शारीरिक हावभाव, सामाजिक व्यवहार इत्यादि के फर्क उनके अनुकूलन में बड़ा अंतर पैदा करते हैं। यहाँ तक कि स्कूली किताबों में भी नारी को घरेलू कार्य करते हुए तो पुरुष को ऑफिस के कार्य करते हुए दिखाया जाता है।

संस्कार के नाम पर सहनशीलता को अपनाना उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है। कभी उनके जल्दी विवाह की बात, कभी उन्हें जींस-टॉप से दूर रहने की सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने की हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाइल या फेसबुक से दूर रहने की सलाह। ऐसी एक नहीं हजार बिन मांँगी सलाहें हैं, जो समाज के लोग रोज सुनाते हैं। उन्हें दोष नारियों की जीवनशैली में दिखता है, वे यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में है।

नारी शिक्षा और स्वास्थ्य आज भी तमाम परिवारों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है, तभी तो देश की 52 प्रतिशत बेटियाँ प्राथमिक स्तर पर ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं और 64 फीसदी माध्यमिक कक्षाओं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पातीं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में महिला साक्षरता मात्र 65.46 है और इनमें भी मात्र तेईस प्रतिशत को रोजगार मिल पाया है। बेटियों से छुटकारा पाने के लिए देश में तैंतालीस फीसद लड़कियाँ विवाह के लिए निर्धारित अट्ठारह वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही ब्याह दी जाती हैं और इनमें से बाईस फीसदी तो इस अपरिपक्व उम्र में माँ भी बन जाती हैं।

दिन भर सबका ख्याल रखने वाली स्त्री के स्वास्थ्य का शायद कोई भी ख्याल नहीं रखना चाहता। तभी तो हमारे देश में पंद्रह से उन्नीस साल की उम्र वाली सैंतालीस फीसदी लड़कियांँ औसत से कम वजन की हैं। आज भी 56 फीसदी लड़कियाँ एनीमिया यानी खून की कमी का शिकार हैं। प्रतिवर्ष छः हजार महिलाएं बच्चे को जन्म देने के साथ ही मौत के आगोश में चली जाती हैं। देश में हर साल टी.बी. (क्षय रोग) के कारण एक लाख से ज्यादा महिलाएं परिवार से अलग कर दी जाती हैं। सामाजिक तौर पर कई इलाकों में आज भी महिलाओं को डायन और चुड़ैल बता कर पत्थरों से मार डाला जाता है, जिंदा जलाकर सती के नाम पर महिमामंडित किया जाता है। आम बोलचाल की भाषा में बात-बात पर महिलाओं के अंगों की लानत-मलानत करना, लोगों के रोजमर्रा के व्यवहार का हिस्सा है। ऐसे में नारी सशक्तिकरण और नारी उत्थान की बातें छलावा ही लगती हैं।

