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सोशल मीडिया: जगत सा अराजक या अराजकता का जगत

(राजू पाण्डेय स्वभाव से बहुत सहज और सरल थे लेकिन बेहद जिद्दी और जुनूनी। वे कभी अपने नाम या शोहरत के लिए न तो लिखे, न ही छपे। बल्कि पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने पर आल्हादित हो जाते और हर किसी को व्यक्तिगत शुक्रिया कहते। अपनी पहचान को हमेशा सामने आने से बचाना चाहते थे। राजू […]

(राजू पाण्डेय स्वभाव से बहुत सहज और सरल थे लेकिन बेहद जिद्दी और जुनूनी। वे कभी अपने नाम या शोहरत के लिए न तो लिखे, न ही छपे। बल्कि पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने पर आल्हादित हो जाते और हर किसी को व्यक्तिगत शुक्रिया कहते। अपनी पहचान को हमेशा सामने आने से बचाना चाहते थे। राजू पाण्डेय ने कई बार बताया कि उनके सामने ही उनके लेखों की तारीफ होती है या कोई नाराजगी जाहिर करता है तो वे भी अपना परिचय छुपाते हुए उनकी ‘हाँ में हाँ’ मिलाकर मजे लेते। अनेक सम्मानों से सम्मानित होने के बाद भी बातचीत या मिलने पर राजू पाण्डेय कभी यह एहसास नहीं कराते कि वे बहुत बड़े लेखक हैं। हमेशा धैर्य से सबको ऐसे सुनते कि सामने वाला कोई नई जानकारी दे रहा है। उनके लेख देश भर के जनप्रतिरोध के लिए प्रतिष्ठित अखबारों, वेबसाइटों पर छपते और पढ़े जाते। सैकड़ों बार संघी या मोदी भक्त उन्हें फोन करते, उनके साथ गाली-गलौच करते, अपशब्द कहते। शुरुआत में तो नहीं लेकिन दो-तीन घटनाओं के बाद किसी भी अनजान नंबर से फोन आने पर कॉल रिकॉर्डिंग कर लेते- राजू पाण्डेय को याद करते हुए ) – संपादक।

क्या सोशल मीडिया अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्वक निर्मित किसी ऐसे मानवरचित चक्रवात या भूकम्प की तरह है, जिसके केंद्र का पता लगाना संभव नहीं है? पता नहीं क्यों सोशल मीडिया को देखकर एडम स्मिथ (Adam Smith) के प्राकृतिक न्याय पर आदर्श बाजारवादी अर्थव्यवस्था के मॉडल की याद आती है जो आत्मनियंत्रण के द्वारा संचालित होने का दावा करता था।

सोशल मीडिया का अराजक स्वरूप यह सोचने पर विवश कर देता है कि क्या अराजकता में भी एक संतुलन, एक व्यवस्था अन्तर्निहित होती है? अराजकता के विषय में यदि प्रकृति में सादृश्य तलाश करें तो हमें वन पारिस्थितिक तंत्र दिखाई देता है। जहाँ भक्षकों की रक्षा का विरोधाभास है। खाद्य श्रृंखला शाकाहारियों से मांसाहारियों की ओर बढ़ती है और सबसे शक्तिशाली और निर्मम मांसाहारी पर समाप्त होती है। यदि शेरों को क्रूर और आततायी मानकर उनका सफाया कर दिया जाए तो हिरणों की संख्या बढ़ जाएगी जो फसलों और वनस्पति को नुकसान पहुंचाएंगे और इस प्रकार पूरा संतुलन गड़बड़ा जाएगा। जब हम शोषणमुक्त समाज की चर्चा करते हैं तो प्रायः हमारी अभिव्यक्तियाँ कुछ इस प्रकार होती हैं- ‘हमें इस जंगल राज को समाप्त करना होगा’ अथवा ‘यहाँ जंगल का कानून चल रहा है क्या?’ किन्तु जंगल की अराजकता में भी एक व्यवस्था है, जंगल को और शायद जगत को भी दया-करुणा जैसे मूल्यों से नहीं चलाया जा सकता। जंगल के लिए शेर और हिरण दोनों आवश्यक हैं। धर्म का गुणातीत परमात्मा भी- तमो गुण, रजो गुण और सतो गुण से परे होता है। वह जन्म-मरण के चक्र और सुख-दुःख तथा हर्ष-विषाद से भी अलिप्त रहता है।

