Saturday, July 27, 2024
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जन्म से लेकर मृत्यु के बाद तक किसानों का खून चूसता था ब्राह्मण

आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले किसानों के ब्राह्मणवादी शोषण के खिलाफ मराठी में एक किताब आई थी जिसका नाम शेतकऱ्यांचा आसूड  (हिंदी में किसान का कोड़ा) था, जिसे  जोतिबा फुले ने बहुत विस्तार से लिखा था। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ब्राह्मणों द्वारा निरक्षर और गरीब किसानों का शोषण उनकी स्त्रियों के पहली बार रजस्वला […]

आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले किसानों के ब्राह्मणवादी शोषण के खिलाफ मराठी में एक किताब आई थी जिसका नाम शेतकऱ्यांचा आसूड  (हिंदी में किसान का कोड़ा) था, जिसे  जोतिबा फुले ने बहुत विस्तार से लिखा था। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ब्राह्मणों द्वारा निरक्षर और गरीब किसानों का शोषण उनकी स्त्रियों के पहली बार रजस्वला होने से शुरू होता है और मृत्यु के दिन और उसके बाद तक वह उन्हें धार्मिक कर्मकांड के बहाने लूटता रहता है। किसान धर्म के डर से खुद अभाव में रहते हुए उन्हें पूरा करता है। इन्हीं बातों के विरोध में यह किताब लिखी गई। किसान की बेड़ियाँ नाम से जल्द ही पठनीय हिंदी में अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित होने वाली है। उसी किताब का एक लेख राष्ट्रपिता जोतीराव फुले को उनकी जयंती पर याद करते हुए यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है:

पहली श्रेणी के निरक्षर किसान के मार्ग में पंडित-पुरोहित धर्म के नाम पर इतने अड़ंगे लगाते हैं कि संसार में उनकी बराबरी करने वाला कोई ब्राह्मण ढूँढे नहीं मिलेगा। पहले के धूर्त आर्य ब्राह्मणों और ग्रंथकारों ने किसान के पीछे अपने स्वार्थ-भरे धर्म की नियमावली का झमेला ऐसी चतुराई से थोप दिया है कि किसान जन्म से पहले ही ऐसे पचड़े में फँस जाता है। किसान की माता कौमार्यावस्था में जब प्रथम बार रजस्वला होती है, तब से लेकर गर्भधारण संस्कार से होते हुए उस किसान पुत्र की मृत्यु के दिन तक वह किसान को लूटता रहता है। यही नहीं, मरने के बाद भी उसके पुत्रों को श्राद्ध आदि के बहाने धार्मिक कर्मकांड का बोझ ढोना पड़ता है क्योंकि किसान की स्त्री जैसे ही रजस्वला हुई नहीं कि पंडित-पुरोहित जप, अनुष्ठान तथा उससे संबंधित विधियों में ब्राह्मण भोज के बहाने किसान से अकूत धन लूटते हैं और ऐसे ब्राह्मण भोज के समय अपने सगे-संबंधियों और मित्रादि को साथ लेकर घी-रोटी की और दान-दक्षिणा के समय ऐसी लूट मचाते हैं कि बेचारे अनपढ़ किसान को बचे-खुचे अन्न में से पेट भर खट्टी दाल-रोटी मिलना भी मुश्किल हो जाता है। ऋतुशांति के बहाने पंडित-पुरोहितों की उदरशांति हो जाती है और दक्षिणा हाथ में आने के बाद किसान को आशीर्वाद देकर उनकी स्त्रियों को शनिवार या चतुर्थी का व्रत रखने का उपदेश देकर अपने घर की राह लेते हैं। इसके बाद पंडितजी प्रत्येक शनिवार और चतुर्थी को किसानों की स्त्रियों से रुई के पत्तों से बनी मालाएँ हनुमान के गले में तो पहनवाते हैं साथ ही दूब की पूलियाँ बनवाकर गणपति के मस्तक पर चढ़वाते हैं और सीधा में मिली वस्तुएँ तथा दक्षिणा स्वयं ग्रहण करते हैं। आगे कभी अवसर हाथ लगा तो ऊपर के व्रतों का उद्यापन कराने की गप्पे हाँककर किसान से छोटे-बड़े भोज करवा लेते हैं। कुछ समय बाद प्रकृति के नियमानुसार किसान की पत्नी जैसे ही गर्भवती हुई नहीं कि पंडितजी किसानों द्वारा बरुआ (मुंजा) के नाम ब्राह्मण भोज खिलाने के झूठे वचनों की बातें तथा पहले की गई मनौतियों की जानकारी बातों-बातों में चुपके से जान लेते हैं और फिर किसानों की स्त्रियों की प्रसूति से पहले पंडित महाराज रात-दिन किसानों के घर के चक्कर काटते हैं। उनसे बड़ी चाह-लगन बढ़ाते हैं। उनसे जजमानी का नाता जोड़ लेते हैं और उनसे मन्नतें पूरी करवा लेते हैं।

[bs-quote quote=”स्वार्थी, लालची साधु-ब्राह्मण कई अल्पव्यस्क अल्हड़ किसानों के जिगरी दोस्त बनकर, उन्हें कीर्ति के लालच में फंसाकर उनसे छोटी-बड़ी सभाएँ करवाकर कुछ ब्राह्मणों-पंडितों को शाल-दुशाले भेंट कराते हैं और शेष को दक्षिणा दिलवाते हैं। वह तो खैर मनाइए कि किसानों द्वारा नए बनवाए हुए शौचालयों को बख्श देते हैं, वरना किसान जो भी नए मंदिर, चबूतरे, भवन आदि बनवाते हैं, उनसे उद्यापन के बहाने ब्राह्मण-भोजन और दक्षिणा तो झटक ही लेते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यदि आगे चलकर किसानों के बेटा हुआ यह जानते ही पंडित के हाथ की धनरेखा ही चमक उठी। वह इस प्रकार कि पहले प्रमुख उपाध्याय किसानों के घर जाते हैं। किसानों की अनपढ़ स्त्रियों से, जो बेचारी अनपढ़ गँवारिनें हैं दिन के समय को भी आसमान में सूरज की ऊँचाई और छाँव की लंबाई से जान पाती है, उनसे पंडित बच्चे के जन्म का ठीक-ठीक समय पूछते हैं। फिर जिस-जिस राशि में अनिष्ट ग्रहों का जमघट होता हो, वही राशि निश्चित करके शिशुओं की ऐसी जन्मपत्रिका तैयार करते हैं, जन्मपत्रिका क्या बनाते हैं- पुत्र जन्म के कारण हुए किसानों के आनंद में मिट्टी डालकर उन्हें बुरी तरह घबराहट में डाल देते हैं और अगले दिन उनसे शिवलिंग के आगे अपने भाई-भतीजे, सगे-संबंधी, पंडित-पुरोहित इष्टमित्रादि सबको महँगे जप अनुष्ठान के लिए बैठा देते हैं और उनमें से किसी-किसी को किसानों की ओर से उपवास के नाम पर फलाहार के लिए आवश्यक पैसे दिलवाते हैं। ग्रीष्म ऋतु हो तो पंखे दिलाते हैं। वर्षा ऋतु हो तो छतरी और शीत ऋतु हो तो सफेद लोई दिलवाते हैं और यदि पुरोहित का बस चलता है तो वह किसान से पूजा के निमित्त तेल, चावल, नारियल, छुहारे, सुपारी, घी, शक्कर, फल, मेवे आदि वस्तु लपक लेने में कोई कसर नहीं रहने देते। किसान के मन पर मूर्ति पूजा के प्रति श्रद्धा की अधिक छाप पड़े, इस हेतु जप-तप, अनुष्ठान की समाप्ति तक अपनी दाढ़ी-बाल बढ़ाए रहते हैं। कुछ केवल फलों का ही आहार पाते हैं। इस भाँति अनेक कोरी गप्पे मार-मारकर जप अनुष्ठान की समाप्ति के समय पंडित-ब्राह्मण अज्ञानी किसान से ब्राह्मण भोज के साथ-साथ दक्षिणा के रूप में बड़ी रकम ऐंठ कर ऐश करते हैं, सो तो आपको ज्ञात होगा ही।

