उरई। स्वच्छकार समाज की लड़ाई लड़ने वाले भग्गू लाल वाल्मीकि का लखनऊ में इलाज के दौरान 21 जून को निधन हो गया। भग्गू लाल वाल्मीकि ने स्वच्छकार समाज को बेहतर बनाने के लिए लगातार संघर्ष किया। स्वच्छकार समाज का सम्मानजनक पुनर्वास हो, इसके लिए उन्होंने कई बड़े शहरों में जाकर संघर्ष और प्रदर्शन किया। भग्गू लाल वाल्मीकि समाज में अपने कर्त्तव्य को लेकर ईमानदार रहे।
समाज में पाखंड व छुआछूत जैसी व्यवस्थाओं को बदलने के लिए, शुरुआती दौर से ही इन मुद्दों के लिए लड़ाई लड़ी। उनकी पढ़ाई गांव से शुरू हुई और उसके बाद एरच में प्राइमरी शिक्षा प्राप्त की। उस समय उनके साथ छुआछूत नहीं होता था क्योंकि उनका एडमिशन शहर की एक सम्मानित महिला ने कराया था। स्कूल प्रशासन ने उनके साथ छुआछूत कम किया परंतु अन्य दलित बच्चों के साथ छुआछूत होता था। दलित बच्चों को बाहर बिठा दिया जाता था। उन दलित बच्चों को सिर्फ एक दिन कक्षा के अंदर जाने का मौका मिलता था जब सफाई करनी होती थी।
अपने जीवनानुभव बताते हुए कहा करते थे कि ‘मैं पढ़ाई-लिखाई में अच्छा था तो मुझे कम मार पड़ती थी, परंतु दलित बच्चों के साथ बड़ा अन्याय होता था। मेरी असली लड़ाई 1974 में शुरू हुई । मेरे बाबा चाय के शौकीन थे। चाय पीने के लिए वह बाजार जाया करते थे। उस समय घर से वह चाय का गिलास अपने साथ लेकर जाते थे। गिलास रखने पर उसमें चाय दी जाती थी। चूंकि, मैं पढ़ा-लिखा था तो एक बार अपने बाबा से मैंने इसकी वजह पूछी तो उन्होंने कहा कि- ‘बेटा, हम लोग अछूत हैं, इसलिए हम लोगों को दुकान वाला अपने गिलास में चाय नहीं देता।’ मैंने बाबा से कहा- ‘आप यहां क्यों चाय पीते हैं?’
इसी तरह एक दिन की बात है, जब बाबा ने मुझसे कहा कि बेटा दूध लेकर आओ। उन्होंने गिलास भी दिया। जब मैं दुकान वाले के पास गया तो वहाँ लगी कुर्सी पर बैठ गया। इस पर उस दुकान वाले ने मुझको बेइज्जत करके वहां से भगा दिया। दुकानवाले का यह व्यवहार मुझे काफी खराब लगा। मैं अपने साथियों के साथ वापस आया और दुकान पर धावा बोल दिया। उस समय वहां दो पुलिसकर्मी घूम रहे थे, उनमें से एक का नाम जहीरूद्दीन था। दुकानदार ने उसको बुलाकर हम लोगों की खूब पिटाई करवाई। उस समय मैंने गुस्से से कहा कि, ‘ठीक है मैं आज तो जा रहा हूं, कल फिर आऊंगा और पूरे बाजार को आग लगा दूंगा।’ यह बात पूरे बाजार में आग की तरह फैल गई। दूसरे दिन जिला प्रशासन ने वहां पुलिस-पीएसी भेज दी। मेरी खोजबीन भी शुरू हो गई क्योंकि मैं गरीब परिवार से था। उस समय भी दलितों के अंदर एक डर था। मेरे बाबा ने हमको अपने एक परिचित डॉक्टर के यहाँ यहां भेज दिया। डॉक्टर साहब को लोग खान साहब कहते थे। डॉक्टर साहब ने जब हमारी पूरी कहानी सुनी तो कहा कि ‘तुम क्यों डरते हो? मैं तुमको बड़े अधिकारियों के पास ले चलूंगा।’ वह हम लोगों को लेकर बड़े अधिकारियों के पास पहुंचे। मुझे नहीं पता था कि वे कौन-कौन से अधिकारी थे। उन्होंने बड़े प्यार से मुझको कुर्सी पर बिठाया और कहा कि ‘बताओ तुम्हारे साथ क्या हुआ?’ मैंने अपनी पूरी कहानी बताई तो उन्होंने कहा कि ‘देखो यहाँ कई पुलिस वाले खड़े हैं, इन लोगों में से किसने मारा है तुमको?’ वहां जहीरूद्दीन भी खड़े थे। मैंने उनकी तरफ इशारा कर कहा- सर इन्होंने ही हमको मारा है। अधिकारियों ने तत्काल निर्देश दिया कि इन पुलिसकर्मियों की वर्दी उतार ली जाए। इतना सुनते ही जहीरूद्दीन रोने लगे। उनके आंसू देखकर मैंने कहा कि ‘साहब! इनको माफ कर दीजिए।’ अधिकारियों ने उन पुलिसवालों से कहा- ‘देखिए, इनके अंदर कितनी मानवता है।’
[bs-quote quote=”सामाजिक संघर्ष के दौरान उन्होंने अपने परिवार की भी परवाह नहीं की। फतेहपुर में एक बैठक के दौरान जब उनकी पत्नी की मृत्यु का समाचार मिला तो उस समय हम लोगों ने पूरी कोशिश की कि उनको यह बात तत्काल न बताई जाए। इसके बाद हमने बैठक स्थगित कर दी और तब उन्हें बताया गया कि अम्मा खत्म हो गई हैं। यह बात जानने बाद उन्होंने हम लोगों को डांट दिया। कहने लगे कि बैठक तो पूरी करने देते।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह बात पूरे शहर में फैल गई। वहां के तत्कालीन राजा रणजीत सिंह जूदेव ने अपने यहां इस मुद्दे को लेकर बैठक बुलाई। उसमें मुझको भी बुलाया। मैं पहला वाल्मीकि था, जो उनके निवास ‘सतखंडे’ में गया। उन्होंने मेरा बड़ा सम्मान किया। उन्होंने हमारी बात सुनी और कहा कि तुमको क्या चाहिए? मैंने उनसे कहा- सर, ‘आपके यहां जो मंदिर है, उसके मैंने कभी दर्शन नहीं किये। मैं दर्शन करना चाहता हूं।’ राजा साहब ने कहा- ‘ठीक है, आप जाएं, दर्शन करें।’ परंतु वहां के पंडित ने मुझे दर्शन करने से मना कर दिया। राजा साहब को जब यह बात पता चली तो उन्होंने पंडित को बुलवाया। पंडित ने कहा कि ‘राजा साहब! आप तो बड़ा गलत कर रहे हैं, आप धर्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं।’ राजा साहब ने कहा- ‘यह बताओ तुम्हारी उम्र कितनी है।’ पंडित ने कहा- ’70 साल।’ राजा साहब ने कहा कि ‘आपने 10 साल ज्यादा नौकरी कर ली है, इसलिए आप घर जाएं।’ पंडित नाराज होकर वहां से चला गया। उसके बाद मैंने अपने पूरे परिवार को मंदिर का दर्शन कराया। दोबारा जब मैं राजा साहब के पास आया तो उन्होंने कहा – ‘और बताओ, तुमको क्या चाहिए?’ मैंने कहा- ‘साहब! पूरे शहर में जितने भी मंदिर हैं, मैं परिवार सहित उसमें दर्शन करना चाहता हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘ठीक है, आप दर्शन करें।’
यह भी पढ़ें –
उन दिनों हमारे समाज को मंदिर के अंदर घुसने नहीं दिया जाता था। बाहर से ही पूजा-पाठ कराया जाता था। यह कहीं ना कहीं हमारी लड़ाई का नतीजा था। मेरे इस आंदोलन की पूरे शहर में चर्चा हुई। अगल-बगल के जनपदों में भी इस आंदोलन की चर्चा होने लगी।
