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बद्री नारायण की बदमाशी (डायरी, 10 जुलाई, 2022) 

अंतिम क़िस्त  हम अन्याय देखने के भी आदी हो चुके हैं। हालांकि पहले भी लोग ऐसे ही थे। जातिगत भेदभाव तो बेहद सामान्य बात है और पह पहले भी ऐसा ही था। लेकिन इससे जुड़ा एक दूसरा पक्ष भी है। कुछ लोग मार्केट बनाते हैं। मैं अपनी बात कहूं तो बिहार में करीब पांच वर्षों […]

अंतिम क़िस्त 
हम अन्याय देखने के भी आदी हो चुके हैं। हालांकि पहले भी लोग ऐसे ही थे। जातिगत भेदभाव तो बेहद सामान्य बात है और पह पहले भी ऐसा ही था। लेकिन इससे जुड़ा एक दूसरा पक्ष भी है। कुछ लोग मार्केट बनाते हैं। मैं अपनी बात कहूं तो बिहार में करीब पांच वर्षों तक यायावर पत्रकार के रूप में मैं दर्जनों लोगों से मिला, जिन्होंने अपने लिए मार्केट बनाया। इनमें अधिकांश ऊंची जातियों के लोग थे। वे जब भी मुझसे मिलते, दलितों और पिछड़ों की बातें करते थे। प्रारंभ में तो मुझे भी लगता कि ऐसे लोग सचमुच अलहदा हैं, जिन्होंने अपनी जाति बंधन को खत्म कर दिया है। लेकिन यह तो सिर्फ और सिर्फ मार्केट बनाने का तरीका है।
मार्केट से कल की एक बात याद आ रही है। मैं दफ्तर से अपने एक साथी के साथ निकला। मेरे साथी अल्पसंख्यक समाज के हैं। नेहरू प्लेस मेट्रो के मुख्य द्वार पर पहुंचा तो मेरे साथी ने मुझे टोका और यह दिखाया कि कैसे एक आदमी हिंदू धर्म से संबंधित एक किताब बेच रहा है। शायद वह मुफ्त में भी दे रहा था और इसके बावजूद कोई उसे ले नहीं रहा था। मेरे साथी ने कहा कि यदि इस जगह पर कोई मुसलमान कुरान बेच रहा होता या फिर कोई ईसाई बाइबिल बेच रहा होता तो क्या होता? मेरे साथी ने अपने ही सवाल का जवाब भी दिया– उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो जाता या फिर यह मुमकिन था कि उसके साथ कोई हिंसक घटना घटित हो जाती।
मेरे मित्र की बात में दम था। अक्सर ऐसा होता ही है। थोड़ी ही देर बाद मेरे साथी ने दिल्ली के एक मॉल की घटना के बारे में जानकारी दी। उनके मुताबिक, एक व्यक्ति बाइबिल बांट रहा था तो लोगों ने उसके साथ कैसा दुर्व्यवहार किया और फिर पुलिस ने कैसे उसे हिरासत में ले लिया था। मेरे मित्र के शब्दों में उदासी थी और आक्रोश भी। हालांकि उनका आक्रोश केवल पत्रकार के अंदर होनेवाला आक्रोश ही था।

[bs-quote quote=”दरअसल, बद्री नारायण ने किताब के प्रारंभ में दलितों और पिछड़ों के कुछ नायकों का उल्लेख किया है। इनमें जोतीराव फुले भी शामिल हैं। बद्री नारायण अच्छे लेखक हैं तो उन्होंने अच्छे तरीके से जोतीराव फुले का परिचय दिया है। लेकिन एक जगह वे कहते हैं कि –1848 में लड़कियों के लिए स्कूल खोलनेवाले जोतीराव फुले पहले हिंदू थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

