वेंकट रामास्वामी के पिता वेंकटप्पा नायडू तमिलनाडु के ईरोड शहर के धनी व्यापारी थे, इसलिए घर पर भजन-कीर्तन तथा हिंदू महाकाव्य (रामायण, महाभारत और पुराणों) के पाठ लगातार चलते रहते। इसी से तंग आकर पंद्रह साल के रामास्वामी ने घर से भागकर उत्तर दिशा में काशी मतलब बनारस की राह पकड़ी। लेकिन काशी के धार्मिक पाखंड को देखते हुए उनकी रही-सही आस्था भी जलकर राख हो गई। इसलिए वापस ईरोड लौट कर आए और यहाँ के नगराध्यक्ष बन गए।
केरल के मशहूर मंदिर वायकोम के सत्याग्रह में चक्रवर्ती राजगोपालचारी की प्रेरणा से रामासामी कांग्रेस में शामिल हो गए। असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए। इसके बाद 1922 में मद्रास प्रेसिडेंसी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रस्ताव रखा, जो कांग्रेस ने ठुकरा दिया। इसलिए कांग्रेस से मोहभंग हो गया और 1925 में कांग्रेस को छोड़ दिया। उन्हें लगा कि यह पार्टी दलितों को लेकर असंवेदनशील है। उसके लिए उन्होंने दलितों के समर्थन में जस्टिस पार्टी (1944) की स्थापना की। लेकिन चुनाव में पार्टी की बुरी तरह से हार देखकर उन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी की स्थापना की और खुद राजनीति से दूर रहे। स्त्री-शूद्रों के लिए लड़ाई लड़ने लगे।
जब 1937 में चक्रवर्ती राजगोपालचारी मद्रास प्रेसिडेन्सी के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने हिंदी को अनिवार्य घोषित किया। इस पर पेरियार ने हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू कर दिया, तो सरकार ने उन्हें 1938 में जेल में बंद कर दिया। इसके पहले उन्होंने 1925 में सेल्फ रिस्पेक्ट आंदोलन शुरू किया। 1929 में यूरोप, सोवियत रूस और मलेशिया की यात्रा की। 1929 अपने उपनाम नायकर का त्याग कर उसकी जगह पेरियार मतलब पवित्र आत्मा रख लिया ।
उन्होंने तमिलनाडु (1938) में तमिलों के लिए नारा बुलंद किया। 1944 में जस्टिस पार्टी के नाम को बदल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) कर दिया। इसके पूर्व 1933 में नागम्मा के निधन के बाद पेरियार ने फिर कोई शादी नहीं करने का फैसला कर लिया था। वह पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित हो गए। 1948 यानी 69 की उम्र में पेरियार ने 31 वर्षीय अपनी निजी सहायक से विवाह कर लिया। उनका यह निर्णय काफी विवादस्पद रहा, लेकिन उन्होंने उसकी परवाह नहीं की।
1949 में पेरियार और अन्नादुराई के बीच मतभेद होने की वजह से डीएमके का पहली बार विभाजन हुआ। 24 दिसंबर, 1973 को 94 की उम्र में उनका निधन हो गया। तमिलनाडु में द्रविड़ संस्कृति को लेकर पहली बार किसी ने उसके स्वाभिमान को बढ़ावा दिया और इसी आंदोलन की वजह से आज भी उलट-पलट कर डीएमके सरकार का राज जारी है।
यह भी पढ़ें…
संघ के दोमुंहें व्यवहार और संविधान विरोधी गतिविधियों का खामियाजा देश की जनता भुगत रही है