मैं करीब 15 साल तक सीआरपीएफ में रहा। वहां भी मेरे साथ जातीय भेदभाव किया गया। इतना ज्यादा भेदभाव किया गया कि मुझको सीआरपीएफ की नौकरी छोड़नी पड़ी। 1996 में मैं स्वच्छकार परिवार पर शोध करने लगा कि आखिर इस समाज के साथ ऐसा अन्याय क्यों होता है? इस कार्य के लिए मैंने जालौन जनपद को चुना, क्योंकि झांसी में उस समय छुआछूत कम होता था। जालौन ज्यादा छुआछूत से ग्रसित था। चार साल शोध करने के बाद 2000 में मैंने 50 गांव की पदयात्रा शुरू की और लोगों के बीच गया। उस समय गांव में मानव मल ढोने की कुप्रथा ज्यादा थी। मुझे लोगों से जानकारी मिली कि इसी काम की वजह से हमारे समाज के लोगों के साथ छुआछूत होता है। मैंने अपने लोगों से इस काम को छोड़ने के लिए कहा। जो सबसे पहला गांव था उसका नाम उमरी था, वहां पर लोगों ने इस काम को छोड़ा। जनपद जालौन में उस समय यानी 2005 में गरिमा अभियान चल रहा था। उस अभियान के अंतर्गत एक बड़ी बैठक हुई थी, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदाधिकारी आए थे। मेरे काम को देखते हुए उन्होंने मुझे दद्दा (सम्मानित शब्द) की उपाधि दी।
भग्गू लाल यानी दद्दा ने ठाना था कि ‘जब तक जमादार को जमीदार न बना दूं, मैं आंदोलन को कभी खत्म नहीं होने दूंगा।’ उन्होंने लगातार नागपुर, नई दिल्ली, नेपाल, उज्जैन, अहमदाबाद, देवरिया और बनारस समेत कई बड़े शहरों में जागरूकता फैलाने के लिए अनेक काम किए, बैठकें कीं और लोगों को प्रेरित किया।
यह भी पढ़ें –
भाजपा नेताओं की लापरवाही के कारण चंदौलीवासियों को नहीं मिल पाया ट्रॉमा सेंटर
उन्हें याद करते हुए डॉ. निर्मल ने बताया कि 2003 में उनकी मुलाकात भग्गू लाल वाल्मीकि से लखनऊ में एक बैठक के दौरान हुई थी। उसके बाद हम लोग लगातार एक-दूसरे के सम्पर्क में रहे। उन्होंने हाशिए पर रहने वाले स्वच्छकार समाज की लड़ाई लड़ने के साथ उरई जनपद में मानव मल साफ करने वाली महिलाओं को लेकर लगातार संघर्ष किया। भग्गू लाल से मुलाकात को अपनी उपलब्धि मानते हुए डॉ. निर्मल ने बताया कि वह उन परिवारों से मिलने गए, जो पिछले कई बरसों से तमाम सुख-सुविधाओं से वंचित थे। जिनकी दशा अत्यंत दुखदाई थी। उनके पास न पैसे थे और न ही किसी प्रकार की कोई सहायता। वह अपना और अपने परिवार का गुजारा नहीं कर सकते थे। इन परिवारों का पुनर्वास एक इत्तफाक है। मानव मल साफ करने वाली महिलाओं का सम्मानजनक पुनर्वास हो, इसके लिए उन्होंने सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन से जुड़कर 2014 में छुआछूत को लेकर बैठक की। 2013 में फतेहपुर में 14 दिवसीय मानववादी पदयात्रा निकाली। यात्रा के दौरान वे अपने गीतों के माध्यम से समाज का दर्द बयां करते थे। 