Friday, March 29, 2024
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बाबू रामचरण लाल निषाद की संक्षिप्त जीवनी तथा उनके कार्य

15 सितम्बर:रामचरनलाल निषाद की जयंती पर विशेष  बाबू राम चरण निषाद का जन्म मोहल्ला ग्वाल टोली, खलासी लाइन, कानपुर में एक मजदूर बस्ती में 15 सितम्बर सन् 1888 ई. को हुआ था । इनका जन्म इनकी मौसी के घर हुआ था। वह परिवार भी इतना गरीब था कि उन्होंने कर्ज लेकर इनकी माता श्रीमती मूला […]

15 सितम्बर:रामचरनलाल निषाद की जयंती पर विशेष
 बाबू राम चरण निषाद का जन्म मोहल्ला ग्वाल टोली, खलासी लाइन, कानपुर में एक मजदूर बस्ती में 15 सितम्बर सन् 1888 ई. को हुआ था । इनका जन्म इनकी मौसी के घर हुआ था। वह परिवार भी इतना गरीब था कि उन्होंने कर्ज लेकर इनकी माता श्रीमती मूला देवी के लिए पथ्य तथा दवाई का इन्तजाम किया था। इनके पूर्वज बरौलिया-डालीगंज,लखनऊ के निवासी थे। इसलिए माता इनको लेकर अपने गाँव चली आयीं और राम चरण का बचपन गाँव में ही बीता था। वे बरवलिया में नदी किनारे एक झोपड़ी में रहने लगी। बालक की पढ़ाई में इनके पिता कोई सहायता करने लायक नहीं थे और न करते ही थे। 1895 ई० में जब बालक सात वर्ष का हुआ तब स्कूल में बिठा दिया गया। वे  दूसरे घरों में चक्की पीसकर बालक को पढ़ाने लगी । बालक होनहार था और उसने म्युनिसिपल बोर्ड की लालटेन के नीचे पढ़-पढ़ कर आठवाँ दर्जा पास कर लिया। 1902 ई० में धनाभाव के कारण रेलवे के आडिट कार्यालय में 12 रुपये मासिक पर नौकरी करने लगा।
एक दिन की बात है जब इनका अधिकारी इनसे कुछ पूछ-ताछ करने लगा, जिस पर बाबू रामचरण निषाद उनसे बहस करने लगे। अधिकारी नाराज होकर कहने लगा कि ‘नौकरी करना है तो करो, बहस करना है तो वकालत करो जाकर।’ इस बात से इनको बहुत चोट लगी और इन्होंने 1908 ई.में नौकरी छोड़ दी तथा बच्चों को घर पर पढ़ाने लगे और अपनी आगे की पढ़ाई जारी कर दिया। इन्होंने शार्ट हैन्ड व टाइप राइटिंग की परीक्षा प्राइवेट क्रिश्चियन कॉलेज,  लखनऊ से पास कर लिया और प्राइवेट हाई स्कूल परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। इनके नाना कन्हई मल्लाह ही जब-तब इनकी मदद करते थे। 1912 ई. में  रामचरण निषाद ने बीए की परीक्षा पास कर ली और एल. एल. बी. की शिक्षा लेने इलाहाबाद गये, जहाँ पढ़ाई के साथ बच्चों को पढ़ा कर कुछ खर्च माँ को भेजते थे तथा स्वयं एक समय खाकर गुजर करते थे। उन्होंने अन्त में एलएलबी परीक्षा 1914 ई. में पास कर ली ।
आप संस्कृत के भी अच्छे विद्वान हो गये थे और लखनऊ आकर वकालत करने लगे तथा शीघ्र ही अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर चीफ कोर्ट अवध के चोटी  के वकीलों में शामिल हो गये। इसी समय लखनऊ के बरौलिया, देव नगर, कुतुबपुर, गोवार का पुरवा तथा मार्टिन पुरवा आदि की सारी जमीन को सरकार ने नजूल करार देकर कार्यवाई शुरू कर दी। यहाँ अधिकतर दलित पिछड़े वर्ग के निवासी थे, जो स्वयं सरकार से मुकदमा नहीं लड़ सकते थे। हमारे एडवोकेट साहेब अपना पैसा लगाकर मुकदमा लड़े और जीत गये, जिससे उन्तालीस मोहल्लों की जमीन अधिकतर वहीं के निवासियों की हो गयी। इसके बाद इन्होंने मस्ता चमार को एक सेठ की हत्या के झूठे मुकदमे से बचाया और एक पैसा उससे नहीं लिया था। वे गरीबों के मुकदमें हमेशा बिना फीस के करते थे।
देश में इस समय आर्य समाज तथा स्वराज्य पार्टी का जोर था। इन दोनों संघटनों में हमारे चरित्र नायक ने बड़ी लगन से कार्य किया था। कांग्रेस के अमृत-सर के अधिवेशन में निषाद सभा की ओर से बाबू प्यारे लाल जी और महादेव लाल जी सदियापुर को भाग लेने 1920 में भेजा गया था। किसान सभा की स्थापना जब  मदन मोहन मालवीय जी ने किया था तब 1918 ई. में उन्होंने सारे दलितों को इसमें शामिल होने की अपील की थी। इन दोनों संगठनों में बाबू रामचरण निषाद ने जातिवाद का बोल वाला पाया । 1925 ई. में उनकी भेंट स्वामी बोधानन्द जी से हुई और वह इन संघटनों से अलग हो गये और वह इस निश्चित मत के हो गये कि सवर्ण हिन्दुओं द्वारा संचालित कोई भी दल शूद्रों का भला नहीं कर सकता; ‘दलितों को स्वयं ही गुलामी के विरुद्ध लड़ाई लड़नी पड़ेगी’
