तमाम अन्य बातों के अलावा 2023 का साल केंद्र सरकार की खतरनाक दुनाली के लिए याद रखा जाएगा जिसे लगातार विपक्ष के नेताओं और असहमत लोगों पर राजनीतिक और चुनावी लाभ के लिए साल भर ताने रखा गया। इस दुनाली की दो नलियां केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) हैं। इसके साथ ही सरकार ने जरूरत के हिसाब से अपने दर्जनों तमंचों और छर्रों से राजनीतिक काम लिया। इनमें गैर-भाजपा राज्यों के राज्यपाल, लोकसभा के स्पीकर, राज्यसभा के सभापति, आयकर विभाग, अदालतें, चुनाव आयोग, नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए), पुलिस आदि शामिल हैं।
एक वह भी दौर था जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ जैसी अग्रणी केंद्रीय एजेंसी को ‘पिंजड़े का तोता’ और ‘मालिक का भोंपू’ कहा था। यह महज दस साल पहले की बात है जब ‘कोलगेट’ यानी प्राइवेट कंपनियों को कोयला खदानों के आवंटन पर सुनवाई के दौरान जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सरकार के सबसे बड़े वकील अटॉर्नी जनरल को ऐसे शर्मनाक पदों का प्रयोग करते हुए लताड़ा था। महज एक दशक में ही दौर कैसे बदलता है, इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट की एक कार्रवाई इसकी गवाही देती है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को सूरत की एक अदालत द्वारा मानहानि के प्रकरण में आरोपित किए जाने के अगले ही दिन जब संसद से उनकी सदस्यता रद्द की गई, तो चौदह राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी कि केंद्रीय एजेंसियों का विपक्षी नेताओं के खिलाफ दुरुपयोग किया जा रहा है। इस याचिका के माध्यम से विपक्ष के नेताओं ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआइ की ‘मनमर्जी गिरफ्तारी’ से सुरक्षा की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को बेरहमी से ठुकरा दिया।
यह घटना 5 अप्रैल, 2023 की है। इसी सुप्रीम कोर्ट में घटी ‘पिंजड़े के तोते’ वाली घटना मई 2013 की थी। सुप्रीम कोर्ट को अपनी कही बात अस्वीकार करने में भले दस साल लग गए, लेकिन एक बार उसने केंद्र सरकार को केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप से बरी क्या किया कि केंद्र ने दस साल तो क्या दस महीने भी सुप्रीम कोर्ट को अपने मामलों से बाहर करने का इंतजार नहीं किया। मात्र छह महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को ही चुनाव आयोग के चयन पैनल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
आहत सभापति
पिछले दस साल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने ऐसे ही एक-एक कर के लोकतांत्रिक संस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप से काम करने के उनके संवैधानिक कार्यभार को चोट पहुंचाई है। इस मामले में 2023 का साल हालांकि विलक्षण रहा, जब वर्ष की शुरुआत से ही ईडी, सीबीआइ व चुनाव आयोग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं और राज्यपाल, लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के सभापति जैसे संवैधानिक पदों का दुरुपयोग करते हुए इनकी गरिमा को चूना लगा दिया गया।
दिलचस्प है कि विपक्ष के नेता और दल लगातार हल्ला मचाते रहे, याचिका डालते रहे, लेकिन बदालत और चुनाव आयोग के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। इस सिलसिले में स्वतंत्र भारत की एक ऐतिहासिक विडम्बना तब पैदा हुई जब संसद के शीत सत्र के दौरान 146 सांसदों को संसद से बाहर निकाल दिया गया लेकिन उनके बजाय उलटे आहत हो गए उन्हें बाहर निकालने वाले राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़- क्योंकि एक सांसद ने संसद के बाहर उनकी नकल कर दी थी।
राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़
