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वंचितों के लिए न्याय के एजेंडे पर हो भारत बंद

एक अगस्त को आए कोर्ट के फैसले बाद उपवर्गीकरण में लाभ देख रहे समूहों में आरक्षण के कथित हकमारों के प्रति जो शत्रुता का भाव पनपा है, वह प्रायः स्थाई हो गया है। इसलिए कोर्ट का फैसला पलटने से भी एकता के मोर्चे पर बहुत लाभ नहीं होगा, क्योंकि अनग्रसर समूहों मे अग्रसर समूहों को हकमार वर्ग के रूप में देखने की मानसिकता विकसित हो चुकी है, जिसमें निकट भविष्य में बदलाव आता कठिन लग रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी आरक्षण के उपवर्गीकरण के फैसले और क्रीमी लेयर के सुझाव के बाद आरक्षण पर संघर्ष का एक और बड़ा मंच सजता तय सा दिख रहा है। शीर्ष अदालत के एक अगस्त के फैसले के बाद एससी-एसटी समुदायों के लोग: पक्ष और विपक्ष दो भागों में बंट गए हैं और शेष समाज विशेषकर,  हिन्दू आरक्षणवादी मजे लेते हुए इन पर नजरें गड़ाए हुए हैं। इनमें विरोधी पक्ष ने कोर्ट के फैसले से असहमति जताते हुए 21 अगस्त को भारत बंद का एलान कर दिया है।

वैसे तो भारत बंद को लेकर पूरे भारत में सुगबुगाहट है, पर उत्तर भारत में हलचल कुछ ज्यादा ही है। इस इलाके के यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश , हरियाणा इत्यादि राज्यों में दलितों के संगठन युद्ध स्तर पर बंद की तैयारियों में जुट गए है। इनके मुकाबले उपवर्गीकरण समर्थक  समूहों की गतिविधियां फीकी दिख रही है। इसका कारण यह है कि इनके पास न तो मायावती, चिराग पासवान, रामदास आठवले, चंद्रशेखर आजाद जैसे बड़े नेता है और न ही सोशल मीडिया का प्रभावी इस्तेमाल करने वाले यूट्यूब चैनल और पोर्टल! बावजूद इसके शीर्ष अदालत के फैसले के समर्थक समूह के नेता और बुद्धिजीवी अपने सीमित साधनों में आरक्षण के उपवर्गीकरण के फायदे बताने के साथ मायावती, चिराग, आठवले, चंद्रशेखर इत्यादि को अपने वोटों से हमेशा के लिए महरूम किए जाने का आह्वान किए जा रहे हैं, जिसका असर भी हो रहा है। बहरहाल वर्गीकरण के समर्थक और विरोधी, दोनों अपने-अपने स्तर पर सक्रिय जरूर हैं, पर, देश की निगाहें फैसले के विरोधी समूह पर टिक गईं हैं, जो 2 अप्रैल, 2018 के ऐतिहासिक बंद से भी बड़े बंद की तैयारियों में युद्ध स्तर पर जुट गया है।

एकता तो हर हाल में टूटेगी

बहरहाल अब जबकि भारत बंद होना तय दिख रहा है, ऐसे में बंद में उतरने के पहले बंद समर्थकों को कुछ बुनियादी बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। सबसे पहले यह बात ध्यान में रखनी होगी  कि आरक्षण के वर्गीकरण से अग्रसर दलितों का कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है, क्योंकि वर्गीकरण होने पर भी उनके संख्यानुपात में उनका आरक्षण बरकरार रहेगा। ऐसे में चारों ओर से जो खबरें आ रही हैं, उससे लग रहा है कि बंद समर्थकों की असल चिन्ता एकता टूटने की है। एकता बनी रहे, इसके लिए ही वे बंद के जरिए मोदी सरकार पर दबाव बनाकर कोर्ट के फैसले को पलटवाना चाहते हैं। लेकिन मोदी सरकार भारत बंद के दबाव में आकर अगर उपवर्गीकरण के फैसले को पलट भी देती है, जैसा कि उसने क्रीमी लेयर में किया है, तो भी एकता अटूट नहीं रह पाएगी। कोर्ट के फैसले बाद उपवर्गीकरण में लाभ देख रहे समूहों में आरक्षण के कथित हकमारों के प्रति जो शत्रुता का भाव पनपा है, वह प्रायः स्थाई हो गया है। इसलिए कोर्ट का फैसला पलटने से भी एकता के मोर्चे पर बहुत लाभ नहीं होगा, क्योंकि अनग्रसर समूहों मे अग्रसर समूहों को हकमार वर्ग के रूप में देखने की मानसिकता विकसित हो चुकी है, जिसमें निकट भविष्य में बदलाव आता  कठिन लग रहा है।