आर्य ब्राह्मण अपने संस्कृत विद्यालयों में शूद्र किसानों के बच्चों का दाखिला नहीं लेते। हाँ, अपनी सर्वसामान्य मराठी पाठशालाओं में काम चलाने भर को शूद्र किसानों के बच्चे भरती कर लेते हैं। उनसे प्रतिमास वेतन तो लेते हैं, साथ ही साथ हर अमावस-पूनम को दान-दक्षिणा (घाल-घलुआ) लेते ही हैं। कई त्योहारों में सीधा, दक्षिणा के साथ लड़कों द्वारा पाठशाला में खाने के लिए जो कुछ चना-चबेना लाते, उसमें भी चौथाई हिस्सा ले लेते हैं। इतना सब लेकर उन्हें सिखाते क्या हैं- धूल में बना-बनाकर वर्णमाला के अक्षर, अंकगणित, मोडी लिपि में लिखे कागज का पढ़ा, व्यर्थ की कथाओं वाली कुछ देशी भाषा की कविताएँ और भूपाली, लोरी-बिहागी सिखा देते हैं और उसे कलगी और तुर्रे की दो पक्षों की ओर से गाई जाने वाली सवाल-जवाब वाली कविता या लावनी इसलिए सिखा-पढ़ाकर देते ताकि कलगी-तुर्रे और लावनी की प्रतियोगिताओं के समय होने वाले झगड़ों में उलझने लायक सयाना बना देते हैं। उसे अपने घर के जमा-खर्चे का हिसाब लिखने तक का ज्ञान तो देते नहीं, तब फिर मामलतदार की कचहरी जाकर मुंशी-बाबू का काम करना तो दूर की बात है।

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किसानों के बेटे की सगाई के समय ब्राह्मण-जोशी हाथ में पंचाँग लेकर किसान के घर जा पहुँचते हैं। सामने राशि चक्र बनाकर, लड़के-लड़की का नाम पूछकर, फिर बहुत दिखावा करके अंगूठे की नोक को ऊँगलियों के पोरों पर नचा-नचाकर कोई एक निराला सा अनिष्ट ग्रह उन दोनों की राशि में ला बिठाते हैं। फिर उन ग्रहों की शांति के निमित्त जप अनुष्ठान की प्रतिष्ठापना तथा समाप्ति के लिए किसान से कुछ द्रव्य लेकर वधू के घर जाकर चौपहले वस्त्र पर चावल का चौक पूरते हैं। उस चौकोनी चौक के बीच लड़की और लड़के के पिता को बैठाकर उनके आगे खोपरा, छुहारे, तता, हल्दी-गाँठों के छोटे-छोटे ढेर लगाते हैं। फिर हल्दी-रोरी और अक्षत मंगवाकर काम निभाने को सुपारी में ही गणपति की प्रतिष्ठापना करता हैं। वास्तव में ऐसे अवसर पर लड़के-लड़की की आयु, वर्ण, गुण आदि का विचार करना चाहिए, किंतु उस पर पाव-रत्ती भी विचार नहीं, बस गणपति बिठलाकर ‘समर्पयामि’ की हड़बड़ी मचा देते हैं और किसान से ढेर सारे पैसे निकलवाकर एक कागज के टुकड़े पर निश्चित की गई तिथि लिखकर उस पर हल्दी-कुमकुम के छींटे मारकर दोनों के हाथ थमा देते हैं। बाद में वहाँ के चढ़ावा और पैसा समेटकर, चौक का चावल छोर में बाँधकर अपने घर को प्रस्थान कर जाते हैं। गणपति वाली सुपारी को साथ ले जाते हैं- घर जाकर फोड़कर खाने के काम आएगी न! विवाह के पूर्व मारुति के मंदिर में वधू पक्ष की ओर का पहनावा वर को देते समय पुरोहितजी आना दो आना धोती की मुर्री में खोंसकर पान के बीड़े पगड़ी में खोंस लेते हैं। इसके बाद वर को वधू के मंडप में ले जाकर विवाह-वेदी के सामने बनी चौकियों को थोड़े-थोड़े गेहूँओं से भरकर उन पर दोनों को आमने-सामने खड़ा कर देते हैं। फिर वर और वधू के मामा को नंगी तलवार हाथ में देकर रक्षक बनाकर उन दोनों के पीछे खड़ा कर देते हैं। फिर वहाँ एकत्रित लोगों में से ही किसी का गमछा ले उस पर हल्दी-कुमकुम के आड़ी-खड़ी पट्टी खींचकर उसे ‘अंतरपट’ बनाकर पर-वधू के बीच तानकर पकड़ रखते हैं और फिर पुरोहितजी बारी-बारी से कोई कल्याण राग में तो कई भैरवी राग में श्लोक अथवा आर्या गाकर शुभ मंगल सावधान पुकारकर अज्ञानी किसानों के बाल-बच्चों का विवाह रचाते हैं।