क्या सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की चेष्टा दार्शनिक रूप से निरर्थक और अनुपयुक्त है क्योंकि सोशल मीडिया का आभासी और काल्पनिक जगत, यथार्थ जगत का मानसिक प्रतिबिम्ब है? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि तार्किक रूप से अप्राप्य आदर्शों को साकार करने का संघर्ष ही मनुष्य की नियति है।

हमारी सुख -दुःख, अन्धकार-प्रकाश, सत-असत, ज्ञान-अज्ञान जैसी अवधारणाएं अन्योन्याश्रित एवं सापेक्षिक हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं है। लेकिन इसके बाद भी धर्म मानव जन्म को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता है और असत से सत की ओर,अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर चलने का आह्वान करता है। इसी प्रकार विज्ञान मनुष्य को एक विशिष्ट दर्जा देता है- जब हम कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति पर विजय पा लेगा अथवा मनुष्य प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है तो तर्क शास्त्र की दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य या तो प्रकृति का अंग नहीं है और या फिर प्रकृति का अंग होते हुए भी उसे किसी हद तक स्वायत्तता प्राप्त है। इस बहुत बड़े विरोधाभास का कारण यह है कि धर्म और विज्ञान दोनों मानव की सृष्टि हैं, इसीलिए इनमें मानव की केंद्रीय भूमिका है। मानव एवं मानवीय प्रयत्नों की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए सोशल मीडिया पर विमर्श प्रारम्भ करते हैं।

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सोशल मीडिया एक मानव रचित तंत्र है जो मानव मन जैसा चंचल और तीव्रगामी है। यदि आत्मनिरीक्षण किया जाए कि विगत पांच मिनटों में हमने क्या सोचा? तो ज्ञात होता है कि इतने अधिक और इतने विविध विचार इतनी तीव्र गति से आए कि उन्हें स्मरण रखना भी असंभव है। इन विचारों में कई इतने निकृष्ट होते हैं कि उनकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति पारिवारिक-सामाजिक जीवन के साथ-साथ देश और दुनिया को भी तबाह कर सकती है। यही स्थिति सोशल मीडिया की है, सत्य-असत्य, मानक-अमानक उचित-अनुचित सूचनाओं की विशाल चंचल लहरों का अथाह समुद्र लहरा रहा है। लगता है कि मानव मन का प्रक्षेपण कर दिया गया है। जिस प्रकार मनोजगत अदृश्य होते हुए भी भौतिक जगत पर प्रभाव डालता है, उसी प्रकार सोशल मीडिया आभासी या काल्पनिक दुनिया का सृजन करता है जो वास्तविक दुनिया को प्रभावित करती है। यह आभासी दुनिया वह कंप्यूटर जनरेटेड थ्री डायमेंशनल वर्ल्ड नहीं है जिसे देखने-छूने के लिए खास तरह गॉगल्स और ग्लव्स पहनने पड़ते हैं और जिसे विज्ञान वर्चुअल वर्ल्ड कहता है। यह काल्पनिक और आभासी दुनिया वह दुनिया है जिसमें हम स्वयं को दूसरों के सम्मुख जिस प्रकार प्रस्तुत करना चाहते हैं उसके लिए स्वतंत्र होते हैं। यहाँ हम देश और काल की सीमाओं को भंग कर सकते हैं, किसी अन्य स्थान और अन्य समय की घटना को अपने स्थान और आज की घटना के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं क्योंकि सोशल मीडिया की काल्पनिक दुनिया में भौतिक उपस्थिति के बंधन से बड़ी हद तक बचा जा सकता है।

 