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जहां तक आरक्षण के वर्गीकरण से दलित-आदिवासियों की एकता में दरार पड़ने का सवाल है तो बंद समर्थकों को यह अप्रिय सच्चाई नहीं भूलनी  चाहिए कि इनमें  कभी वास्तविक एकता रही ही नहीं, विशेषकर दलित जातियों में! हर जगह  दलितों की चमार-भंगी, महार-मांग, धोबी-दुसाध-पासी इत्यादि तमाम जातियां एक दूसरे के सुख-दुख से न सिर्फ निर्लिप्त रहीं हैं,बल्कि  खुद अपने ही निम्नतर उपजातियों के प्रति उनमें पर्याप्त करुणा और भ्रातृत्व का अभाव रहा। लेकिन बंद समर्थक समूह अगर वास्तव में आपसी एकता टूटने से चिंतित है तो उन्हें इसकी भरपाई के लिए अन्य विकल्पों की तलाश करनी पड़ेगी, जो खूब कठिन नहीं है। खुद सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों ने ऐसा आधार सुलभ कर दिया है, जिसका उपयोग करके न सिर्फ एकता को बड़ा आयाम दिया जा सकता है, बल्कि भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे के साथ आंबेडकर-गांधी इत्यादि के समतामूलक भारत निर्माण का सपना भी पूरा किया जा सकता है।

आरक्षण के उपवर्गीकरण के फैसले का संदेश

सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक अगस्त को जो निर्णय और सुझाव आया है, उसका संदेश है कि वंचितों के उत्थान/बेहतरी  के लिए संविधान के दायरे से बाहर जाकर भी कुछ विशेष उपाय किया जा सकता है तथा व्यवस्था(आरक्षण)का लाभ उठा कर सक्षम बन चुके लोगों को इससे बाहर किया जाना चाहिए। स्मरण रहे कोर्ट ने आरक्षण के वर्गीकरण सहित क्रीमी लेयर चिन्हित करने का जो भार राज्यों को सौंपा है , वह संविधान के दायरे के अतिक्रमण की श्रेणी में आता है : आरक्षण में  बदलाव का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति और संसद  को है। बहरहाल जिन वंचितों के उत्थान और लाभ के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट नें हैरतंगेज फैसला दिया है, वे वंचित सिर्फ एससी और एसटी समुदायों के हैं। सम्पूर्ण भारत समाज के नहीं! जबकि चिन्ता भारत समाज के सम्पूर्ण वंचितों की होनी चाहिए थी। किन्तु कोर्ट ने इसकी अनदेखी कर दिया है, जो भारी विस्मय की बात है। यदि कोर्ट इस समस्या पर व्यापक दृष्टि निक्षेप करता तो पाता कि दलित और आदिवासियों की भांति ही ओबीसी, अल्पसंख्यक और सबसे बढ़कर आधी आबादी जिस तरह वंचना और शोषण का शिकार है, वह अनग्रसर दलित-आदिवासियों से कम बड़ी समस्या नहीं है। मई, 2024 में ‘टूवर्ड्स टैक्स जस्टिस एंड वेल्थ री-डिस्ट्रब्यूशन’ शीर्षक से जारी वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की जो रिपोर्ट जारी हुई, उससे पता चला था कि देश की संपदा में सवर्णों की 89% , दलितों की 2.8% और विशाल समुदाय  पिछड़े समुदायों  की मात्र 9% हिस्सेदारी है।