कई धनवान माली या कुनबी लोगों के घर के विवाह में यह बिन-बुलाए ब्राह्मण दक्षिणा की आशा लेकर आते हैं और गाँव तकिए के सहारे बैठे रहते हैं- ऐसे समय उन्हें घर के मुखिया के भाई-बिरादर, सगे-संबंधी और बारातियों की सुविधा का कोई ध्यान नहीं होता। वे तो सिर्फ पलौथी मारकर, जांघों पर शाल रखकर पूरी अकड़ से बैठे रहते हैं और दक्षिणा के लिए ऐसी हड़बड़ी मचाते हैं कि वर-वधू के पिताओं को विशेष निमंत्रण देकर बुलाए गए मेहमानोें के स्वागत-सत्कार करने का भी समय नहीं मिलता। ऐसे निस्संग, निष्काम मुस्टंडे भिखारी और भी किसी देश या जाति में मिलेंगे क्या? इसके बाद विवाह कराने वाले पुरोहित वर-वधू को एक दूसरे के सामने बिठाकर अनेक वैवाहिक उपक्रम करते हैं। बीच-बीच में दक्षिणा समर्पयामि उचारते रहते हैं और अंत में थोड़े से घास-तिनके इकट्ठा करके उसमें अग्नि सुलगाकर घी आदि पदार्थ डालते हैं। हवन-होम के नाम पर वर-वधू की आँखों में धुआँ झोंका करते हैं और अंत में उनके अनाड़ी पिता से ढेर सारा सीधा तथा दक्षिणा लेकर अपने घर प्रस्थान करते हैं।

 

विवाह के बाद की साडे विधिवाले दिन एक-दो अकड़बाज किसानों को अपने घर में करके वर-वधू के पिताओं को जगह-जगह रोककर मनमानी रकम उगाहते हैं। इसी प्रकार विवाह के अवसर पर ब्राह्मण-पुरोहिताई के अधिकार के नाम पर उनसे खूब सारा धन लूट लेते हैं। उनमें से कई धनी किसानों को कर्ण आदि दानवीरों की उपमाएँ देकर झूठी तारीफ कर ऐसे उकसाते हैं कि ब्याह के बाद उनके घर में बड़ी-बड़ी सभाएँ करवा लेते हैं और उन सभाओं में वैदिक-पंडित, शास्त्री, पुराण वाचक, कथा-वाचक तथा भिक्षुक ब्राह्मण-पंडितों में बिना भेदभाव के सभी को एक सरीखी दक्षिणा दिलवाते हैं। फिर अपने घरों को लौटने से पहले उनमें से कई छैल-छबीले ब्राह्मण पहले से ही पता लगाकर रखते हैं कि रात विवाह-मंडप में नाच-तमाशे का प्रबंध है। सो ऐसे में सारे छैल-छबीले ब्राह्मण पालथी मारकर जांघों में शाल फैलाकर टेक लगाकर, गावत किए के सहारे टेका लगाकर पूरी रात बस नाक की दुनाली में नसवार की बारूद भरते और छींकों के धमाकों से नसवार का धुआँ फैलाते हुए बड़े चैन से नर्तकी के गाने का मजा लूटते बैठे रहते हैं।

आगे चलकर किसान भाई उम्र के बढ़ते-बढ़ते जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनके बाद उसके बच्चे घर-गिरस्ती बसा लेते हैं, तब से लेकर उनके अंतकाल तक पंडित-पुजारी उन्हें धर्म की झूठी महिमा में फंसाकर किस-किस तरह छलते हैं, उसके बारे में यहाँ कुछ विशेष बात कहूँगा।

[bs-quote quote=”ऐसे अवसर पर लड़के-लड़की की आयु, वर्ण, गुण आदि का विचार करना चाहिए, किंतु उस पर पाव-रत्ती भी विचार नहीं, बस गणपति बिठलाकर ‘समर्पयामि’ की हड़बड़ी मचा देते हैं और किसान से ढेर सारे पैसे निकलवाकर एक कागज के टुकड़े पर निश्चित की गई तिथि लिखकर उस पर हल्दी-कुमकुम के छींटे मारकर दोनों के हाथ थमा देते हैं। बाद में वहाँ के चढ़ावा और पैसा समेटकर, चौक का चावल छोर में बाँधकर अपने घर को प्रस्थान कर जाते हैं। गणपति वाली सुपारी को साथ ले जाते हैं- घर जाकर फोड़कर खाने के काम आएगी न!” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

किसानों के लड़के जब अपने नए घर बनवा रहे होते हैं, तब बेगारी के शूद्र मजदूर तपती धूप में कभी कंधे पर, कभी कमर पर गारे-चूने आदि की टोकरियाँ ढोते हैं। राज और बढ़ई ऊँचे गगनचुंबी पहाड़ पर बंदर की तरह चढ़कर दीवारें चुनते और लकड़ी को जोड़-जोड़कर घर तैयार करते हैं। इस कारण घर के मालिक को उन बेचारे कामगारों पर दया आती है और वे कामगारों को आश्वासन देते हैं कि गृहप्रवेश समारोह के समय उन्हें घी-रोटी का भोजन देंगे, लेकिन होता यह है कि किसानों-मजदूरों को भोजन देने से पहले पंडित-ब्राह्मण रात-दिन किसानों के घरों में चक्कर मार-मारकर उनके सामने धर्म संबंधी नाना प्रकार से बरगलाते हुए, कई ब्राह्मण-अधिकारियों की अललटप्पू सिफारिशें उनके सामने रखते हैं। उनके नए घरों में हवन-पूजा करके घर की मुंडेरों-ओलती पर जगह-जगह चिंदी के झंडे फहराते हैं, पहले स्वयं अपने बाल-बच्चों-स्त्रियों के साथ घी-रोटी का मन भरकर भोजन जीमते हैं, उसके बाद भोले-भाले अज्ञानी गृहस्वामी, उनकी पत्नी, बाल-बच्चों और कामगारों के लिए बचा-खुचा और रूखा-बासी भोजन गुड़-पानी के साथ निगलने के लिए छोड़ जाते हैं। स्वयं पान का बीड़ा चबाते हुए, किसान को आशीर्वाद देते हुए दक्षिणा समेत, तोंद पर हाथ फिराते हुए निकल जाते हैं, जैसे ऊख (गन्ने) के खेत में जी भर ऊख (गन्ने) खाकर ईमानदार सियार खुशी से हुआँ-हुआँ करता हुआ जंगल की तरफ भाग जाता है। इस तरह अपने-अपने घर की राह लेते हैं। इस तरह दो-एक स्वार्थी लालची साधु ब्राह्मण कई अल्पव्यस्क अल्हड़ किसानों के जिगरी दोस्त बनकर, उन्हें कीर्ति के लालच में फंसाकर उनसे छोटी-बड़ी सभाएँ करवाकर कुछ ब्राह्मणों-पंडितों को शाल-दुशाले भेंट कराते हैं और शेष को दक्षिणा दिलवाते हैं। वह तो खैर मनाइए कि किसानों द्वारा नए बनवाए हुए शौचालयों को बख्श देते हैं, वरना किसान जो भी नए मंदिर, चबूतरे, भवन आदि बनवाते हैं, उनसे उद्यापन के बहाने ब्राह्मण-भोजन और दक्षिणा तो झटक ही लेते हैं।