इन आदि हिन्दू नेताओं ने सवर्णों के सुधारक नेताओं से साफ कहा कि पहले 99 प्रतिशत अपने अनुयायियों को ठीक करें, जिनमें अब भी बड़ी जाति में पैदा होने का अहंकार मौजूद है। फिर इनके साथ दलित वर्ग कैसे सहयोग कर सकता हैं। आपकी खोज थी कि सदियों पहले किसान और जमींदार जाति के आधार पर बनाये गये थे और किसानी और दूसरों की सेवा का कार्य शूद्रों को दिया गया था। 1925 ई में आदि हिन्दू संगठन के जरिये इन्होंने समाज में सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति लाने की कोशिश की थी। आर्य समाज के बारे में इनका मत था कि ‘वर्ण व्यवस्था को बनाये रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं है’। दलितों में कार्य करने के लिये इन्होंने निषाद प्रिंटिंग प्रेस कायम किया तथा वहीं से आदि हिन्दू समाचार पत्रिका निकलती थी जिसके सम्पादक मंडल में सर्वश्री डा.आरएस जैसवारा, श्री एसडी चौरसिया, एडवोकेट तथा जीएस राजपाल थे। 1925 में ही आप आरएस जैसवार, शिवदयाल चौरसिया, रामप्रसाद अहीर, राजाराम कहार, जिस राजपाल आदि के साथ मिलकर बैकवर्ड फेडरेशन लीग का गठन के डिप्रेस्ड क्लास के न्याय की लड़ाई शुरू किए। आप शीघ्र ही विधान परिषद के सदस्य हो गये तथा कौंसिल के भीतर व बाहर दलित शोषितों के लिये लड़ते रहे। आदि हिन्दू के आप शीघ्र ही संयुक्त प्रान्त के अध्यक्ष चुन लिये गये और उसके सभापति की हैसियत से  सार गर्भित भाषण दिया —
     सँयुक्त प्रान्त आदि हिन्दू कान्फ्रेंस के सभापति बाबू राम चरण बी ए, एलएलबी, वकील हाई कोर्ट, मेम्बर लेजिसलेटिव कौंसिल का भाषण तारीख 2  फरवरी,1927।
       प्यारे दलित तथा अछूत भाई व बहिनों,एक ऋण जो आप लोगों ने मुझे हाल में ही छोटे लाट की कौंसिल में मेम्बर बनाकर दिया था वह अदा होना शुरू भी नहीं हुआ था कि दूसरा ऋण बिन मांगे आप लोगों ने मुझे अपना सभापति बनाकर दे दिया। यह भी न देखा कि मैं कहीं दिवाला न निकाल दूँ। मैं आपको इस विश्वासशीलता का धन्यवाद देता हूँ। यद्यपि मैं अपने को इन पदों के योग्य नहीं समझता हूँ तथापि जो कुछ सेवा मुझसे हो सकेगी बहैसियत कौंसिलर और इस कान्फ्रेन्स के सभापति के रूप में करूंगा ।
आदि हिन्दू कौन है?
 यद्यपि हमारा साहित्य नष्ट कर दिया गया था तब हम अपने विपक्षियों की ही पुस्तकों से आपको बतलाना चाहते हैं कि हम कौन हैं और किस तरह इस हालत में गिराये गये? ऋगवेद संहिता से पता चलता है कि उस समय दो कौमें जो आपस में एक दूसरे के मुखालिफ थी लड़ाई कर रही थीं- एक आर्य के नाम से बोली गई है और दूसरी दस्यु या दास या अनार्य के नाम से । आर्य का अर्थ भद्र पुरुष या उच्च जाति से है । अनार्य और दस्यु के चोर, बदमाश, डाकू इत्यादि है। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि ऐसी कौन कौम थी जो सारी की सारी चोर, डाकू, बदमाश हो। पूरी एक कौम शरीफ और पूरी दूसरी कौम बदमाश चोर, डाकू। यह एक अचम्भे की बात मालूम होगी। लेकिन यह अचम्भा आपका गायब हो जायेगा, जब यह मालूम हो जायगा कि अपने मुँह मियां मिट्ठू शरीफ बनने वाली कौम बाहर से इस सुवर्ण भूमि पर आयी है और यहाँ के रहने वाली कौम से लड़ाई शुरू की और यहाँ की रहने वाली कौम को अनार्य दस्यु का खिताब ऋगवेद में दिया है। ऋगवेद भगवान की वाणी कही जाती है लेकिन ये सब चालें राजनैतिक ही थीं। उनको चाहे जितना धार्मिक रंग क्यों न दिया जाये। यहाँ के निवासी बड़े ही बलवान थे, लेकिन सीधे-साधे छल कपट रहित थे। इनमें से जिन-जिन को परास्त कर लिया उन-उन को दास अथवा शूद्र बना दिया । शूद्र वैदिक समय पर जाति वर्ण का नाम न था जैसा अब समझा जाता है, बल्कि कुल सार्थक शब्द था यानी शूद्र के माने गुलाम के थे। वह गुलामी कैसी थी ? वह यूरोप की गुलामी की तरह या कोई खास तरीके की ?

