भदोही। स्थान भदोही का गोपीगंज पाव बाज़ार। दोपहर डेढ़ बजे का समय है। राष्ट्रीय राजमार्ग-19 पर ओवरब्रिज के नीचे डिवाइडर पर खटिया डाले बुझे हुए चूल्हे के पास मियां-बीबी थाली में खाना लेकर बैठे हैं। एक ओर बिखरे हुए बर्तन और कुछ लकड़ियां पड़ी हैं। हमें देखती ही स्त्री अपनी थाली वापस रख देती है। जबकि पुरुष पहला निवाला हाथ में लिये हुए ही बतियाने लगता है। उनकी थाली में खिचड़ी और दो सूखा रूखा कोंचा (हाथ से पोई गई आटे की मोटी रोटी) दिख रहा था। व्यक्ति अपना नाम वर्मा बताता है। हम सवाल दोहराते हैं, वर्मा नाम है या जाति? उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा – वर्मा उसका नाम है। हम फिर पूछते हैं कि आप किस जाति के हो? झबरीली मूँछों वाले वर्मा यकायक सकपका जाते हैं। खैनी रँगे खोड़हड़ दांतों से एक सहमी आवाज़ बाहर आती है–’सफाई का काम करने वाले लोग हैं।’
एनएच-19 रोड, किनारे उनका एक छोटा मोटा घर होता था, जिसमें वे लोग सपरिवार रहते आ रहे थे। सड़क चौड़ी होने लगी तो उनका घर सड़क में चला गया। वे लोग अब एक झुग्गी बनाकर सड़क किनारे रहते हैं। जबकि दिन में ओवरब्रिज के नीचे रहते हैं, यहीं बनाते खाते हैं। वर्मा सफाईकर्मी का काम करते हैं। आधारकार्ड, मतदाता कार्ड, राशनकार्ड (लाल कार्ड) सब बना हुआ है। राशन भी मिलता है। घर, सड़क में जाने के बाद उनके चारों भाई भी इधर उधर हो गये। वर्मा के चार बेटे और दो बेटियां हैं। उनके दो बेटे 10 हजार मासिक वेतन पर सफाईकर्मी का काम करते हैं। वर्मा की जीवनसंगिनी सीता प्रतापगढ़ जिले के रानीगंज से हैं और वर्मा से विवाह करके यहाँ आयी हैं। वे भी घरों और कंपनियों में झाड़ू-पोंछा लगाने का काम करती हैं। प्रधानमंत्री आवास के बारे में पूछने पर सीता मौकापरस्त लोगों को कोसते हुए बताती हैं कि चापलूस लोग आते हैं कागज पत्तर लेते हैं, किराया भाड़ा और कागज़ी कार्रवाई का पैसा लेकर जाते हैं फिर वापिस नहीं आते। कुछ लोग वोट के समय हाथ जोड़ते हैं फिर नहीं आते।
इधर हम सीता से बात करने लगते हैं दूसरी ओर वर्मा काफी देर से हाथ में लिये पहला निवाला मुंह में डालकर खाने में लग जाते हैं। जबकि सीता अपने खाने की थाली एक दूसरी थाली से ढँककर सड़क किनारे बनी अपनी झोपड़पट्टी दिखाने चल देती हैं। सड़क से दो तीन फीट नीचे स्थित पहला डेरा सीता की बहन का है। घर क्या है थून पर टिका खुला मड़हा है। मड़हे में एक बड़ा सा बक्सा पड़ा है। कुछ प्लास्टिक के डिब्बे बिखरे हैं। ठीक मुहाड़े के पास ही मड़ही में टँगा बोरी का एक झोला लटक रहा है। मड़ही के अंदर बारिश का पानी भर जाने से गीलापन और धँसे पांवों का निशान बना हुआ है। मड़ही नहीं माड़व (विवाह का मंडप) कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। जब गांधी की विचारधारा खत्म होगी, तभी गोडसे की विचारधारा स्थापित होगी। सर्व सेवा संघ सिर्फ एक जमीन नहीं है। यह विचारों का प्रतीक है। अगर आज वे इस जमीन पर कब्जा कर लेंगे, तो भविष्य में वे किसी भी संस्थान पर कब्जा कर लेंगे। उन्होंने देखा कि यह हांडी में चावल का एक दाना है, जिसे वे दबाना चाहते हैं।