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बलरामपुर में थारू जनजाति के बीच दो दिन

प्रत्येक चैत्र मास की प्रतिपदा तिथि को यह ब्राह्मण-पंडित किसानों के घर-घर जा वर्ष फल बाँचते हैं और दक्षिणा लेते हैं। इसी प्रकार रामनवमी और हनुमान जयंती के बहाने पंडित-पुरोहित की गली में यदि कोई गाँव का बड़ा किसान हुआ, तो उससे घी-रोटी का ब्राह्मण-भोजन करवाते हैं और यदि गली में सारे के सारे किसान गरीब हुए, तो उन सभी से एक-एक करके चंदा जमा करते हैं और ब्राह्मण भोजन की दावत उड़ाते हैं।

जेजुरी के धार्मिक मेले में किसान अपने बाल-बच्चों के साथ तालाब आदि स्थानों में स्नान करते हैं, तो यह ब्राह्मण-पंडित वहाँ संकल्प के नाम पर उन सबसे एक शिवराई दक्षिणा लेते हैं। इस मेले में पौन लाख से कम लोग नहीं आते। उन लाखों में से अनेक अल्हड़ धनवान किसानों की गोद में मरियल खूँसट मुरली (देवदासी) बिठाकर किसानों से देव ब्राह्मण सुवासिनी के नाम पर घी-रोटी के लायक धन निकलवा ही लेते हैं। इसके अतिरिक्त जब किसान खंडोबा देवता के आगे चढ़ाने के लिए हल्दी-खोपरा आदि पुजौरा खरीदते हैं तो ब्राह्मण-पंडित भीतर से बनिये के साथ साठ-गाँठ करके किसान को लूटते हैं। प्रत्येक आषाढ़ मास की एकादशी को ब्राह्मण-पुरोहित, जिन कंगाल किसानों में सीधा देने की भी शक्ति नहीं होती है, उनसे भी कम से कम एक पैसा तो दक्षिणा ले ही लेते हैं।

पंढरपुर में सारे किसान अपने बीवी-बाल बच्चों के साथ चंद्रभागा नदी में स्नान करने जाते हैं, उस समय पंडित-महाराज नदी-तट पर खड़े होकर संकल्प का पाठ करके उन सबसे एक-एक शिवराई अवश्य लेते हैं। यह धार्मिक मेला भी एक लाख से कम का नहीं होता। उन किसानों में से कुछ से दस ब्राह्मण-सुवासिनियों को भोजन कराने योग्य अथवा कुछ से कम से कम एक ब्राह्मण-सुवासिनी को भोजन देने योग्य धन उगाहते हैं, फिर घर के भीतर कक्ष में अपने ही घर की स्त्रियों को थाली के सामने बिठाकर रखते और वहाँ एक-एक किसान को बारी-बारी ले जाकर कहते हैं, ‘वह देखो, तुम्हारे नाम की ब्राह्मण-सुवासिनियाँ भोजन पाने बैठी हैं। उन्हें कुछ दक्षिणा देने की इच्छा हो तो दो, अन्यथा उन्हें दूर से ही नमस्कार करके बाहर चले जाओ, तब वे देवता (बिछोवा) को नैवेद्य भेजकर भोजन कराने बैठ जाएँगी।’ ऐसे-ऐसे ईमानदारी के धंधे करके पंढरपुर के सैकड़ों ब्राह्मण ‘बड़वे’ श्रीमान बन बैठे हैं।

[bs-quote quote=”किसान की मृत्यु के बाद ब्राह्मण-पंडित मरघटिये-ब्राह्मण का स्वांग रचाकर किसानों के पुत्र से प्रतिदिन नाना प्रकार की विधियां कराते, उनके घर में प्रतिदिन गरुण-पुराण बांचते, दसवें दिन धनकबड़ी आदि डिपो के जागीरदार श्रीमान काक रूपधारी ब्राह्मणजी को काँव-काँव करके पिंड भोजन का सम्मान प्रदान कराते हैं। इस निमित्त यह ब्राह्मण-पंडित किसानों से गरुण-पुराण वाचन की मजदूरी के साथ-साथ कम से कम और न हो तो तांबा, पीतल, छतरी, दंड, गद्दी और जूते दान में ले लेते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

प्रत्येक श्रावण मास की ‘नागपंचमी’ के दिन बिल के निवासी कठबैद (नीम-हकीम), मांत्रिक या सँपेरे जीते-जागते साँप की टोकरियाँ बगल में दबाकर किसानों के गलियों-मोहल्लों में ‘नाग को दूध पिलाओ’ पुकार लगाते हुए पैसा इकट्ठा करते फिरते हैं। ‘नागाय दक्षिणा समर्पयामि’ मंत्र गाते हुए पैसा इकट्ठा करने का परंपरागत सुनहरा मौका था, परंतु हाय! वह छीन लिया है मांत्रिकों-सँपेरों ने। ब्राह्मण-पंडितों ने इस अधिकार छीने जाने के विरुद्ध उन मांत्रिकों-सँपेरों पर हर्जाना वसूलने ने के लिए मुकदमा नहीं चलाया, यह तो ठीक हुआ परंतु फिर भी पत्थर का या मिट्टी का साँप बनाकर उसकी पूजा करवाकर ये ब्राह्मण-पंडित अज्ञानी किसानों से दक्षिणा ले ही लेते हैं।

श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण-पंडितों को महार के गले की काली डोरी का ध्यान नहीं आता। वे पहुँचते हैं टीम टामवाले अनेक कुनबियों के गले में सफेद डोरे वाले गागाभट्ठी ‘जनेऊ’ पहनाने के बाद सीधा और दक्षिणा पर छापा मारते हैं। कुछ किसानों के हाथ में ‘राखी’ के धागे के बदले उनसे एक-एक पैसा दक्षिणा ऐंठ ही लेते हैं।

कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को ब्राह्मण-पंडित कई धनी किसानों को भजन-कीर्तन सप्ताह मनाने के लिए बहका लेते हैं। उनके गले में वीणा लटका, उनके इष्ट मित्रों के हाथों में मंजीरा थमाकर उन सबको मृदंग की ताल पर बारी-बारी से रात-दिन तोते की तरह रटंत लगवाते हुए गाना गवाते और नचवाने के काम में फँसा देते हैं और स्वयं उनके सामने बड़े ठाठ से तकिये का टेका लगाए, उनकी सारी विचित्र लीलाएँ देखकर, हर रोज जलपान के नाम पर उनसे पैसे उगाहते हैं। गोकुलाष्टमी की रात हरिविजय ग्रंथ के तीसरे अध्याय का पाठ करके यशोदा की प्रसूति-सेवा-सुश्रूषा आदि का कारण बतलाकर चूड़ी कंगन की माँग नहीं करते, इसे कृपा ही समझो, परंतु किसानों से दक्षिणा अवश्य खसोटते हैं। फिर प्रात:काल सप्ताह के पारण के नाम पर किसानों के खर्चे से आयोजित घी-रोटी की दावतें पहले उड़ाते हैं और बचा-खुचा, ठंडा-बासी खाना किसानों और मंजीरा मृदंग बजनियों के लिए छोड़ अपने घर प्रस्थान करते हैं।

और अंत में श्रावण मास के अंतिम सोमवार को पंडित-ब्राह्मण लगभग सभी भोले श्रद्धालु अनपढ़ किसानों से ब्राह्मण-सुवासिनी को भोजन देने के नाम पर कम से कम घी-रोटी और यथोचित सीधा सामग्री लेकर अपनी पत्नी, बाल-बच्चों के साथ खा-पीकर प्रसादी के रूप में ठंडी एक-दो पूरण-पोली तथा मुट्ठी भर भात किसी टूटे-फूटे पत्तल पर रखकर दूर से ही किसानों की झोली में फेंक देते हैं और इस तरह किसानों को संतुष्ट करते हैं।

प्रत्येक भाद्रपद मास में पंडित-ब्राह्मण हरतालिका व्रत के बहाने आबाल-वृद्ध, किसान स्त्रियों से दान-दक्षिणा के दो-दो पैसे लूट ही लेते हैं।

गणेश चतुर्थी को किसानों के घर जाकर गणपति के आगे ताली बजाकर आरती गाने के बदले उनसे कुछ दक्षिणा वसूल ही लेते हैं।

ऋषि पंचमी (भादों सुदी पंचमी) के दिन सिरमुंडी-विधवा, किसान-औरतों को पानी के डबरे में डुबकियाँ लगवाते और ब्राह्मण-पंडित किसानों के बलबूते पर गणपति के नाम से दिन में घी-रोटी और मोदकों की थाली पर हाथ मारने के बाद ऊपर से तो कीर्तन-कथा का रूप दिखलाते और भीतर से रात-दिन प्रसिद्ध कसबी कंचनी की स्मृति में ध्यान लगाये रहते और उनसे सुमधुर गाना सुनने में लीन रहते हैं, इसलिए किसानों से घर की कुम्हारी गौरी के मुख की ओर देखने की उन्हें फुरसत ही नहीं होती।

अनंत चतुर्दशी (भादों सुदी चौदस) के नाम पर किसानों से दक्षिणा लेते हैं। पितृपक्ष में ब्राह्मण-पंडित कुल सारे किसानों के बीच लुटेरों वाली कुछ ऐसी लूट-खसोट मचाते हैं और उनके पीछे हाथ धोकर लग जाते हैं कि किसानों में मोल-मजदूरी करने वाली अनाथ दीन-दरिद्री विधवा-बेवा किसान स्त्रियों से भी गणपति के नाम पर कुछ न हो तो सीधा, दक्षिणा और कद्दू की फांकें ले ही लेते हैं और अपने पैरों में उनके सिर रखवाए बिना उनकी छुट्टी नहीं करते। जब दरिद्र-दीनों से भी इतना खसोटते हैं, तब भोसले, गायकवाड़, शिंदे, होलकर आदि की तो कथा ही क्या?

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मनरेगा: रोजगारसेवक को खर्चा-पानी दिए बिना भुगतान नहीं

तभी जैसे ही कपिला षष्ठी का योग आया कि ब्राह्मण-पंडित अनेक धनी किसानों के वाई, नासिक आदि तीर्थ स्थानों में ले जाकर दान-धर्म के बहाने उनसे काफी धन हर लेते हैं और शेष जितने सारे दीन-दरिद्र किसान होते हैं, उनसे भी नदी-स्नान के समय कम से कम एक पैसा दक्षिणा तो लेते ही हैं।

अंत में अमावस के दिन ब्राह्मण-पंडित सीधा और दक्षिणा के लालच के कारण किसानों के बैलों के पांवों की पूजा करते हैं।

विजयादशमी को घोड़े तथा कचनार वृक्ष के पूजन के निमित्त किसानों से दक्षिणा लेते और यदि हाथ लग सके तो शरद पूर्णिमा (कोजागर) की रात किसानों के दूध पर झपट्टा मार लेते हैं।

अमावस्या को लक्ष्मी-पूजन और इस पूजा के निमित्त किसानों से खील-बतासों की दक्षिणा लेते हैं।

कार्तिक मास में बलि प्रतिपदा के दिन ब्राह्मण-पंडित मांग-महार लोगों के समान हाथ में पंचारती (आरती की थाली) ले किसानों की आरती उतारते-उतारते ‘इडा पीड़ा का संकट टले, बलि राजा का राज आवे’ यह मूल आशीर्वाद देकर किसानों से आरती के बदले धन न मांगकर हाथ पर दुशाले ले, उनसे यजमान का नाता जोड़ किसानों के घर में जाकर एक हकदार की तरह उनसे भिक्षा मांगते फिरते हैं।

आलंदी के धार्मिक मेले में किसान अपने परिवार सहित इंद्रायणी नदी में स्नान कर रहे होते हैं तो यह ब्राह्मण-पंडित उन सबके आगे संकल्प पढ़ने के बदले उनसे एक-एक पैसा दक्षिणा लेते हैं। इस मेले में लगभग पौन लाख से कम यात्री नहीं आते। इसके बाद द्वादशी को देव ब्राह्मण सुवासिनी के नाम पर कई सारे भोले श्रद्धालु किसानों से घी-रोटी का और यदि बहुत ही निर्धन हुआ, तो उससे सीधा-सामग्री ले, अपने परिवार के साथ भोजन पाते हैं और उन सब अज्ञानी भक्तों के लिए बस मुख से आशीर्वाद के वचन उधार देते हैं।

इसके अतिरिक्त आस-पड़ोस गांवों के अनाड़ी-भोले किसानों को हर पखवाड़े में धर्म की यात्रा करने का चस्का लगा देते हैं और उन सबसे बारहो महीने हर द्वादशी को बारी-बारी करके घी-रोटी वाले ब्राह्मण-भोजन की जुगत लगा लेते हैं। यही नहीं, दूसरे कई जिलों के धनी किसानों में भी होड़ पैदा कर देते और उन सबसे घी-रोटी के सहस्रभोज करवा लेते हैं और यह भी कि दूरदराज गांवों के किसान जिन्हें पंचों ने बैर और द्वेष के कारण यूँ ही अपराधी करार दे दिया होता है, उन किसानों का क्षोरकर्म कराके उन्हें प्रायश्चित के नाम पर जितना मूंड़ते हैं, उसकी भला क्या कोई गिनती है!

