यमुना नदी भारत की पवित्रतम नदियों में मानी जाती है। गंगा के साथ यमुना का जुड़ना हमारी सांझी संस्कृति और विरासत का सबसे सशक्त उदाहरण है। उत्तराखंड के बंदरपूँछ हिमनद से निकलकर यमुना भारत की संस्कृतियों के अध्याय लिखती है। यमुनोत्री से ही यमुना की धारा में मिलने वाली कई अन्य धाराएँ उससे बड़ी हैं, लेकिन इसके पौराणिक महत्व के आगे अपने को समर्पित कर देती हैं। उत्तराखंड में यमुना नदी का सबसे बड़ा संगम कालसी नामक स्थान पर टोस नदी से होता है जो यमुना से लगभग ढाई गुना बड़ी मानी जाती है। इसी स्थान पर सम्राट अशोक का बहुत महत्वपूर्ण शिलालेख है, जो इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के भी होने की गवाही देता है। इसी स्थान से हम यह कह सकते हैं कि यमुना मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है और यहीं से यमुना नदी के पानी का ‘दोहन’ भी शुरू हो जाता है। हालांकि, कालसी से पूर्व भी एक स्थान पर बैराज बन रहा है।
हिमाचल और हरियाणा के रास्ते दिल्ली की तरफ बढ़ती यमुना
कालसी देहरादून जिले का एक गाँव हैं जो यमुना नदी के किनारे बसा है। इस गाँव में भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहाँ भारत के महान सम्राट अशोक के अभिलेख मिलते हैं। इसी कलसी गाँव से दो-तीन किलोमीटर पर यमुना डाक पत्थर नामक स्थान पर यमुना पर एक बहुत पुराना बैराज है जिसकी नींव 23 मई 1949 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने रखी थी। यह 1973 में बनकर तैयार हुआ था। यहाँ पर भी भारी संख्या में पक्षी आते रहते हैं। इस स्थान से यमुना का पानी दो नहरों के जरिए ढाकरानी पावर प्लांट और ढालीपुर पावर प्लांट को बिजली उत्पादन के लिए भेजा जाता है। डाक पत्थर से यमुना उत्तराखंड को छोड़ कर हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में स्थित ऐतिहासिक गुरुद्वारे के लिए प्रसिद्ध पांवटा साहब में प्रवेश करती है जहाँ हमें साफ दिखता है कि यहाँ यमुना अपने प्राकृतिक बहाव में नहीं है। गुरुद्वारे के बिल्कुल बगल से गुजरती यमुना किसी समय कितनी बड़ी और खूबसूरत रही होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
नदी के अधिकांश क्षेत्र मे अब रेत और रोड़ी के व्यापारी लगातार उसका दोहन कर रहे हैं। पूरे यमुना क्षेत्र में पानी एक सूखी धारा के रूप में बहता है हालांकि लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं और कर्मकांडों पर पूरा समय लगाते हैं। गुरुद्वारे के बगल में स्थित श्रीकृष्ण मंदिर में आने वाले भक्त नदी में डुबकी लगाते और पानी में आनंद लेते हैं। गुरुद्वारा पांवटा साहब से चलकर करीब 8 किलोमीटर बाद उत्तर प्रदेश के ढोलीपुर में थोड़े समय के लिए प्रवेश करने के बाद यमुना हरियाणा में प्रवेश करती है। यहाँ ताजेवाला नामक स्थान पर अंग्रेजों ने 1873 में एक बैराज बनाया था जिसकी ऊंचाई 27.73 मीटर और लंबाई 360 मीटर है। यहाँ से यमुना के पानी को उत्तर प्रदेश और हरियाणा खेती के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है। अब यह बांध बंद हो चुका है लेकिन यमुना यहाँ से गुजरती है। पुराना जीर्ण-शीर्ण स्ट्रक्चर अभी भी साफ दिखाई देता है।
