हमीद दलवाई की 91वीं जयंती पर
आज हमीद दलवाई होते तो उनका 91वां जन्मदिन मनाया जाता। 29 सितंबर 1932 को, कोंकण के चिपलून के करीब मिरजोली नाम के गांव में उनका जन्म हुआ था। पिताजी मौलवी थे और उनकी तमन्ना थी कि बेटा भी मौलवी बने। लेकिन चिपलूण में राष्ट्र सेवा दल की शाखा में हमीद बचपन से ही जाते थे, इसलिए वह इंडियन सेक्युलर सोसाइटी और मुस्लिम सत्यशोधक समाज, जैसी दो संस्थाओं के संस्थापक बने। हमीद दलवाई मुस्लिम जगत में तुर्की (अब तुर्किए) के कमाल पाशा के बाद दूसरे मुस्लिम सुधारवादी सुधारक थे। जिसके कारण कठमुल्ला मुसलमानों ने सत्तर के दशक में कई बार उनके ऊपर जानलेवा हमले किए लेकिन उन्होंने अपने काम को छोड़ा नहीं। अपनी किडनी की बीमारी के कारण वह 45 वर्ष की उम्र में यानी जीवन का अर्धशतक होने से पूर्व ही 3 मई (1977) में दुनिया को अलविदा कह दिया।
हमीद दलवाई 45 साल की जिंदगी जिए। शुरुआत के 20 साल छोड़ दें तो 25 साल अपनी जान जोखिम में डालकर वे महात्मा जोतिबा फुले की तरह सामाजिक जागृति के काम में लगे रहे। उसमें भी मुस्लिम सामाजिक सुधार, जो सौ साल पहले तुर्की में कमाल अतातुर्क पाशा ने सत्ता में आने के बाद कोशिश की थी।
लेकिन इस्लाम धर्म के 1500 सौ साल के इतिहास में समाज सुधारक शायद ही कोई और हुआ है। चिपलूण में सामाजिक सुधार करने वाले विष्णु शास्री चिपलूणकर भी पैदा हुए थे। उसी कोंकण क्षेत्र के छोटे से गाँव में हमीद ने उम्र के 14वें साल में सिर्फ 9 साल पहले शुरू किए गए राष्ट्र सेवा दल नाम के बच्चों के संगठन में शामिल हुए।
इस कारण एक बहुत कम उम्र में ही हमीद ने जनतांत्रिक, समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक संचेतना और राष्ट्रवाद के मूल्य लेकर ही जीवन में आगे का सफर तय किया। बहुत लोग अलग-अलग संगठनों में आते रहते हैं। सभी अपने जीवन में लक्ष्य को खोजने का प्रयास नहीं करते। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें अगर सही समय पर उचित राह मिल जाती है तो वह हमीद दलवई बन जाते हैं।
जब वे 15 साल के हुये तो देश में आजादी आ गई थी। फिर मुख्य लक्ष्य देश को बनाना था, क्योंकि आजादी के पहले बांटो और राज्य करो की नीति के कारण एक तरफ मुस्लिम लीग और दूसरी तरफ हिंदू महासभा थी। 1925 के बाद संघ परिवार को प्रश्रय देने का काम अंग्रेजों ने बखूबी किया, जिसके कारण आजादी देश के बंटवारे के साथ मिलकर ही आई। लाखों लोग मारे गए और करोड़ों लोग विस्थापित हुए।
जिस कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में जबरदस्त खाई बन गई थी, जिसमें महात्मा गांधी की भी बली चढ़ गई। ऐसे माहौल में अपने आपको सेक्युलर बनाये रखना कोई साधरण बात नहीं है। यह तो सिर्फ और सिर्फ राष्ट्र सेवा दल के संस्कार के कारण ही संभव है, जो हमीद में पहले से थी।
जाति-धर्मनिरपेक्ष रहना भी आपके परिवेश के कारण होता है। इसलिऐ मुझे हमेशा से लगता रहा है कि मेरे जीवन में भी हमीद भाई की तरह उम्र के 13-14 वें साल में पदार्पण करते समय अगर राष्ट्र सेवा दल जैसा जाति-धर्मनिरपेक्ष समाज के संस्कार वाले संगठन से परिचय नहीं हुआ होता तो मैं शत-प्रतिशत संघ का स्वयंसेवक बना होता, क्योंकि भूगोल के मेरे प्रिय शिक्षक बीबी पाटील सर मुझे संघ में शामिल करने के लिए काफी प्रयास करते रहे। उनके आग्रह की वजह से मैं कुछ दिन संघ की शाखा में गया था।
