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हमारी आँखों पर पड़े परदे को हटाने के लिये धन्यवाद माननीय

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की सेवानिवृति के पूर्व की गई स्वीकोरोक्तियाँ तथा उनके कार्यकाल का आकलन लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये चेतावनी है कि किस तरह उच्चतम स्तर पर न्यायिक घोषणाओं में संवैधानिक प्रावधानों, विधि और न्याय की स्थापित परंपराओं से हटकर बहुसंख्यकवादी भावनाएं प्रतिबिम्बित हो रही हैं। लोकतंत्र के वर्त्तमान भारतीय स्वरूप में विश्वास करने वालों को मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ जी को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने न केवल न्याय की देवी की आँखों पर बंधी पट्टी हटाई है, हमारी आँखों पर पड़ा परदा भी हटाया है और कुल मिलाकर जाते जाते यह स्पष्ट कर दिया है कि मोदी सरकार ने उच्च न्यायपालिका में घुसपैठ करने में आरएसएस की कितनी मदद की है।

पिछले दो दशकों में जितने मुख्य न्यायाधीश हुए, उसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ सबसे अलग न केवल इसलिए रहे कि उनका दो साल का कार्यकाल अन्य सभी की तुलना में सबसे लम्बा था, बल्कि उनके उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और फिर मुख्य न्यायाधीश रहते हुए अनेक ऐसे निर्णय हुए, जिन्होंने देश के सामाजिक और राजनीतिक वातावरण को सर्वाधिक प्रभावित किया।

स्वाभाविक रूप से उन निर्णयों पर आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए बड़ी संख्या में लोगों ने अपने विचार भी रखे हैं। यही कारण है कि अपने विदाई समारोह में उन्हें कहना पड़ा कि अब मेरे सेवानिवृत होने के बाद सबसे अधिक दुःख मुझे ट्रोल करने वालों को होगा। शायद यह कहकर वे उन सभी आलोचनाओं और टिप्पणियों के वजन को हल्का करने की कोशिश कर रहे थे, जिनका द्वार स्वयं उन्होंने खोला था। पर उनके इस कथन से उन तथ्यों और बातों का वजन बिलकुल कम नहीं होता, जो उनके कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए कही गईं थीं, जिन्हें वे ट्रोल की संज्ञा दे रहे थे| आज देश की जो राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति है और जिस तरह का विधायिका का दबाव लोकतंत्र के खंभों याने न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया पर दिखाई दे रहा है, देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में उनके द्वारा किये गए खुलासों ने ही उनके कार्यकाल के आकलन का रास्ता खोला था और उनके कार्यकाल में हुए निर्णय उसकी मांग भी करते हैं।

संविधान और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए नियुक्त न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में जिस राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी न्यायिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया, उसे ध्यान में रखे बिना उनकी भूमिका का सही आकलन नहीं हो सकता। उनके उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश रहने का कार्यकाल वह समय था, जब मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में हिंदुत्व के एजेंडे को पूरा करने के लिए अपने प्रयासों को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ा रही थी, जो संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन था। संवैधानिक मुद्दों और बहुसंख्यकवादी हमले पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के फैसलों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

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हम यहाँ दो फैसलों को उदाहरण के तौर पर लेकर आगे बढ़ेंगे, जिनका देश में वृहद् राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ा। एक फैसला न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में और दूसरा मुख्य न्यायाधीश के रूप में, जो किसी भी न्यायाधीश की उस शपथ के लिये  अग्नि परीक्षा के समान हैं, जो वे अपना पदभार ग्रहण करते समय लेते हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने वाली पांच सदस्यीय पीठ में थे। उन्होंने जो फैसला लिखा, उसमें उस विवादित क्षेत्र, जहां बाबरी मस्जिद थी, को राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को सौंप दिया गया। यह फैसला जमीनी सबूतों और तथ्यों के बजाय धार्मिक भावनाओं और आस्था पर अधिक आधारित था। इसके अलावा, इसने यह स्वीकार करने के बावजूद ऐसा फैसला दिया कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक असंवैधानिक और जघन्य कृत्य था।