दिल्ली जाने से पहले यमुना को हथिनी कुंड बैराज से गुजरना पड़ता है जो यमुना नगर जिले में स्थित है और अक्टूबर 1996 से जून 1999 के दौरान बनकर तैयार हुआ था लेकिन तीन साल बाद मार्च 2002 से ही इसने काम शुरू किया। बांध 360 मीटर लंबा है और इसमें 10 द्वार हैं जो मॉनसून के समय पानी की निकासी के लिए बने हैं। दरअसल दिल्ली में बाढ़ की विपदा के लिए भी ये इन बांधों का प्रबंधन या कुप्रबंधन ही जिम्मेवार है।
यमुना को प्रदूषित करने का जिम्मेवार कौन
ताजेवाला से यमुना का पानी हरियाणा के अलग-अलग जिलों कुरुक्षेत्र और पानीपत से गुजरता है लेकिन उसकी धारा शहरों से बहुत दूर है। नदी तक पहुँचने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि बीच में बड़े बड़े खेत हैं और हर स्थान पर जाने का रास्ता भी नहीं है। हथिनी कुंड बैराज से यमुना के पानी की तीन धाराएँ बन जाती हैं। एक धारा हरियाणा को पानी सप्लाई करती है, दूसरी उत्तर प्रदेश को और मूल नदी बिल्कुल सूखी हुई दिल्ली की ओर प्रस्थान करती है। दिल्ली आते-आते यमुना का मूल पानी सीवर और गंदगी के प्रवेश से लगभग खत्म हो चुका होता है। ऊपर से हर स्थान पर बैराज बना देने से यमुना बहुत से स्थानों पर बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती।
दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष सौरभ भारद्वाज कहते हैं कि दिल्ली में यमुना का संकट हरियाणा में होनेवाली सैंड माइनिंग के कारण और भी गहरा गया है। फरवरी 2023 में वजीराबाद में पानी का लेवल 671.7 फुट था जो साधारण स्तर 674.5 फीट से कम है। दिल्ली मे वाटर ट्रीटमेंट के दो प्लांट चंद्रावल और वजीराबाद हैं लेकिन वहाँ पर क्षमता से बहुत कम पानी आ रहा है। भारद्वाज ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दिए एक इंटरव्यू में बताया, ‘वजीराबाद में जो पानी दिखाई दे रहा है वह ‘औद्योगिक कचरा’ है जो DD8 और DD2 के जरिए यमुना में आता है।’
‘वजीराबाद में जो पानी आ रहा है वह ताजेवाला से छोड़ा गया यमुना का पानी नहीं बल्कि इन दो नालों से निकला कचरा है। ताजेवाला का पानी तो अनेक जगहों पर रेत माफियाओं के द्वारा बनाए गए खदानों और बंधों में खत्म को जाता है। यह एक ऐतिहासिक समस्या है जो पहले छोटी थी लेकिन अब विकराल रूप ले चुकी है।’ (इंडियन एक्सप्रेस : 9 मार्च 2023)
भारद्वाज आगे कहते हैं, ‘यदि आज यमुना प्राकृतिक कारणों से सूखी हुई होती तो हम स्वीकार कर लेते लेकिन यह व्यक्ति के लालच का नतीजा है कि अब सैंड माइनिंग खुली दोपहर में कई किलोमीटर तक हो रही है।’
दिल्ली में वजीराबाद के पास सिग्नेचर ब्रिज पूर्वी दिल्ली को उत्तरी दिल्ली से जोड़ता है। इससे पहले यहाँ यमुना पर एक पुल था जो बेहद खतरनाक था। 2010 में इस पुल के निर्माण की शुरुआत हुई और 2013 में इसे खत्म होना था लेकिन यह तीन साल और खिंचा। अंततः इसका उद्घाटन 2016 में अरविन्द केजरीवाल के हाथों हुआ जो इसे ‘दिल्ली’ का ‘लैंडमार्क’ बनाना चाहते थे। 