क्या आपने कभी किसी मुस्लिम, सिख या ईसाई सदस्य को हिंदू महाविहार ट्रस्ट चलाते देखा है? और क्या आपने कभी किसी हिंदू, बौद्ध या ईसाई सदस्य को मस्जिद ट्रस्ट चलाते देखा है? आपके पास इसका उत्तर नहीं ही होगा। लेकिन यह आश्चर्य ही है कि बोधगया में, जहाँ भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसी महाबोधि महाविहार ट्रस्ट में ब्राह्मण भी शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि 1949 में पारित हुए कानून के आधार पर ब्राह्मणों को बोधगया महाविहार प्रबंधन समिति का सदस्य बनाया गया। जमीन भगवान बुद्ध की है, महाबोधि महाविहार बौद्धों का है, लेकिन प्रबंधन ब्राह्मण करते हैं। है न ये अजीब प्रबंधन का उदाहरण। शायद यह भारतीय धार्मिक प्रबंधन में ही संभव है।
यह दुनिया जानती है कि ब्राह्मणों ने भारत से बौद्ध धम्म को नष्ट करने करने का षड्यंत्र किया, लेकिन हैरत की बात तो यह है कि भारत में सरकार किसी की भी रही हो, बौद्ध विरासत पर अघोषित तौर पर प्रभुत्व ब्राह्मणों का ही रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्तमान सरकार है, जिसका मुखिया अपने आप को पिछ्ड़ी जाति का होने का दावा करता है किंतु शायद ही उसने भारतीय समाज के दलितों और पिछ्ड़ों के उत्थान के लिए कोई उल्लेखनीय काम किया हो। अल्पसंख्यकों के साथ तो सरकार के व्यवहार का कहना ही क्या। खैर! अब लौटकर बोधगया आ जाते हैं।
बोधगया ब्राह्मणवाद के चपेट में
बौद्धों का दावा है कि ब्राह्मण बोधगया महाविहार को कभी ‘हिंदू महाविहार’, कभी ‘विष्णु महाविहार’ तो कभी ‘शिव महाविहार’ कहते हैं। आरोप यह भी है कि बोधगया महाविहार पर ब्राह्मणों द्वारा अनैतिक तरीके से कब्जा करने की साजिश की जाती रही है। अब इसी मुद्दे लेकर पिछले महीने भर से भारत के ही नहीं विदेशी बौद्ध भी बोधगया महाविहार की ब्राह्मणों से मुक्ति के लिए आमरण अनशन पर बैठे हैं। किंतु, इस पर केंद्र सरकार ही नहीं बिहार की सरकार भी मौन है। इतना ही नहीं, स्थानीय प्रशासन ने अनशनकारियों को महाविहार से लगभग दो किलोमीटर दूर फेंक दिया है। यहाँ तक कि नागरिक सुविधाएं भी नहीं उपलब्ध कराई गई हैं।
ज्ञात हो कि आमरण अनशन पर बैठे बौद्ध भिक्षुओं की सरकार से मांग है कि बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों के मुक्त कराकर केवल और केवल बौद्धों को सौंप दिया जाए तथा ‘बोधगया महाविहार अधिनियम 1949’, जिसके तहत महाविहार प्रबंधन में ब्राह्मणों को सदस्य नियुक्त किया गया था, को निरस्त किया जाए। यह बौद्धों के साथ अन्याय है कि भगवान बुद्ध ने जहां ज्ञान प्राप्त किया, वह स्थान बौद्धों के हाथ में नहीं है, जो भी महाविहार के नाम पर दुनिया भर से विकास के लिए दान आता है, उसका प्रयोग अन्य कार्यों के लिए किया जाता है। लोग दूर-दूर से मेहनत करके बोधगया आते हैं और खुले मन से दान करते हैं। सवाल उठता है – वे दान क्यों करते हैं? ताकि यहाँ से बुद्ध धम्म का प्रचार और महाविहार का विकास हो सके।