इससे लगी अगली झोपड़पट्टी में सीता का डेरा है। सीता का परिवार सड़क से तीन फीट नीचे खलार जगह में पॉलीथिन और टीन शेड डालकर रहता है। एक कमरे में तख्त पड़ा है और कोने में बहुत सारे प्लास्टिक के डब्बे में रसोई के सामान। एक कोने में एक फर्राटा पंखा पड़ा है जो झुग्गी के साधारणपने में अपने खास होने का एहसास कराता है। बाहर एक पन्नी झूल रही है, पर्दे की तरह। इन झुग्गियों में दरवाजे नहीं हैं, खिड़कियां नहीं हैं, रोशनदान नहीं हैं। सीता और वर्मा अपने दो बेटों की शादी कर चुके हैं। एक बेटा कुछ दूर पर रहता है। दूसरा यहां एक झुग्गी में रहता है। सीता की बहन और बिटियां तथा उनके बच्चे भी यहीं रहते हैं, एक दूसरी झुग्गी में। इन झुग्गियों में न पानी की व्यवस्था है न शौचालय की।
झुग्गी के बाहर एक ओर ईंट-मिट्टी का बना चूल्हा पड़ा है। पिछले दो दिनों की बारिश में चूल्हे की मिट्टी गलकर बह गयी है। उसकी उतरी हुयी रंगत देखकर लगता है कई दिनों से नहीं जला है। बाहर कुछ स्टील की जूठी प्लेट उधर-उधर बिखरी हैं। संभवतः बच्चों ने खाकर इधर-उधर छोड़ दिया है। हमारी आवाज़ सुनते ही एक झुग्गी से 9 बच्चे धड़धड़ाकर बाहर निकल आते हैं। इन बच्चों को देखकर लगता है कि ये कई दिनों से नहाये नहीं हैं। लड़कियों के झबड़ीले लट लसियाये हुए हैं। एक लड़के के मुंह में पान का बीड़ा है। संभवतः उसने अपनी मां या नानी का पान का बीड़ा खा लिया होगा। इन परिवार के बच्चों को दूध मय्यसर नहीं होता। पिछली बार दूध कब पिया था। पूछने पर बच्चे कहते हैं- पता (याद) नहीं। गांवों में थोड़ी सी जगह होती है, जहां बकरी पालने की गुंजाइश होती है, जिससे बच्चों को दूध मिल जाता है पर शहर में यहां आदमी का ठिकाना नहीं है दूध के लिए बकरी कहां रखें और उसके चारा-पानी की व्यवस्था कहां से करे। जबकि शहर में 60 रुपये लीटर वाला मोल का दूध लेना सबके बूते की भी बात नहीं है।
काम-काज की बातचीत होने पर सीता आरोप लगाती हैं कि भदोही नगर निगम स्त्रियों को काम पर नहीं रखता है। कहते हैं केवल मर्द लोग काम करेंगे औरतें काम नहीं करेंगी। सीता भदोही नगर निगम और ठेकेदारों की दोगली सोच पर मुस्कुराते हुए कहती हैं पता नहीं क्या हो गया है इन लोगों को। ठेकेदार बोलता हैं स्त्रियों से काम नहीं कराएंगे।
बच्चे लोग स्कूल नहीं जाते क्या? पूछने पर सीता के परिवार का एक बच्चा जिसका नाम दीपक है वह मुँह में पान की गिलोरी भरे हुए लाल होंठो से बोलता है कि वह स्कूल जा रहा था। लेकिन अब बिना आधारकार्ड के एडमिशन नहीं मिल रहा है। छः साल की काजल रंज भरे स्वर में बताती है कि वो स्कूल जाती है तो उनसे मैडम आधार कार्ड मांगती हैं इसलिए अब वो नहीं जाती। 13 वर्षीय सरस्वती बताती हैं कि उन्होंने लॉकडाउन के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। सरस्वती का कहना है कि बच्चे लोग लड़ते हैं तो मैडम लोग उन्हें डांटती छुड़ाती नहीं हैं और पढ़ाती भी नहीं, मोबाइल में लगी रहती हैं। इसलिए स्कूल जाने का मन नहीं करता अब। सीता बताती हैं कि उनका पति-पत्नी दोनों लोगों का आधारकार्ड बना हुआ है। लेकिन उससे बच्चों का आधारकार्ड नहीं बन रहा है। कहते हैं जन्म प्रमाणपत्र ले आओ, निवास प्रमाण ले आओ, जाति प्रमाण पत्र ले आओ। इतना सब तो हमारे पास नहीं है, कहां से ले जायें?