इस आभासी या काल्पनिक दुनिया के नियम वास्तविक दुनिया से भिन्न हैं। सोशल मीडिया आपके मस्तिष्क की खास तरह से कंडीशनिंग करता है। ऊपरी तौर पर आपको यह प्रतीत होता है कि समान विचारधारा वाले समान अभिरुचि के व्यक्तियों से तत्काल जुड़ने, अंतर्क्रिया करने और संवाद स्थापित करने का यह एक प्रभावी प्लेटफार्म मात्र है। किंतु यह सत्य की ऊपरी परत है।

सर्वप्रथम सोशल मीडिया आपको अपने किसी निजी विचार को बिना किसी योग्य और अधिकारी तथा सक्षम व्यक्ति की जानकारी में लाए सार्वजनिक विमर्श में डालने का साहस एवं स्वतंत्रता दोनों प्रदान करता है। यह इसी प्रकार अन्य व्यक्तियों के अनसेंसर्ड और रॉ ओपिनियन से आपको परिचित भी कराता है। इस प्रकार धीरे-धीरे आप वैचारिक उच्छृंखलता के अभ्यस्त हो जाते हैं। आभासी या काल्पनिक दुनिया में यह कोई दंडनीय अपराध नहीं है। लेकिन जब आपके अविवेकपूर्ण, अविचारित, अमर्यादित पोस्ट से असली दुनिया में हिंसा और अशांति फ़ैल जाती है तब रियल वर्ल्ड का क़ानून आपको नियंत्रित करने आता है। उस समय आपको बड़ी पीड़ा होती है, क्योंकि आप उच्छृंखलता को स्वतंत्रता मानने के अभ्यस्त हो चुके हैं। अपनी हताशा, आक्रोश और कुंठा को पब्लिक प्लेटफार्म पर व्यक्त कर आप बेशक हल्का महसूस कर सकते हैं लेकिन इसकी कीमत देश और समाज को चुकानी पड़ती है।

राजू पाण्डेय से की गई एक बातचीत 

सोशल मीडिया आपके रिस्पांस को भी कंडिशन्ड करता है। इसके लिए वह आपके सम्मुख विकल्प उपलब्ध कराता है। लाइक, डिस्लाइक, इमोजीस आदि। इस तरह के ऑब्जेक्टिव टाइप विकल्प धीरे-धीरे आपकी विश्लेषण करने की क्षमता पर प्रभाव डालते हैं। सोशल मीडिया आपके सामने एक ऑब्जेक्टिव टेस्ट के प्रश्न पत्र की भांति जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत करता है। उत्तर देने के लिए आप जितना कम समय लेंगे, सोशल मीडिया के उतने ही अनुकूल होते चले जायेंगे। वाच, रिएक्ट एंड स्क्रॉल ऑर स्वाइप, यह धीरे-धीरे आपकी जीवन की गति का निर्धारक बन जाता है।

सोशल मीडिया का यह सिम्बॉलिस्म धीरे-धीरे आपके मनोजगत पर प्रभाव डालता है। किसी दुर्घटना के बाद लाचार पड़े घायल को अनदेखा कर निकलते लोगों का वीडियो देखकर जब आप किसी इमोजी के साथ इनह्यूमन या सैड पोस्ट कर देते हैं तो आप आभासी या काल्पनिक दुनिया के जिम्मेदार नागरिक बन जाते हैं। किसी भ्रष्ट अधिकारी की गिरफ्तारी की पोस्ट पर लाइक के साथ एकल शब्द की प्रतिक्रिया देकर आप भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का एक भाग बन जाते हैं।

आभासी या काल्पनिक दुनिया में दर्ज कराया विरोध बहुत धीरे-धीरे आपके रियल वर्ल्ड में विरोध करने की क्षमता को कम कर देता है। आप अपनी निजी जिंदगी में उस तरह उत्तेजित, आंदोलित या दुःखी और प्रसन्न नहीं हो पाते जैसे पहले होते थे क्योंकि संवेगों और भावनाओं का स्टॉक आपने काल्पनिक विश्व में खाली कर दिया है। धीरे-धीरे आप व्यक्तिगत मुलाकातों से घबराने लगते हैं क्योंकि आप सोशल मीडिया की सुरक्षित आभासी मुलाकातों के आदी हो चुके हैं। यह तत्काल नहीं होता, वर्षों की कंडीशनिंग के बाद एक दिन कोई ऐसा पल आता है जब आपको ज्ञात होता है कि आपकी जीवन शैली बदल चुकी है, आपका यथार्थ बदल चुका है।