2023 तक आते-आते यह पुल गंदगी से लबालब भरा हुआ दिखता है और इसके नीचे बहने वाला पानी यमुना नहीं, नालों का पानी है। कोई भी व्यक्ति जिसके पास दिल और जज़्बात है, वह यमुना नदी की ऐसी हालत पर रो देगा। यह बेहद शर्मनाक दृश्य है। पूरी नदी पर गंदगी का ढेर और पानी काला। ऊपर से लोग अपने पुण्य के लिए किए गए पापों अर्थात घर से लाकर फूल-माला, कपड़े, राख़, मूर्तियाँ आदि अनेक चीजों को भी नदी में फेंकते रहते हैं। दिल्ली जैसी जगह पर जहाँ सरकार का प्रचारतंत्र इतना मजबूत है कि सभी को इतना ज्ञान होगा कि नदियों में कूड़ा नहीं फेंकना चाहिए लेकिन सिग्नेचर ब्रिज पर यमुना पूरी तरह से घरों की गंदगी से पटा हुआ एक नाला नजर आती है। देश की राजधानी में हमारी सबसे पवित्र कही जाने वाली नदी की ऐसी हालत पर हमें शर्म आनी चाहिए।
दरअसल, वजीराबाद से ओखला पक्षी विहार तक का यमुना का सफर लगभग 22 किलोमीटर का है जो यमुना की कुल लंबाई का मात्र 2 प्रतिशत है लेकिन इतना इलाका ही उसे 70% से अधिक प्रदूषित कर देता है। इतनी दूरी में यमुना में गिराए गए 201 नाले उसे दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक बना देते हैं। दिल्ली में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 629 जल स्रोत (वाटर बॉडीस) चिन्हित किए थे लेकिन वे लगभग खत्म हो चुके हैं। इनमें से 100 को दिल्ली जल बोर्ड ने पुनर्जीवित करने के लिए चिन्हित किया था लेकिन कुछ हुआ नहीं।
दिल्ली में यमुना लाल किले के पास से गुजरती है और उसके बाद यमुना के तट पर भारत का राजनीतिक इतिहास भी दिखाई देता है। राजघाट पर गांधी जी की समाधि के अलावा, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जगजीवन राम, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि भी वहाँ पर है और फिर हजरत निजामुद्दीन के रास्ते यमुना ओखला पक्षी विहार पहुँचती है।
यहाँ पर बहुत बड़ी संख्या में पक्षी दिखाई देते है लेकिन यहाँ पर यमुना के पानी में सफेद रंग का फ़ोम भी दिखाई देता है। यहाँ से ‘यमुना’ जब आगे निकलती है तो केवल अफसोस ही कर सकते हैं। इसे किसी तरह भावभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। हर वर्ष दीवाली के बाद छठ के अवसर पर दिल्ली के घाट ‘भक्तों’ के लिए सजाए जाते हैं लेकिन सत्ताधारियों को इतना खयाल नहीं है कि यमुना को साफ रखना क्यों जरूरी है? मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे लोग इतने जहरीले पानी में ‘आस्था’ की डुबकी लगाते हैं और फिर भी अपनी ‘पवित्र’ नदी को साफ करने की बात नहीं कहते।
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इस वर्ष मानसून के समय यमुना में भयानक बाढ़ आई और दिल्ली एक प्रकार से डूब गई। घरों में पानी घुस गया। देश की राजधानी ने ऐसी बेरहम बाढ़ करीब दो दशकों बाद देखी थी। मजेदार बात यह कि बाढ़ आने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि न तो हरियाणा में बारिश हो रही थी और न ही दिल्ली में। इस बाढ़ से हरियाणा और उत्तर प्रदेश में कोई असर नहीं पड़ा लेकिन दिल्ली में व्यापक तबाही आई। कारण साफ था। बाढ़ अप्राकृतिक थी। हथिनीकुंड बैराज ठीक से पानी का प्रबंधन नहीं कर पाया और इतना पानी छोड़ दिया गया कि दिल्ली डूब गई।