धनखड़ इस देश के उपराष्ट्रपति हैं। वे इसलिए उपराष्ट्रपति बनाए गए हैं क्योंकि राज्यपाल रहते हुए उन्होंने राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया था। जगदीप धनखड़ ने पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए वहां की विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया था और कथित तौर पर भाजपा की मांगों का समर्थन करते रहे थे। मजेदार है कि धनखड़ के पूर्ववर्ती केसरीनाथ त्रिपाठी के भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बड़े मतभेद थे।
पद के दुरुपयोग से सत्ता की सीढ़ी चढ़ना, फिर से नए पद का दुरुपयोग करना और उसके बाद खुद को शिकार दिखाना- यह एक ऐसा सिलसिला है जो अब सत्ता के गलियारों में आम हो चला है। जाहिर है इस परिपाटी के जनक खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जो लंबे समय से पीडि़त कार्ड खेलते आ रहे हैं और उन्हें लगातार यह मनोविकार सताता रहता है कि लोग उनके पीछे पड़े हुए हैं। बिलकुल यही स्थिति आज जगदीप धनखड़ तक आ चुकी है।
राज्यपालों का दुरुपयोग
बहरहाल, धनखड़ के बहाने अगर राज्यपाल पद के दुरुपयोग की ही बात करें तो इसी साल की 15 मई को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने एक ऐसी टिप्पणी की जिसने लोकतंत्र के समक्ष मौजूद सबसे गंभीर खतरे को रेखांकित करने का काम किया है। जाहिर है, इस टिप्पणी का नतीजा मुख्य न्यायाधीश को बाद में चुनाव आयोग के पैनल से बाहर होकर भुगतना पड़ा होगा।
पिछले साल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली महाविकास अघाड़ी सरकार के गिराने में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की अध्यक्षता करते हुए प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने कहा था कि एक राज्यपाल ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे निर्वाचित सरकार गिर जाए। उन्होंने कहा था, “यह लोकतंत्र के लिए बहुत, बहुत गंभीर बात है।”
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने राज्यपालों के राजनीतिक दुरुपयोग को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ जो बात कह रहे थे, उसकी जद में 2016 से लेकर अब तक दर्जन भर राज्यपाल आ जाते हैं जिन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार ने भाजपा का एजेंडा चलाने के लिए राज्यों में नियुक्त किया था। जिस गति से 2014 के बाद केंद्र ने राज्यपालों का इस्तेमाल दूसरे दलों की प्रांतीय सरकारों को गिराने या अस्थिर करने में किया है, पहले ऐसा नहीं हुआ था। असहमत राज्य सरकारों में राज्यपाल के माध्यम से दखल देकर संवैधानिक विचारधारा का जिस कदर उल्लंघन 2014 के बाद किया गया है, वह पहले कभी-कभार ही होता था। जाहिर है, इस उल्लंघन की जड़ें लचीले संवैधानिक प्रावधानों में छुपी हैं, लेकिन केंद्र की सरकार का चरित्र और राजनीतिक विचारधारा भी संविधान के आड़े आती है।
भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आस्था हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा में है। यह विचार एकरंगी है और संघीयता के खिलाफ है। यह सत्ता के विकेंद्रीकरण में विश्वास नहीं करता है। न ही केंद्र और राज्यों के बीच समतापूर्ण संबंधों को यह मानता है। यही वजह है कि तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, अरुणाचल, गोवा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि ऐसा कोई राज्य बमुश्किल ही बच रहा है जहां उसने चुनी हुई सरकारों के साथ छेड़खानी न की हो। बीते नौ वर्ष में ऐसे मामले लगातार बढ़े हैं। 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जबरन सरकार गिराए जाने के बाद के घटनाक्रम में किसी पूर्व मुख्यमंत्री को फांसी लगानी पड़ी हो, जैसा कलिखो पुल के साथ अरुणाचल में हुआ।
भाजपा की दुनाली