यह न्यायिक फैसला ही है, जिसने आरएसएस-विश्व हिंदू परिषद के दावे को वैधता प्रदान की और भाजपा के मुख्य एजेंडे में से एक को पूरा किया। यह एक बार की चूक नहीं थी, यह तब और स्पष्ट हो गया, जब सीजेआई के रूप में जस्टिस चंद्रचूड़ ने वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद मामले को फिर से खोलने का रास्ता खोल दिया। ज्ञातव्य है कि उन्होंने यह फैसला उस धार्मिक स्थल संरक्षण अधिनियम, 1991 को दरकिनार करते हुए, जो ऐसे मामलों को फिर से खोलने पर रोक लगाता है, इस संदिग्ध आधार पर दिया कि हिंदू केवल धार्मिक स्थल के चरित्र को निर्धारित करने की मांग कर रहे हैं और  ज्ञानवापी मस्जिद के चरित्र को बदलने की मांग नहीं कर रहे थे और इस तरह उन्होंने उन मुकदमों को जारी रखने की अनुमति दी। इसने हिंदुत्ववादी ताकतों को वाराणसी और मथुरा में भी विवादों को हवा देने का लाइसेंस दिया।

सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ द्वारा दिया गया दूसरा प्रमुख निर्णय अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को समाप्त करने पर है। केंद्र ने इस निर्णय में अनुच्छेद 370 में संशोधन करने के लिए एकतरफा कार्यकारी शक्ति का प्रयोग किया था, क्योंकि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा अब अस्तित्व में नहीं थी। संविधान के अनुच्छेद 3 का उल्लंघन करके जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने के मामले में, निर्णय ने इस मुद्दे को टाल दिया और केंद्र सरकार के इस आश्वासन को स्वीकार कर लिया कि भविष्य में किसी दिन जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। इस निर्णय का एकमात्र अर्थ यह लगाया जा सकता है कि यह किसी तरह अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के लिए कार्यपालिका की मनमानी कार्रवाई का समर्थन करना ही है। यह ध्यान रखना उचित होगा कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करना भाजपा-आरएसएस के एजेंडे में एक और मुख्य मुद्दा था।

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मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के कार्यकाल के अन्य पहलू भी हैं, जो ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ कर्तव्यों और कॉलेजियम प्रणाली के कामकाज से संबंधित हैं। यहां भी, एक स्पष्ट पैटर्न है। मामलों का आबंटन, जो नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है, जैसे कि भीमा कोरेगांव और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों के मामले में, लंबे समय तक जेल में रहने वाले लोग। ऐसे मामलों को एक विशिष्ट पीठ को संदर्भित करने की जानबूझकर की गई योजना को दर्शाते हैं, जहां संबंधित न्यायाधीश नागरिक स्वतंत्रता और जमानत देने के मामलों पर रूढ़िवादी दृष्टिकोण रखते हैं। यह हम उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति और न्यायाधीशों के चयन के मामले में भी देखते हैं, जहां पर कॉलेजियम के काम के लिए नियंत्रण अपने हाथों से कार्यपालिका को बिना किसी उज्र के सौंपा गया है।

लेकिन इन सबके अलावा, जो बात चौंकाने वाली है, वह यह है कि एक विद्वान न्यायाधीश, जिनसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक सिद्धांतों के दृढ़ रक्षक होने की उम्मीद की जाती है, ने एक अति साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी धार्मिक आस्था को संविधान और उसके मूल्यों के प्रति निष्ठा से ऊपर रखा। अपने कार्यकाल के अंतिम समय में, चंद्रचूड़ ने यह स्वीकार करके कई लोगों को चौंका दिया कि उन्होंने अयोध्या मामले के समाधान के लिए भगवान से प्रार्थना की थी। यहाँ निर्णय के लेखक ने स्वीकार किया है कि यह निर्णय संविधान और कानून पर आधारित नहीं था, बल्कि ईश्वरीय हस्तक्षेप पर आधारित था।