स्वामी अछूतानन्द

आर्य कानून
एतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि एक पुरुष शूद्र की नाई तेरे घर में पैदा होगा जो दूसरों का गुलाम होगा और जिसको अपनी मर्जी से चाहे निकाल दें, चाहे मार डाले । पंचविश ब्राह्मण में लिखा है कि शूद्र अगर अमीर ( खुशहाल ) भी हो तब भी वह सिवाय गुलाम के और कुछ नहीं हो सकता है। उनका काम केवल अपने बड़ों के पैर धोना है,तात्पर्य यह है कि वेदों के जमाने में शूद्र निरे गुलाम ही को कहते थे। वेदों में गुण कर्म स्वभाव शूद्र नहीं बताते हैं यह बिल्कुल धोखाबाजी है। एक कौम अपने को आर्य कहती हुई इस सुवर्ण भूमि को लूटने आयी और उनको गुलाम बनाकर आज तक उनको आजाद न किया हालांकि दुनिया से गुलामी उठ गयी। यह हालत तो उन आदि हिन्दुओं की हुई जो लड़ाई पसंद न थे। जिनकी हालत पर खुद उन्हीं आयों की औलाद जाहिरा आँसू बहाने का दावा इस समय कर रही है। ‘अछूतोद्धार’ दलितोद्धार का शोर मचा रही है, लेकिन यह सहानुभूति उन्हीं कारणों से पैदा हुई जिन कारणों से उनको गुलाम बनाया था। राजनीति से गुलाम बनाया और राजनीति के पलटाव से अब उद्धार की पुकार मचा रहे। क्या हम पूछ सकते हैं कि मनु जी का कानून परिवर्तन हो गया ?
      मनु जी तो कहते हैं कि –शूद्र चाहे खरीदा हुआ हो या गैर खरीदा हुआ हो, उससे दासता का ही कार्य लिया जायेगा, क्योंकि शूद्र को ब्रह्मा ने ब्रह्माणों की गुलामी के लिये बनाया है।शूद्र अगर आजाद कर दिया जाय तब भी वह गुलामी से नहीं छूट सकता, क्योंकि यह गुलामी उसमें स्वभाव से है, (पैदायशी) है। फिर इस गुलामी को कौन हटा सकता है। ब्राम्हण शूद्र के माल को बेखटके छीन सकता है। क्योंकि जो कुछ उसके पास है वह उसका मालिक नहीं है। उसकी जायदाद उसके मालिक(ब्राह्मण) छीन सकते हैं।
मनुजी ने सात प्रकार के शूद्र बनाना बताया है। उनमें से एक यह भी है कि जो लड़ाई में पकड़ा जावे। क्या उद्धार की पुकार करने वालों ने अपना धर्म छोड़ दिया था, या यह कोई राजनीति की चाल है। हम कैसे मानें कि अपने धर्म के विरुद्ध कहने वाले सच कहते हैं?  कारण यह है कि लॉर्ड मिन्टो साहेब से इंडिया को स्वराज्य देने के विषय में यह ख्याल जाहिर किया था कि गिरी हुई कौमों को अलग निर्वाचन का हक दिया जावे । सन् 1816 ई.में सुधार मिले और नई कौंसिल बनीं। हिन्दुस्तानियों को बड़े-बड़े ओहदे मिले और आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया । जिस कौम के आदमी  ज्यादा है उनको ज्यादा जगह मिलती है। बस फिर क्या था, होने लगी चारों दिशाओं में अछूतोद्धार कान्फ्रेंस और सभायें, अछूतों का उद्धार करो। क्या आप लोग फिर इस शतरंज की चाल में फंसेंगे, हरगिज नहीं। वह जमाना गया जब हमारा इन्सानी तकाज भी जुर्म समझा जाता था। अब ब्रिटिश सरवार का राज्य है, जिसकी न्यायशीलता से हम लोग भी किसी हद तक आजाद हैं। हम भी कहने का हक रखते हैं कि तुम्हारे पुरुषों ने हमारा मुल्क छीना, हमको गुलाम बनाया, हमारी सभ्यता मिटाई, आप हमारा दिल से भला कैसे चाह सकते हैं? भोले-भाले आदि हिन्दू भाइयों ख्याल रखो कि 22 करोड़ हिन्दुओं के नाम से जो सरकार से हुकूक मिलते हैं वह तुमको नहीं मिलते हैं। तुम्हारी संख्या 15 करोड़ है ( यानी 7 करोड़ अछूत कहे जाने वाले और 8 करोड़ सछूत कहे जाने वाले)। अछूतोद्धार की डींग हाँकने वालों को ख्याल पैदा हुआ है कि तुम अपनी असली हालत को सरकार की कृपा से थोड़ी बहुत विद्या पढ़ कर समझ गये हो, कि तुम इस देश के असली मालिक हो। उनको डर है कहीं ऐसा न हो कि अपने मुल्को स्वत्वो ( हुकूक) सिक्खों और मुसलमानों की तरह अलाहिदा ले लो और बड़े-बड़े ओहदे हासिल कर लो। यह दृश्य उनको कैसे अच्छा लग सकता है। अव्वल तो उनका हिस्सा तिहाई हुआ जाता है और दोयम जिनको उन्होंने पाँच हजार वर्ष से गुलामी से जीता था, आज वह गुलामी के पंजे से आजाद हुए जाते हैं।क्या यह नहीं सुना जाता है कि अरे कहार पढ़ जायेंगे तो चौका बर्तन कौन करेगा। चमार पढ़ जायेगा तो कौंसिल में जाने के लिये जूता कौन बनायेगा और मेहतर पढ़ जावेगा तो पाखाना कौन उठायेगा ? अहीर पढ़ लेगा तो उनकी रखवाली व दूध-दही की व्यवस्था कौन करेगा, काछी-कोयरी पढ़ लेगा तो उनको साग सब्जी कौन देगा? यह पुकार नित्य सुनी जाती है।
ऊपर कहा गया है जो आदि निवासी लोग आर्यों से नहीं लड़े अथवा परास्त हो गये वह शूद्र सछूत व अछूत बनाये गये।लेकिन उनका क्या हाल हुआ जो डटे रहे और गुलामी मंजूर नहीं की।
निषाद कौन है?
यह हिन्दुस्तान आर्यों के हमले से पहले जंगली आदमियों से भरा न था। यहाँ राजा महराजा मौजूद थे जिनके लोहे व संगमरमर के सैकड़ों की तादाद में किले थे। देखो रामचन्द्रजी ने गुहराज से विदा होते समय कहा है कि अपने किले अपने सेवक अथवा खजाना, अपनी फौज के इन्तजाम में खूब होशियर रहना क्योंकि राज्य बड़े परिश्रम से सुरक्षित रहता है, गुहराज निषाद कहलाये जिनका राज्य शृंगवेरपुर यानी प्रयाग से अयोध्या नगरी तक था । यह थे तो गुहराज राजा लेकिन कहलाते थे निषाद, जिसका अर्थ आर्यों की धर्म पुस्तकों में चांडाल बदमाश है । जब आर्यों ने देखा कि यह लोग शूद्र व गुलाम नहीं बनाये जा सकते हैं तो उन्होंने
उनको पंचम वर्णं कहा। दरअसल  निषाद निरर्थक शब्द न था बल्कि सार्थक, देखो रामायण में गुहराज महाराज के विषय में लिखा है-
लोक वेद सब भाँति नोचा।
 जासु छाँह छुइ लेय असोचा।