यह भी कि यहाँ से बुद्ध की शिक्षाएँ ‘बुद्ध साहित्य’ के जरिए विश्व भर के लोगों तक पहुँचे। बोधगया महाविहार के दर्शनार्थ आए हुए अथितियों के लिए खाने और रहने की समुचित व्यवस्था की जाए। वर्तमान समिति किसी को खाना व रहने की व्यवस्था नहीं करती। इन्हीं वजहों के कारण बौद्ध धर्मावलंबी पिछले महीने भर से महाविहार के बाहर अनशन पर बैठे हैं। अब उनकी तबीयत खराब होने लगी है, लेकिन सरकार ने अभी तक उनके हक में कोई भी सकारात्मक कार्रवाई नहीं की है। इतना ही नहीं, गोदी मीडिया ने इस मामले की पूरी खबरों को नजरअंदाज कर दिया है। अगर आप इस बारे में कोई खबर सर्च करेंगे तो आपको सरकारी माध्यम से कोई खबर नहीं मिलेगी। केवल यूट्यूबर्स ही लगातार इस मुद्दे पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। यूट्यूबर्स ही इस आंदोलन की खबर दुनिया तक पहुंचाने का एकमात्र जरिया हैं। जिसके बाद देशभर में बौद्धों के इस आंदोलन को समर्थन मिल रहा है।
बौद्ध सिद्धांतों के खिलाफ चल रहा है पिंडदान
देश के अलग-अलग हिस्सों से बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग अब बोधगया पहुंच रहे हैं। और बोधगया महाविहार अधिनियम 1949 को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। महाबोधि महाविहार को पूरी तरह से बौद्धों को सौंपने की मांग कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं की मुख्य मांग है कि महाबोधि महाविहार प्रबंधन समिति से ब्राह्मणों को हटाया जाए। इसके लिए महाबोधि मंदिर अधिनियम को समाप्त कर नए कानूनों की श्रृंखला बनाकर मंदिर बौद्धों के अधीन कर दिया जाए।
दरअसल महाबोधि मंदिर अधिनियम 1949 की धारा 2 में ‘मंदिर-भूमि’ और ‘महंत’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। बौद्धों के अनुसार धारा 3 में जन्म आधारित ब्राह्मण महंत को ट्रस्ट का सदस्य नियुक्त किया गया है। धारा 10-4 में लिखा है कि महाविहार परिसर में पूजा अर्चना और पिंडदान पूरी तरह से बंद रहेगा। किंतु इसके विपरीत धारा 11 में लिखा है कि हिंदू और बौद्ध पूजा अर्चना या पिंडदान के लिए महाविहार परिसर में जाने के लिए स्वतंत्र होंगे। यही कारण है कि परिसर में पूजा अर्चना और पिंडदान जैसी परंपराओं को आज भी बराबर निभाया जा रहा है।
धारा 12 में यह भी लिखा है कि अगर हिंदुओं और बौद्धों के बीच कोई विवाद होता है तो राज्य सरकार अंतिम निर्णय लेगी। अब यह अधिनियम विवाद का कारण बन गया है। महाबोधि महाविहार में सभी विवादों का मूल कारण यह अधिनियम 1949 है जिसके खिलाफ बौद्ध भिक्षु और बौद्ध धम्म के मानने वाले अनशन पर बैठे हैं। क्योंकि यह अधिनियम गैरकानूनी है और विवाद पैदा कर रहा है। अधार्मिक ब्राह्मणों को, वंश के आधार पर, गैरकानूनी ब्राह्मण बनाना उसका अधिकार है, यह अधिनियम बौद्ध धर्म के विरुद्ध है। यह संविधान के भी विरुद्ध है।
यह बौद्ध सिद्धांतों के खिलाफ है। यह ब्राह्मणों द्वारा दुनिया पर कब्जा करने की साजिश के खिलाफ है। विवाद का कारण यही है। इस अधिनियम में लिखा है कि पूजा अर्चना और पिंडदान पूरी तरह से बंद रहेगा। यह पिंडदान अभी भी जारी है। इस आदि नियम में पूजा और अर्चना शब्द का प्रयोग ब्राह्मणत्व को बढ़ावा देने के लिए किया गया है। इसलिए इस आदि नियम को जल्द से जल्द हटाया जाना चाहिए। अन्यथा इस आंदोलन बहुत आक्रामक होने की आशंका है और इसका असर पूरे देश को प्रभावित करेगा।
बोधगया के बारे में पूरी दुनिया में यह मान्यता है कि यहीं पर तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के स्थान के रूप में प्रसिद्ध बोधगया बोध धम्म के अनुयायियों के लिए बहुत पूजनीय है। खासकर उस पवित्र बोधि वृक्ष के कारण जिसके नीचे तथागत बुद्ध ने ध्यान किया था। बुद्ध की महान रचना के बाद बोधगया एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। जहाँ प्राचीन काल से ही कई स्तूप और मठ बनाए गए हैं।