जब भी हथिनीकुंड बैराज में पानी अधिक हो जाता है तो दिल्ली वाले चैनलों पर ही पानी छोड़ा जाता है, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में नहीं। तर्क यह दिया जाता है कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पीने के पानी की सप्लाई होती है और नहर से सिंचाई का पानी दिया जा रहा है और यदि बाढ़ के समय पानी इन नहरों की ओर छोड़ दिया गया तो रेत और मिट्टी गाद से दोनों नहरों को बहुत अधिक नुकसान हो सकता है। इसलिए पानी को दिल्ली की ओर छोड़ दिया जाता है।
दिल्ली से मथुरा और आगरा तक का सफर एक नाले की त्रासदी की तरह
असल में यमुना कम से कम दिल्ली में उस समय एक नदी लगती है जब उसमें बाढ़ आती है। बाकी समय तो वह सीवर के पानी की तरह ही है। दिल्ली में ओखला से आगे चल कर यमुना में एक और नदी मिलती है जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक बहुत ही प्रदूषित नदी है। शिवालिक पहाड़ियों से निकलकर सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद से होते हुए नोएडा मे हिंडन नदी यमुना में मिलती है। वह इसके पानी को बढ़ा देती है लेकिन बदले में और अधिक प्रदूषित कर देती है। उसके बाद यमुना अनेक छोटे-छोटे गांवों-कस्बों से होकर बृंदावन पहुँचती है और यहाँ भी नालों की गंदगी सीधे यमुना में मिलती दिखाई देती है। मथुरा पहुँचते-पहुँचते यमुना का पानी बेहद काला नजर आता है हालांकि इस इलाके में उसमें बहुत से सफेद पक्षी दिखाई देते हैं। नदी की चौड़ाई भी मथुरा में अधिक है और यदि पानी स्वच्छ हो तो वह पूरे इलाके की खूबसूरती को चार चाँद लगा सकता है। लेकिन इतनी बड़ी सोच आए कहाँ से जब लोगों को प्रदूषित हवा और पानी के साथ ही रहने की आदत पड़ गई हो।
इस काले पानी में ही भक्त पूजा करने पहुंचते है और अपनी लाई गंदगी से यमुना को और अधिक प्रदूषित कर देते हैं। ऐसा लगता है कि व्यापार, विकास, धर्म, आस्था सभी ने मिलकर हमारी पवित्र नदियों को अपवित्र करने की ठानी है और सबने एक दूसरे को पछाड़ने की कसं खा राखी है कि कौन कितना गंदा कर सकता है।
मथुरा से यमुना फिर आगरा पहुँचती है, जहाँ दुनिया की सबसे खूबसूरत कलाकृति ताजमहल के सामने से यमुना गुजरती है। जिस समय शाहजहाँ ने ताजमहल को यमुना के बगल में बनाने का निर्णय लिया होगा, उस समय यमुना के शीतल जल में पूर्णिमा की चाँदनी में ताजमहल की भव्य आकृति को पानी में देखने का आनंद लेने के बारे में सोचा होगा। बेशक उसके बाद सदियों तक यमुना साफ-सुथरी रही होगी।
दुर्भाग्यवश आज उसकी स्थिति आगरा में बेहद नाजुक है। सर्दियों में तो ताजमहल के आगे कोहरे की सफेद चादर नजर आती है। यमुना पार से जब ताजमहल को देखने की कोशिश करते हैं तो नदी कहीं भी नहीं दिखाई देती। चाँदनी रात में ताजमहल को देखने के लिए टिकट आदि का प्रबंध है लेकिन उसका असली मज़ा तब हो जब चाँदनी रात में हम ताजमहल का प्रतिबिंब यमुना में देखें। लेकिन यह इस दौर में तो यह संभव नहीं है।
यमुना में जब बाढ़ आई, केवल तभी वह ताजमहल के पास से गुजरती हुई नजर आती है। मेहताब बाग के यमुना व्यू प्वाइंट पर तो बहुत ही बुरा हाल है। यहाँ नदी की ‘सफाई’ के बाद कचरों का इतना बड़ा ढेर लग जाता है कि पहले थोड़ी-बहुत दिखती नदी बिलकुल भी नहीं दिखाई पड़ती।