“उच्च ऋगवैदिक पुस्तकों से यह स्पष्ट है कि आदि हिन्दू इस भूमि के मालिक थे,उनकी सभ्यता किसी से निम्न न थी और शूद्र शब्द जाति या वर्ग का नाम न था बल्कि एक दुश्मन ने दूसरे दुश्मन को अपशब्द दिये थे, हम सब उत्तम व उत्पादक हैं। आर्यों के आने के पहले हमारे देश में जाति व्यवस्था व वर्ग व्यवस्था न थी । तो क्या आपका प्रयत्न ऊँचे कहे जाने वाले वर्गों में जाने का अच्छा है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर केवल एक है- वह यह कि अगर दरअसल वर्ग व्यवस्था अच्छी वस्तु हैं तो आप ग्रहण कीजिए लेकिन वर्ण व्यवस्था उच्च जाति के हिन्दुओं को खुद रोग हो रही है।”

यह खिताब उन आदि हिन्दुओं को आर्य (भले मनुष्य) कहलाने वाली जाति ने दिया जो आदि हिन्दू परास्त नहीं हो सके परन्तु युद्ध में छक्के छुड़ा दिये, स्वभावता ऐसे आदि हिन्दुओं के प्रति शूद्रों की अपेक्षा अधिक घृणा आर्यों में पैदा हुयी। देखो महाराज एक लव्य राजा हिरणधनु निषाद के पुत्र थे । द्रोणाचार्य के पास जो आर्य जाति के थे, धनु विद्या सीखने गये लेकिन आचार्य ने कहा तुम निषाद हो, तुमको नहीं सिखायेंगे । बाद में जब वह अपने परिश्रम से खुद अर्जुन से बढ़कर धनुर्धारी हुआ तो उसका दाहिना अंगूठा चाल से कटवा लिया (धिक धिक)।निषाद वीरों में भी दो प्रकार के लोग थे- एक राजा महाराजा व दूसरे वे लोग जो बड़े अमीर तो न थे, लेकिन अपनी आजादी के लिये जान कुर्बान कर देने वाले थे। उन लोगों ने क्या किया कि जंगलो में, पहाड़ों में,कंदराओं में जा बसे लेकिन गुलाम बनना मंजूर नहीं किया वही हमारे भाई आज सांसिया, कंज्जड़, कोल,भील,नट, बंजारा,सिगलीगर, सपेरा,बाजीगर,कलंदर,कानबेलिया,नायक,द्राविड इत्यादि नामों से पुकारे जाते हैं । क्या हम पूछ सकते हैं कि मनु जी का कानून परिवर्तन हो गया ?
अगर किसी लायक भाई ने खड़े होने की हिम्मत’ की तो किसी न किसी चाल से उसको हरा दिया। जैसे भाई देवीदीन (चर्मकार) कानपुर में खड़े हुए और हराये गये क्योंकि आदि हिन्दू होने के मुजरिम थे। यही सिद्धान्त सारे देश में फैला है जिसके प्रतिकार के लिये आज हम सब इकट्ठा हुए हैं।
हैदराबाद के आदि हिन्दू भाइयों से हमारी सहानुभूति
दक्षिण हैदराबाद में आदि हिन्दुओं की संख्या दूसरे हिन्दुओं से अधिक है। लेकिन शोक से कहना पड़ता है कि निज़ाम ने बड़ी जाति के हिन्दुओं को तमाम ओहदे दिये हैं। शायद उनको यह हाल जाना हुआ नहीं है कि सवर्ण जाति के हिन्दू आदि हिन्दुओं से इतनी घृणा रखते हैं और उनके स्वत्वों को कुचलते हैं।अतः उनसे हमारी प्रार्थना है कि अपनी अछूत जाति की प्रजा की दशा पर ध्यान दें और उनको भी मुल्की हुकूक में उच्च जाति के हिन्दुओं के बराबर शरीक करें। जो कान्फ्रेन्स बम्बई में निजाम की रियाया के नाम से महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों ने की है उसमें अछूत रियाया शरीक नहीं है और न उनकी कार्रवाही में विश्वास है। अगर उनकी कार्रवायी पर अमल किया गया तो सबसे ज्यादा तादाद जो हमारी कौम की है, उसको बहुत हानि पहुँचेगी क्योंकि इस समय  सभी ओहदों पर उच्च जाति के हिन्दू डटे हैं और आगे यदि और भी ओहदे उनको मिले तो हमारी गरीब बेजवान कौम बिल्कुल पिस जायेगी। निजाम से आशा है कि जब तक हमारी जाति का उचित फैसला न कर दिया जाय तब तक कोई कानून में परिवर्तन न किया जावेगा ।

