Friday, March 29, 2024
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क्या इस देश का ओबीसी कृपा का पात्र है?, डायरी (19 मई, 2022) 

देश में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग कितने हैं, इसका सटीक आंकड़ा भारत सरकार के पास नहीं है। वजह यह है कि वर्ष 1931 के बाद भारत में जातिगत जनगणना करायी ही नहीं गई है। हालांकि 2011 में जातिगत जनगणना कराने को तत्कालीन केंद्र सरकार तैयार भी हुई और उसने कराया भी, लेकिन परिणाम कुछ […]

देश में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग कितने हैं, इसका सटीक आंकड़ा भारत सरकार के पास नहीं है। वजह यह है कि वर्ष 1931 के बाद भारत में जातिगत जनगणना करायी ही नहीं गई है। हालांकि 2011 में जातिगत जनगणना कराने को तत्कालीन केंद्र सरकार तैयार भी हुई और उसने कराया भी, लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं निकला। सरकारी रपटें बताती हैं कि इस जनगणना पर साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक की धनराशि खर्च हुई। मौजूदा सरकार यानी नरेंद्र मोदी की सरकार पिछली सरकार से भी दस कदम आगे है। इसने तो कोरोना के नाम पर देश में जनगणना पर ही रोक लगा रखी है। जबकि चुनाव सहित तमाम अन्य गतिविधियां जारी हैं। मसलन, अदालतें चल रही हैं। ट्रेनें चल रही हैं। नरेंद्र मोदी विदेश दौरों पर जा रहे हैं।