उसी द्रविड़ पहचान की बदौलत आज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और युवा मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना मलेरिया व डेंगू से की। क्योंकि तमिलनाडु में मनुस्मृति से लेकर सनातन धर्म के खिलाफ आंदोलन सौ साल से पहले ही शुरू करने वाले रामास्वामी पेरियार की 144वीं जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में उदयनिधि ने सनातन धर्म की आलोचना की तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक इकाई भाजपा ने सनातन धर्म के तारीफों में पुल बांधने की मुहिम शुरू कर दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में सिर्फ तथाकथित सनातन धर्म की रक्षा के लिए की गई थी, जो हजारों वर्ष पुरानी मनुस्मृति के अनुसार समाज को चलाना चाहते हैं। यहाँ तक कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 26 नवंबर (1949) को भारतीय संविधान की घोषणा करने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर (30 नवंबर का अंक) के संपादकीय में कहा गया कि ‘देश-विदेश के संविधानों की नकल करके इस गुदड़ी जैसी किताब को लिखा गया है। इसमें हमारे देश का कोई भी मार्गदर्शक नहीं है। मनुस्मृति में हमारे देश की संस्कृति तथा आध्यात्मिक नियम और कानून हैं, जिसका पालन हजारों वर्षों से यहाँ हो रहा है, मनुस्मृति हमारा हिंदू कानून भी है।’
जिस मनुस्मृति में स्त्री और शूद्र जातियों का जन्म पैर के अंगूठे से हुआ है। उन्हें वेदों का अध्ययन करने की मनाही थी। उनका वेदमंत्र सुन लेना भी पाप है। अगर गलती से कहीं सुन भी लिया तो उनके कानों में शीशे का पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाता था। शूद्रों का एकमात्र काम है ऊंची जातियों के लोगों की सेवा करना। आगामी चुनाव को देखते हुए तथाकथित महिलाओं को विधानसभा और लोकसभा में 33% आरक्षण का पाखंड करनेवाली भाजपा अपना सियासी चेहरा दिखा रही है। मनुस्मृति की वकालत करनेवाले आरएसएस और भाजपा हमेशा भारत के संविधान का विरोध करते रहे। ज़रा वे बताएँगे कि मनुस्मृति में महिलाओं के लिए कौन से नियम हैं? मनुस्मृति के अनुसार, स्त्रियों को बचपन में पिता की छत्रछाया, जवानी में अपने पति और बुढ़ापे में अपने बेटे के कृपा पर रहना चाहिए। वे अकेली नहीं रह सकती है, क्योंकि वे कमजोर हैं। उन्हें हमेशा ही पुरुषों की कृपा पर रहना चाहिए। लोकसभा में तथाकथित महिलाओं के आरक्षण का विधेयक भी उन्हीं पुरुषों की ‘शूद्र राजनीतिक चालबाजी’ का तमाशा है। यह विधेयक प्रत्यक्ष रूप से अमल में आने में और भी सोलह साल लगने वाले हैं, क्योंकि गृहमंत्री ने लोकसभा में साफ-साफ बोला है कि जबतक जनगणना नहीं होती और तबतक इस पर काम चलता रहेगा।
यह भी पढ़ें…
महिला आरक्षण को यथार्थ में कब देखेगा देश, आरक्षण में हिस्सेदारी पर अब भी होगा संघर्ष
डॉ. राम मनोहर लोहिया की भाषा में ‘भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की है, पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है। उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कभी कोशिश भी नहीं की गई। इस लड़ाई को मद्देनजर रखकर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए तो देश में जो कुछ भी होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी कारण होता है।’
कभी कट्टरपंथी हावी हो जाते हैं, तो कभी उदारपंथी। फिलहाल 1985 से बाबरी मस्जिद के आड़ में कट्टरपंथियों ने रथयात्राओं और दुनिया भर में शिलापूजन, शिलान्यास और अन्य धार्मिक अंधभक्ति के अभियानों के माध्यम से देश में धार्मिक ध्रुवीकरण करने में कामयाबी हासिल की है। उसकी बदौलत नरेंद्र मोदी भारतीय इतिहास में पहली बार 2014 में प्रधानमंत्री बने। उसके पहले नई शताब्दी की शुरुआत में जोड़-तोड़ करके तथाकथित एनडीए नाम के 26 विभिन्न दलों की मदद से सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। 2014 से नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाबी मिली। 2019 में दोबारा और भी अधिक सीटें जीतकर नई संसद में प्रवेश करने का कार्यक्रम जारी है।