खैर, आज के भारत में यह बात मायने रखती है कि कौन क्या है? अभी बहुत अधिक दिन नहीं हुए जब मेरे एक साथी सुशील मानव को यहीं दिल्ली के एक इलाके में हिंदुओं ने घेर लिया था और उनसे उनकी धार्मिक पहचान के बारे में पूछा। उन्मादी हिंदू शरीर के एक अंग को देखकर यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि मेरे मित्र हिंदू हैं या नहीं।
सवाल यह है कि इस तरह की मानसिकता जन्म कैसे लेती है? इसमें बुद्धिजीवियों की कितनी भूमिका है? यही सब सोचते हुए कल बद्री नारायण की किताब कांशीराम : बहुजनों के नायक को पढ़ रहा था। इस किताब के पृष्ठ संख्या 21 पर एक बात लिखी गई है। यह बद्री नारायण की एक और बदमाशी है। एक ऐसी बदमाशी, जिसके जरिए हम यह समझने की कोशिश कर सकते हैं कि दलितों और पिछड़ों में किस तरह से हिंदुत्व का उन्माद भरा जा रहा है।
दरअसल, बद्री नारायण ने किताब के प्रारंभ में दलितों और पिछड़ों के कुछ नायकों का उल्लेख किया है। इनमें जोतीराव फुले भी शामिल हैं। बद्री नारायण अच्छे लेखक हैं तो उन्होंने अच्छे तरीके से जोतीराव फुले का परिचय दिया है। लेकिन एक जगह वे कहते हैं कि —1848 में लड़कियों के लिए स्कूल खोलनेवाले जोतीराव फुले पहले हिंदू थे।
यह वाक्य बद्री नारायण ने उस व्यक्ति के लिए लिखा है, जिसने हिंदुत्व को हमेशा खारिज किया। गुलामगिरी में तो जोतीराव फुले ने हिंदू धर्म के मिथकों को उलटकर रख दिया। वे हमेशा मानते थे कि हिंदू धर्म और उसके ग्रंथ भारतीय समाज को रसातल की ओर ले जा रहे हैं। विष्णु के सभी अवतारों की धज्जियां उड़ाते हुए जोतीराव फुले ने अपनी किताब में यह भी जानकारी दी कि कैसे इस तरह की गुलामगिरी से मुक्ति पाई जा सकती है।
लेकिन जोतीराव फुले हिंदू थे, यह बात बद्री नारायण ने बेवजह तो नहीं ही लिखी होगी। वे इतने भी बेवकूफ नहीं हैं या फिर उन्होंने गुलामगिरी का अध्ययन नहीं किया होगा। बाजदफा मुझे लगता है कि दलित-बहुजनों बुद्धिजीवियों की तुलना में ऊंची जातियों के बुद्धिजीवी अधिक पढ़ते हैं। अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध किताब के बारे में एक प्रसिद्ध दलित-बहुजन आलोचक ने फेसबुक पर टिप्पणी की कि वह किताब पहली बार उनके सामने आयी है। जबकि उनकी उम्र 75 साल से अधिक ही होगी। जाहिर तौर पर उनकी इस टिप्पणी का मतलब यही है कि उन्होंने आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय का अध्ययन नहीं किया। यदि किया होता तो वह यह टिप्पणी तो नहीं ही करते।

[bs-quote quote=”बद्री नारायण ने ‘हाथी’ चुनाव चिन्ह के बारे में जानकारी दी है। पूरी जानकारी ऐसे दी गयी है गोया कांशीराम कह रहे हों। जबकि यह बद्री नारायण का इंटेप्रेटेशन है। बहुजन समाज पार्टी के लिए ‘हाथी’ के पीछे उन्होंने तीन कारण बताए हैं। इनमें पहला कारण यह कि कांशीराम भारतीय समाज को 85 और 15 के अनुपात में बांटकर देखते थे। 85 फीसदी आबादी, जिसमें दलित, पिछड़े और आदिवासी सभी शामिल थे, को कांशीराम हाथी की तरह मानते थे तथा उसके सिर पर सवार महावत को द्विज। वह महावत जो कि एक लोहे के अंकुश को हाथी के सिर पर तबतक कोंचता रहता है, जबतक कि खून ना निकल जाय।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