लैंगिक विकास सूचकांक

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के अधिकारों से संबंधित सूचकांक भी भारत में लैंगिक असमानता के उच्च स्तर को दर्शाते हैं। मानव संसाधन विकास (एचडीआर) 2014 की रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक विकास सूचकांक में भारत का स्थान 132वाँ था, वहीं श्रीलंका, चीन और बांग्लादेश जैसे देश क्रमशः 66वें, 88वें एवं 107वें स्थान पर थे। इसी प्रकार थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने 19 उभरते हुए देशों में एक सर्वेक्षण कराया। इसमें महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले 370 विशेषज्ञों की राय ली गई। सर्वेक्षण में कनाडा को महिलाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ देश बताया गया। वहाँ महिलाओं को समानता हासिल है। उन्हें हिंसा और शोषण से बचाने के पर्याप्त प्रबंध हैं। उनके स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल होती है। पहले पाँच पायदान पर क्रमशः कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस रहे। अमेरिका छठे नंबर पर रहा। सऊदी अरब 18वें और भारत 19वें यानि अंतिम पायदान पर था। सर्वे के मुताबिक, भारत में महिलाओं का दर्जा दौलत और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है। भारत के 19 देशों की सूची में सबसे अंतिम पायदान पर रहने के लिए कम उम्र में विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और कन्या भ्रूण हत्या जैसे कारणों को गिनाया गया।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक बड़ी चुनौती है। आज भी किसी अपराध में सबसे आसान मोहरा महिलाएं ही होती हैं- उनके साथ दुर्व्यवहार, दुष्कर्म व छेड़छाड़ आम बात है। कामवासना और प्रतिशोध के भूखे पुरुष ने कभी महिला को निर्वस्त्र कर सड़क पर दौड़ाया, कभी उसे बलात्कार का शिकार बनाया, अपनी हवस मिटायी और शारीरिक, मानसिक पीड़ा में तड़पने के लिए छोड़ दिया। जब महिला ने न माना तो उसकी खूबसूरती पर तेजाब का दाग लगा दिया। भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या और न जाने कितनी हत्याओं के उदाहरण समाज में रोज सुनने-देखने को मिलते हैं। आँकड़े बताते हैं कि पेशेवर अपराधियों से भी ज्यादा पारिवारिक सदस्य, गली-मुहल्ले, दफ्तर में कुंठित युवक व अधेड़, स्त्री संबंधी अपराधों के सूत्रधार हैं। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि स्त्री जाति कहांँ सुरक्षित है? न मांँ के गर्भ में, न घर में, न मित्र परिवारों के बीच। महिलाओं के प्रति समाज कितना हिंसक होता जा रहा है, इसकी झलक राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा हर वर्ष जारी रिपोर्ट में भी देखी जा सकती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2006 से 2010 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराध 29.6 प्रतिशत बढ़ा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2005-06 के अनुसार 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की एक तिहाई महिलाओं ने शारीरिक प्रताड़ना का अनुभव किया है और तकरीबन दस में से एक महिला यौन हिंसा का शिकार हुई है। ये आँंकड़े मुंँह चिढ़ाते हैं और गंभीर आत्मचिंतन का आह्वान करते हैं।

उपरोक्त स्थितियाँ नारी को जहाँ हर पल संघर्ष करने के लिए मजबूर करती हैं, वहीं इन संघर्षों के बीच ही वह मजबूत भी होकर उभरती है। देश में अनेक उल्लेखनीय महिलाएं हुई हैं जिन्होंने अपने बहुमूल्य योगदान से हमारे समाज और राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी है। शिक्षा और आधुनिक जीवन शैली के चलते नारी अब पहले से काफी जागरूक और मुखर हो रही है। वहीं समाज के एक वर्ग को भी अब महसूस होता है कि नारियों के बिना समाज अधूरा है एवं नारी सशक्तिकरण समाज की प्रगतिशीलता का द्योतक है। जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में लिंगानुपात 940 है अर्थात 1000 पुरुषों पर मात्र 940 महिलाएं। इसी प्रकार छः साल तक की आबादी में इस समय 1000 लड़कों के मुकाबले सिर्फ 914 लड़कियाँ ही हैं, जो कि 2001 में 927 थीं। स्त्री के बिना तो सृष्टि का प्रवाह ही रुक जायेगा। ऐसे में लिंगानुपात में बढ़ते फासले का असर देश के कुछ इलाके में दिख भी रहा है, जहाँ लड़कों की शादियाँ तक नहीं हो पा रही हैं और उनके लिए अपने वंश का नामोनिशान तक बचाकर रखना कठिन हो गया है। यह उसी पितृसत्तात्मक मानसिकता का हश्र है, जिस पर लोग गर्व करते रहे हैं।

बेटी बचाओ का एक दयनीय प्रचार

हरियाणा जैसा राज्य अपने घटते लिंगानुपात और बेटियों की निरंतर घटती संख्या के लिए जाना जाता है। तभी तो प्रधानमंत्री मोदी ने यहीं से बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की तो यहीं के बीबीपुर गाँव के सरपंच ने बेटी बचाओ-सेल्फी बनाओ अभियान की शुरुआत की, जिसे बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने देश भर में अपनाने की अपील की। सेल्फी के बाद बीबीपुर पंचायत ने डिजिटल इण्डिया विद् लाडो अभियान की शुरुआत की। दरअसल, बेटियों को बराबरी का हक देने के लिए पंचायत ने फैसला किया कि घर के बाहर नेमप्लेट पर पिता का नहीं, बेटी का नाम होगा। नाम ही नहीं, इन पर बेटियों की ई-मेल आईडी भी लिखी गई है ताकि वे टेक्नॉलॉजी के प्रति सजग हो सकें।