सोशल मीडिया आपको हिप्नोटिक ट्रांस जैसी स्थिति में ले जा सकता है। जैसे ही आप अपने अकेलेपन से आश्वस्त हो (केवल आप और आपका मोबाइल ही है साथ में) किसी धर्म विशेष, राजनेता विशेष, दल विशेष या विचारधारा विशेष के प्रति अपने प्रेम या नफरत का बेबाक इजहार कर बैठते हैं, उस धर्म विशेष के संवेदनशील प्रतीकों के अपमान को भड़काऊ ढंग से रेखांकित करती, उस राजनेता के अतिमानवीय गुणों का गौरव गान करती या उसके चरित्र हत्या की निम्नतम कोशिश करती, दल विशेष या विचारधारा विशेष के मंडन या खंडन के लिए इतिहास का घटिया मैनीपुलेशन कर तैयार की गई सोशल मीडिया कंटेंट की बम वर्षा आप पर प्रारम्भ हो जाती है।

धीरे-धीरे एक ही बात को बारंबार दृश्य-श्रव्य माध्यमों से आपकी अलग-अलग इंद्रियों के जरिए दिमाग में डाला जाता है। लेख, समाचार, गीत, घटनाएं, दृश्य, भाषण, चित्र, हजारों समर्थकों या विरोधियों के लाइक्स-डिसलाइक्स-आपके मस्तिष्क के एक विशेष भाग में उस संदेश के लिए एक खास संकेतों की प्रणाली का निर्माण कर देते हैं। फिर एक दिन आपको कहा जाता है हजारों लोग अपने आदर्श के लिए कुर्बान हो रहे हैं अब ये सौभाग्य आपको मिलने वाला है, तब आप महसूस करते हैं कि आपकी दिली ख्वाहिश पूरी हो रही है और रियल एक्शन में आ जाते हैं- आप देशद्रोही, आतंकवादी, दंगाई या अंध समर्थक में बदल चुके होते हैं। हिप्नोटिक ट्रांस में सम्मोहित को न तो भीड़ के ठहाकों की परवाह होती है न किए जाने वाले कार्य के अच्छे-बुरे होने का बोध। उसे तो बस चिंता रहती है सम्मोहनकर्ता के आदेश के पालन की। सोशल मीडिया में यह शक्ति होती है कि वह आपके सच को देखकर भी अनदेखा कर देने और झूठ को सच मानने पर मजबूर कर देता है।

राजू पाण्डेय की अगोरा प्रकाशन से आई किताब तुम जैसा नहीं बनना है

हम उस समय प्रसन्नता से फूले नहीं समाते जब हमारी सोशल नेटवर्किंग साइट हमारे जीवन के महत्वपूर्ण दिवसों का हमें भाव-भीना स्मरण दिलाती हैं और हमारे इष्ट मित्रों से भी आग्रह करती हैं कि वे इसे सेलिब्रेट करने के लिए वर्चुअल वर्ल्ड का एक बिग इवेंट क्रिएट करें। सोशल मीडिया की दुनिया के मित्रों के साथ हमारी मित्रता की वर्षगाँठ की भी हमें याद दिलाई जाती है। कभी अपने साल भर का लेखा-जोखा वीडियो के माध्यम से शेयर करने हेतु हमें प्रेरित किया जाता रहा है। कभी उस सोशल नेटवर्किंग साइट से जुड़ने की सालगिरह मनाई जाती है और कभी आभासी दुनिया की हमारी गतिविधियों की स्मृति ताजा करने का अवसर हमें दिया जाता है। किसी ग्रुप, किसी दल, किसी नेता, अभिनेता, महापुरुष, किसी समाचार पत्र की किसी पोस्ट को हम लाइक करते हैं और तुरंत ग्रुप्स सिमिलर टू दैट यू जस्ट लाइक्ड की सूची हमारे सामने आ जाती है। इस प्रकार धीरे-धीरे हम अपने निजी जीवन का, अपने अवचेतन मन का पूरा विवरण बड़ी बारीकी से इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के हवाले कर देते हैं।