खैर, बद्री नारायण बेहद सजग लेखक हैं और ऊंची जातियों के लोगों के अंदर जिस तरह का वर्चस्ववादी ज़हर भरा होता है, उनके अंदर भी है। यदि ऐसा नहीं होता तो निश्चित तौर पर वह जोतीराव फुले को 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोलनेवाले पहले हिंदू के बजाय भारतीय लिखते। लेकिन बद्री नारायण की साजिश तो यह है कि जोतीराव फुले को हिंदू साबित किया जाय।
यह एक ऊंचे दर्जे की बदमाशी है। बद्री नारायण ने यह किया है। एक तो उन्होंने जोतीराव फुले से जुड़ी तमाम जानकारियों को उद्धृत किया है, जिसके बारे में कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही उनके हिंदू होने की बात जोड़ दी। आम पाठक, जो कि बद्री नारायण की बदमाशी को नहीं समझ पाते होंगे, उन्हें यह विवरण बेहद सामान्य लगता होगा। वे तो यही मानते होंगे कि जोतीराव फुले हिंदू ही थे।
खैर, बद्री नारायण की किताब को आगे पढ़ते हुए मैं दो जगहों पर रूका। एक तो इसके पृष्ठ संख्या 105 पर। इस पृष्ठ पर बद्री नारायण ने ‘हाथी’ चुनाव चिन्ह के बारे में जानकारी दी है। पूरी जानकारी ऐसे दी गयी है गोया कांशीराम कह रहे हों। जबकि यह बद्री नारायण का इंटेप्रेटेशन है। बहुजन समाज पार्टी के लिए ‘हाथी’ के पीछे उन्होंने तीन कारण बताए हैं। इनमें पहला कारण यह कि कांशीराम भारतीय समाज को 85 और 15 के अनुपात में बांटकर देखते थे। 85 फीसदी आबादी, जिसमें दलित, पिछड़े और आदिवासी सभी शामिल थे, को कांशीराम हाथी की तरह मानते थे तथा उसके सिर पर सवार महावत को द्विज। वह महावत जो कि एक लोहे के अंकुश को हाथी के सिर पर तबतक कोंचता रहता है, जबतक कि खून ना निकल जाय।
मुझे लगता है कि कांशीराम ने ऐसा नहीं सोचा होगा। वह महावत का मतलब जानते थे कि महावत होता कौन है। वह तो एक श्रमिक मात्र होता है, जिसका काम हाथी की देख-रेख करना है। कांशीराम तो इस देश के बहुजनों को हाथी का मालिक बनाने की चाह रखते थे। वह अपने लोगों को महावत कैसे बनने दे सकते थे?
अपने इसी इंटेप्रेटेशन में बद्री नारायण यह भी बताते हैं कि देश के अनेक राज्यों हिमाचल प्रदेश, बिहार और पंजाब आदि में दलित एक देवी की पूजा करते हैं, जिसका वाहन हाथी होता है। यह जानकारी भी उन्होंने कांशीराम के नाम पर उद्धृत कर दी है। जबकि कांशीराम के व्यक्तित्व के निर्माण में जाति का विनाश की अहम भूमिका थी। यह बात स्वयं कांशीराम ने अनेक अवसरों पर कही। क्या बद्री नारायण को इसकी जानकारी नहीं थी? वैसे यह सवाल बेमानी है क्योंकि बद्री नारायण जानबूझकर बौद्धिक बदमाशी कर रहे हैं।
अब इसका चरम यह भी देखिए कि उन्होंने हाथी को बौद्ध धर्म के महामाया से जोड़ा है। यहां भी उन्होंने चमत्कार दिखाया है। उनके मुताबिक बुद्ध की मां महामाया को सपने में एक हाथी दिखायी देता है, जिसके सूंड़ में कमल का सफेद फूल है और वह फूल उनके गर्भााशय में सीधे प्रवेश कर जाता है। बद्री नारायण के विवरण के अनुसार यह बुद्ध के जन्म की कहानी है।
बहरहाल, मेरा मकसद बद्री नारायण की आलोचना करना नहीं है। मैं तो दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों के बारे में सोच रहा हूं, जिनमें से अधिकांश तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ते और कुछ पढ़ते भी हैं तो लिखने की हिम्मत नहीं जुटाते। मूल बात तो यही है कि जबतक आप पढ़ेंगे नहीं, आप न तो बदमाशियों को समझ सकते हैं और ना ही बदमाशियां कर सकते हैं। मेरे हिसाब से बौद्धिक बदमाशी कोई बुरी बात नहीं है। हर दलित-बहुजन बुद्धिजीवी को बद्री नारायण से अधिक बदमाश होना ही चाहिए।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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