 सबसे वंचित है आधी आबादी

लेकिन भारत में जिस तबके को वंचना का सर्वाधिक दंश झेलना पड़  रहा है, वह देश की आधी आबादी है , जिसकी 2023 की ऑक्सफाम की रिपोर्ट के मुताबिक देश की धन-संपदा में मात्र 3% हिस्सेदारी है। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा द्वारा 2006 से जो ‘ ग्लोबल जेंडर गैप’(वैश्विक लैंगिक अंतराल) रिपोर्ट प्रकाशित हो रही है, उसमें भारतीय महिलाओं की स्थिति बद से बदरत होती नजर आती रही है। इस रिपोर्ट में आर्थिक भागीदारी और अवसर,शिक्षा का अवसर, राजनीतिक भागीदारी, स्वास्थ्य  और उत्तरजीविता : 4 आधारों पर लैंगिक समानता का मूल्यांकन किया जाता है। प्रायः डेढ़ दशक से अधिक समय से प्रकाशित हो रही ग्लोबल जेंडर गैप की रिपोर्ट में साल दर साल  भारत की स्थिति बांग्लादेश,नेपाल, म्यांमार, भूटान यहाँ तक की पाकिस्तान से भी बदतर दिखती रही है।

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भारत की आधी आबादी की संख्या 70 करोड़ से अधिक है, जिसमें यूरोप के कई दर्जन और अमेरिका जैसे दो देश समा जाएंगे। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के मुताबिक भारत की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों की बराबरी पर आने में 257 साल लग जाएंगे। कुल मिलाकर ठीक से देखा जाए तो 70 करोड़ से अधिक संख्या वाली हमारी आधी आबादी की वंचना भारत ही नहीं, विश्व की सबसे बड़ी समस्या है, जिसकी ओर न तो मोदी सरकार का ध्यान है और न सुप्रीम कोर्ट का। मोदी सरकार पिछड़ों के उत्थान के लिए रोहिणी आयोग गठित करने के साथ दलितों के आरक्षण में विभाजन का जो लंबे समय से चक्रांत चला रही है, उसके पीछे वंचितों का हित कम, राजनीतिक स्वार्थ ज्यादे  है। वह उत्थान के नाम पर बंदरबाँट वाली जो  नीति अख्तियार कर रही, उसके पीछे दलित-पिछड़ों मे विभाजन पैदा करना है, ताकि वंचितों की लड़ाई लड़ने वाली पार्टियां कमजोर हो जाए और इसका लाभ वह उठा सके। यही नहीं वंचित जातियों के उत्थान के नामं पर विभाजन पैदा करने के पृष्ठ में भाजपा का चरम लक्ष्य शक्ति के समस्त स्रोतों को सवर्णों के हाथ में देना है, इसलिए वह आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- सांस्कृतिक, फिल्म-मीडिया इत्यादि समस्त क्षेत्रों में 80-90%कब्जा जमाए सवर्णों के वर्चस्व से जहां आँखें मूँदे हुए है, वहीं दलित-आदिवासी ,पिछड़े, अल्पसंख्य और महिलाओं की अत्यंत सोचनीय स्थिति से पूरी तरह उदासीन है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मिला एक अवसर

 लेकिन वंचितों के प्रति उदासीनता के पीछे तो भाजपा का सवर्ण प्रेम है, पर, कोर्ट के साथ तो वैसी कोई समस्या नहीं है। फिर भी वह लोकतंत्र को विस्फोटित करने लायक आर्थिक-सामाजिक  विषमता और महिलाओं सहित विभिन्न तबकों की वंचना से उदासीन है। सुप्रीम कोर्ट की इस उदासीनता ने आरक्षण के वर्गीकरण से क्षुब्ध तबकों को एक सुनहला अवसर सुलभ करा दिया है। इस अवसर का लाभ उठाकर यदि वे आधी आबादी सहित भारत के समस्त वंचित समूहों दलित, आदिवासी,पिछड़े और अल्पसंख्यकों की वंचन -मुक्ति को अपना प्रमुख एजेंडा बनाते हैं, तब 90% वंचित आबादी में ऐसी एकता पैदा होगी कि उनकी एकता को छिन्न-भिन्न करने का चक्रांत कर रही शक्तियों के मंसूबों पर हमेशा के लिए पानी फिर जाएगा ।