एडवोकेट शिव दयाल चौरसिया

 हमारी मुक्ति मुल्की हुकूक के बँटवारा में है। जब यह हालत आपके सामने है कि वेदों के समय से आज तक हमारे ऊपर जुल्मों की वर्षा द्विजातियों ने की है और कर रहे हैं तब क्या इनके मेल में हमको देश शासन में स्वत्व हुकूक मिल सकते हैं? कदापि नहीं-बस अब हिन्दू कानून के मुताबिक बटवारा ही मुनासिब है, हम नीच से नीच सेवा करते आये हैं, गुलामी भुगतते आये हैं, लेकिन हमारे बड़े कहलाने वालों का दिल न पसीजा। गवर्नमेण्ट से हम पुकार कर कह रहे हैं कि दो एक जगह जो आपने कौंसिल व लोकल बाडीज में अपनी तरफ से दे दी हैं उनका हम धन्यवाद देते हैं लेकिन इससे हमारी कौम को कोई लाभ नहीं हो सकता है जब तक हमारी कौम को खुद आबादी के हिसाब से अपने मेम्बर निर्वाचन करने का अधिकार न दिया जावे, तब तक हमारी कौम उन्नति नहीं कर सकती है। इस दावा के पूर्ति के लिये सरकार पर कुछ भार न पड़ेगा। हम तो चाहते हैं कि जो हुकूक हमारे नाम से लिये जाते हैं वही अलग कर दिया जाए। ये शरीकदार यह हकूक भी हम तक नहीं पहुँचने देते हैं।इसलिये अलग कर दीजिये फिर देखिये कि हम क्या स्वामि भक्ति दिखलाते हैं।अगर सरकार हमारी पुकार न सुनेगी तो दुनिया में उसको यह बदनामी सहनी पड़ेगी कि ब्रिटिश ने यद्यपि हिन्दुस्तान में स्वराज्य की नींव डाली है लेकिन वहाँ बड़ी जाति के हिन्दुओं की गुलामी कायम रख नेका इख्तियार बाकी रखा है और यह इख्तियार उन लोगों के खिलाफ दिया गया है जो हिन्दुस्तान के मूल हकदार और मालिक हैं।
जब तक अलाहिदा निर्वाचन का हक म्युनिसिपल बोर्ड, डिस्ट्रिक बोर्ड और कौंसिलों इत्यादि में तुमको न दिये जायें तब तक शपथ ले लो कि हम सब आदि हिन्दू वोटर पोलिंग स्टेशन पर वोट देने नहीं जावेंगे और उच्च जाति के हिन्दुओं से हर काम में असहयोग करेंगे।तब सरकार समझेगी कि तुम सचमुच अलग निर्वाचन चाहते हो । तब उच्च जाति के हिन्दू समझेंगे कि आदि हिन्दू हमारा कुछ बना बिगाड़ सकते हैं। सरकार से अभी हमें आशा है कि वह हमारी पुकार सुनेगी लेकिन अगर सरकार हमको सन् 1928 ई. में पुन: निर्वाचन का हक न देवे तो हम सरकार के विरुद्ध  सत्याग्रह करने के लिए तैयार रहे। आशा है कि सरकार ऐसी नौबत न आने देगी।
आदि हिन्दुओं से मेरी सलाह
उच्च ऋगवैदिक पुस्तकों से यह स्पष्ट है कि आदि हिन्दू इस भूमि के मालिक थे,उनकी सभ्यता किसी से निम्न न थी और शूद्र शब्द जाति या वर्ग का नाम न था बल्कि एक दुश्मन ने दूसरे दुश्मन को अपशब्द दिये थे, हम सब उत्तम व उत्पादक हैं। आर्यों के आने के पहले हमारे देश में जाति व्यवस्था व वर्ग व्यवस्था न थी। तो क्या आपका प्रयत्न ऊँचे कहे जाने वाले वर्गों में जाने का अच्छा है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर केवल एक है- वह यह कि अगर दरअसल वर्ग व्यवस्था अच्छी वस्तु हैं तो आप ग्रहण कीजिए लेकिन वर्ण व्यवस्था उच्च जाति के हिन्दुओं को खुद रोग हो रही है। देखो ब्राह्मणों में क्या हाल हैं रोज आठ ब्रह्मण नौ चूल्हे का दृश्य आप लोग खुद अपने घरों में ब्राह्मणों को खिलाने के समय देखा करते हैं। यही क्षत्रिय वैश्य कहलाने वालों का है। लेकिन क्या यह कोई तारीफ की बात है कि अपना धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म को ग्रहण करें। जैसे ईसाई, मुसलमान होना बुरा है उसी तरह द्विज बनना भी बुरा है। कृष्ण भगवान जो आदि हिन्दू जाति ही के थे,उन्होंने गीता में कहा है- स्वधर्मे निर्धन श्रेयः पर धर्मो भयावहः।
तुम शूद्र नहीं हो क्षत्रिय हो तुम सब आदि राज वंशीय हो, द्विज क्षत्रिय नहीं हो। कृष्ण का कहा हुआ वेदान्त धर्म समझो और जिस प्रकार गुण कर्म का आदर दूसरी कौमें करती हैं उसी तरह तुम भी करो और द्विज ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य बनने की कोशिश से बाज रहो।
आदि हिन्दू के लिए कार्य का एक उदाहरण कि आदि हिन्दू सभा कैसे कार्य करती थी
आदि हिन्दु सभा कानपुर का शानदार जल्सा मुल्की हक बंटवारे के लिये गंगाजली उठाकर चौधरियों ने सौगन्ध खायी।
ता० 27-2-1927 की शाम को पांच बजे काम शुरू हुआ । भजनों के बाद श्रीश्री 108 स्वामी अछूतानन्द जी ने प्रस्ताव पेश किया कि श्रीयुत बाबू रामचरण निषादजी वकील एम एल सी आदि हिन्दु भाई इस जलसे के सभापति हों। सर्व सम्मत से वकील साहेब आसन पर बिराजे। आदि हिन्दू सभा की जय ! स्वामी अछूतानन्द की जय!! बाबू राम चरण की जय के नारों से आकाश गुंजा दिया। बाद में सेक्रेट्री स्वागत कारिणी, बाबू सीएल जटिया (इटावा) ने बाबू राम चरण जी सभापति तथा स्वामी जी की शान में मनोहर उर्दू शायरी सुनायी। अंत में सभापति जी ने प्रतिभा शाली स्पीच में अछूत या दलितोउद्धार सभाओं को एक ढकोसला साबित करते हुए कहा कि ये तो द्विज उद्धार है यानी ब्राह्मणों, क्षत्रियों,वैश्यों को स्वराज्य मिल जाय पर आदि हिन्दुओं को बटवारा मुल्की हक न होने पावे। ये दलित, ये अछूत उद्धार आदि हिन्दुओं के लिए कोरी चाल मात्र है जो कि आदि हिन्दुओं को दासता में फँसाने की जबरदस्त साज़िश है। आपने साबित कर बताया कि आर्य लोग 5000 वर्षों से हमारे पीछे हाथ झाड़ कर पड़े हैं।वेदों में साफ-साफ जिक्र है कि हमारे यहाँ पर बड़े-बड़े राजे-महाराजे और उनके किले, नगर सैकड़ों मौजूद थे। यहाँ तक कि बाल्मीकी रामायण तक में भी महाराजा गुह की राजधानी प्रयाग से अयोध्या आदि दूर-दूर तक थी । यों ही हिरण्यधनु महाराज और उनके पुत्र एकलव्य का महाभारत में लेख है। वे बड़े राजधानी वाले थे, एकलव्य प्रसिद्ध धनुषधारी, तीरन्दाज था कि अर्जुन पांडव से भी बढ़कर लिखा है।अर्जुन को इसकी प्रशंसा सहन न हो सकी तो गुरू द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य के दाहिने हाथ का अंगूठा कटवा दिया ताकि तरकस न खींच सके। यूं ही और भी बहुत से आदिवंशीय राजाओं को धोखा फरेब से जीतकर आर्य जाति में मिलाया गया था। जो न जीते गये उन्हें दस्यु, असुर, राक्षस आदि नाम से पुकारा गया, जो पकड़े गये उन्हें शूद्र, अछूत आदि नाम देकर दासता में जकड़ा गया और ऐसे-ऐसे अत्याचारी कानून बनाये गये कि वेद मन्त्रों को यदि शूद्र सुन ले तो शीशा पिघलाकर कान में डाल दो ताकि वेदादि से इतिहास [आदिवंश गौरव ] न जान ले वरना पुराना बपौती बैर दावा होने को तैयार होंगे। अब सरकार गवर्नमेन्ट राज्य में विद्या पढ़ने का विशेष मौका मिला तो देखो स्वामी अछूतानन्द जी ने वेदों में से पढ़कर इतिहासी[ घटनायें बताकर] आन्दोलन उठाया, कि हम आदि हिन्दू वर्णं शंकर नहीं वरना हम असली मूल आदि हिन्दूवंशीय हैं।