आगरा से यमुना फिरोजाबाद, शिकोहाबाद इटावा जिलों से होते हुए चम्बल घाटी में प्रवेश करती है। इन इलाकों में यमुना में पानी दिखाई देता है लेकिन बहुत ही काला और बिल्कुल प्रदूषित।
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चम्बल नदी मध्य प्रदेश के महू की पहाड़ियों से निकलती है। यह स्थान बाबा साहब अंबेडकर के जन्मस्थान के रूप में विख्यात है। मध्य प्रदेश के इंदौर, रतलाम आदि शहरों, राजस्थान के चित्तौड़गढ़, कोटा, सवाई माधोपुर एवं धौलपुर से होते हुये चंबल एक बार फिर मध्य प्रदेश के भिंड और मुरैना से गुजरती है। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के जगमन्नपुर नामक स्थान के भरेह में यमुना से मिल जाती है। भरेह में एक ऐतिहासिक किला है और पूरा क्षेत्र सरसों के पीले खेतों से लहलहाता हुआ दिखाई देता है।
यमुना के मुकाबले चम्बल का पानी अधिक साफ और यमुना से अधिक है। चंबल का क्षेत्र बीहड़ों का क्षेत्र है जिसमें अनेकों लोग बागी हो गए। बाहरी दुनिया में उन्हे ‘डकैत’ कहा गया लेकिन स्थानीय समुदायों में लोग उनके लिए आज भी बागी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। चम्बल नदी अपनी जैव-विविधिता के लिए भी विख्यात है। आज भी इस नदी में बड़ी संख्या में घड़ियाल, मगरमच्छ और डाल्फिन मौजूद हैं, जिन्हे देखने के लिए दुनिया भर से पर्यटक धौलपुर और सवाई माधोपुर जैसी जगहों पर आते हैं। चंबल वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी में सैंकड़ों पक्षी हैं। इनमें बहुत से प्रवासी पक्षी हैं जो सर्दियों में ठंड से बचने के लिए साइबेरिया से इधर का रुख करते हैं।
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धौलपुर में दैनिक भास्कर के लिए चम्बल और पर्यावरण के सवालों को कवर करने वाले ज्योति लवानिया ने मगर और वल्चर (गिद्धों) की उपस्थिति के बारे में लिखा है, ‘संकटग्रस्त जीवों की श्रेणी मे सूचीबद्ध इजीप्शियन गिद्ध के लिए धौलपुर की पहाड़ियाँ और यहाँ की आबो-हवा रास आ रही है, क्योंकि विलुप्त हो रहे गिद्धों की बच्चों के साथ मौजूदगी से प्रतीत होता है कि धौलपुर में लगातार प्राकृतिक प्रजनन सफल हो रहा है।’
एक अन्य रिपोर्ट में लवानिया ने घड़ियाल के अंडों से बच्चे पैदा करने वाली प्रक्रिया की रिपोर्टिंग की थी। जैसे ही सर्दी का मौसम शुरू होता है, मगर और घड़ियाल पानी से बाहर निकलकर किनारे रेत पर आराम करते हैं। यह बात भी है कि धौलपुर में चम्बल सफारी को ले जाने वाली बोट 2000 रुपये से अपनी यात्रा शुरू करती हैं। बोट वाले आपको घड़ियाल और मगर दिखाने का वादा करते हैं। ऐसे में यदि डॉल्फिन दिख जाए तो क्या ही कहना, लेकिन डॉल्फिन आसानी से नहीं दिखती। अलबत्ता घड़ियाल और मगरमच्छ धूप में आराम फरमाते दिख जाते हैं। चम्बल नदी को इसीलिए खतरनाक माना जाता है, क्योंकि इसमें पानी के अंदर मगर हमला कर सकते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि घड़ियाल इंसान पर हमला नहीं करते लेकिन मगरमच्छों के हमले मे लोग मारे भी गए हैं।