राज्यपालों से इतर, यह साल ईडी और सीबीआइ की मनमानी और केंद्रीय सत्ता द्वारा उनके दुरुपयोग के लिए जाना जाएगा। 2014 के बाद से ईडी के इस्तेमाल में चार गुना बढ़ोतरी हुई है और 95 फीसदी मामलों में उसका उपयोग विपक्ष के नेताओं को डराने, धमकाने और गिरफ्तार करने में हुआ है। सीबीआइ तो खैर 2013 में ही ‘पिंजड़े का तोता’ बन चुका था। ईडी का मामला इस मामले में थोड़ा अलग है क्योंकि उसे भी यह खुली छूट सुप्रीम कोर्ट से ही मिली है।
पिछले साल यानी 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय को हवाला मामलों (पीएमएलए) के तहत किसी औपचारिक शिकायत के बगैर ही तलाशी लेने और संपत्ति जब्त करने के अधिकार दे दिए थे। इसमें यह मानकर चला जाना था कि जिस पर आरोप लगाया गया है, वह अपराधी है। जस्टिस एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने ईडी के न्यायाधिकार में विस्तार करते हुए हवाला कानून के कई विवादास्पद प्रावधानों की संवैधानिकता को बरकरार रखा। उसके बाद से इस एजेंसी ने विपक्ष के नेताओं को निशाने पर लेना शुरू किया।
खासकर चुनाव अभियानों के दौरान यह काम नग्न तरीके से किया गया है। हाल ही में प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान ईडी के छापों ने दिखाया है कि कैसे केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी को लाभ पहुंचाने के मकसद से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है।

राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के जयपुर और सीकर आवास पर अक्टूबर के अंत में यानी चुनाव से ठीक पहले ईडी ने छापे मारे जब डोटासरा चुनाव प्रचार में जुटे हुए थे। छापे के बाद ईडी ने इस बारे में कोई आधिकारिक बयान तक जारी करना उचित नहीं समझा। नवंबर में डोटासरा के दोनों बेटे को ईडी का समन आया। उसी वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को भी ईडी ने समन भेजा। इस घटना पर गहलोत ने ईडी को ‘टिड्डी दल’ की संज्ञा दी थी।
छत्तीसगढ़ में ईडी का यह ‘टिड्डी दल’ अगस्त में ही दिल्ली से उड़ कर पहुंच गया था, जब उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राजनीतिक सलाहकार और बीबीसी के पत्रकार रह चुके विनोद वर्मा के यहां छापा मारा था। इसके अलावा दो अधिकारियों के यहां भी छापा पड़ा था। मतदान के पहले चरण से ठीक चार दिन पहले महादेव सट्टा ऐप के घोटाले के संबंध में ईडी ने बघेल का नाम 508 करोड़ की रिश्वत के लाभार्थी के बतौर जोड़ दिया। बघेल का नाम भाजपा नेताओं द्वारा जारी एक वीडियो क्लिप के आधार पर जोड़ा गया था।
कुछ अन्य मामलों में भी ईडी ने चुनाव से ठीक पहले छत्तीसगढ़ में छापे मारे थे। इस सिलसिले में चार लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। बताया जाता है कि गिरफ्तार व्यक्ति बघेल के करीबी थे। इनमें एक एएसआइ था और एक कारोबारी था।
मध्य प्रदेश में भी ईडी की कार्रवाई अगस्त से शुरू हुई और सबसे पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के चेहरे कल नाथ के भतीजे को 354 करोड़ के एक बैंक फर्जीवाड़े केस में पकड़ा गया। यह केस 2019 का है। इसी सिलसिले में अगस्त में एक बैंकर की भी गिरफ्तारी हुई थी।
तेलंगाना में ईडी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी और बीआरएस की विधायक के. कविता को दिल्ली शराब घोटाले के सिलसिले में चुनाव से ठीक पहले दोबारा समन भेजा। इसी सिलसिले में आम आदमी पार्टी के सांसद रहे संजय सिंह और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया जेल काट रहे हैं। ईडी के साथ आयकर विभाग ने भी तेलंगाना में कुछ जगहों पर छापे मारे थे।
मिजोरम वह पांचवां राज्य था जहां चुनाव हुए हैं लेकिन ईडी वहां नहीं पहुंची। इसलिए नहीं कि वह दूर है बल्कि इसलिए कि वहां भाजपा का केवल एक विधायक था और सीधी लड़ाई में भाजपा कहीं नहीं थी।
आतंक का जवाब