स्वामी बोधानंद

इसी प्रकार आपने [सभापति जी ने] कहा कि आर्य द्विजाति सदा से हमारे साथ चालें चलते रहे कि अब भी सरकारी राज्य में भी बाज नहीं आते। द्विजों की शिक्षा के लिये रु.73,40,160 सरकार से ले रखा है, पर अछूतों के लिये सिर्फ 11,882 रु.इस छोटी सी पूँजी को भी खुद हड़प कर जाने की चिंता में रहते हैं,जैसे कि एक स्कूल में अछूतों का एक भी लड़का न था पर रजिस्टर में बहुत से नाम लिखे थे जबकि एक बुड्ढे आदि हिन्दू से पूछा गया तो उसने कहा कि जमींदार साहब ने लिखा दिये होंगे । यहाँ हमारा कोई भी लड़का पढ़ाया नहीं जाता। इसी प्रकार कई मिसालें देते हुए मुल्की हक बटवारा करने पर जोर दिया और दूसरों को वोट न दिये जाने की राय दी, जब तक बटवारा न हो जाय।
2. श्रीश्री 108 स्वामी अछूतानन्द जी ने सभापति के व्याख्यान के अनुसार वेद में से मन्त्र पढ़कर सुनाया जो कि सायणाचार्य संस्कृत तथा सनातनी काशी विश्वविद्यालय का हिन्दी वेद भाष्य भी था, साथ ही दयानन्दी आर्य वेद भाष्य के मन्त्र और उन्हीं के भाष्य से आदि हिन्दू राजाओं का होना और युद्ध में मारे जाना, सैकड़ों किले, नगरों और धन, दौलत आदि का छिन जाना तथा मिलाना और दास बना गुलामी के गड्ढे में डालना बताया, पांचजन्य अर्थात पंचम वर्ण निषाद आदि हिन्दू [ शुद्र अछूत ] हैं। ये वेद मन्त्र व भाष्य से बताया।
3- बाबू श्यामलाल धोबी प्रयाग बासी व लक्ष्मण प्रसाद जैसवाल कानपुर व कल्याण चन्द्र जटिया फतहगढ़ी-मन्त्री द्वारिका प्रसाद फर्रुखाबादी, बाबू हीरालाल जटिया म्यूनिसिपल मेम्बर कनवजिया, कवि वंशी दास, नत्थूदास, श्रीमान मक्खनलाल, भोला शंकर [ फर्रुखाबादी ] आदि के भजन तथा व्याख्यान हुए ।
जलसे में निम्न प्रस्ताव पास हुए
1 – आदि हिन्दू पंचों का मेला, चैतवदी पंचमी को गंगापुल पार मनाया जावे जैसा यू पी कान्फ्रेन्स प्रयाग में पास हो चुका है कि हर शहरों में मनाया जाय ।
2 – म्यूनिसिपल व डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अछूत मेम्बर बाबू ताराचन्द घसीटेलाल को चाहिए कि दिन व रात के स्कूलों के अतिरिक्त जबरियों शिक्षा काम में लाने का प्रयत्न करें ।
3- आदि हिन्दू समाधि स्थान [सन्तों की समाधियों के लिए] जिसकी बहुत दिनों से कोशिश की जा रही है, प्रार्थना है कि म्यूनिसिपल बोर्ड व इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट शीघ्र ध्यान देकर प्रबन्ध करेंगे ।
4 – हम सब आदि हिन्दू वोट किसी को न दें। अपना हक अलग बटवा लें, तब उन्नति होगी। चौधरियों ने गंगा जल का लोटा उठा-उठाकर सौगन्ध खायी ।
सर्वसम्मति से सभी प्रस्ताव पास हुये।
नोट: – बाद में पंडित विद्याधर ने कहा कि मैं आदि हिन्दू हूँ । आप खुद उठे हम खुश हैं परन्तु बटवारे का सवाल द्विजों का नाश कर देगा और फिर आपका भी नाश होगा । इस पर सभापति जी ने समालोचना करते हुये बताया कि सिक्खों ने बटवारा करा लिया तो क्या हानि हुई ? हां उनकी उन्नति तो जरूर होती है, फिर इन हमारे आदि भाइयों की उन्नति क्यों रोकते हो ? जनता ने भी पंडित जी के विरोध में आवाज उठायी थी।
काउंसिल में हमारे मेम्बर साहब दलित वर्ग के लिए बराबर लड़ते थे। इन्होंने दलितों के प्रति सरकारी नीति के खोखलेपन का भन्डाफोड़ करने के लिये कौंसिल में बहुत से सवाल किये थे । उनमें से उदाहरण के तौर पर एक प्रश्नावली आगे लिखी जाती है।
सर्व सम्मति से प्रस्ताव पास हुआ।
बिलसिया बलात्कार कांड
बिलसिया व उसके मामा को फिरोजाबाद जाना था।ट्रेन छूटने को थी। टिकट बाबू ने कहा- गाड़ी पर सवार हो लो और टूंडला में टिकट के दाम दे देना, दोनों सवार हो लिये । टूंडला में दो गोरे किरानी टिकट कलेक्टरों से पूरा हाल कहा और किराया देने पर आमादा हुये, टिकट कलेक्टरों ने कानपुर से टिकट माँगा । उन लोगों के पास इतना पैसा न था । दुष्ट टिकट कलेक्टरों ने कहा कि चलो तुमको पुलिस में ले चलें, इस बहाने से जंगल में एक डाक बंगले में ले गये और लड़के को कमरे में बन्द करके लड़की के साथ बलात्कार दुष्कर्म किया । जब वह लोग लड़की और उसके मामा को लेकर लौटे तो वह रोते जाते थे । राह में कुछ आदमी मिले।उन्होंने पूछा तो लड़की व लड़के ने अपना हाल चलते-चलते कह सुनाया। वह खबर पुलिस सार्जेन्ट के कान में पहुँची और पुलिस ने दोनों टिकट कलेक्टरों को अपराधी पाकर चालान कर दिया। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट साहब ने सेशन सुपुर्द कर दिया। सेशन जज ने यह कह कर कि मल्लाह जाति की स्त्रियाँ बदचलन होती हैं, लड़की रजामन्द रही होगी। उन दोनों गोरी चमड़ी वालों को छोड़ दिया।