विश्व के किस कोने में बैठे विशेषज्ञ किस रूप में इसका इस्तेमाल करेंगे, इसकी कल्पना भी हमें नहीं होती। सोशल नेटवर्किंग साइट्स कोई वालंटियर या चैरिटेबल ट्रस्ट तो नहीं हैं जो आपको डिजिटल क्रांति का लाभ देने के लिए समर्पित हैं। निश्चित ही आपके विषय में प्राप्त सूचनाओं का व्यावसायिक और धार्मिक-राजनैतिक उपयोग किया जाएगा। जब हम मोबाइल खरीदते हैं तो सर्वप्रथम देखते हैं कि इसमें फेसबुक, व्हॉट्सएप आदि प्रीइंस्टॉलड हैं या नहीं। फिर कॉर्पोरेट कंपनीज के अनलिमिटेड फ्री डेटा प्लान्स का आनंद लेते हुए हम सोशल मीडिया में दक्षता प्राप्त करते हैं। इस प्रकार बड़ी चतुराई से हमारी कंडीशनिंग की जाती है। राजनीतिक दलों और कॉर्पोरेट घरानों के आईटी सेल के विषय में हम सुनते रहते हैं और इनकी विवादस्पद कार्यप्रणाली से हम अवगत हैं किंतु विश्व पर नियंत्रण स्थापित करने के इच्छुक शक्तिशाली देशों के गोपनीय प्रयासों में सूचना प्रौद्योगिकी की अहम भूमिका से हम बिलकुल अंजान और अपरिचित हैं। भारत में धर्म को एक निर्णायक शक्ति माना जाता है, जब हमारे पास ऐसे मैसेज आते हैं कि इस सन्देश को पांच मिनट में 20 ग्रुप्स फॉरवर्ड करो तो अगले 24 घंटे में अच्छी खबर मिलेगी या इस तस्वीर पर कॉमेंट और लाइक करोगे तो तत्काल तुम्हारा काम बन जाएगा तब इसे हम एक धार्मिक सन्देश की भांति लेते हैं। लेकिन दरअसल यह एक परीक्षण होता है कि किसी विचार के सम्मुख हमारे समर्पित होने की सम्भावना कितनी है।

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लोकतंत्र में विरोध करने का संवैधानिक अधिकार है : डॉ. संदीप पाण्डेय 

क्या कुछ अत्यंत मेधावी टेक्नोक्रेट्स को साथ लेकर चंद धनपतियों द्वारा विश्व विजय करने का प्रयास ही डिजिटल क्रांति है? भविष्य ही इस प्रश्न का उत्तर देगा। समय ने इस बात को सिद्ध किया है कि कोई भी तंत्र या प्रणाली भले ही वह मानव निर्मित निर्जीव व्यवस्था क्यों न समझी जाए एक जीवित संरचना की भांति व्यवहार करती है और अनेक बार अपने निर्माता के हितों के विपरीत भी कार्य करती है। यथा अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली भारतीय नव जागरण का उत्प्रेरक बनी और अंततः अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में सहायक सिद्ध हुई। ऐसा ही सोशल मीडिया के साथ हो सकता है।

अंत में केवल इतना ही कि क्या सोशल मीडिया की इस आभासी दुनिया की तुलना हमारी धर्म परम्परा के माया की संकल्पना से की जा सकती है? यह प्रश्न धर्म और दर्शन के विद्यार्थियों को अवश्य आकर्षित करेगा।

(राजू पाण्डेय अक्टूबर 2022 से हमारे बीच नहीं हैं। गाँव के लोग डॉट कॉम पर नियमित अपने लेख भेजने वाले राजू पाण्डेय का आज जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए एक लेख यहाँ अपने पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं।)

गाँव के लोग
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