Tuesday, May 14, 2024
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बुलडोजर दादागिरी के विरुद्ध अभियान की शुरुआत

भोपाल के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने बुलडोजर दादागिरी के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय किया है। इस अभियान के अंतर्गत यह मांग की जाएगी कि जिनके मकान और झोपड़े ध्वस्त किए गए हैं उनके मकान व झोपड़े पुनः बनाए जाएं और संबंधितों को यथेष्ट क्षतिपूर्ति दी जाए। अभियान चलाने का निर्णय यहां आयोजित एक सेमिनार में […]

भोपाल के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने बुलडोजर दादागिरी के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय किया है। इस अभियान के अंतर्गत यह मांग की जाएगी कि जिनके मकान और झोपड़े ध्वस्त किए गए हैं उनके मकान व झोपड़े पुनः बनाए जाएं और संबंधितों को यथेष्ट क्षतिपूर्ति दी जाए।

अभियान चलाने का निर्णय यहां आयोजित एक सेमिनार में किया गया। सेमिनार का आयोजन राष्ट्रीय सेक्युलर मंच ने किया था। आयोजन में विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों और जाने-माने व्यक्तियों ने भाग लिया। यह भी तय किया गया कि इन मांगों को लेकर राज्यपाल के माध्यम से प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपा जाएगा।

दुनिया में ऐसा कोई भी ऐकेश्वरवादी धर्म नहीं है जो विभाजित नहीं हुआ हो। इसका मतलब यह है कि मनुष्य को कोई भी ऐसी स्थिति स्वीकार्य नहीं है, जिसमें विकल्प न हो।

सेमिनार का विषय था आठ वर्ष का मोदी राज। सेमिनार में प्रशासन, संस्कृति, मीडिया, शिक्षा आदि विषयों पर विचार किया गया। प्रशासन एवं राजनीति पर बोलते हुए पूर्व मुख्य सचिव एवं पूर्व कुलपति शरदचन्द बैहार ने कहा कि उदारवादी लोकतंत्र के इतिहास को ध्यान में रखते हुए यदि बारीक विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट होगा की उसमें लोकतांत्रिक तत्वों के अलग-अलग प्रतिशत होने की संभावना छिपी रहती है। भारत में संविधान के द्वारा इसी तरह के लोकतंत्र की स्थापना की गई है। पिछले कुछ वर्षों से इस संभावना का उपयोग किस तरह किया जा रहा है जिसमें लोकतंत्र का प्रतिशत घटता जा रहा है और संभवत हम ऐसी स्थिति में आ गए हैं जहां पूंजी और राजनीति के बीच गठबंधन ने उसे जनता का शासन के बजाय कुछ लोगों का शासन बना दिया है।

अच्छे लोकतंत्र में स्थाई कार्यपालिका और राजनीतिक कार्यपालिका के बीच आपसी सहयोग से काम होता है। उनका संबंध आपसी चेक और बैलेंस करने का है। आज की स्थिति में यह संभव नहीं हो पा रहा है। विभिन्न कारणों से स्थाई कार्यपालिका सहयोगी ना होकर मातहत की भूमिका में आ गई है। सही बात कहने वालों को विभिन्न तरीकों से हाशिए पर डाल दिया जाता है। मनमानी काम करने के लिए संभावनाएं बढ़ाने के लिए वरिष्ठ पदों पर बाहर से नई भर्ती की प्रक्रिया जारी की गई है।

ऐसी संस्थाएं जो शासन की मनमानी पर अलग-अलग प्रकार की रोक और संतुलन करने के लिए बनाई गई हैं वे भी इस भूमिका को अदा करने के काबिल नहीं रह गई है क्योंकि अधिकांश में  नियुक्ति में  उसी शासन की मुख्य भूमिका है जिस की मनमानी पर रोक लगाना संस्था का कर्तव्य है। चुनाव आयोग, सूचना आयोग, मानव अधिकार आयोग जैसी संस्थाएं भी इस भूमिका को अदा नहीं कर पा रही हैं।