 इस सनसनीखेज समाचार का जब हमारे राम चरण जी को पता लगा तो इन्होंने मल्लाहों “मरो या जंगल जाओ” (सताम् माने म्लाने मरणं अथवा अरण्य गमनं) का नारा दिया था।
फिर इन्होंने जिले- जिले का दौरा किया तथा आदि हिन्दू निषाद के ऐसे समय में क्या कर्तव्य है वह इन शब्दों में बताया था-
जिला- जिला, गांव-गांव, मुहल्ला – मुहल्ला में सभा कर के नाराजी जाहिर करें कि वह कलंक सर्वथा झूठा है कि मल्लाह जाति की सभी स्त्रियां या अधिकतर स्त्रियां बद चलन होती हैं । सेशन जज ने गोरे चमड़े का पक्षपात करके इस बहाने से मुल्जिमों को छोड़ा हैं और चंदा एकत्रित करें जिससे हाई कोर्ट इलाहाबाद में निगरानी की जावे और श्रीमान् वायसराय ( बड़े लाट) व गवर्नर (छोटे लाट) संयुक्त प्रांत की सेवा में – मेमोरंडम भेजा जावे। इस कांड से हमारे चरित्र नायक के हृदय में आग लग गई और उन्होंने एक अपील काले बनाम गोरे के शीर्षक से सारे राजनैतिक हिन्दू संगठनों के नाम भेजा कि वह भी इस काण्ड का विरोध करें। इस मुकदमे में सेशन जज का नाम ई.बेनेट आईसीएस था और मुल्जिमान के नाम एस. डब्लू डाल्टन तथा जे.ओ. रेवेली था। इस प्रकार अंग्रेजी की अदालत में अंग्रेज मुल्जिमान पर मुकदमा चला और जो ऐसी दशा में निर्णय होना चाहिए था वही हुआ। इस निन्दनीय फैसले की जगह-जगह पर विरोध होने लगा। 4 नवम्बर 1923 को आगरा की आदि हिन्दू सभा ने इसका कड़े शब्दों में विरोध किया और इससे आगरा के आदि हिन्दुओं और विशेष कर मल्लाहों में एक क्रोध की लहर दौड़ पड़ी और हलचल मच गई। हिन्दू महासभा ने भी इस काण्ड को सारे हिन्दुओं के लिये कलंक की संज्ञा दी थी ।अन्त में निषाद सदर सभा द्वारा बहुत कुछ लिखा पढ़ी के बाद सरकार की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर हुई।उसमें उपरोक्त ढूंडला के दोनों टिकट कलक्टरों को नौ-नौ मास की कैद और बीस बीस बेतों की सजा का हुक्म हुआ था। इसके बाद यह मसला दरपेश हुआ कि अंग्रेज मुल्जिमानों को बेंत कौन मारेगा क्योंकि अंग्रेज मुल्जिमान ने सरकार से अपील की थी कि सबको बेंत की सजा देने वाले जल्लादों से उन्हें बेंत न लगवाये जायें। इस पर अंग्रेज अफसरों ने भेदभाव किया और जुडिशियल सेक्रेटरी कर्नल सिडनी को उनके तार के उत्तर में यह जबाब दिया कि दो अंग्रेजों पर बेंत मारने के लिये उसी जाति के लोग काम में लाये जायँ जिस जाति के मुल्जिमान हैं।
बाबू रामचरण दास  और उनके सहयोगियों के प्रयास से यह निन्दनीय व घृणित आरोप रद्द हुआ।इस काण्ड से आगरा के आदि हिन्दुओं और मल्लाहों में इतनी बेचैनी फैली कि वकील साहब को जिलाधीश ने आगरा छोड़ने पर विवश किया था। नगर व जिला आगरा में दमनकारी निषेधात्मक आदेश जिलाधीश द्वारा जारी किये गये थे । जिले के अधिकारियों का ख्याल था कि हमारे चरित्रनायक की आगरा में उपस्थिति से जिले व नगर की शान्ति भंग हो जाने का खतरा है।रामचरण बराबर अन्याय के खिलाफ लड़ते रहे और जो कुछ निषाद भाई संयुक्त प्रान्त के कुछ जिलों में जरायम पेशा जाति में रक्खे गये थे उनको जरायम पेशा से निकालने के लिए आन्दोलन करते रहे और अन्त में जैसा पाठक स्वयं जानते हैं कि आज कोई भी एक कौम पूरी की पूरी जरायम पेशा जाति नहीं कहलाती।वे बराबर जिले – जिले प्रान्त प्रान्त जाकर आदि हिन्दू और 5 करोड़ निषादों को जगाने में लग गये। इसी सन्दर्भ में इन्होंने बहुत सी सभायें पूरे भारत में की।उनमें से एक जो डेहरी में सोनभद्र नदी के किनारे 6,7 व 8 मई सन 1936 को हुई थी, की संक्षिप्त रिपोर्ट शब्द ब शब्द नीचे दी जाती है-

छत्तीसगढ़ के बसोड़ जिनकी कला के आधे-अधूरे संरक्षण ने नई पीढ़ी की दिलचस्पी खत्म कर दी है