कृष्ण पक्ष की द्वादशी को यह ब्राह्मण-पंडित किसानों के घरों के आंगन के तुलसी-चौरे के सामने धोती का ही अंतरपट पकड़ रखकर मंगलाष्टकों के बदले कोई से दो-चार श्लोक और आर्या छंद की कोई रचना कहकर तुलसी-विवाह करवा देते हैं और किसानों से आरती के नाम पर पूजा के चढ़ावे के पैसे के साथ-साथ, गाय-भराई विधि का कुछ और भी सामान हाथ लग जाए, तो उसे भी समेटकर ले जाते हैं।

 

हर पौषमास की मकर-संक्राति को किसानों के घर में उस वर्ष की संक्रांति का वर्षफल बांचकर उनसे दक्षिणा लेते हैं और कई निरक्षर भोले श्रद्धालु किसानों को अगाध पुण्यप्राप्ति का कुछ ऐसा प्रलोभन दिखलाते हैं कि वे किसान बड़े उत्साह-उल्लास से अपने गन्ने के खेत ब्राह्मण-पंडितों-पुरोहितों को लूटने देते हैं।

प्रत्येक माघ मास में आने वाली महाशिवरात्रि को यह ब्राह्मण-पंडित किसानों के मुहल्ले वाले मंदिर में शिवलीलामृत की आवृत्तियां करके उनसे सूर्योदय से पूर्व पाठ की समाप्ति करते समय किसानों से ग्रंथ वाचन के बदले सीधा और दक्षिणा समेट ले जाते हैं।

हर फाल्गुन में होली पूजा के समय किसान उल्टी-मुट्ठी मुँह पर मार-मारकर ‘बों-बों-बों’ आवाज करके चीखते-पुकारते हो-हल्ला मचाते हैं- सो शायद कह रहे होते हैं कि अब गांठ का सारा पैसा जाता रहा या फिर शायद वे टनाटन बों-बों शोर करके हिंदू धर्म को कोस रहे होते हैं, परन्तु यह ब्राह्मण पंडितजी उनसे भी कुछ न कुछ दक्षिणा लिए बिना छोड़ते नहीं हैं- चाहे बाद में वे किसान धुलेंडी को सिर में मिट्टी भरा करें या अपने बाल नोचा करें। इससे उन्हें क्या?

हर साल आने वाले ऊपर लिखे हुए त्योहारों के अतिरिक्त बीच-बीच में चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, ग्रहों की उल्टी-सीधी दशा के बारे में बताकर ब्राह्मण-पंडित किसान से अनेक प्रकार के दान लेते और कुल सारे त्योहारों के उपहार बगल में मार, व्यतिपात और असगुन के नाम पर किसानों की गली-गली में भीख मांगते-फिरते हैं और यह भी कि किसानों के मन पर हिंदू धर्म की दृढ़ पकड़ बनी रहे और वे नि:संग होकर उनके फेर में पड़े रहें, इस हेतु से यह ब्राह्मण पंडित धनी किसानों के घर-घर में रात को कभी-कभार पांडव प्रताप आदि गपोड़ा-पुराणों का पारायण करके उनसे पगड़ी-धोती की और द्रव्य की जुगत लगा लेते हैं। नमकहरामी ब्राह्मण पंडित तो अपने किसान-यजमान की बहू-बेटियों को फेर में फंसाकर उन्हें उल्टा-सीधा करना सिखाते हैं और भी बीच-बीच में मौका देखकर यह ब्राह्मण-पंडित किसानों से घर में सत्यनारायण की पूजा कराते, पहले किसान के पल्ले सवा सेर माप की स्वच्छ सूजी, कच्चा दूध, रवेदार घी और सफेद शक्कर का खर्चा डालकर इनसे बनाया गया प्रसाद पेट में उतार, फिर अपने बार-बच्चों सहित घी-रोटी का भोजन उड़ा, उनसे भरपूर दक्षिणा वसूल करके रात को घर लौटते समय आप खुले हाथ चलते और लालटेन किसान के हाथ में थमाकर घर की राह चल पड़ते हैं।

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इस सारे फेर में से यदि कुछ निर्धन किसान स्त्री-पुरुष भूल से बच भी गए, तो ब्राह्मण कथावाचक उन सबको किसी ऐसे-वैसे मंदिर में हर रोज रात को इकट्ठा कर लेते हैं। उन्हें राधा-कृष्ण लीला संबंधी पुराण-कथाएँ सुनने का चस्का लगा देते हैं। कथा-समाप्ति के समय उन सबमें अधिक से अधिक देने की होड़ लगा, थाली में ढेर सारी महादक्षिणा जमा करके अंत में उनसे अलग से जमा किये चंदे के खर्चे से स्वयं बड़ी शान से पालकी में बैठते और शेष सारे श्रोताओं को पालकी के आगे-पीछे चलवाते हुए बड़ी धूमधाम से अपनी सवारी निकलवाते हैं।

कई अक्षरशत्रु ब्राह्मणों में पंचांग-पन्ना बांचकर पेट भरने लायक अक्ल भी नहीं होती। इसलिए वे अपने में से किसी एकाध मूरख बुद्धू को बैरागी-बाबाजी बना के उसके पैरों में खड़ाऊं और गले में वीणा लटका, किसी शूद्र से उसके सिर पर बड़ा सा छत्र तनवाते और शेष सारे उसके पीछे ढोल मंजीरा बजाते हुए, ‘जय राम, जय जय राम…’ का घोष करते हुए अज्ञानी किसानों के गली-मुहल्लों में भिक्षा अथवा कहो कि सम्मानित भीख मांगते फिरते हैं।

कई ब्राह्मण-पंडित बड़े-बड़े मंदिरों के विशाल सभा मंडप में अपने में से किसी सुंदर-सलोने युवक को कोमलांग-साधु बनाकर उसके हाथ में वीणा और करताल थमाते और शेष सब उसके पीछे पंक्ति बनाकर ढोल-मृदंग की ताल पर बड़े प्रेम से ‘राधा कृष्ण-राधा कृष्ण’ कहते हुए नचनिया छोकरे के समान हाव-भाव दिखलाते हुए चलते हैं। दर्शनार्थ आने-जाने वाली धनवान विधवा-बेवा को अपने जाल में फंसाकर अपना पेट भरते और बड़ी मौज मनाया करते हैं।