प्राचीन काल में बोधगया बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए सबसे बड़े तीर्थ स्थल की तरह था। लेकिन बाद में ब्राह्मणवादी षड्यंत्रों और विदेशी आक्रमणकारियों के कारण बोधगया इतिहास में दफन हो गया। विज्ञान यात्रा के पक्ष में चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा भारत यात्रा पर प्रकाशित पुस्तक में दावा किया गया है कि ह्वेनसांग ने 629 से 645 ई. यानी वर्तमान युग में महाबोधि महाविहार से यात्रा की थी। वहाँ उन्होंने बुद्ध प्रतिमा, महाबोधि वृक्ष, स्तूप और विहारों का खजाना देखा। ह्वेनसांग ने यह भी लिखा है कि लाखों ग्रन्थों में जम्बूद्वीप भर से राजा और प्रजा बोधि वृक्ष को देखने के लिए आते थे। और सभी धम्म में दीक्षित होते हैं।
7वीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने महाबोधि के बारे में विस्तार से लिखा था। परिसर में श्रृंगालदीप यानी श्रीलंका का संगम भी बना था, जहां ताम्र शिलालेख का भी उल्लेख है। लेकिन शिव, शिवा या विष्णु का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिला। क्योंकि तब भी महाबोधि पूरी तरह बौद्ध धम्म का था। कहा जाता है कि ह्वेनसांग द्वारा बताई गई बोधगया की जानकारी के आधार पर 1802 में बर्मा यानी आज के म्यांमार से एक मिशन बोधगया आया था। और वहां बौद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास शुरू हुआ। इसके बाद अंग्रेजों का ध्यान भी दूसरी तरफ गया और 1811 में फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन ने बोधगया का दौरा किया और 1836 में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की।
एतिहासिक तथ्यों के अनुसार ब्रिटिश सेना के इंजीनियर मेजर जनरल सरअलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861 में पहली बार बोधगया का दौरा किया था और खुदाई की सिफारिश की थी। 1863 में मेजर मीड ने यहां खुदाई की थी। 1871 में कनिंघम ने दोबारा बोधगया का दौरा किया और इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की।
1892 में अलेक्जेंडर कनिंघम ने अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘महाबोधि द ग्रेट बुद्धिस्ट टेंपल’ में महाबोधि को बिहार प्रदेश की बौद्ध विरासत बताया। यानी जब महाबोधि की खोज बिहार में हुई, तब से वह वहां बौद्ध धर्म का प्रतीक बन गया। किसी हिंदू मंदिर या किसी देवता का नहीं। 1875 से 1880 के बीच ब्रिटिश सरकार ने बर्मी मिशन की मदद से बोधगया के स्थल का पूरी तरह से जीर्णोद्धार किया। बोधगया के अवशेष मुरिया और शुंगकाल से लेकर गुप्त और पालकाल तक पाए जाते हैं। इस जगह का मुख्य आकर्षण महाबोधि महाविहार का ऊंचा शिखर है, जो बोधि वृक्ष के सामने बना है। इसी बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। फिर भारत से बुद्ध धम्म पूरी दुनिया में फैल गया। आज बोधगया पूरी दुनिया में बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए सबसे बड़ा महाविहार है।
दुनिया भर से बौद्ध धर्मावलंबी तथागत बुद्ध की विरासत से जुड़ने के लिए यहां आते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि महाविहार की देखभाल करने वाली समिति में ब्राह्मण भी शामिल हैं। आभास तो यह भी होता है कि समिति सम्मलित चारों बौद्ध भिक्षु गांधीवादी बौद्ध हैं। अब यहाँ पर यह सवाल उठ सकता है कि गांधीवादी और अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट में किस प्रकार अंतर हैं। उस अंतर इस प्रकार से जाना जा सकता है।