जी20 सम्मलेन से मुक्त होने के बाद विश्व भर में समता तथा एकता का प्रस्ताव पारित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद भोपाल में विशेष जनसभा को संबोधित करते हुए गैरजिम्मेदार आरोप लगाया कि ‘सनातन धर्म को नष्ट करने की साजिश इंडिया गठबंधन कर रहा है।’
सनातन धर्म पिछड़ी जातियों के साथ सैकड़ों-हजारों वर्षों के साथ कैसा व्यवहार करता आ रहा है, यह बात आज से 144 साल पहले 17 सितंबर (1879) को पैदा हुए रामास्वामी पेरियार की 144वीं जयंती पर मालूम हो जाती है। संयोग से उसी दिन नरेंद्र मोदी का भी 73वां जन्मदिन था। अब दोनों लोगों के आयोजनों को देख लीजिये। वैसे, भारत की धार्मिक राजधानी काशी में अति पाखंड युक्त माहौल देखकर पेरियार वहाँ से नास्तिक बनकर ही लौटे थे।
यह भी पढ़ें…
महिला आरक्षण में आरक्षण की कितनी तैयारी, क्या वंचित समाज की तय होगी हिस्सेदारी
काशी के बारे में मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव बहुत ही बुरा है। मैं सत्तर के दशक में अपने कॉलेज का जीएस था। कॉलेज का स्टडी टूर उत्तर भारत के कुछ प्रसिद्ध जगहों पर गया तो विश्वनाथ मंदिर के पंडों की दादागिरी को देखते हुए बगैर दर्शन वापस आना पड़ा। फिर गंगा नदी में एक नौका में सभी विद्यार्थियों के साथ घूमते हुए अचानक कुछ पंडे हमें पकड़कर हमारे पुरखों के लिए पूजा करने का आग्रह करने लगे। जब हमने मना किया तो वे नौका को पकड़कर हिलाने लगे। विद्यार्थियों ने किसी तरह उनसे छुटकारा पाया। इसके बाद मुझे गंगा नदी में तैरने का मन हुआ। मैंने नौका से ही पानी में छलांग लगा दी। उस दौरान पानी में कुछ भारी भरकम चीज मेरे हाथ से लगी। गौर से देखा तो एक अधजली लाश थी। हांफते हुए मैं पानी से बाहर निकला।
धर्मशाला में भी मुझे अकेला पाकर एक अधेड़ विधवा ने जिस तरह से मेरा हाथ पकड़कर अपने कमरे में खींचने की कोशिश की, वह मैं जीवनभर नहीं भूल सकता। इसी तरह भंगेड़ी और चरस, गांजा फूंक रहे साधुओं को देखकर सिर झन्ना गया।
खैर, देश के प्रधानमंत्री नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में उसी दक्षिण के अधनंगे सौ से अधिक तुंबल तनु ब्राह्मणों को बुलाकर उनके सामने साष्टांग दंडवत करने से कौन-सा संदेश विश्व को देना चाहते हैं? ये वही लोग हैं, जो सनातन धर्म में सती प्रथा से लेकर छुआछूत तथा स्त्री-शूद्रों प्रताड़ित करने वालों के प्रतिनिधि हैं। जिनके खिलाफ ज्योतिबा फुले, राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, रामास्वामी पेरियार, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर आदि के अथक प्रयासों के बाद आज औरतों को 33% आरक्षण मिलने जा रहा है। भले ही यह नरेंद्र मोदी की चुनावी राजनीति की चाल होगी लेकिन वे अपनी चालें तेजी से चल रहे हैं। अपने गृहराज्य गुजरात में ओबीसी वर्गों के लोगों को 27% आरक्षण देने की उनकी रणनीति भी चुनावी है।