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कई मतिमंद ब्राह्मणों में पंडिताई-पुरोहिताई का धंधा करके मौज उड़ाने लायक अक्ल नहीं होती, सो वे अपने में से किसी एक बुद्धू लिपिकार को धार्मिक परगनादार बना देते और शेष सारे ब्राह्मण गांव-गांव जाकर अज्ञानी किसानों से धार्मिक-परगनादार के नाम कोई मनौती मनवा लेते और उसे इस बारे में सता-सताकर नाकों चने चबवाते हैं।

अनेक ब्राह्मण-पंडितों में वेद-शास्त्रों का अध्ययन करके सम्मानपूर्ण जीवन-निर्वाह करने की योग्यता नहीं होती, तब वे अपने में से किसी एक अधपगले भंगेड़ी को बागलकोट के स्वामीजी बना देते और शेष ब्राह्मण पंडित गांव-गांव जाकर कहते हैं, स्वामीजी सबके मन की बात जान लेते हैं, अंतर्यामी हैं, मन की मनोकामनाओं में से कुछ मनोकामनाएं पूर्ण होने के विषय में अन्य रीति से बतला देते हैं। ऐसी नाना प्रकार की कोरी गप्पे लगाकर अज्ञानी किसानों को स्वामीजी के दर्शनों के लिए ले जाते और इस भांति उनका द्रव्य हर लेते हैं।

ऊपर लिखे गए कुल सारे ब्राह्मणों-पंडितों-पुरोहितों के धर्म रूपी कोल्हू में पिसकर भी यदि किसानों की कमर टेढ़ी होने में कुछ असर रह जाए, तो ये ब्राह्मण-पंडित अंत में किसानों के मन में बदरीनाथ-केदारनाथ आदि की तीर्थयात्रा की लगन जगा देते, उन्हें काशी-प्रयाग ले जाकर वहां हजारों रुपयों की चपत जमाते, उनकी दाढ़ी-मूँछ मूंड़कर उन्हें वापस घर ला छोड़ते हैं। फिर अंत में उनसे काशी प्रयाग यात्रा से लौटने का विशेष धार्मिक समारोह कराते और उस बहाने बड़े-बड़े ब्राह्मण भोजन करवाते हैं।

अंत में किसान की मृत्यु के बाद ब्राह्मण-पंडित मरघटिये-ब्राह्मण का स्वांग रचाकर किसानों के पुत्र से प्रतिदिन नाना प्रकार की विधियां कराते, उनके घर में प्रतिदिन गरुण-पुराण बांचते, दसवें दिन धनकबड़ी आदि डिपो के जागीरदार श्रीमान काक रूपधारी ब्राह्मणजी को काँव-काँव करके पिंड भोजन का सम्मान प्रदान कराते हैं। इस निमित्त यह ब्राह्मण-पंडित किसानों से गरुण-पुराण वाचन की मजदूरी के साथ-साथ कम से कम और न हो तो तांबा, पीतल, छतरी, दंड, गद्दी और जूते दान में ले लेते हैं। इसके बाद किसानों के कुल सारे लड़कों वालों की मृत्यु होने तक श्राद्ध पक्ष में मृत व्यक्ति के नाम किसानों से पिंडदान कराते समय उनकी शक्ति के अनुरूप सीधा और दक्षिणा लेने की और वर्षाशन कराने की प्रथा उन्होंने शुरू कर रखी है। वह इस प्रकार की किसान-यजमान से ढेर सारी लल्लो-चप्पो लगाकर किसी को व्यवस्थापक, किसी को पटेल तो किसी को देशमुख आदि मुँहदेखी खोखली उपाधियों से संबोधित कर यह ब्राह्मण पंडित अपने लड़के-लड़कियों के विवाह आदि के समय किसानों से साग-सब्जी मुफ्त में मारते, परोसे की केले की पत्तल भी मुफ्त की ही, फिर उन पर अपना रोब बनाए रखने के लिए अंत में एकाध भोज में सबको निमंत्रित करके उन्हें मंडप में ला बैठाते हैं। पहले आप अपनी जात वाले स्त्री-पुरुषों के साथ भोजन पाते, फिर वहां की कुल पत्तलों की जूठन को ठीक-ठाक से सजाकर उसे भी अलग-अलग स्तर के अनुसार चुन रखते, उन्हें अपने शूद्र नौकरों की पंगत में बिठाकर बड़ी चालबाजी के साथ तरह-तरह के देख-दिखावे करके स्पर्शदोष से बचने का नाटक रचाते हुए इकट्ठा की हुई जूठन उन्हें दूर से ही परोसते हैं, परंतु यही छूत के पुजारी कोठेवाली या तिनका-महल में रहने वाली किसानों की अनाथ विधवा औरतों का मुख चूमने-चूसने में, उनके मुख-रस की चुसकियां लेने में रत्तीभर भी विधि निषेध नहीं मानते, उल्टे अपने यजमान किसान को इतना नीच मानते हैं कि अपने आंगन के हौज को या कुएँ को छूने भी नहीं देते, तब उनसे भला रोटी-बेटी का व्यवहार कौन करेगा।

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ऊपर कहे हुए विवरण को सुन-पढ़कर कोई यह शंका कर सकता है कि किसान लोग आज के दिन तक इतने अज्ञानी बने रहकर ब्राह्मणों-पंडितों से क्यों कर लुटते रहे? इस पर मेरा उत्तर यह है कि पहले जब आर्य ब्राह्मण पंडितों का इस देश में शासन चल रहा था, तब उन्होंने अपने पराजित वशीकृत शूद्र किसानों पर विद्या ज्ञान देने की पूरी-पूरी पाबंदी लगा दी थी- उन्हें हजारों वर्षों तक मनमाने ढंग से सता-सताकर लूटते-खसोटते रहे। इस बारे में उनके मनुसंहिता जैसे स्वार्थपूरित ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। आगे चलकर कुछ काल बाद चार निष्पक्ष पवित्र विद्वानों को यह ब्रह्म कपट अच्छा नहीं लगा और उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना करके आर्य ब्राह्मणों को ढोंगी धर्म की बड़ी दुर्गत बनाकर, सताये-कुचले अज्ञानी शूद्र किसानों को आर्य पंडितों के पाश से मुक्त कराने का सपाटा शुरू कर दिया था। तभी आर्यों के मुकुटमणि महाधूर्त शंकराचार्य ने बौद्ध धर्मीय सज्जनों के साथ नाना प्रकार के वितंडावाद करके हिंदुस्तान से उस धर्म का उच्चाटन करने का पुष्कल प्रयत्न किया, तथापि इससे बौद्धधर्म की अच्छाई का तिलमात्र भी घाटा न हुआ, उलटे उस धर्म की दिन-ब-दिन अधिक बढ़ोत्तरी होती रही। तब अंत में शंकराचार्य ने तुर्की लोगों को मराठों में शामिल करके, उनके हाथों तलवार के जोर पर वहां के बौद्धजनों का पराभव किया। आगे चलकर आर्यभट्टजी को गौ-मांस खाने और मदिरा पीने की मनाही करके, अज्ञानी कृषक जनों के मन पर वेदमंत्रों के जादू और ब्राह्मण पंडितों का आतंक जमा दिया।