1931 की जनगणना में पहली बार जाति संबंधी सूचना का समावेश किया गया

खैर, हुक्मरान की नीयत में खोट हो तो कोई क्या कह सकता है और जिस वर्ग की बात मैं कह रहा हूं, उसे कांवर उठाकर शिवलिंग पूजने पांव-पैदल चलने से फुरसत ही नहीं है। इस वर्ग के तमाम बड़े नेता शिवलिंग पर रूद्राभिषेक करते आए दिन नजर आते हैं। यह वर्ग न तो सोया हुआ है और ना ही जगा हुआ है। यह वर्ग बिखर पड़ा है। इस वर्ग की तमाम जातियां फिर चाहे वह बड़ी हों या छोटी, सबके सब अहंकार में इस कदर डूबे हैं कि उन्हें अपने हितों की परवाह नहीं है। हालांकि कुछ सामाजिक संगठन अवश्य हैं, जिनकी वजह से कुछ न कुछ गतिविधियां होती रहती हैं। वर्ष 1931 की जनगणना के हिसाब से करीब 52 फीसदी आबादी वाले इस वर्ग के पांच-दस-पचास लोग जंतर-मंतर पर जुटते हैं और अपने हिस्से का प्रयास करते हैं।
तो ऐसे वर्ग के साथ यदि कोई हकमारी करता है तो दोष उसका नहीं है जो हकमारी कर रहा है। यह बात तो मैं बिना किसी लाग-लपेट के कह सकता हूं।
लेकिन अदालतों को ऐसा नहीं करना चाहिए। अदालतों और सरकार के बीच एक विभाजक रेखा है जो दृश्य रहनी चाहिए ताकि लोगों का विश्वास बना रहे कि इस देश में संविधान है। यही विश्वास किसी भी देश की संप्रभुता का ठोस आधार है।
दरअसल, कल यह खबर आयी कि सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश में पंचायती चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ कराने को सहमति दे दी है। ये तीन न्यायाधीश महोदय हैं और मैं इनका नाम पूरी विनम्रता और सम्मान के साथ ले रहा हूं– जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस रवि कुमार। कल ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मीडिया चैनलों को बाइट दे रहे थे और कह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनकी सरकार की जीत है। सरकार ने सही समय पर सूबे में ट्रिपल टेस्ट कराया और सही समय पर अपनी रपट सुप्रीम कोर्ट को दी, जिसे स्वीकार कर लिया गया है और अब सूबे में पंचायती निकायों में ओबीसी को पूर्ववत 27 फीसदी आरक्षण मिलेगा।
दरअसल, इसे मामला बनाने का श्रेय दो सवर्णों को जाता है। इनमें से एक पुरुष जो कि अशराफ समाज से आते हैं और एक महिला, जो ब्राह्मण वर्ग की हैं। इन दोनों की याचिका के मद्देनजर ही सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल ओबीसी आरक्षण और पंचायत चुनावों पर रोक लगा दिया था। उसका कहना था कि सरकार पहले ट्रिपल टेस्ट कराए। यह ट्रिपल टेस्ट बड़ा अनोखा था। मध्य प्रदेश का पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग इतना चुस्त निकला कि उसने डेढ़ साल का समय लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशगण राज्य सरकार की चुस्ती से बहुत नाराज हुए और बीते 6 मई, 2022 को सुनवाई के बाद उन्होंने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसे उन्होंने बीते 10 मई, 2022 को सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को कहा कि वह बिना ओबीसी आरक्षण के ही चुनाव कराए। हालांकि तब राज्य सरकार ने ट्रिपल टेस्ट रपट इजलास में रख दिया था। लेकिन कोर्ट ने उसे अपूर्ण माना था।
अब कल की बात है। जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस रवि कुमार की खंडपीठ ने अपने फैसले को बदल दिया है। अब मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण के साथ पंचायत चुनाव होंगे। शिवराज सिंह चौहान सरकार इसके लिए अपनी पीठ स्वयं थपथपा रही है तो कुछ ओबीसी संगठनों के लोग भी श्रेय लेने की कोशिशें कर रहे हैं। लेकिन मूल सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को इसलिए बदला है क्योंकि मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव अगले साल होने हैं और शिवराज सिंह चौहान सरकार की लेटलतीफी से ओबीसी के लोग खासे नाराज थे, जिन्हें भाजपा खुश करना चाहती थी? क्या कोई दबाव था?
कुछ लोग कहेंगे कि यह कैसा सवाल है। लेकिन सवाल तो है। यदि उपरोक्त सवाल नहीं है तो क्या इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा ओबीसी के लोगों के उपर कृपा की संज्ञा दी जाय? वजह यह कि यह तो केवल कृपा वाली ही बात लगती है जो कि सुप्रीम कोर्ट ने शिवराज सिंह चौहान के ऊपर बरसायी है।
मूल मामला यह है कि न्याय और कृपा में जमीन-आसमान का अंतर है। न्याय कैसे हो, इसके लिए हमारे देश में संविधान है। हर सवाल का जवाब संविधान में है। जो जवाब नहीं हैं या फिर जवाब तलाशे जाने हैं, उसके लिए देश में संसद है, जिसके दो हिस्से हैं और दोनों सदनों में साढ़े सात सौ से अधिक सदस्य हैं। तो यह बात तो साफ है कि न्याय को कृपा की संज्ञा नहीं दी जा सकती है और ओबीसी कृपा का पात्र नहीं है। भले ही आज यह दिग्भ्रमित समाज है जो रोजी-रोटी से लेकर तमाम तरह की बुनियादी चीजों के लिए परेशान भी है, लेकिन श्रमिक समाज है, और अपने नेताओं की तरह बेशर्म नहीं है।
खैर, समय महत्वपूर्ण है। कल यही शब्द मेरी प्रेमिका ने दिया।
कहने को तो तुम भी साथ हो
मगर, तुम मेरी प्रेमिका के जैसे नहीं हो समय।
मेरी प्रेमिका मुझसे प्यार करती है
और मौसम बदलने के लिए
कोई तय मियाद जरूरी नहीं
तुम्हारी तरह कि
गर्मी के बाद आएगी बरसात
और फिर बहेगी ठंडी बयार।
मेरी प्रेमिका मेरे साथ चलती है
वह रूक जाती है
जब मैं थक जाता हूं
उसके पास आंचल है
जिससे वह पोंछ देती है मेरा चेहरा
और जानते हो समय
जब हंस देती है
थकान दूर हो जाती है।
हां, तुम मेरी प्रेमिका के जैसे नहीं हो समय
तुम्हारे लिए आवश्यक है
न्यूटन के सारे नियम
और मुल्क के सारे कायदे-कानून
और उसके लिए
कोई कानून आवश्यक नहीं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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