संस्कृति के क्षेत्र में आई गिरावट पर बोलते हुए जाने-माने कवि और साहित्यकार राजेश जोशी ने कहा कि भारतीय संस्कृति का कोई मोनोलिथिक रूप नहीं है। भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का एक गुलदस्ता है। यह सांस्कृतिक बहुलता ही हमारी वास्तविक पहचान है। वर्तमान सत्ता उसकी बहुलता को ख़त्म करके उसे एक धर्म में सीमित करने की कोशिश कर रही है। धर्म की विविधता को भी वह सीमित करके एकेश्वरवादी बनाने की कोशिश कर रही है। दुनिया में ऐसा कोई भी ऐकेश्वरवादी धर्म नहीं है जो विभाजित नहीं हुआ हो। इसका मतलब यह है कि मनुष्य को कोई भी ऐसी स्थिति स्वीकार्य नहीं है, जिसमें विकल्प न हो। मनुष्य का मूल स्वभाव लोकतांत्रिक है। लेकिन वर्तमान सत्ता इस विविधता और लोकतंत्र को एकतंत्र में बदलने की कोशिश कर रही है। अग्निपथ समांतर सेना बनाने का उपक्रम है, यह तानाशाही की और बढ़ने के खतरे का संकेत है।

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हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व वरिष्ठ संपादक, चंद्रकांत नायडू ने कहा कि वर्तमान राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व ने देश को गृहयुद्ध जैसी स्थिति में धकेल दिया है। पत्रकारिता के पिछले पचास वर्षों में किसी ने विज्ञापन और समाचार के बीच औचित्य की रेखा को ऐसे मिटते नहीं देखा जैसा आज हुआ है। राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व की समीचीनता और संवैधानिक रूप से गठित सरकार के कर्तव्यों के बीच अंतर लगभग खत्म हो गया है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग संविधान की मूल भावना को विकृत करने में सत्ताधारी दल का भागीदार बन गया है। अतीत में राजनीतिक और सामाजिक मंथन बने हैं जैसे जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन, इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा लगाया गया आपातकाल और कुछ प्रतिक्रियावादी नौकरशाहों की भूमिका। बाद में मीडिया को वीपी सिंह जैसे आत्म केन्द्रित राजनीतिक जोड़-तोड़ करने वालों और भाजपा के हाथों में खेल रहे अन्ना हजारे जैसे छोटे विचारकों, के आंदोलनों ने तत्कालीन सत्तारूढ़ दल की अनियमितताओं के अतिरंजित विवरणों ने सामान्य जन को धोखा दिया। कुछ अपवादों को छोड़कर  मीडिया सच के साथ खड़ा रहा और इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहा। तत्कालीन सरकार भी वर्तमान सरकार की तरह प्रतिशोधी नहीं थी।

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राजनीतिक विमर्श आज निम्नस्तर पर पहुंच गया है और प्रिंट व डिजिटल मीडिया को विभिन्न दलों के सोशल मीडिया सेल द्वारा इसके लिये उकसाया जाता रहा है। पेड न्यूज, न्यूज चैनलों पर प्रसारित होते घटिया आरोप-प्रत्यारोपों ने नागरिक समाज को निराशा किया है। जब तक मीडिया सत्ताधारी पार्टी और उसके धनपशु साझेदारों, जो कि बड़े पैमाने पर मीडिया पर कब्जा किये हैं। समाचारों का  वस्तुनिष्ट प्रसारण अनिश्चित दिखता हैं।

सेमीनार में हस्तक्षेप करते हुए मंच के संयोजक एलएस हरदेनिया ने कहा कि इस समय की सबसे महती जरूरत है अल्पसंख्यकों को यह विश्वास दिलाना कि वे देश में सुरक्षित हैं। कार्यक्रम का संचालन शैलेन्द्र शैली ने किया। राकेश दीवान, राकेश दीक्षित एवं रघुराज सिंह ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

वरिष्ठ पत्रकार एलएस हरदेनिया, राष्ट्रीय सेक्युलर मंच  के संयोजक हैं और भोपाल में रहते हैं।

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