इसके बाद कुछ काल बीतने पर हजरत मुहम्मद पैगंबर के जवां मर्द शिष्य जब आर्य ब्राह्मणों का और उनके नकली धर्म सहित सोरटी सोमनाथ जैसी मूर्तियों का तलवार के प्रहारों से विध्वंस कर शूद्र किसानों को आर्यों के ब्रह्म कपट से मुक्त कराने लगे, तब ब्राह्मण-पंडितों में से मुकुंदराज और ज्ञानोवा जैसे कवियों ने भागवत ग्रंथ में से कुछ कल्पित भाग उठाया। उसके आधार पर देशी भाषा में विवेकसिंधु और ज्ञानेश्वरी नाम के दांव-पेंच वाले ग्रंथ लिखकर किसानों के मन इतने भरमा डाले कि वे कुरान सहित मुहम्मदी लोगों को नीच मानकर उलटे उनसे द्वेष करने लगे। इसके बाद कुछ काल बीतने पर किसानों में तुकाराम नामक एक साधु का जन्म हुआ। किसानों के बीच उत्पन्न शिवाजी राजा को ज्ञान देकर वह साधु इस भय के मारे ब्राह्मण-पंडितों में उत्पन्न कट्टर वेदांती रामदास स्वामी ने महाधूर्त गागाभट्ट से साठगांठ करके निरक्षर शिवाजी के कान फूंकने का षड्यंत्र रचा कि कहीं शिवाजी राजा के हाथों ब्राह्मण-पंडितों के कृत्रिम धर्म को उखाड़कर दूर ना फेंक दे और कहीं किसानों को उनके पंजे से छुड़वा ना दे, और अज्ञानी शिवाजी तथा निस्पृह कवि तुकाराम महाराज के बीच स्नेह भाव पूरी तरह बढ़ने ही नहीं दिया।

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आगे चलकर शिवाजी राजा के बाद उसके मुख्य सेवक ब्राह्मण पेशवा ने शिवाजी के औरस उत्तराधिकारी को सातारा के किले में बंदी बना रखा। पेशवा के शासन-काल के अंतिम दिनों में उन्होंने यह किया कि गाजर-शकरकंद का चूरमा और चटनी-रोटी खाकर गुजारा करने वाले और चीथड़े, बोरिया, लंगोटीधारी किसानों से वसूल किये गए पैसे से उनकी खेती की सिंचाई के लिए पानी का कोई प्रबंध करने में, बांध आदि बनवाने में कानी कौड़ी खर्च नहीं की और किया यह कि पर्वती जैसे मंदिर-संस्थान के अहाते में बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस हजार पंडितों-पुरोहितों के लिए शाल-दुशाले आदि के उपहार देने की धूम मचा दी। जिन किसानों को डाकुओं-लुटेरों ने पहले ही लूटकर कंगाल कर डाला था, उनसे जबरदस्ती वसूल किए गए पैसों के खजाने में से अज्ञानी किसानों के लिए और न हो तो कम से कम देशी विद्या देने के काम में दमड़ी-छदाम खर्च किया होता, परंतु किया यह कि ब्राह्मणों के स्वार्थ भरे धर्मग्रंथ का अध्ययन करने वाले ब्राह्मण-पंडितों के लिए सैकड़ों रुपयों के वर्षाशन देने में खुशी महसूस की।

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बाजीराव पेशवा साहब ने पार्वती मंदिर संस्थान (या कांजी-हौस) में बंद प्राणियों को मुहरें, स्वर्ण मुद्राओं का हलवा बांटने की जो बड़ी धूम मचा दी थी, इसमें हमें कुछ भी विचित्र नहीं लगता, क्योंकि बाजीराव असली खास आर्य जाति के ब्राह्मण जो थे। इस कारण उस पक्षपाती दानवीर ने पर्वती जैसे किसी मंदिर संस्थान में किसानों की कुछ अनाथ विधवाओं की अथवा निराश्रित असहाय बालक-बालिकाओं की सुविधा तो नहीं की, किया यह कि अपनी जाति के ब्राह्मण-पंडित, गवैये, पुजारी और अपने समर्थक चार-पांच भूले-भटके ब्राह्मण-पंडितों के लिए प्रतिदिन प्रात:काल नहाने को गरम पानी और प्रतिदिन दो समय उत्तम भोजन मिलने की सुविधा करवाई, साथ ही हरेक को उपवास के बाद दूध-पेड़े आदि के कलेवे की और पारण के अवसर पर तथा कुल तीज-त्योहार पर उनकी इच्छा के अनुसार पकवानों की ठेलमठेल मचवाई और उन सबके लिए नगाड़ों के साथ-साथ आठों याम गाना-बजाना सुनते बैठ मौज मनाने की यथोचित व्यवस्था करा रखी।

हमारी यह डरपोक अंग्रेज सरकार आज तक ऐसी प्रथाओं को चालू रखे हैं और मेहनती शूद्रादि, अतिशूद्र किसानों की खून-पसीने की कमाई से वसूल की गई पट्टी के धन से ऐसी प्रथाओं के नाम साल दर साल हजारों रुपये खर्च कर रही है।

वर्तमान समय में अनेक शूद्रादि-अतिशूद्र किसान ईसाई धर्म को अपनाकर मनुष्यपद को प्राप्त कर रहे हैं। इससे ब्राह्मण-पंडितों का महत्व घटता जाता और उन पर स्वयं मेहनत-मजदूरी के काम करके पेट भरने की नौबत आ पड़ी है। यह देखकर अनेक धूर्त ब्राह्मण-पंडित बावले हिंदू धर्म की शरण लेकर नाना प्रकार के नए-नए समाजों की स्थापना करके, प्रत्यक्षत: मुहम्मदी और ईसाई धर्म की निंदा करके उन धर्मों के बारे में किसानों के मन भ्रष्ट कर रहे हैं।

गाँव के लोग
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