भिक्षु संघरक्षिता का कहना है कि कुछ लोगों द्वारा नमो बुद्धाय कहने से, पंचरंगा झंडा लगाने से, या चीवर पहनने से लोगों की चेतना का और बौद्धिक विकास नहीं होगा, लोग दुखों से मुक्त नहीं होंगे। इसलिए लोग, कपड़े और पंचाल के झंडे की संख्या बढ़ाकर, पूजा करने वालों की संख्या देखकर ही बौद्धों का विकास समझ रहे हैं। जो लोग इस विकास को समझ रहे हैं, मैं उन्हें गांधीवादी बौद्ध कह रहा हूँ।
जो लोग लोगों के बौद्धिक विकास में मदद करते हैं, अपनी चेतना का विकास करते हैं, लोगों का बौद्धिक विकास करते हैं, और लोगों को उनकी चेतना और बौद्धिक विकास को विकसित करने में मदद करते हैं, वे लोगों को उनके दुखों से छुटकारा पाने में मदद करते हैं और लोगों को उनके दुखों से छुटकारा पाने का उपाय बताकर उन्हें उनके दुखों से छुटकारा पाने में भी मदद करते हैं। ऐसे लोग अंबेडकरवादी बौद्ध हैं।
ऐसा भी कह सकते हैं कि गांधीवादी बौद्ध और अंबेडकरवादी बौद्ध में मुख्य अंतर यह है कि गांधीवादी बौद्ध धर्म को अधिक आध्यात्मिक और अहिंसक दृष्टिकोण से देखते हैं, जबकि अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म को सामाजिक न्याय और समानता के संघर्ष के रूप में देखते हैं। गांधीवादी बौद्ध धर्म में अहिंसा, सत्य और आत्म-संयम पर जोर दिया जाता है, जबकि अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म में सामाजिक न्याय, समानता और शिक्षा पर जोर दिया जाता है। अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म का मुख्य उद्देश्य दलितों, महिलाओं और वंचित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना और उन्हें शिक्षा और सामाजिक न्याय प्रदान करना है। इस प्रकार, दोनों धाराओं में बौद्ध धर्म के प्रति दृष्टिकोण और उद्देश्य में अंतर है।
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विश्व धरोहर के इतिहास को बदलने के साजिश
यहाँ की समिति लगातार बोधगया महाविहार के ब्राह्मणीकरण में लगी हुई है। आरोप यह भी है कि महाबोधि महाविहार का मुख्य स्थल और उसके आसपास कई छोटे-बड़े हिंदू मंदिर बनाए गए हैं। कहीं-कहीं तो हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां रख दी गई हैं। ब्राह्मण थोड़ी-थोड़ी करके धीरे-धीरे महाविहार स्थल पर अपने पैर फैलाते जा रहे हैं।
अब जो ब्राह्मण समिति के अंदर घुस गए हैं। उनके अंदर 40 कार्यकर्ता हैं। मुख्य महाविहार के ठीक सामने बाईं ओर एक छोटी सी इमारत है। जिसमें स्थापित भगवान बुद्ध की पांच मूर्तियों को भाँति-भाँति के कपड़ों से साज-सज्जा करके उन मूर्तियों को पांच ‘पांडव’ कहने लगे हैं और उनके पास स्थापित एक महिला की मूर्ति को कोई माता द्रोपदी और कोई माता कुंती बताकर वे खुलेआम इसका प्रचार कर रहे हैं। और बीटीएमसी उन्हें रोक नहीं रही है क्योंकि BTMC के लोग ही इसे बढ़ावा दे रहे हैं।
डॉ. विलास खराड़ जो पाँच पांडवों के बारे में बता रहे हैं, आपको यह अंदाजा हो जाएगा कि भगवान बुद्ध और उनकी भूमि को ब्राह्मणों ने कैसे विस्तारित किया है। अब आप समझ गए होंगे कि कैसे भगवान बुद्ध को कभी विष्णु का अवतार घोषित कर दिया जाता है, तो कभी पांडव। पिछले दिनों एमपी के सांची स्तूप से भी ऐसी ही कुछ कोशिश करने का खुलासा हुआ है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रशासन को इस बारे में पता नहीं है या यह महज एक संयोग है? नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि यहां बिजली है, पानी है, सारी सुविधाएं यहां दिखती हैं। तो हम यह नहीं कह सकते कि सरकार और एएसआई को नहीं पता। क्योंकि यह विश्व धरोहर है और यूनेस्को के अंतर्गत आता है। इस प्रकार यह पूरी दुनिया का मसला है। यह कोई छोटी बात नहीं है।