दो सौ साल पहले पति की चिता में महिलाओं को जबरदस्ती जलाने वाले सनातन धर्म का जो लोग बचाव कर रहे हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए। शूद्रों को मंदिर प्रवेश न देकर जो धर्म उनके गले में मटका और कमर पर झाड़ू बांधकर चलने को विवश करता था उसको क्यों बचाना चाहिए। आखिर यह वाली परंपरा किस मानव धर्म में आती है? उदयनिधि का सिर कलम करने का फतवा जारी करने वाले लोगों के खिलाफ आजतक कोई कारवाई नहीं हुई? मतलब आने वाले समय में जो भी चुनाव प्रचार होगा, वह धार्मिक उन्माद पैदा कर के ही होगा।
यह भी पढ़ें…
मोदी सरकार की कारगुजारियों को देखकर कैसे उम्मीद हो कि भारत भेदभाव दूर करेगा
क्योंकि नरेंद्र मोदी के दस साल के कार्यकाल में भारत की आर्थिक स्थिति और भी खराब नहीं हुई है। हर साल दो करोड़ रोजगार की घोषणा करने वाले शख्स को चंद लोगों को रोजगार के कागजात देकर फोटो निकालने की ज़रूरत पड़ गई। वहीं, एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे दस वर्षों में भी ये दो करोड़ लोगों को भी रोजगार नहीं दे सकें। उल्टा बेरोजगारी का दंश झेल रहे लोगों के बीच भारत को विश्व का सबसे युवा जनसंख्या वाला देश बोल रहे हैं। भारत के सबसे अधिक रोजगार देने वाले रेलवे, आर्मी, बैंकिंग और सरकारी उपक्रम को प्राइवेट हाथों में सौंपने के लिए उनमें पहले से काम कर रहे लोगों को निकाल बाहर करने की नोटिस जारी कर दी गई है। यही हाल भारत की आधी आबादी यानी खेती पर निर्भर रहने वालों का भी हो गया हैं। किसानों को सहूलियत के नाम पर भारत की जमीन-जंगल-जल संसाधन पाए गत नौ वर्षों से कार्पोरेट का कब्ज़ा कराने की प्रक्रिया जारी है। नवधनाढ्य गौतम अदानी जैसे लोगों को यह सब संसाधन सौंपना लगातार जारी है। नरेंद्र मोदी और गौतम अदानी के संबंध को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक जगत में संशय व्यक्त किया जा रहा है। मोदी उसका जवाब देने की जगह सनातन धर्म की रक्षा का राग अलाप रहे हैं।
पेरियार रामास्वामी नायकर ने सौ साल पहले सनातन धर्म की मानवता और स्त्रीविरोधी कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। उदयनिधि उसको सिर्फ याद दिलाने का काम कर रहे हैं। चांद पर अपने यान भेजने वाले लोगों को अपने धर्म की कुरीतियों का खुलकर समर्थन करते हुए देखकर हैरानी होती है। आज से दो सौ साल पहले ज्योतिबा फुले, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन देवेंद्रनाथ ठाकुर, रामास्वामी पेरियार तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने भी इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए उसके खिलाफ जिंदगी भर प्रचार-प्रसार किया है। भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए निकले लोग एक ही समय में एक चांद-सूरज पर संशोधन करने के लिए यान भेज रहे हैं। दूसरी तरफ, सनातन जैसी विषमतावादी व्यवस्था का समर्थन करने वाले धर्म की रक्षा करने की बात कर रहे हैं। इससे बड़ा पाखंड कोई और हो नहीं सकता।
भारत सरकार के खर्चे से उसी दक्षिणी भारत के ब्राम्हणों को लाकर नई संसद के पूजा-पाठ और होम-हवन (जो हमारे देश के संविधान के खिलाफ है) कराने के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाया में पले-बढ़े नरेंद्र मोदी सनातन धर्म के हिसाब से शूद्र में शुमार होते हैं। लेकिन संघ के प्रेजेंटेशन की वजह से नरेंद्र मोदी गणेश चतुर्थी को संसद भवन में प्रवेश करने जैसा ‘पाखंड’ कर रहे हैं।
डॉ. सुरेश खैरनार सामाजिक कार्यकर्त्ता और लेखक हैं।