ऐसे उपायों से कितना बदलेगा स्त्री विरोधी पर्यावरण

कोई भी स्थिति एक लम्बे समय तक नहीं रहती। वक्त के साथ उनमें तमाम बदलाव आते हैं। यही बात नारी पर भी लागू होती है। जैसे नदी जिधर से निकलती है, अपना रास्ता खुद बना लेती है। वैसे ही नारियाँ जाग जाएंँ तो कोई विघ्न-बाधा उनकी राह में आड़े नहीं आ सकती। जरूरत है कि वे खुद की क्षमता को पहचानें और संघर्ष कर आगे बढ़ें। महिलाओं के प्रति परंपरागत भारतीय समाज की सोच बदलने की जरूरत है। अब उस सोच के खिलाफ लड़ाई खड़ी करने की जरूरत हैं, जहाँ लोग बेटियों को कमतर या उपेक्षा की नजर से देखते हैं। सी.बी.एस.ई. और अन्य बोर्डों द्वारा घोषित 10वीं व 12वीं के नतीजों में प्रायः हर साल लड़कियाँ ही बाजी मार रही हैं। यही नहीं डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट से लेकर आई.ए.एस. तक की परीक्षा में लड़कियों ने शीर्ष स्थान प्राप्त किए हैं। कई बार महिलाओं की उपलब्धियों को मीडिया और अन्य माध्यमों द्वारा यूँ प्रस्तुत किया जाता है, मानो अब वे उस मुकाम को हासिल कर चुकी हैं जहाँ उन्हें होना चाहिए। यह सच है कि महिलाएं तेजी से आत्मनिर्भर हो रही हैं और राजनीति से लेकर प्रशासन और कॉरपोरेट जगत तक तमाम बड़े पदों पर काबिज हैं, पर अभी भी उनकी संख्या बहुत कम है।

[bs-quote quote=”शिक्षा और आधुनिक जीवन शैली के चलते महिलाएं अब पहले की अपेक्षा ज्यादा जागरूक और मुखर हो रही हैं। अब वे सवाल-जवाब और प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। महिलाएं नुमाइश की चीज नहीं बल्कि घर-परिवार और जीवन के साथ-साथ राष्ट्र को सँंवारने वाली व्यक्तित्व हैं। आज वो जीवन के हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। यह कहना कि वे पराया धन होती हैं, उचित नहीं प्रतीत होता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

2015 के आँकड़ों के अनुसार, भारतीय संसद के दोनों सदनों में मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं हैं, आखिर तभी तो लोकसभा-विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की माँग की जा रही है। न्यायपालिका में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी अभी तक सुप्रीम कोर्ट में मात्र 6 महिला जज ही पहुँची हैं, जिनमें एम. फातिमा बीबी, सुजाता वी. मनोहर, रुमा पाॅल, ज्ञान सुधा मिश्र, रंजना प्रकाश देसाई और आर. बानूमथि। किसी महिला को सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनने का सौभाग्य तो अभी तक नहीं मिला है। इसी प्रकार भारत में सिविल सर्विसेज द्वारा हर साल चयनित आईएएस और अन्य सेवाओं की ही बात करें तो अंतिम चयन में महिलाओं की सफलता दर ज्यादा होती है, पर उनकी संख्या बेहद कम होती हैं। वर्ष 2010 से 2012 तक के आँकड़े देखें तो महिलाओं की सफलता दर 14.3, 14.6, और 15.2 प्रतिशत थी, जबकि पुरुषों की सफलता दर मात्र 6.9, 8.0, और 7.1 प्रतिशत थी। यह दर्शाता है कि बेटियों को यदि उचित परिवेश और परवरिश मिले तो उन्हें अपना रास्ता बनाने से कोई नहीं रोक सकता है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि बेटियाँ समाज की अमूल्य धरोहर हैं। इन्हें बचाकर-सहेजकर रखिये, नहीं तो सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