 इस अधिवेशन को सफल बनाने के लिये के निषाद भाई तीन महीने पूर्व से ही प्रयत्न कर रहे थे।पांच हजार नोटिसों के वितरण के अलावा कलकत्ता और बनारस की ओर प्रचार के लिये आदमी भेजे गये थे। पंजाब,यू पी, बिहार, बंगाल, आसाम, बर्मा, सी पी मद्रास और बम्बई सभी सूबों में महासभा की नोटिसें भेजी गयीं थीं और सभी सूबों के अखबारों में महासभा के अधिवेशन की सूचना प्रकाशित करा दी गयी थी।
 स्वागत समिति की एक बैठक में राय साहब बाबू राम चरण जी एडवोकेट एमएलसी महासभा के सभापति चुने गये। जिसकी सूचना समाचार पत्रों में प्रकाशित करा दी गयी।स्वागत समिति के चेयरमैन श्री युत बाबू महेश प्रसाद जी स्वयं बनारस और पटना गये और महामना पं. मदन मोहन मालवीय और पं. जगत नारायण लाल जी से सभा में पधारने की सिफारिश की गयी।सभापति का एक शानदार जुलूस निकालने की योजना की गयी।

सोनभद्र के दो धाराओं के बीच एक बड़े मैदान में विशाल पंडाल सजाया गया था। पंडाल की सजावट देखने योग्य थी। इसका विस्तार इतना बड़ा था कि जिसके नीचे तीस हजार आदमियों से ज्यादा बैठ सकते थे। पंडाल 256 बल्लियों से खड़ा था।इसी से उसके विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका ऊँचा फाटक ईटों की पक्की जुड़ाई करके बनाया गया था। जिसके ऊपर एक लम्बे बांस पर झंडा फहरा रहा था।मुख्य पंडाल के उत्तर में एक रमणीक हवन कुंड बनाया गया था जिसमें शुभकामना के लिये पांच ब्राह्मण और साधु महासभा के प्रारम्भ से अन्त तक हवन करते रहे। मुख्य पंडाल के दक्षिण भोजन भंडार का दूसरा पंडाल था। श्री सोनभद्र के दोनों धाराओं के मध्य में ऐसा विस्तृत और रमणीक मंडप देख कर सबका दिल गदगद और उत्साहित हो उठा था । इस महासभा में निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुये थे और जो श्री ब्रह्मचारी जी शालिग्राम ने प्रेषित किया था, जो प्रस्ताव एक राय से सभा में पास हुये थे वे निम्नलिखित हैं –

भारत में कौन है जिसकी कहानी जाति से अलग है ….

प्रस्ताव .1- अति प्राचीन काल से नाविक तथा जहाजी में राष्ट्र की सेवा करना ही हमारी जाति का धर्म रूप रहा है । इसलिये यह महासभा सरकार से जोरदार शब्दों में अपील करती है कि वह निषाद जाति को सरकारी जल सेना और अपने अधीन सभी कम्पनियों में उपयुक्त पदों पर नियुक्त करे। इस प्रकार सरकार हमारी जाति के व्यवसाय वृद्धि में सहायक बने और हमारे प्राचीन गौरव को फिर से स्थापित करने में सहायता प्रदान करे।
प्रस्ताव.2- महासभा सरकार से प्रार्थना करती है कि वह हमारी जाति को उच्च शिक्षा देने की उचित व्यवस्था करे।
प्रस्ताव.3– यह महासभा सरकार से अनुरोध करती है कि वह घाटों के बन्दोबस्त में हमारी जाति के साथ खास रियायत करें क्योंकि अनिश्चितकाल से यह हम लोगों का ही पेशा रहा है। आज यह हमारी जाति के हाथों से निकल गया और दूसरों के हाथों में चला गया है, हालांकि खेने आदि का काम हमें ही करना पड़ता है।
प्रस्ताव.4—यह महासभा सरकार से अनुरोध करती है कि वह मछली विभाग को शीघ्र ही निषाद जाति के हाथों में दे दे क्योंकि इस व्यवसाय को हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं।साथ ही सरकार से यह भी आग्रह करती है कि वह हमारे इस दावा को स्वीकार करने में देर न करें ।
प्रस्ताव.5 –यह महासभा मल्लाह भाइयों से अपील करती है कि वे नशीली वस्तुओं का पूर्ण रूप से बहिष्कार कर दें क्योंकि यह बहुत हानिकारक और हमारी जाति की मानसिक, आर्थिक, शारीरिक और समाजिक उन्नति के मार्ग में बाधक है और यह सभा विश्वास करती है कि मल्लाह भाई इस बुराई को दूर करने के लिये अखिल भारतीय आन्दोलन शीघ्र शुरू कर देगें।
प्रस्ताव.6- यह महासभा निश्चय करती है निषाद जाति के सब गोत्र, खान, पान तथा विवाह शादी द्वारा एक हो जायँ ताकि उत्तम संतान की वृद्धि और जाति की उन्नति हो ।
      इस प्रस्ताव के पास होने पर बड़ी देर तक “जै” की ध्वनि होती रही और सभी लोग अधिक प्रसन्न और उत्साहित दिखलाई पड़ने लगे।एक बजे रात तक सभा होती रही।लोगों में इतना उत्साह भरा था कि इतनी रात गुजर जाने पर जनता टस से मस नहीं हुई और सभी लोग प्रसन्नता पूर्वक बैठे रहे ।
तारीख 8 को प्रातःकाल ८ बजे से फिर महासभा प्रारम्भ हुई । आज कलकत्ता हुगली, टीटागढ़ पटना दरभंगा, बनारस, इलाहाबाद, सहसरसा, आजमगढ़ से आये भाइयों का व्याख्यान हुआ। सभी लोगों ने सब गोलों के एक हो जाने के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और महासभा को बधाई दी। दोपहर के बाद तीन बजे तक सभा होती रही और तत्पश्चात सब लोगों को एक साथ मिलकर भोजन करने के लिये सभा विसर्जन किया।
लौटनराम निषाद
लेखक मंडलवादी सामाजिक न्याय चिन्तक व वीपी सिंह से प्रभावित सोशल एक्टिविस्ट है।

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