देश में कई ऐसे बौद्ध महाविहार हैं, जहां हिंदुओं का कब्जा है और उन्हें हिंदू महाविहार मानकर पूजा जाता है। ऐसे में बोधगया में चल रहे आंदोलन ने इन मुद्दों को उजागर किया है। भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने भी इस मुद्दे को उठाया है और कहा है कि वह आंदोलन में हिस्सा लेंगे। ऐसे में अब देखना होगा कि इस ऐतिहासिक आंदोलन में अन्य दलित नेता भी हिस्सा लेते हैं या नहीं। इस मुद्दे को लेकर यहां आने का आपका क्या इरादा है? सर, पिछले ढाई हजार सालों से बुद्ध बिहार पर ब्राह्मणों का कब्जा रहा है। 1971-78 में भारत की आजादी के बाद भी ब्राह्मणों का कब्जा रहा है।
जिस कानून को हम खारिज कर बदलने की बात करते हैं,वह कानून क्या है? इस संबंध में हम कुछ जानकारी है कि यह कानून जून 1949 में बना था। जुलाई 1949 में राज्यपाल ने इस कानून को मंजूरी दे दी थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात, भारत का संविधान 26 नवंबर 1950 को अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 को संविधान की घोषणा की गई थी। इसके बावजूद जुलाई 1949 में इस कानून को मंजूरी दे दी गई। और राज्यपाल ने इसे मंजूरी दे दी। इस कानून का नाम है बोधगया महाविहार अधिनियम 1949।
अब सवाल यह उठता है कि ये कानून 1959 में क्यों बनाया गया? ये कानून शायद इसलिए बनाया गया क्योंकि संविधान के अस्तित्व में आने के बाद बिहार की व्यवस्था और बिहार का स्वामित्व बिहार सरकार को नहीं दिया जा सकता। या जानकारी मिलने के बाद, संविधान बन चुका था, सिर्फ संवैधानिक न्यायालय की स्वीकृति नहीं मिली थी, और उसे अपनाना बाकी था। और इसीलिए उस समय बिहार विधानमंडल, डॉ. अंबेडकर के शब्दों में, धर्म के आधार पर बहुमत का विधानमंडल, धर्म के आधार पर बहुमत का विधानमंडल, हिंदुओं का विधानमंडल, संविधान को अपनाने से पहले जानबूझ कर ये कानून बनाया गया।
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अनशन पर बैठे लोगों का कहना है कि जब हिंदुओं के पास महाविहार है, मुसलमानों के पास मस्जिद है, सिखों के पास गुरुद्वारा है, ईसाइयों के पास चर्च है तो बौद्धों के पास स्तूप क्यों नहीं? इसे मंदिर का नाम क्यों दिया गया?
इसे मंदिर का नाम इसलिए रखा गया क्योंकि यह हिंदुओं के अधिकार क्षेत्र में है। यह हिंदुओं की संप्रभुता है। यह कानून कहता है कि राज्य सरकार को प्रशासनिक समिति बनाने का अधिकार है। राज्य सरकार जो चाहेगी, करेगी। किसकी राज्य सरकार? यह हिंदुओं की राज्य सरकार है। हिंदुओं की राज्य सरकार, जो भी प्रशासनिक समिति नियुक्त करेगी, वह बिहार की प्रशासनिक समिति की देखरेख करेगी। इसमें 8 सदस्य और एक अध्यक्ष होगा। 9 सदस्यों की एक समिति बनेगी।
यह एक प्रशासनिक समिति होगी। इसमें प्रावधान किया गया कि इसमें 4 हिंदू और 4 बौद्ध होंगे तथा इस कानून में मूल प्रावधान यह था कि समिति का अध्यक्ष जिला मजिस्ट्रेट होगा। जिला मजिस्ट्रेट हिंदू होना जरूरी है। अगर आप हिंदू नहीं हैं तो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कमेटी में एक हिंदू प्रतिनिधि नियुक्त करेंगे। इसका मतलब है कि 5 हिंदू और 4 बौद्ध होंगे। ऐसी एक कमेटी बनेगी और उन सभी की नियुक्ति सरकार करेगी। यह सब बिहार सरकार के अधीन है।