भारत में भीषणतम आर्थिक और सामाजिक विषमता के साथ वंचना की जो व्याप्ति है, उसके लिए जिम्मेवार हैं, हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी वर्ग अर्थात सवर्ण। यही भारत का असल हकमार वर्ग है। यही वह वर्ग है, जिसका शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्जा है। लेकिन यह कब्जा सम्पूर्ण सवर्ण समाज का नहीं, सिर्फ इसके पुरुषों का है, जिनकी आबादी बमुश्किल 8 से 9% होगी। इन्हीं अल्पजन लोगों का सर्वत्र 80-90% कब्जा है। यदि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में इस वर्ग को उनकी संख्यानुपात  8-9% पर रोक दिया जाए तो विभिन्न क्षेत्रों मे 70-80% अवसर सरप्लस(अतिरक्त) हो जाएंगे। इन अतिरक्त अवसरों को महिलाओं, दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के मध्य  वितरित करा  दिया जाए तो भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के साथ आंबेडकर, गांधी, नेहरू इत्यादि के समतामूलक भारत निर्माण का सपना भी पूरा हो जाएगा। अतः 21 अगस्त के भारत निर्माण का एजेंडा बने ‘भारत समाज के वंचितों का न्याय’ और  इसके लिए आवाज उठे सवर्णों को उनके संख्यानुपात पर रोकने का।

आरक्षण के उपवर्गीकरण के लिए आंबेडकरवादी भी जिम्मेवार

लेकिन आज आर्थिक और सामाजिक विषमता के चलते वंचित जातियाँ छोटे-छोटे स्वार्थ को लेकर एक दूसरे के  खिलाफ तलवारें निकाल रही हैं, तो उसके लिए कम जिम्मेवार आंबेडकरवादी भी नहीं हैं । नवंबर, 1949 में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे की डॉ.आंबेडकर की खुली घोषणा के बावजूद आंबेडकरवादियों ने कभी इसे बड़ा मुद्दा ही नहीं बनाया।वे डॉ. आंबेडकर द्वारा नौकरियों, राजनीति  और शिक्षा मे सुलभ कराए गए आरक्षण से आगे सोचे ही नहीं। बाबा साहब ने 1942 में अंग्रेजी हुकूमत से ठेकों मे आरक्षण की मांग किया था, पर, आजाद भारत मे आंबेडकरवादी कभी इसकी मांग ही नहीं उठाए।वे आरक्षण से मिली सरकारी नौकरियों में  हिस्सेदारी पाकर ब्रह्मणवाद के खात्मे की लड़ाई में ही संतुष्ट रहे। नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म- मीडिया सहित अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़े ही नहीं। बाद मे नवउदारवादी अर्थनीति से जब सरकारी नौकारिया खत्म होने लगीं, ये  निजी क्षेत्र की नौकरियों, प्रमोशन और न्यायपालिका में आरक्षण की मांग उठाने लगे,पर आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए शक्ति के समस्त स्रोतों के विविध समूहों में बंटवारे की लड़ाई में नहीं उतरे। इसका फायदा उठाकर सवर्णों ने हर क्षेत्र में 80-90% कब्जा जमा लिया है, जिसका साक्ष्य  वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की मई 2024 की रिपोर्ट में देखा जा सकता है, जिसमें बतलाया गया है कि देश  की धन दौलत पर सवर्णों का 89% कब्जा हो चुका है। इस कब्जे ने साबित कर दिया है कि अगर दलितो में जाटव, महार, दुसाध, माला, पासी इत्यादि हकमार वर्ग हैं तो सम्पूर्ण भारत समाज का हकमार वर्ग सवर्ण समाज है, जिसका धन-दौलत पर कल्पनातीत : प्रायः 90% प्रतिशत कब्जा है। महा-हकमार सवर्णों के विपरीत दलितों में  भंगियों की तरह भारत समाज में जो सबसे वंचित तबका है, वह आधी आबादी है, जिसकी धन-दौलत में हिस्सेदारी सिर्फ 3% है।