मुझे लगता है कि हमीद दलवई की शुरुआती जिंदगी में अगर राष्ट्र सेवा दल नहीं होता, तो वे मौलवी बन गए होते। यह बात 70 के दशक में हमीद भाई ने मुझे अमरावती में गप-शप के दौरान बताई थी। वह गपशप के शौक़ीन थे। किडनी की बीमारी में जसलोक अस्पताल में बेड पर थे तब भी वह गपशप के मूड में थे।
उम्र की शुरुआत में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी रहे और पत्रकार भी। आचार्य अत्रे के मराठा नामक अखब़ार में काम किया करते थे। उसी समय मराठी में ईंधन नाम का उपन्यास भी लिखा। इसका दिलीप चित्रे ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। उनका एक कथा संग्रह भी है। दोनों कृतियों को पुरस्कार भी मिल चुका है।
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लेकिन भारतीय मुसलमानों की हालत देखकर वे अपने आपको रोक नहीं सके। एक वर्ग था, जो इस्लाम खतरे में है… की बात करके मुसलमानों की राजनीति कर रहा था। दूसरा, वोट बैंक की राजनीति के कारण उनका सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था, लेकिन हमीद भाई को तो मुसलमानों के भीतर पैठा बहुपत्नीत्व और तलाक का चलन छल रहा था। इसी कारण उन्होंने 18 अप्रैल (1966) में मुम्बई के सचिवालय पर तलाक पीड़ित महिलाओं का पहला मोर्चा निकालने का साहसपूर्ण काम किया था।
हमीद ने समाज सुधार का बिगुल बजा दिया था। उम्र के 38वें साल में प्रवेश करते हुए मुस्लिम सत्य शोधक समाज नामक संगठन की स्थापना की थी। ताकि हर बात में कुरान और हदीस का हवाला देकर मुल्ला-मौलवी और सत्ता की राजनीति करने वाले मुस्लिम नेता सामान्य मुसलमानों को भेड़-बकरियां जैसे इस्तमाल ण करें। दरअसल हमीद दलवई का भारतीय आजादी के 25 साल पूरे होने के पहले ही मुसलमानों का समाज सुधारक बनना इस्लाम के भीतर बहुत बड़ी क्रांति थी। उसमें भी आधी आबादी के लिए यानि महिलाओं के साथ शरीयत का हवाला देकर किए जाने वाले व्यवहार के खिलाफ़ उनका काम एक एतिहासिक कदम था। शाह बानो का मामला उसके 20 साल बाद का है। सवाल आस्था का है, कानून का नहीं…जैसे नारे की शुरुआत यहीं से हुई है।
हम जानते हैं कि संघ का मुख्य सूत्र मुस्लिम द्वेष रहा है, लेकिन हमीद भाई की बीमारी के समय यानी 1977 में जनता पार्टी का निर्माण भारतीय सेक्युलर राजनीति पतन की शुरुआत थी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद मुंह छुपाकर रहने वाले संघ परिवार को लेजिटीमेसी मिलने की शुरुआत यहीं से हुई। आपातकाल में विभिन्न जेलों में रहने वाले सथियों के साथ विचार-विमर्श के लिए एसएम जोशी और नाना साहब गोरे के साथ मैं घूमा हूँ। मैंने एसएम जोशी से साफ-साफ शब्दों में कहा कि ‘जनसंघ जैसा हिंदू सांप्रदायिक दल, जो समाजवाद, सेक्युलर को बिलकुल नहीं मानता है। वह पूरी पार्टी पूंजीपति तथा सामंतवादी राजा, सरदारों, जमींदारों की समर्थक है। सबसे आपत्तिजनक बात तो यह कि वह उच्च जातियों और ब्राह्मणवाद की वकालत करने वाला है। उसके साथ हम समाजवादियों का वैचारिक संबंध कैसे बनेगा? चाहो तो चुनावी गठजोड़ कर सकते हो, लेकिन यह पार्टी मेरे तो गले नहीं उतरती है।’ एसएम जोशी ने कहा था- ‘सुरेश, मैं तिहाड़ जेल से जॉर्ज फर्नांडीज से मिलकर आ रहा हूँ। उनका कहना भी तुम्हारे ही जैसा है।’ यह सुनकर मुझे बहुत राहत महसूस हुई क्योंकि जॉर्ज फर्नाडिस उस समय भले ही जेल में बंद थे, लेकिन सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद पर आसीन थे।