2017 में उनको उत्तर प्रदेश निगरानी समिति का सदस्य मनोनीत किया गया। यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी, बावजूद वह अपना जीवन सादगी से जीते थे। वे समाज के पास जाकर सीधे उनसे रूबरू होते थे, उनसे बात करते थे। सामाजिक संघर्ष के दौरान उन्होंने अपने परिवार की भी परवाह नहीं की। फतेहपुर में एक बैठक के दौरान जब उनकी पत्नी की मृत्यु का समाचार मिला तो उस समय हम लोगों ने पूरी कोशिश की कि उनको यह बात तत्काल न बताई जाए। इसके बाद हमने बैठक स्थगित कर दी और तब उन्हें बताया गया कि अम्मा खत्म हो गई हैं। यह बात जानने के बाद उन्होंने हम लोगों को डांट दिया। कहने लगे कि बैठक तो पूरी करने देते।
वे समाज के लिए मर-मिटने के लिए हमेशा तैयार रहे। उन्होंने सामाजिक कर्त्तव्य निभाने के लिए पूरा जीवन लगा दिया। पिछले कई वर्षों तक उन्होंने हाशिए के समाज के लिए बराबर संघर्ष किया। वह बेबाक टिप्पणी के लिए भी मशहूर थे। उत्तर प्रदेश सरकार को भग्गू लाल ने करीब 600 महिलाओं की एक लिस्ट सौंपी थी। उनकी मेहनत और सफलता से उन महिलाओं के खाते में 40,000 रुपये आये, जिससे उनका सम्मानजनक पुनर्वास हो सका। डॉ. निर्मल ने कहा कि उनके जैसे ईमानदार शख्सियत को कोई अनदेखा नहीं कर सकता है। वह समाज को एक नई दिशा देंगे, इसलिए उनको राज्य निगरानी समिति का सदस्य बना दिया गया, बावजूद इसके उनके अंदर कोई घमंड नहीं था। उन्होंने गरीबी का दंश झेला। उन्होंने जमीन से उठकर काम किया था।
21 जून को उनके निधन के बाद उनके काम को याद करते हुए उनसे जुड़े हुए अनेक लोगों ने श्रद्धांजलि सभा में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को याद किया।
वित्त विकास निगम के अध्यक्ष राज्यमंत्री डॉ. निर्मल, अमरनाथ प्रजापति, रचना, बृजेश सुआडोर, बबलू खोटे, प्रमोद सिहोदिया श्रद्धांजलि सभा में शामिल हुए। श्रद्धांजलि सभा में डॉ. निर्मल ने कहा कि भग्गू लाल वाल्मीकि बहु-आयामी और शानदार व्यक्तित्व के धनी थे। वे समय के बड़े पाबंद थे, जिस काम को वह ठान लेते थे, उसको पूरा करके ही मानते थे।
डॉ. निर्मल ने भग्गूलाल वाल्मीकि को याद करते हुए कहा कि हमने एक ईमानदार कर्मठ नेता खो दिया जिसकी भरपाई होना मुश्किल है। यह सामाजिक आंदोलन की बड़ी क्षति भी है। श्रद्धांजलि सभा में उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों से सामाजिक कार्यकर्ता, नेता आदि लोग मौजूद रहे। उनके बड़े पुत्र अजय नाहर ने सभी लोगों के प्रति आभार प्रकट किया।
वित्त विकास निगम के अध्यक्ष राज्यमंत्री डॉ. निर्मल ने उरई में भग्गू लाल वाल्मीकि की मूर्ति लगवाने का वादा किया। साथ ही उन्होंने उनके परिवार को आर्थिक संबल देने की बात भी कही। एक और दुखद बात यह हुई कि भग्गू लाल की मृत्यु के चार दिन बाद उनके जवान बेटे की भी आकस्मिक मौत हो गई। अंबेडकर महासभा के पदाधिकारीयों ने भग्गू लाल की बहू को आर्थिक मदद दी। भग्गू लाल का नाम उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के तमाम राज्यों में बड़े सम्मान से लिया जाता है।
धीरज कुमार सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं।