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बिहार – अश्क आंखों में कब नहीं आता (डायरी, 10 अगस्त, 2022)

कल फिर बिहार की सियासत पर पूरे देश की नजर रही। इसकी वजह भी थी। अभी एकदम हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बिहार की राजधानी पटना में 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनाव और 2025 में होनेवाले विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से ही तैयारी में जुटे थे […]

कल फिर बिहार की सियासत पर पूरे देश की नजर रही। इसकी वजह भी थी। अभी एकदम हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बिहार की राजधानी पटना में 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनाव और 2025 में होनेवाले विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से ही तैयारी में जुटे थे तथा दो दिनों तक कार्यकर्ताओं व नेताओं को तैयार कर रहे थे। लेकिन बिहार की सत्ता से भाजपा को बेदखल करने की तैयारी एक लंबे प्रयास का परिणाम है, जिसका पूरा श्रेय यदि जाता है तो वह नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को जाता है। हालांकि सोनिया गांधी की भी इसमें कमाल की भूमिका रही। दिल्ली में ईडी के जरिए नरेंद्र मोदी सरकार उन्हें नेशनल हेराल्ड को लेकर पूछताछ कर स्वयं अपनी पीठ थपथपा रही थी, सोनिया गांधी की एक चाल ने भाजपा को बिहार की सत्ता से बेदखल करने की राह को आसान बना दिया। यह पूरी कहानी बेहद दिलचस्प है।

खैर, परिणाम यह है कि अब नीतीश कुमार राजदनीत महागठबंधन के समर्थन से आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। उनके साथ तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बनेंगे। हालांकि उन्हें मंत्रिपरिषद के सदस्य के रूप में ही शपथ लेनी होगी, क्योंकि उपमुख्यमंत्री का पद महज औपचारिक पद है। हालांकि इसका राजनीतिक महत्व बेहद खास है। वे दूसरी बार बिहार के उपमुख्यमंत्री बनेंगे। वैसे एक कहानी और भी है, जिसे समय आने पर लिखूंगा कि कैसे तेजस्वी यादव ने अपने से कई गुणा अनुभवी और स्वयं को बिहार का चाणक्य कहे जाने पर गर्व की अनुभूति करनेवाले नीतीश कुमार को झुकने पर मजबूर किया तथा पांच साल पहले उनके द्वारा किये गये अपमान का बदला लिया।

एक अहम सूचना यह कि करीब 55 साल बाद बिहार का कोई वामपंथी दल बिहार की सत्ता में साझेदार होने जा रहा है। सूचना है कि भाकपा माले के कुछ सदस्य भी मंत्रिपरिषद का हिस्सा बनेंगे। यह सूचना बेहद खास है। मौजूदा विधानसभा में भाकपा माले के कुछ सदस्य वाकई बेहद कमाल के हैं। एक तो वे युवा हैं और दूसरा यह कि उनके पास नई दृष्टि है।

आज तो मैं एक दूसरी कहानी दर्ज करना चाहता हूं। यह भी बिहार से ही संबंधित है। लेकिन है बेहद दिलचस्प। दरअसल, बिहार के सामाजिक ताने-बाने में सवर्ण जातियां अब भी बौद्धिक रूप से बेहद चालाक जातियां हैं। इनकी चालाकी इतनी है कि इन जातियों के लोग कहानियां खूब बनाते हैं। दरअसल, ये कहानियां साहित्यिक रचनाएं नहीं होती हैं। इन्हें सामाजिक रचनाएं जरूर कहा जा सकता है। ऐसी कहानियों को गढ़ने में सबसे अधिक जिस जाति के लोगों को विशेषज्ञता हासिल है, वह भूमिहार जाति है।

[bs-quote quote=”एक अहम सूचना यह कि करीब 55 साल बाद बिहार का कोई वामपंथी दल बिहार की सत्ता में साझेदार होने जा रहा है। सूचना है कि भाकपा माले के कुछ सदस्य भी मंत्रिपरिषद का हिस्सा बनेंगे। यह सूचना बेहद खास है। मौजूदा विधानसभा में भाकपा माले के कुछ सदस्य वाकई बेहद कमाल के हैं। एक तो वे युवा हैं और दूसरा यह कि उनके पास नई दृष्टि है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि एक कमाल की कहानी दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के पहले पृष्ठ के बॉटम में है। इसका शीर्षक है– यूनेस्को की सूची में शामिल नहीं बिहार की सौ साल पुरानी वेधशाला। इसका स्रोत चूंकि ‘एजेंसी’ है तो यह तो नहीं कहा जा सकता है कि इसे जनसत्ता से संबद्ध किसी पत्रकार ने लिखा है। यह न्यूज एजेंसी का कमाल है। दरअसल, एक कहानी पहले गढ़ी गई थी। एक फर्जी खबर चलाई गई कि बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के लंगट सिंह कॉलेज (डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, बिहार का हिस्सा) में 1916 में स्थापित वेधशाला को यूनेस्को ने उस सूची में शामिल कर लिया है, जिसका संरक्षण वह करेगी। जाहिर तौर पर यह फर्जी खबर किसी न किसी के दिमाग की उपज ही थी। यह एक कोशिश थी ताकि लंगट सिंह कॉलेज (इसे भूमिहारों का कॉलेज भी कहते हैं) को यूनेस्को की सूची में शामिल बताकर उसका महिमामंडल किया जाय। इसके लिए वेधशाला का उपयोग किया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि जिस वेधशाला की बात खबर में कही गई है, उसकी समुचित देखभाल व उपयोग कभी की ही नहीं गई। तब भी नहीं जब बिहार में करीब 32 साल तक सवर्णों का प्रत्त्यक्ष राज रहा।

खैर यूनेस्को ने लंगट सिंह कॉलेज के बारे में गढ़ी गई कहानी को खारिज कर दिया है। लेकिन दाद तो देनी ही होगी उस कहानीकार को जिसने यूनेस्को की सूची में शामिल होने की कहानी लिखी। एक वजह तो यह कि उसने मुझे भी यह विवरण अपनी डायरी के पन्ने में लिखने को प्रभावित किया।

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दरअसल, बिहार में उच्च शिक्षा की भी खूब सारी कहानियां हैं। दुखद यह है कि केवल कहानियां ही हैं। गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा अब भी बिहार में दूर की कौड़ी है। हालांकि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की स्थिति भी बेहद चिंतनीय है। ऐसे में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की हुकूमत कुछ करेगी, मुझे तो इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिखती है। इसके पीछे भी अनेक कहानियां हैं।

कल देर रात मीर तकी मीर को पढ़ रहा था। उनका एक शे’र मुझे बिहार के मामले में बिहारी होने के कारण सबसे अधिक मौजूं लगा–

अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

गाँव के लोग
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