उस समय जॉर्ज फर्नांडीज समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष थे। मेरे पिताजी के उम्र के रहे होंगे। मैं 22-23 साल का राष्ट्र सेवा दल का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था। मैंने एसएम जोशी को कहा कि जब जॉर्ज फर्नांडीज जैसे मेरे से दुगुने उम्र के साथी यही बात कह रहे हैं, तो मुझे मेरी बात और पुख्ता लगती हैं। एसएम जोशी ने कहा कि जयप्रकाश नारायण की शर्त है कि ‘सब पार्टियां जब तक एक नहीं होतीं तब तक मैं चुनाव प्रचार के लिए नहीं निकलने वाला।’ इस पेशोपेश में जनता पार्टी का गठन हुआ।
आचार्य केलकर के साथ दिल्ली के प्रगति मैदान में दर्शकों में मैं भी शामिल रहा हूँ। एक दिन पहले दिल्ली के विट्ठल भाई पटेल भवन के लॉन में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को विसर्जित करने वाले अधिवेशन का भी मूकदर्शक रहा हूँ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता मेरे उस समय के हीरो जॉर्ज फर्नांडीज कर रहे थे। जॉर्ज फर्नाडीज़ और मधु लिमये ने जनसंघ के लोगों की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप 1980 में जनता पार्टी टूट गई। पुराने जनसंघ ने 6 अप्रैल (1980) को भारतीय जनता पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई।
पांच वर्षों के दौरान संघ को काफी मात खानी पड़ी, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक ईकाई होने की वजह से उसने अपनी उग्र हिंदुत्ववादी राजनीतिक गतिविधियों के विभिन्न प्रयोग किए। 1985-86 में शाहबानो के मुद्दे पर कांग्रेस का ढुलमुल रुख देखते हुए संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद को लेकर रथयात्राओं का दौर शुरु किया। शाहबानो के केस में मुस्लिम कट्टरपंथियों के ‘सवाल आस्था का है, कानून का नहीं…’ नारे को लपककर संघी ‘राममंदिर वहीं बनायेंगे…’ के साथ मस्जिद का विध्वंस करके मंदिर के निर्माण में लग गए हैं। इस पार्टी ने अपने जीवन में कभी भी गरीब, दलित, महिला तथा आदिवासी समाज एवं किसानों-मजदूरों के मुद्दे पर कोई आंदोलन किया नहीं लेकिन धार्मिक भावनाओं को भड़काकर हिटलर के जैसे ही सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ने में कामयाब हो गई। भारतीय सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म के पराजित होने की यही वजह है। आज वह संविधान में से ये दोनों शब्दों को हटाकर सीधा सन्देश दे रहे हैं कि हम हिंदुत्व और पूंजीवाद को खुलकर स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते जायेंगे।
इन्हीं 43 वर्षों में सांप्रदायिक बहुसंख्यक राजनीति जिस तरह से शनैः शनैः परवान पर चढ़ी, उसे देखने के लिये हमीद भाई जीवित नहीं हैं। जहाँ तक मै उनको जानता हूँ वे कभी भी नरेंद्र मोदी के समान नागरिकता कानून का समर्थन नहीं करते।
नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते गोधरा कांड हुआ है। इसलिए नरेंद्र मोदी को मुस्लिम महिलाओं की कितनी चिंता है, उसके लिए प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। नरेंद्र मोदी जब समान नागरिक संहिता की बात करते हैं तो उनका इरादा मुसलमानों को डराने के एक और हथकण्डे के रूप में ही होता है। शायद हमीद भाई साहब ने भी मोदी के इस राजनीतिक जुमले को अच्छी तरह समझा होता। क्योंकि भारतीय मुसलमानों को हाशिये पर डालने का संघ परिवार ने एक से बढ़कर एक हथियार इन 100 सालों में इस्तमाल किया है।
भारतीय स्वतंतता के 76 वर्षों के इतिहास में 20-25 करोड़ मुस्लमान, जो भारत में रह रहे हैं, कभी-भी इतनी असुरक्षा की भावना के शिकार नहीं थे, जितने आज हैं। संघ के गोलवलकर के कथन के अनुसार, ‘मुसलमानों को हिन्दुओं की सदाशयता पर भारत में रहना है तो दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा।’ इस बात का सबसे बड़ा विरोध हमीद दलवई ने ही किया होता।
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हमीद दलवाई ने आज से 50 साल पहले मुस्लिम सत्यशोधक समाज क्यों बनाया? तुकाराम महाराज के अभंग के अनुसार, ‘सत्य असत्याशी मन केले ग्वाही।’ ( सत्य असत्य के साथ मेरा मन गवाह है) महात्मा गांधी के जीवन का निचोड़ क्या है? सत्य की खोज और उनसे भी 100 वर्ष से भी पहले महात्मा ज्योतिबा फुलेजी ने अपने संगठन का नाम ‘सत्यशोधक समाज’ रखा था? हमीद दलवई ने यह सब सोच-समझकर अपने संगठन को यही नाम दिया होगा।
हमीद कोंकण में पैदा हुए थे, जहाँ सभी मुसलमान कोंकणी-मराठी भाषा बोलते हैं। कुछ लोकल डायलेक्ट कोंकणी भी बोलते हैं। बगल के कर्नाटक में कन्नड, आंध्र प्रदेश में तेलगु, तमिलनाडु में तमिल और केरल राज्य में मलयालम। वैसे ही ओड़िसा मे उड़िया, बंगाल में बँगला, आसाम में असमिया और नॉर्थ ईस्ट के अन्य हिस्सों में वहां की विभिन्न बोलियाँ। बिहार में भागलपुर में अंगिका, मिथिलंचल में मैथिली, भोजपुरी, अवधी, हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती और जम्मू-कश्मीर में डोगरी, कश्मीरी, मीरपुरी और लद्दाख में लद्दाखी। इसके अलावा हर दस मील पर भाषा बदलती है। इस कहावत के अनुसार मेरी मातृभाषा धुलिया जिले का होने के कारण अहिरानी है लेकिन मैं तो धोबी के कुत्ते जैसा न घर का रहा न घाट का। इसी कारण कोई भी भाषा ढंग से नहीं बोल लिख-पाता, बस काम चलाऊ है।
भाषा के बारे में इतना विस्तार से लिखने की वजह यह है कि हमीद दलवई भारतीय मुसलमानों को जोर देकर कहते थे- ‘आपका जन्म जहाँ पर हुआ, वहाँ की भाषा आपकी भाषा होनी चाहिए। उर्दू, अरबी ज्ञान के लिए सीखिए, लेकिन उर्दू अपनी भाषा है। यह गलतफहमी है कि महाराष्ट्र में पैदा हुए हैं, तो बेखटके मराठी में पढ़िए अन्यथा उर्दू या अरबी, फारसी के चक्कर में पिछड़ जाओगे। इन भाषाओं के चक्कर में पढ़कर आपको नौकरी या रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होंगे।’ मुल्ला-मौलवी लोग मदरसों की शिक्षा को महत्व देकर मुस्लिम समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं यह लोग अभी नहीं समझ पा रहे हैं। मुसलमान अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। इसीलिए नौकरियों में उनका अनुपात बहुत कम है।
भाषा और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाया गया था, लेकिन 15-20 साल के भीतर ही जबरदस्ती उर्दू विरोध करके पूर्व पाकिस्तान में बंगला भाषा को लेकर जो आंदोलन चला, उसके परिणामस्वरूप बंगलादेश अलग हो गया। पाकिस्तान नाम तक को उखाड़कर फेंक दिया और आज से 52 साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप में बंगलादेश नाम से एक और देश का निर्माण हो गया। वास्तव में हमीद दलवई यही बताने की कोशिश करते रहे।
मुझे दो बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला है। दोबारा अटारी-वाघा सीमा से पूरा पंजाब और सिंध घूमा। उसके बाद बलूचिस्तान पार करके ईरान के झायदान में 3-4 दिन घूम कर उर्दू और इस्लाम का मसला देखा कि पकिस्तान में उर्दू की कितनी इज्जत हो रही है? यह नजारा देखने का मौका अमृतसर से 50 किलोमीटर दूर लाहौर में मिला है। वहाँ से आगे बढ़े तो सक्कर, अटक, सिंध, हैदराबाद और कराची में बलूचिस्तानी बोली जाती है। दुनिया के सभी मुसलमानों की कहानियां संघ परिवार 100 वर्षों से अपनी शाखाओं में बढ़ा-चढ़ाकर बताता आ रहा है।
हमीद की मृत्यु को आज 46 साल पहले हुई थी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति को देखने से पता चलता है कि गत पचास सालों से अधिक समय से इस्लाम को बढ़ावा देने के लिए पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस बुरी तरह लगे हुये हैं। तेल के लिये तथाकथित क्लैश ऑफ सिविलिजेशन का हौव्वा दिखाकर पहले अलकायदा, बोको हराम और अब आईएसआईएस के नाम पर राजनीति करने का घिनौना काम कर रहे हैं।
हमीद दलवई की हिम्मत की दाद देनी होगी। उन्होंने पूरे भारत का दौरा किया। मुस्लिम समाज सुधार का अपना काम करते रहे, लेकिन आपातकाल के दौरान यानी उम्र के 43वें साल में प्रवेश करते-करते किडनी की बीमारी से ग्रस्त हो गए। किडनी प्रत्यारोपण हुआ। उसके बाद वे जयप्रकाश नारायण के साथ 1977 में एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में विदेश भी गये। लेकिन स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया।
मैं उनके आखिरी दिनों में मुंबई के जसलोक हॉस्पीटल में उनसे मिलने गया था। दोनों आँखों के नीचे पानी जमा था। उनकी पत्नी मेहरुन्निसा तीमारदारी कर रही थीं। उस स्थिति में भी उनके सेन्स ऑफ़ ह्यूमर की दाद देनी पड़ेगी। उन्होंने अपनी तबीयत पर कुछ नहीं कहा। लगातार जोक्स और कई रोचक बातें करते रहे। वहाँ से निकलने के हफ्ते भर बाद खबर आई कि मशहूर मुस्लिम सत्यशोधक, समाजसेवक और विचारक हमीद दलवई नहीं रहे।
राष्ट्र सेवा दल के पुणे स्थित मुख्यालय पर जब मैं अप्रैल (2017) में अध्यक्ष पद पर आसीन था, तब मुस्लिम सत्यशोधक समाज को उनके कार्यालय के लिए बिना शुल्क वह जगह दी है। उम्मीद है कि जब तक राष्ट्र सेवा दल रहेगा, तब तक वह जगह रहेगी। मैं मानता हूँ कि राष्ट्र सेवा दल जाति-धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने के लिए काम कर रहा है। मुस्लिम सत्यशोधक समाज राष्ट्र सेवा दल की एक ईकाई है।
राष्ट्र सेवा दल परिवर्तन का वाहक होने का दावा किया करता है। हमीद दलवई के लगाए हुये पौधे को जिन्दा रखने हेतु राष्ट्र सेवा दल अपनी प्रतिबद्धता आगे भी दिखाएगा। राष्ट्र सेवा दल हर तरह की साम्प्रदायिकता का विरोधी होने का दावा करता है, अन्यथा मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक देने जैसा होगा। हमें हिंदू साम्प्रदायिकता के बारे में बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
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यह साल तो मुस्लिम सत्यशोधक समाज के स्थापना का अर्धशतक यानी पूरे 50 साल होने का साल है। देश और दुनिया की स्थिति को देखते हुए राष्ट्र सेवा दल और मुस्लिम सत्यशोधक समाज की आवश्यकता नहीं है। हम सचमुच साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध हैं। हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम हर तरह की साम्प्रदायिकता के विरोधी है। जब तक हम लोग मुस्लिम कठमुल्लापन का विरोध नहीं करते तब तक हिंन्दू या किसी और धर्म के कठमुल्लापन के विरोध करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
हमीद दलवई के सुधारवादी काम को लेकर आपत्ति जताई गई थी। उनके ऊपर छोटे-मोटे हमले भी हुये। मुल्ला मौलवियों ने अपशब्द भी कहे। महात्मा गाँधी या डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, प्रो. कल्बुर्गी या गौरीलंकेश की हत्या क्या दर्शाती है? भारत के हिन्दुत्ववादी और इस्लाम को मानने वालों में यह फर्क तो साफ-साफ दिखता है कि जिन मुसलमानो को बर्बर दमनकारी, जाहिलों की जमात बोलते-बोलते संघ परिवार थकता नहीं है। लेकिन उन्होंने हमीद दलवाई, असगर अली इन्जीनियर, जुझर बन्दूकवाला जैसे सुधारक मुसलमानों को जान से नहीं मारा? हिंदुत्ववादी और मुस्लमानों में यह फर्क साफ-साफ दिखाई देता है।
हमिद दलवई और असगर अली इंन्जीनियर दोनों समाज सुधारक अपनी बीमारियों के कारण मरे हैं। इसके उलट प्रो. जुझर बन्दूकवाला के घर पर गुजरात दंगे के समय हिंदुत्ववादियों ने हमला किया और उनके घर को आग लगा दी। वह तो अच्छा हुआ कि पड़ोसियों ने जबरदस्ती से जुझर भाई और परिवार के लोगों को थोड़ी देर पहले अपने घर में छुपा लिया था। परिवार तो बच गया लेकिन घर-गृहस्थी जलकर राख हो गयी।
सबसे हैरानी की बात 27 फरवरी (2002) को शाम से ही भारतीय सेना के जनरल पद्मनाभन ने लेफ्टिनेंट जनरल जमिरुद्दीन शाह के नेतृत्व में भारतीय सेना के 3000 जवान हवाई जहाज से अहमदाबाद एयरपोर्ट पर उतरे थे, लेकिन उन्हें तीन दिनों तक एयरपोर्ट से बाहर निकलने ही नहीं दिया गया। यह किसकी शह पर हुआ? जमीरुद्दिन शाह साहब ने इस घटना पर अपनी आत्मकथा सरकारी मुसलमान में विस्तार से लिखा हुआ है।
बताया जा रहा है कि अब नानावटी आयोग ने बरी कर दिया है। नानावटी एक मंझे हुए स्वयंसेवक हैं जिसको मैंने एडवोकेट मुकुल सिन्हा के साथ पाँच बार उस कमीशन का काम करते हुए अहमदाबाद में देखा है। पहली मीटिंग के बाद ही मैंने मुकुल भाई से कहा कि आप अपना समय क्यों बरबाद कर रहे हैं। तो मुकुल भाई ने मुझे बताया कि ‘नरेंद्र मोदी जल्द से जल्द इस कमीशन से अपने आपको क्लीन चिट चाह रहा है, ताकी वह देश का प्रधानमंत्री बनने की तैयारी कर सके और इसीलिए मैं इस कमीशन को लंबा खींचने की कोशिश कर रहा हूँ। और दुर्दिन देखिये, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के दो दिन पहले मुकुल फेफड़े में कैंसर की बीमारी से मर गये।
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हमीद दलवई अपने जीवन में हिंदू तालिबान का स्वरूप देखने से वह बच गए। हालाँकि, वह अपने भाषणों मे इस विषय पर भी बोलते थे। हमीद भाई की मौत के बाद भारतीय राजनीति के केंद्र में सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता ही रह गई जो आज परवान चढ़ी हुई है। इसलिए हमारी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। हमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सोच-समझ कर काम करना चाहिए।
और सबसे पहले अल्पसंख्यक समुदाय के भय के मनोविज्ञान को देखकर बहुत ही नज़ाकत से पेश आना चाहिए। उनका दिल जीतकर ही यह संभव है। मैं खुद 1989 के भागलपुर दंगे के बाद यह काम कर रहा हूँ। मेरा अनुभव है कि आप मुसलमानों का विश्वास जीत सकते हो, जिससे वह आप पर भरोसा करने लगते हैं। मैं गत 30 वर्षों से भागलपुर दंगे के बाद इसी विषय पर काम कर रहा हूँ।
हमीद दलवई अगर आज जीवित होते तो आज 91 साल के होते, लेकिन उससे आधी से भी कम जिंदगी जीकर जो काम वह कर गए वह कोई 100 साल में भी नहीं कर सकता। हमीद भाई की स्मृति को विनम्र अभिवादन।