भारत समाज के वंचितों को न्याय दिलाने का एक अभिनव विचार

दलित समाज के विपरीत भारत समाज पर नजर दौड़ाने पर साफ नजर आता हैं कि आधी आबादी सबसे विपन्न और सवर्ण समाज कल्पनातीत रूप से सबसे सपन्न समाज है।भारत समाज के विपन्नों को न्याय दिलाने के लिए वे सारे उपाय हू ब हू आधी आबादी पर लागू किए जा सकते हैं जो मांननीय सुप्रीम कोर्ट के 7 जनों की पीठ ने 6-1 के निर्णय से सुझाया है। इसी तरह जैसे सम्पन्न दलितों को आरक्षण की व्यवस्था से बाहर किया गया है, वैसा ही फार्मूला सम्पन्न सवर्णों पर लागू हो सकता है। लेकिन भारत समाज के वंचितों को न्याय दिलाने के लिए कुछ अलग हटकर करना होगा। इसके लिए सबसे पहले भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदाय में उपवर्गीकरण करना होगा। यह कोई नई बात नहीं होगी। वंचितों में दलित-महादलित, पिछड़े-अतिपिछड़े, अशरफ-पसमांदा का विभाजन तो प्रायः हो चुका है। नया जो होगा वह सवर्ण समाज का विभाजन होगा। लेकिन इसकी भी चर्चा चल पड़ी है। राहुल गांधी ने अनेकों बार गरीब  सवर्णों की बात उठाया है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने भी समाज मे गरीब सवर्णों की विद्यमानता उजागर कर दिया है। इस तरह सवर्णों मे भी आसानी से उपवर्गीकरण हो जाएगा। पांचों समुदायों के उपवर्गीकरण के बाद भारत समाज सम्पन्न और विपन्न के दस भागों में बंट जाएगा। इन दस भागों को फिर स्त्री और पुरुष में बाँट दिया जाए।इस तरह भारत समाज का कुल बीस  विभाजन हो जाएगा। इन 20 विभाजनों के बाद प्रत्येक वर्ग का पहला आधा अर्थात 50% हिस्सा महिलाओं को दे दिया जाए ,बाद का 50% उस समुदाय के पुरुषों को। इसका विभाजन का रोस्टर इस तरह बनाना होगा कि कुल अवसरों के बंटवारे का आधा हिस्सा पहले महिलाओं को मिले और शेष का आधा पुरुषों को। इसके लिए अवसरों का बंटवारा भी रिवर्स पद्धति से करना होगा। अर्थात पहले जहां अवसरों के बंटवारे के रोस्टर मे सवर्ण अर्थात सामान्य वर्ग पहले रहते थे और बाद मे आरक्षित जातियाँ। रिवर्स पद्धति से अवसरों का बंटवारा  सर्वाधिक वंचित वर्ग से शुरू करके अंत सर्वाधिक सम्पन्न वर्ग से किया जाए । यह एक अभिनव विचार है, जिसका लब्बोंलुआब यह है कि वंचित तबकों की महिलाओं और पुरुषों से शुरू होकर बंटवारे का अंत सम्पन्न सवर्णों के 4% पुरुषों पर जाकर हो।

ऐसे में यदि 21 अगस्त का भारत बंद अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सामान्य वर्ग मे उपवर्गीकरण करके विषमताजन्य सारी समस्या की जड़ सवर्णों को उनके संख्यानुपात पर रोकने पर केंद्रित हो जाता है तो यह  हिस्ट्री के सबसे युगांतरकारी बंद के रूप चिन्हित हो जाएगा। इस बंद में साढ़े तीन-चार प्रतिशत अतिसंपन्न सवर्णों को छोड़कर देश की प्रायः 95- 96% आबादी ही जुड़ जाएगी,जिनमें महादलित भी होंगे।सर्वाधिक समन्न सवर्णों को उनके संख्यानुपात पर रोकने का आंदोलन छेड़ने का इससे बेहतर अवसर फिर नहीं मिलेगा। ‘जितनी आबादी- उतना हक’ के नारे के साथ राहुल गांधी इस आंदोलन की जमीन पहले से ही तैयार कर रखें हैं। ऐसे में युगांतरकारी परिवर्तन के लिए भारत बंद समर्थकों को अपना आंदोलन सम्पन्न सवर्ण पुरुषों को उनके संख्यानुपात पर रोकने पर केंद्रित करने का मन बनाना चाहिए।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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