चार राज्यों में चुनाव परिणाम अपेक्षित ही आये हैं। उन लोगों को झटका तो जरूर लगा है जो राजस्थान की ‘योजनाओं’ और छत्तीसगढ़ के शासन मॉडल के बारे में बहुत अधिक सोच रहे थे। दोनों ही जगहों पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री अपनी योजनाओं को लेकर अति-आत्मविश्वास में थे। शासन संरचना कमज़ोर रही और भाजपा के आख्यान का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस द्वारा संवैधानिक हक और कानून के शासन को स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जिन नेताओं को ओबीसी चेहरा ‘प्रोजेक्ट’ किया गया, उन्होंने शायद ही कभी ओबीसी, दलित आदिवासी मुद्दों पर बोलने की जहमत उठाई, वे पूरी तरह से ब्राह्मणवादी आख्यानों से जुड़े रहे।
कांग्रेस को चाहिए कि शासन, धर्मनिरपेक्षता, समावेशन और संवैधानिकता को कानूनन बढ़ावा दें। उन्हें अतीत के नेताओं के काम को देखने की जरूरत थी। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक आप उनकी कही गई बातों पर अमल नहीं करते। जाति जनगणना पर राहुल गांधी का मुद्दा खोखला था क्योंकि उनकी पार्टी के नेतृत्व और संरचना में दलित, ओबीसी, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए कोई सम्मान-जनक स्थिति दिखाई नहीं देती। कितने राष्ट्रीय प्रवक्ता इन वर्गों से नियुक्त किए गए हैं, इस पर पार्टी को विचार करने की जरूरत है।
राहुल गांधी ने ईमानदारी से प्रचार किया और वह कांग्रेस पार्टी के लिए सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्ति हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने एक काउंटर नैरेटिव बनाने की बहुत कोशिश की थी लेकिन उस नैरेटिव को जनता तक पहुंचाने की जिम्मेदारी जिन लोगों को सौंपी गई थी, उनका दलित ओबीसी आदिवासी मुद्दों से कोई संबंध नहीं है या न ही कोई ईमानदारी है। कमलनाथ, मुख्यमंत्री होने के बावजूद 2019 में लोकसभा की एक भी सीट देने में असफल रहे, उन्होंने अशोक गहलोत के साथ अपनी विफलता की नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली। अंततः कांग्रेस को नुकसान हुआ। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजस्थान में अंदरूनी कलह की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। लोग कभी भी शिवराज सिंह चौहान की तुलना में कमलनाथ पर भरोसा नहीं करेंगे। अपनी तमाम कमियों के बावजूद, शिवराज सिंह चौहान भाजपा में सबसे स्वीकार्य चेहरा बने हुए हैं। उन्हें दरकिनार करना बेहद मुश्किल होगा।
जब राहुल गांधी इन राज्यों में जाति जनगणना का मुद्दा उठा रहे थे और उस समय उनकी पार्टी के पास छोटे दलों से बात करने का समय नहीं था, जो 20 से कम सीटों पर समझौता कर सकते थे। कांग्रेस को ओबीसी मुद्दे की वकालत करने में तभी मदद मिलेगी जब काँग्रेस उन समुदाय के नेताओं को प्राथमिकता दें। यह सवाल तेलंगाना में भी आएगा और पार्टी को ऐसे सवालों के लिए तैयार रहने की जरूरत है क्योंकि यह समुदाय सत्ता में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं।
नतीजे फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम के संकट को भी दर्शाते हैं जिसका मतलब है कि बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर में ज्यादा अंतर नहीं है लेकिन सीटों का बहुत का अंतर बड़ा है और यहां छोटे दलों के साथ गठबंधन का महत्व सामने आता है। कांग्रेस को ऐसे गठबंधनों को पोषित करने की जरूरत है। गठबंधन के मुद्दे पर अहंकारी बनना कांग्रेस की बड़ी गलती साबित हुआ है।
कमलनाथ कभी नहीं चाहते थे कि राहुल गांधी मध्य प्रदेश में प्रचार करें और इसके बजाय उन्होंने प्रियंका गांधी पर ध्यान केंद्रित किया जो मंदिर-मंदिर घूमती रहीं। राहुल जातीय जनगणना पर बोल जरूर रहे थे जबकि पार्टी ने कभी भी दलित ओबीसी तक पहुंचने का प्रयास नहीं किया और ऊंची जाति के वोट भी खो दिए। राहुल गांधी को याद रखना चाहिए कि पार्टी में संदेश को जमीन पर उतारने केऔर अमल पर लाने के लिए कार्यकर्ता और नेता नहीं होंगे तो सारे नारे खोखले होंगे।