मार्च 2023 तक ईडी ने कुल 5906 प्रकरण दर्ज किए थे। इनमें से केवल 1142 मामलों में ही जांच पूरी कर के आरोप पत्र दायर किया गया है। महज 25 केस अब तक निपटाये जा सके हैं जिनमें केवल 24 में सजा हुई है।
जांच एजेंसियों का आतंक गैर-भाजपा सरकारों के ऊपर इस साल ऐसा बरपा कि दिल्ली की विधानसभा को बाकायदे इनके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित करना पड़ा। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से शराब घोटाले में सीबीआइ द्वारा सवाल किए जाने के ठीक बाद दिल्ली की विधानसभा ने दिल्ली सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाते हुए केंद्रीय एजेंसियों के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था। यह बात अप्रैल की है।
ऐसा ही एक प्रस्ताव पश्चिम बंगाल की विधानसभा ने भी सीबीआइ, ईडी और आयकर विभाग के खिलाफ पारित किया था लेकिन उस दौरान विधानसभा में बोलते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आश्चर्यजनक ढंग से कहा था कि केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाथ नहीं है। उन्होंने कहा था कि उक्त प्रस्ताव किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, बल्कि तानाशाही ढंग से व्यवहार कर रही केंद्र सरकार के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर है।
पिछले साल ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने भी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के खिलाफ अपनी केंद्रीय कमेटी की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन विडंबना यह है कि उसने पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती घोटाले के सिलसिले में ईडी द्वारा पूर्व मंत्री पार्था चटर्जी की गिरफ्तारी का समर्थन भी किया। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने तब कहा था कि पार्था की गिरफ्तारी अदालत के आदेश पर हुई है और सीबीआइ ने अदालती आदेश के बाद ही घोटाले की जांच की है। सीपीएम का यह प्रस्ताव विशेष रूप से केरल के सम्बंध में आया था जहां उसकी सरकार है।
ईडी के आतंक का आलम यह हो चुका है कि अब गैर-भाजपा राज्यों में ईडी के अधिकारियों की गिरफ्तारी हो रही है। अभी बीते विधानसभा चुनावों के दौरान राजस्थान में एक ईडी का अधिकारी रिश्वत लेते पकड़ा गया था। कुछ दिन पहले ऐसी ही एक घटना तमिलनाडु में भी हुई है।
नया सीआइओ
नवंबर 2018 में दो साल के लिए ईडी के मुखिया बनाए गए संजय कुमार मिश्र को लगातार सेवा विस्तार दिया गया है जिसके चलते केंद्र सरकार की बहुत आलोचना हुई है। उनका पिछला सेवा विस्तार सुप्रीम कोर्ट के जुलाई में आए एक आदेश के तहत किया गया था जिसकी मीयाद 15 सितंबर 2023 को पूरी हो चुकी है।
अगस्त में यह खबर आई थी कि केंद्र सरकार ईडी और सीबीाइ दोनों की निगरानी करने के लिए एक नई एजेंसी बनाएगी। इस एजेंसी के मुखिया को भारत का मुख्य अन्वेषण अधिकारी (सीआइओ) कहा जाएगा। पहले संजय मिश्रा को ही इस पद पर लाने की बात आई थी। कहा जा रहा था कि ईडी और सीबीआइ के मुखिया सीआइओ को रिपोर्ट करेंगे। सीआइओ सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करेगा। फिलहाल, मिश्रा के ईडी से जाने के बाद इस पद की अटकलों पर विराम लगा हुआ है।
और अंत में गांधी
इस बीच बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी को ईडी का समन गया था। इन्हें दिल्ली बुलाया गया है। मामला नौकरियों के बदले नकद से जुड़े एक कथित घोटाले का है।
साल खत्म होते-होते कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी ईडी के लपेटे में आ गई है। हरियाणा में एक कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त के सम्बंध में ईडी ने अपने आरोप पत्र में प्रियंका का नाम जोड़ा है। यह केस 2006 से 2010 के बीच का है जिसमें उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जांच चल रही थी।