शिक्षा और आधुनिक जीवन शैली के चलते महिलाएं अब पहले की अपेक्षा ज्यादा जागरूक और मुखर हो रही हैं। अब वे सवाल-जवाब और प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। महिलाएं नुमाइश की चीज नहीं बल्कि घर-परिवार और जीवन के साथ-साथ राष्ट्र को सँंवारने वाली व्यक्तित्व हैं। आज वो जीवन के हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। यह कहना कि वे पराया धन होती हैं, उचित नहीं प्रतीत होता। आज के दौर में तो बेटे भी शादियों के बाद अपना अलग घर बसा लेते हैं। वंश पुत्रों से ही चलता है, ऐसी मान्यताओं का अब कोई आधार नहीं। लड़कियाँ अब माता-पिता की सम्पति में हकदार हो चुकी हैं, फिर माता-पिता का उन पर हक क्यों नहीं। आखिरकार बेटियाँ भी तो आगे बढ़कर माता-पिता का नाम रोशन कर रही हैं। पिता की मृत्यु के बात पुत्र को ही अग्नि देने का अधिकार है, जैसी मान्यताएं बदलनी चाहिए। इधर कई लड़कियों ने आगे बढ़कर इस मान्यता के विपरीत श्मशान तक जाकर सारे कार्य बखूबी किये हैं। बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के अलावा पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे कार्य भी बेटियाँ बखूबी कर रही हैं। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहाँ महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं।

जरुरत है इस विषय पर हम गंभीरता से सोचें कि क्या महिलाओं के बिना परिवार-समाज-देश का भविष्य है। उन्हें मात्र बातों में दुर्गा-लक्ष्मी नहीं बनाएं बल्कि वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा दें। बात-बात पर नारी की अस्मिता से खिलवाड़ समाज और राष्ट्र दोनों के लिए घातक है। वस्तुतः जब तक समाज इस चरित्र से ऊपर नहीं उठेगा, तब तक नारी की स्वतंत्रता अधूरी है। सही मायने में नारी स्वातंत्र्य की सार्थकता तभी पूरी होगी जब उन्हें शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आर्थिक रूप से संपूर्ण आजादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा, जहाँ कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जाएगी, जहाँ बलात्कार नहीं किया जाएगा, जहाँ दहेज के लोभ में नारी को सरेआम जिन्दा नहीं जलाया जाएगा, जहाँ उसे बेचा नहीं जाएगा। समाज के हर महत्वपूर्ण फैसलों में उनके नजरिए को समझा जाएगा और क्रियान्वित भी किया जायेगा। आखिर हम इस तथ्य की अवहेलना क्यों करते हैं कि आधी आबादी की महत्वपूर्ण समस्याओं को हल किए बिना कोई समाज विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकता। नारी के अस्तित्व पर ही सृष्टि का अस्तित्व टिका हुआ है। अकेले पुरुष से दुनिया को नहीं चलाया जा सकता। इक्कीसवीं सदी में, जबकि नारी के प्रति विभेद की दीवारें टूटनी चाहिए, शिक्षित समाज द्वारा इस प्रकार का विभेद स्वयं उसकी मानसिकता को कटघरे में खड़ा करता है। हम प्रायः भूल जाते हैं कि जिन बीजों के सहारे सृष्टि का विकास-क्रम अनुवर्त चलता रहता है, यदि उस बीज को प्रस्फुटित ही न होने दें तो सारी सृष्टि ही खतरे में पड़ जाएगी। यह समय है मंथन करने का, विचार करने का कि सृष्टि का अस्तित्व सह-अस्तित्व पर टिका है, न कि किसी एक के अस्तित्व पर।

आकांक्षा यादव एक कॉलेज में प्रवक्ता रही हैं। आधी आबादी के सरोकार  सहित उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। 

गाँव के लोग
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