साथ ही, कांग्रेस को इस बात पर भी काफी शोध करने की जरूरत है कि जो चीज तेलंगाना में कांग्रेस के लिए फिट होगी, वह राजस्थान और मध्य प्रदेश के लिए भी फिट हो, जरूरी नहीं है। राहुल गांधी को राज्य और सामुदाय के मुद्दों को उठाने की जरूरत है लेकिन उन्हें गंभीरता से तभी लिया जाएगा, जब वे शासन में अपना समावेशी मॉडल दिखाएंगे।
राजस्थान में अशोक गहलोत वैचारिक रूप से हिंदुत्व का मुकाबला करने, गोरक्षकों के खिलाफ कार्रवाई करने और दलितों को सुरक्षा व सम्मान दिलाने में असमर्थ रहे। बजाय इसके उन्होंने सोचा कि उनकी ‘कल्याणकारी योजनाएं’ उन्हें जीत की दहलीज तक ले जाएंगी पर इससे कांग्रेस को अपेक्षित मदद नहीं मिल सकी।
जहां तक लोकसभा चुनाव का सवाल है तो लड़ाई अभी भी खुली है। लेकिन जीत से बीजेपी को नैरेटिव बनाने में काफी मदद मिलेगी। इन दोनों राज्यों में सरकारें होने के बावजूद कांग्रेस ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में एक भी सीट नहीं जीती थी। नेतृत्व को अगले चुनाव पर दृढ़ता से ध्यान केंद्रित करना होगा। विपक्षी वोटों में विभाजन को रोकने के लिए हर जगह के गठबंधन बनाएं। अगर कांग्रेस इन राज्यों में लोकसभा चुनाव में इसी वोट प्रतिशत पर कायम रहती है तो भी वह बड़ी संख्या में सीटें जीत सकती है। अतः निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ दिनों बाद एक नई लड़ाई लड़नी होगी और उसके लिए अभी से तैयार रहना होगा।
तेलंगाना की जीत ऐतिहासिक है और कांग्रेस पार्टी को राज्य के लोगों से किए गए वादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। उसे कर्नाटक पर पकड़ बनानी होगी और जेडीएस-बीजेपी गठबंधन पर कड़ी नजर रखनी होगी। पार्टी को यह सुनिश्चित करना होगा कि सिद्धारमैया और शिवकुमार, अशोक गहलोत और सचिन पायलट की तरह टकराव न करें। कांग्रेस नेताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे पार्टी के विकास के लिए अपने पद का त्याग करने के लिए तैयार रहें। कांग्रेस नेताओं ने साबित कर दिया है कि वे गांधी परिवार के विपरीत सत्ता के भूखे हैं, जो तमाम व्यक्तिगत असफलताओं के बावजूद भी जमकर लड़ाई लड़ रहे हैं।
राहुल गांधी और कांग्रेस को भी सार्वजनिक रूप से अपने शब्दों को लेकर सावधान रहने की जरूरत है। हिंदी राहुल गांधी की ताकत नहीं है और इसलिए उन्हें बेहद सावधान रहने की जरूरत है और इन मामलों में मोदी से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए। उन्हें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, कानूनी शासन, संवैधानिक नैतिकता, गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद, नेहरू, बिरसा मुंडा, सुभाषचंद्र बोस के सपनों के भारत की परिकल्पना प्रस्तुत करनी होगी।
अंत में, समान अवसर का मुद्दा, ईवीएम की प्रामाणिकता, निष्पक्षता बनाए रखने में विफलता। वीवीपैट की गिनती, अधिकारियों का दुरुपयोग, चुनाव के दौरान विपक्ष पर छापेमारी, समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अब समय आ गया है कि संस्थाएं संविधान की इच्छा को प्रतिबिंबित करें और निष्पक्ष भूमिका निभाएं ताकि लोकतंत्र मजबूत हो। निष्पक्ष बहस के लिए मीडिया की भूमिका जरूरी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा बनाई गई कहानी शुद्ध प्रचार के अलावा कुछ नहीं है। कांग्रेस को सोशल मीडिया हैंडल के बहकावे में नहीं आना चाहिए बल्कि अपने कार्यकर्ताओं में वैचारिक मजबूती लाने का प्रयास करना चाहिए। कांग्रेस को चाहिए कि कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसों को बाहर करें और अल्पसंख्यकों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ बहुजन समुदायों से एक नया नेतृत्व तैयार करें।