बावड़ियों और तालाबों के बिना पर्यावरण की कल्पना अधूरी है

राकेश कबीर

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आज हम अपनी बात तालाब से शुरु करेंगे। तालाब जब सबके थे जनसमुदाय के थे और सबको तालाबों से काम था। जन और तालाब की पारस्परिकता ने तालाब को मूलस्वरूप में बचाकर रखा। तालाबों से हमने अपने घरों की कच्ची दीवारें खड़ी कीं। जब पक्की ईंटें और खपरैल आ गये तो हमने मिट्टी के गिलावे से ईंटों व खपरैल को जोड़कर दिवाल और छतें बनाई। कुम्हारों ने उनसे मिट्टी के बर्तन बनाये। एक कोने पर कपड़े धोए गए। एक तरफ मृतक पुरखों के संस्कार हुए। दूसरे कोने पर खड़े पीपल में घण्ट बंधे और उनके नीचे बच्चों ने खेल खेले, गोंद खाये। जिसका जब मन हुआ बांस की ढीमर लेकर कुछ मछलियां पकड़ लाया। किसी का मन हुआ तो कुछ सिंघाड़े डाल दिये। खेत से कटी पटसन को उसी तालाब में हफ्तों डालकर सड़ाया गया कि उनके छिलके से रस्सी बन सके। आग लगने पर गांव की सारी बाल्टियां तालाब से भरकर आग पर डाली गयी। पानी कम हुआ तो बावड़ियों से पानी फेंकर फसलें सिंची गईं।

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बेहये तालाब के चारों किनारे संरक्षक की तरह जाल बनाये ऐसे खड़े थे कि उनके ऊपर चढ़कर चला जा सके। अब ये सब कुछ नष्ट हो चुका है। और यही चिंता का विषय है जिसे साहित्य में दर्ज करना चाहता हूँ।

नदी, तालाब, जंगल, आदिवासी चरवाहे और निर्मल प्रकृति को बचाकर रखना। पहले विकास के नाम पर प्राकृतिक उपादानों को नष्ट और प्रदूषित करना व फिर उनके सुधारने के उपाय करना, दरअसल विकृत तथा बीमार नजरिया है।

यह समय साहित्य तथा समाज में पर्यावरण का संकट काल है और इसे इसी रूप में दर्ज किया जाना है।

वे तालाब जिन पर समुदाय जन्म से लेकर मृत्यु तक निर्भर था आज संकट में है। तालाब जब से समुदाय से छीनकर कुछ लोगों को ठेके-पट्टे पर दिए गए तो सबका अपना तालाब पराया हो गया। ठेकेदार ने कई हजार सालों की पली आ रही विविध प्रजातियों को जहर डालकर नष्ट कर दिया। सब जलीय पौधे, शैवाल, घोंघे, सीपियाँ, सांप, मछलियां मर गईं।

गांव के लोग यह सब देखते रहे और छला हुआ महसूस करते रहे। कुछ ठेकेदारों ने तो मिट्टी निकलना तो दूर, जानवरों को नहलाना तक मना कर दिया। तालाब और दूर होते गए। अब मछलियों को खाने के लिए और तेजी से बड़े करने के लिए रेडीमेड दाने लाये गए जो पानी में पड़े तो पानी न केवल गन्दा हुआ बल्कि एक बदबू हवा में फैल गयी। ठेकेदारों ने पहले पानी पर कब्जा किया और अब हवा को तबाह कर रहे। अब आदमी हो या जानवर तालाब में नहीं उतरता। तालाब वहीं साबुत मौजूद हैं लेकिन गांव वालों के दिलों से हमेशा के लिए दूर हो गए।

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बेहया के फूल
गुलाबी रंग के फूल
केवल गुलाब के कांटो की
पहरेदारी में ही नहीं खिलते
और न कींचड़ में केवल कमल खिलते हैं
तालाब किनारे की नमी में उगते हैं
गुलाबी फूलों वाले बेहया के पौधे
जिनके पैरों में फंसे शैवालों की जाल में
छुप जाती हैं छोटी मछलियां
बचने के लिए मछुआरों के जाल से
लेकिन सांपो से कहाँ बच पाती हैं मछलियां
जब भी गुस्साई हुई माँ
पीटती थी अपने लड़कों को गांव में
तो बोलती थी एक मुहावरा
का ‘बेहया हो गईल बाट’
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बेहया होना प्रतीक है अदम्य जिजीविषा का
बेहया के शरीर का एक टुकड़ा भी 
एक जंगल बसा सकता है 
गड़ही या तालाब किनारे की जमीन में
और गुलाबी कर सकता है सारे मौसम को
दुख ये है कि गुलाब घर घर पहुंच गए और
बेहया उजाड़ दिए गए सारे तालाबों से
और छोटी मछलियां 
अनाथ हो गईं।
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।
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