यकीन नहीं आता है कि अतीत का साहित्य इतना असरदार होता था कि समाज उसका अनुसरण करने लगता था। आज भी कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि समाज साहित्य का अनुसरण कर रहा है। लेकिन जिस साहित्य का अनुसरण भारतीय समाज का बहुसंख्यक वर्ग कर रहा है, वह धर्म का हिस्सा बन चुका है और उसमें रूढ़िवादिता के अलावा कुछ भी नहीं। याद आते हैं कबीर और उनका साहित्य। बाद के साहित्यकारों में मैं यदि किसी साहित्यकार का नाम लूं तो मुझे भिखारी ठाकुर याद आते हैं। हालांकि भिखारी ठाकुर पर कबीर का प्रभाव साफ-साफ दिखता है।लेकिन यह देखने योग्य बात है कि कबीर और भिखारी ठाकुर ने अपने-अपने समय में सामाजिक चुनौतियों का जमकर मुकाबला किया। हालांकि दोनों में एक अंतर है। कबीर के समय चुनौतियां अधिक थीं। तब देश में इस्लाम धर्मावलंबियों का शासन था और ब्राह्मण वर्ग सत्ता में स्पष्टत: साझेदार था। जबकि भिखारी ठाकुर का जीवनकाल 18 दिसंबर, 1887 से लेकर 10 जुलाई, 1971 के बीच था। उनकी रचनाओं के हिसाब से देखें तो उनका सर्वश्रेष्ठ काल तब था जब इस देश में अंग्रेजों का शासन था। इसी अवधि में उन्होंने गबरघिचोर और बेटी बेचवा जैसे नाटकों को ना केवल लिखा बल्कि उनका मंचन भी किया।
भिखारी ठाकुर के इन दो नाटकों में से गबरघिचोर का उल्लेख बेहद खास है। इस नाटक के केंद्र में स्त्री-पुरुष संबंध है। नाटक की पृष्ठभूमि में रोजी-रोजगार के लिए पलायन भी है। नाटक की नायिका अपने पति की अनुपस्थिति में गर्भवती हो जाती है और बच्चे को जन्म देती है। उसका संबंध गांव के ही एक पुरुष से हो जाता है। पति को सूचना मिलती है तो वह पहले तो बहुत गुस्सा होता है लेकिन बच्चे का होना उसके अंदर बदलाव लाता है। वह उस बच्चे का पिता बनना चाहता है। वहीं नायिका का प्रेमी भी उस बच्चे का पिता बनना चाहता है। नायिका के व्यक्तित्व का सर्वश्रेष्ठ तभी सामने आता है।
[bs-quote quote=”संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है”। अब न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर ने जो कहा है, मुमकिन है कि वह अपने नजरिए के हिसाब से कह रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जो सामाजिक जड़ताएं टूट रही हैं, गलत हैं व अभिशाप हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”Apple co-founder” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हिंदी सिनेमा जगत ने हिंदी साहित्यकारों को खूब छला है। इन साहित्यकारों में एक भिखारी ठाकुर भी रहे हैं। एक उदाहरण यह कि भिखारी ठाकुर के इसी नाटक की कहानी पर एक फिल्म 1988 में रिहाई नाम से बनाई गई। अरुणा राजे के निर्देशन में बनी इस फिल्म में विनोद खन्ना, नसीरूद्दीन शाह, हेमा मालिनी सहित अनेक कलाकार थे। फिल्म की पटकथा अरुणा राजे ने ही लिखी थी।
खैर, आज तो मैं मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के इंदौर पीठ के न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर द्वारा कल की गई एक टिप्पणी पर विचार कर रहा हूं। उन्होंने ‘लिव इन रिलेशनशिप’ को अभिशाप करार दिया है। उन्होंने कहा है कि यह अभिशाप भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिये गये संवैधानिक अधिकार का बाई प्रोडक्ट है।
न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर ने जिस मामले में उपरोक्त टिप्पणी की है, वह मामला कुछ ऐसा है कि एक प्रेमी युगल ‘लिव-इन’ में रह रहे थे। फिर तीन वर्षों के बाद दोनों में मतभेद सामने आए और अलग रहने का फैसला किया लेकिन पुरुष को भूल का अहसास हुआ और उसने स्त्री को मनाने का प्रयास किया। लेकिन स्त्री ने उसे खारिज कर दिया। वह ‘मूव ऑन’ कर चुकी थी। वह शादी करने जा रही थी। पुरुष ने उसे रोकने के सारे प्रयास किये। यहां तक कि स्त्री के ससुरालवालों को वीडियो भेजे। फिर स्त्री ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया।
दरअसल, मैं जिस बात को आज दर्ज करना चाहता हूं वह भारतीय संविधान की खासियत है, जिसमें समाज की रूढ़िवादिता को खत्म करने के प्रावधान किये गये हैं। मसलन संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है”। अब न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर ने जो कहा है, मुमकिन है कि वह अपने नजरिए के हिसाब से कह रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जो सामाजिक जड़ताएं टूट रही हैं, गलत हैं व अभिशाप हैं।
[bs-quote quote=”समाज में बदलाव की गति बहुत तेज है और मेरे हिसाब से सकारात्मक है। आलम यह है कि अब महिलाएं भी शादी के पहले पुरुषों को देखती हैं और समझने की कोशिश करती हैं। अब पहले वाली बात नहीं रही कि महिलाएं गाय हैं और उन्हें किसी भी खूंटे पर बांधा जा सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, भारतीय संविधान महिलाओं सहित सभी को समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है। लेकिन मुझे लगता है कि इसके लागू होने के सात दशक बाद भी भारत में कुछ नहीं बदला है। यौन शुचिता अभी भी महिलाओं के माथे पर है। कभी-कभी तो बहुत गुस्सा आता है जब मन्ना डे का यह गाना रेडियो पर आता है – लागा चुनरी में दाग, छिपाऊं कैसे , घर जाऊं कैसे। हालांकि यह एक निर्गुण है, लेकिन इसमें चुनरिया ही क्यों? दाग तो धोती और हम पुरुषों के वस्त्रों पर भी लग सकता है।
बहरहाल, समाज में बदलाव की गति बहुत तेज है और मेरे हिसाब से सकारात्मक है। आलम यह है कि अब महिलाएं भी शादी के पहले पुरुषों को देखती हैं और समझने की कोशिश करती हैं। अब पहले वाली बात नहीं रही कि महिलाएं गाय हैं और उन्हें किसी भी खूंटे पर बांधा जा सकता है।
अदालतों को इन बदलावों को ध्यान में रखना ही चाहिए और यह भी कि हमारे पास एक बेहद खूबसूरत संविधान है।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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