इससे पहले एक अवसर पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने गुजरात के द्वारका मंदिर में दर्शन करने के बाद वकीलों की एक सभा में कहा था कि मंदिर पर लगा भगवा ध्वज न्याय के ध्वज का प्रतीक है। यह सब केवल सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के बारे में ही नहीं, बल्कि उच्च न्यायपालिका के भीतर बढ़ते नवाचार के बारे में भी बताता है।

मोदी के एक दशक के शासन में उच्च न्यायपालिका और कानूनी बिरादरी के बीच हिंदुत्व की भावना का प्रसार देखा गया है। हाल के दिनों में इसकी झलक खुलकर सामने आई है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपनी सेवानिवृत्ति के दिन आरएसएस के साथ अपने आजीवन संबंध और संगठन के प्रति अपने ऋण की घोषणा की। उच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय ने लोकसभा चुनाव से कुछ सप्ताह पहले इस्तीफा दे दिया और कुछ ही दिनों में भाजपा के उम्मीदवार बन गए और लोकसभा के लिए चुने गए। उपरोक्त दोनों उदाहरणों से दिमाग में यह स्वाभाविक रूप से कौंधता है कि जब वे न्याय की कुर्सी पर बैठते होंगे, तो क्या निर्णय देते समय स्वयं को अपनी व्यक्तिगत आस्था और निष्ठा से मुक्त रख पाते होंगे? हाल के वर्षों में ऐसे अनेक निर्णय मिल जायेंगे, जिनमें माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियाँ विधि और क़ानून से परे स्वयं की धारणाओं और विश्वास पर आधारित थीं और अनेक बार तो स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया और उन्हें गैरजरूरी बताकर अमान्य किया है।

कुछ जजों की अंतर्दृष्टि किस तरह हिंदुत्व से प्रभावित है, यह इस साल जुलाई में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ द्वारा की गई टिप्पणी में देखा जा सकता है। केंद्र द्वारा आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के बाद, एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की याचिका का निपटारा करते हुए न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि आरएसएस जैसे “प्रतिष्ठित संगठन” को “गलत तरीके से देश में प्रतिबंधित संगठनों की सूची में डाल दिया गया है”। केंद्र सरकार की इस गलती के कारण, पांच दशकों में “कई केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की देश की सेवा करने की आकांक्षाएं इस प्रतिबंध के कारण कम हो गईं”। इसलिए, इन विद्वान न्यायाधीशों के अनुसार, देश की सेवा करने के लिए व्यक्ति को आरएसएस से जुड़ना ही होगा।

‘कारवां’ पत्रिका के अक्टूबर 2024 के अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार आरएसएस का कानूनी मोर्चा उच्च न्यायपालिका में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। वकीलों का संघ अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद आरएसएस के वकीलों का मोर्चा है और इसी संगठन के लोगों से ही महाधिवक्ता और न्यायाधीश जैसे अधिक से अधिक कानूनी अधिकारियों की नियुक्ति की जा रही है। लेख में बताया गया है कि 33 मौजूदा न्यायाधीशों में से कम से कम नौ ने परिषद के एक या अधिक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया है। विचारों और अपनी मान्यताओं के अनुसार वकीलों का किसी संगठन को बनाना या उससे जुड़ना समझ में आने वाली बात है, पर जब उच्च न्यायालयोंमू तक के न्यायाधीश, जो “विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति आस्था और निष्ठा की शपथ लेते हुए निष्ठापूर्वक तथा अपनी सर्वोत्तम योग्यता, ज्ञान और विवेक के साथ बिना किसी भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने  तथा संविधान और कानूनों की मर्यादा बनाए रखने की शपथ लेते हैं”, संविधान से परे किसी विशेष विचार या निष्ठा से जुड़ते हैं, तो उनके निर्णयों पर उसकी छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, जो ऊपर उल्लेखित मध्यप्रदेश न्यायालय के एक निर्णय की टिप्पणी से स्पष्ट है।

(माकपा मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ का संपादकीय, अनुवाद : अरुणकांत शुक्ला)

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