आधारकार्ड व्यक्ति से बड़ा और व्यक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। प्राइवेट संस्थाएं जेब टटोलती हैं। सरकारी संस्थाएं पहचान टटोलने में लगी हुई हैं।ऐसे में जो बेघर हैं, भूमिहीन हैं वो और उनके बच्चों के लिए कहां गुंजाइश बचती है। गौरतलब है कि केंद्र की नयी नीतियों के तहत अगर बच्चे के पास आधारकार्ड नहीं है तो उस बच्चे को किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलेगा। सरकारी स्कूलों में बच्चों के एडमिशन के लिए भी आधार ज़रूरी है। इसके अलावा बिना आधार कार्ड के सरकारी अस्पतालों के ओपीडी जांच और गंभीर स्थिति में भर्ती करने जैसी ज़रुरी प्रक्रिया से इन्कार कर दिया जाता है। देश में ऐसे कई केस सामने आये हैं जब गर्भवती महिला का आधारकार्ड न होने की स्थिति में भर्ती करने से मना कर दिया गया और महिला ने अस्पताल के बाहर खुले में बच्चे को जन्म दिया। आखिर ऐसी आधार(UIDAI ) व्यवस्था किस काम की जो ग़रीब बच्चे को शिक्षा और किसी मरीज को इलाज देने में बाधक बने।
सीता और वर्मा और उनका पूरा कुनबा मौजूदा व्यवस्था और सत्ता का सताया हुआ है। वे घर बनाते हैं तो सड़क खा जाती है। वे साफ सफाई करने का काम मांगती हैं तो व्यवस्था कहती है वो स्त्रियों का काम नहीं देते, स्त्रियां चूल्हा फूंके। वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं तो सरकारी स्कूल कहते हैं बिना आधारकार्ड के पढ़ाएंगे नहीं। तो एक परिवार एक जाति, एक क़ौम को जब घर, शिक्षा और रोज़गार से वंचित कर दिया जाता है तो उसके पास दो ही विकल्प बचते हैं या तो वो चुपचाप भूख और कुपोषण से मर जाये या फिर अपराध की दुनिया में चला जाये। तो मौजूदा व्यवस्था भुखमरी और अपराध पैदा करने वाली व्यवस्था है। जहां एक वर्ग का विकास दूसरे वर्ग के लिए विनाश बन जाता है।
हमें खेद है कि भदोही में ऐसे कितने परिवार हैं जिनका घर सड़क चौड़ी करने में चला गया या ऐसे कितने बच्चे हैं जिनका आधारकार्ड नहीं होने के चलते वो सरकारी स्कूलों की शिक्षा से वंचित हैं, इसका कोई आधिकारिक या अनुमानित आंकड़ा नहीं मिल पाया है।
रजपुरा चौराहा पार करते ही ज्ञानपुर में एक सड़क किनारे एक दर्जन से ज़्यादा बच्चे दिखाई पड़ते हैं। बच्चे एकस्वर में जयकारा लगा रहे हैं- बोल बम का नारा है बाबा एक सहारा है। बच्चों ने देशी दारू की बोतलों में पानी भरकर बोतल के मुहानों कोएक सुतरी की रस्सी के दोनों किनारों से बांधकर गले में लटका रखा है। बिल्कुल वैसे ही जैसे कांवड़िये बांस के डंडे के दोनों सिरहानों पर दो जलहरी बांधकर कावड़ यात्रा निकलाते हैं। बच्चों की टोली का सबसे बड़ा बच्चा ध्वजवाहक बना हुआ है जबकि टोली का एक छोटा बच्चा एक प्लास्टिक के डब्बे को ढोल बनाकर उसे पीट रहा है। बाक़ी बच्चे दारू की बोतल से बनी कांवड़ को गले में टांगकर जयकारा लगा रहे हैं। एक भी बच्चे के पैर में चप्पल नहीं है। उनके कपड़े भी बहुत साधारण और फुटपाथ से ख़रीदे गए लगते हैं। कुछ बच्चे तो चड्ढ़ी बनियान में ही दिख रहे थे। सावन का महीना 4 जुलाई से लग रहा है और सड़कों पर अभी एक भी कांवड़िया नहीं दिखाई पड़ा है। जबकि ये बच्चे 2 जुलाई को ही कांवड़ यात्रा निकाल रहे हैं। जाहिर है पिछले साल के कांवड़यात्रा की स्मृतियां इनके जेहन में बची होंगी। हर साल सत्ता द्वारा प्रायोजित कांवड़ यात्रा छोटे-छोटे बच्चों तक की चेतना को कुंठित करके उन्हें धर्मभीरू बना रही है।
वहीं ज्ञानपुर से लगे एक गांव में सुबह के समय दो लड़के जिनकी उम्र 10-12 वर्ष, रंग सांवला और बदन पर चड़्ढ़ी बनियान है, एक सफेद पॉलीथीन बैग में सीकर बीनकर आ रहे हैं। जबकि सड़क किनारे जामुन के पेड़ के नीचे दो बच्चे जामुन बीन रहे हैं। बच्चों की साफ रंगत और अच्छे कपड़े देखकर लगता है किसी सवर्ण जाति के स्कूल जाने वाले बच्चे हैं। जामुन बीनने वाले बच्चों की फोटो खींचते देख वो दोनों बच्चे जो सीकर बीनकर सड़क के दूसरे किनारे से आ रहे हैं वो हमें देखते ही भाग खड़े हुए। संभवतः उन बच्चों ने किसी और के बाग़ से सीकर बिना होगा और हमें देखकर डरकर भागे होंगे। जबकि जामुन बीनते बच्चे सवाल पूछते हैं- हमारी फोटो क्यों खींच रहे हो।
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