ऐसी घटनाएँ लगातार होती रहती हैं। इसी वर्ष मार्च में मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले से राजस्थान के लिए धार्मिक यात्रा कर रहे गाँव के एक दल ने बीरपुर के पास चम्बल नदी पार करने की कोशिश की और ये 8 लोग एक दूसरे का हाथ पकड़कर सुबह साढ़े छः बजे नदी पार कर राजस्थान में प्रवेश करना चाह रहे थे लेकिन तभी एक मगरमच्छ ने उनपर हमला कर दिया। पानी का बहाव अधिक था। हमले के कारण उनके पैर फिसल गए और वे नदी में बह गए। राजस्थान और मध्य प्रदेश पुलिस के ऑपरेशन के बाद मात्र तीन लोगों के शव बरामद किए जा सके। उल्लेखनीय है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश के बीच 350 किलोमीटर का क्षेत्र चम्बल घाटी से गुजरता है। यह दोनों प्रदेशों की सीमा रेखा का काम करती है।
हालांकि चंबल नदी मध्य प्रदेश से निकलती है लेकिन यह राजस्थान की सबसे बड़ी नदी मानी जाती है। चंबल नदी अपने उद्गम से लगभग 850 किलोमीटर की यात्रा के बाद इटावा जिले के भरेह नामक स्थान पर यमुना में अपनी यात्रा समाप्त करती है। चम्बल की अपनी लंबी यात्रा मे उसे शिप्रा, बनास आदि नदियाँ मिलती है। चम्बल नदी पर विभिन्न स्थानों पर चार बांध भी बने हैं। कोटा बैराज, गांधी सागर बांध, जवाहर सागर और राणा प्रताप सागर बांध राजस्थान में ही बने हैं। नैशनल चम्बल सैंक्चुरी मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को अलग-अलग जगह से छूती है और लोग यहाँ के अभयारण्यों में पक्षियों और वन्यजीवों को देखने के लिए लगातार आते हैं।
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हकीकत यह है कि चम्बल यमुना से बहुत बड़ी नदी है और साफ भी है लेकिन पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर चम्बल भरेह में अपनी अस्मिता को यमुना में शामिल कर देती है। भरेह में संगम तक पहुँचने के लिए यातायात की बहुत अच्छी व्यवस्था भी नहीं है और न ही खान-पान के कोई ढाबे या होटल आदि ही मिलते हैं। इसलिए यदि आप चम्बल घाटी में जाना चाहते हैं तो अपनी व्यवस्था पहले से ही करें। राजस्थान के धौलपुर या सवाई माधोपुर में तो आपको होटल और पसंदीदा रिज़ॉर्ट भी मिल जाएंगे लेकिन उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ऐसी स्थिति नहीं है और आप परेशान भी हो सकते हैं। बेहतर होगा कि कोई स्थानीय साथी संपर्क में हो तभी यात्रा करें।
मेरी भी इस क्षेत्र की यात्रा संभव नहीं हो पाती यदि हमारे साथी डॉ. शाह आलम वहाँ नहीं होते। शाह आलम वैसे तो फैजाबाद से हैं और लगातार अवाम का सिनेमा और अन्य जनहित के प्रश्नों पर बहुत ऐक्टिव रहते हैं लेकिन पिछले दस-बारह वर्षों से उन्होंने चम्बल घाटी में बहुत लग कर काम किया है। उन जैसा होना बहुत मुश्किल है। मुझे वैचारिक स्तर पर ऐसे मजबूत लोग आज के दौर में तो बहुत कम दिखाई देते हैं। उन्होंने चम्बल साहित्य उत्सव, चम्बल अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव आदि की स्थापना की है और वह चम्बल के क्षेत्र के नायक-नायिकाओं के हमारे स्वाधीनता संग्राम में योगदान के विषय में भी कार्य कर रहे हैं।
डॉ. शाह आलम ने मुझे इटावा से ही जानकारी देनी शुरू कर दी थी। उनके साथ गाड़ी में घूमते हुये मुझे अंदाज हो गया था कि यदि अपनी गाड़ी से भी हम अकेले आते तो काफी मुश्किल होती। इटावा से भरेह की लगभग 55 किलोमीटर लंबी यात्रा में एक दो कस्बों को छोड़ कही पर चाय भी नसीब नहीं होती।
चम्बल-यमुना का संगम
भरेह में यमुना के किनारे हर- भरे खेत हैं जहाँ यमुना का कटान साफ दिखाई देता है। इसी कटान में सरसों के खूबसूरत पीले फूल दिखाई दे रहे हैं और खेत में हरे चने की फसल लगी है। यमुना और चम्बल के संगम पर दोनों के पानी का अंतर साफ महसूस होता है। यमुना का पानी चम्बल की तुलना में गंदला नजर आता है। हाँ, संगम के आस-पास भी बहुत से पक्षी अब नजर आते हैं क्योंकि सर्दियों में ये पंछी ठंडे स्थानों से भारत की ओर रुख करते हैं।
भरेह में भरेश्वर महादेव का मंदिर बहुत पुराना है जहाँ आज भी आस-पास के क्षेत्रों के लोग पूजा-अर्चना हेतु आते हैं। भरेह सेंगर वंश के राजा रूपदेव सिंह की राजधानी रही है और आज यहाँ पर उनके द्वारा बनाया हुआ किला भी जीर्ण-शीर्ण स्थिति में दिखाई देता है। इस पूरे क्षेत्र को पंचनद घाटी भी कहते हैं। यहा से लगभग पाँच किलोमीटर आगे चम्बल-यमुना के साथ पाहुज, सिंध और क्वारी नदियों का संगम होता है इसलिए इस स्थान को पंचनदा भी कहा जाता है और यहाँ पर भी एक ऐतिहासिक कालेश्वर मंदिर बना है।
यहाँ रहने वाले सद्दीक अली के पिता शाकर अली जगम्मलपुर के राजा वीरेंद्र शाह की सेना में सूबेदार थे। हालाँकि, आज विभिन्न कारणों से सद्दीक अली की आर्थिक स्थिति बहुत नाजुक है। यहाँ की सब्जी मंडी के क्षेत्र मे उनकी एक छोटी-सी चाय की दुकान है जिसमें मुश्किल से दो ढाई सौ रुपये का सामान रहता है और अधिकांश समय वह भी उधारी पर जाता है लेकिन सद्दीक एक जिंदादिल इंसान, बेहतरीन कवि, गायक और वक्ता हैं। सही मायनों में हम उन्हें फकीर कह सकते हैं। यूट्यूब पर उनके वीडियोज़ भी बहुत देखे जाते हैं। चंबल नदी की महिमा के विषय में सद्दीक अपनी कविता मुझे सुनाते हैं :
चंबल का पानी है, चंबल की कहानी है
पहले खौफ यहां लगता था यह बात पुरानी है
डाकू रूपा, लाखन और गूजर निर्भय सिंह
डाकू पुतलीबाई और फूलन- मान सिंह
जलवा कुसमा, सीमा का सबको हैरानी है
पहले खौफ यहां….
है बाबा साहब मंदिर यहां फक्कड़ रहते थे
उधौ और माधौ सिंह ने यहां घंटा चढ़ाए थे
न नबी मलंग जैसा न कोई ज्ञानी है
पहले खौफ यहां….
आपस में हुआ झगड़ा उस लाला राम से
मारे गए विक्रम सिंह हाथो श्रीराम के
सुघर सिंह, मुस्तकीम बाबा क्या इनकी निशानी है
पहले खौफ यहां….
बाबा घनश्याम, मलखान और मेहरबान सिंह थे
हो किसी गरीब की बिटिया का कन्यादान वो करते थे
सुल्ताना सरगना सा न कोई सानी है
पहले खौफ यहां….
अब नया उजाला है लूटे हुए गांवो में
बहती पांच नदियां कालेश्वर की राहों में
न राजा करन जैसा कोई दानी है
पहले खौफ यहां….
मुश्किल में कटे जो दिन हमें याद नहीं करना
भविष्य बने अच्छा अच्छे के लिए लड़ना
‘सद्दीक अली’ का क्या, क्या इनकी जवानी है
पहले खौफ यहां….
दो
चंबल तेरी जय जयकार
कितनी पैनी तेरी धार
कितनी पैनी तेरी धार
नहीं कोई उसका पार
चंबल तेरी…….
नर-नारी ऋषि-मुनि आवें
और जय जयकार मचावें
सावन का लगे महीना
और गीत तुम्हारे गावें
तेरी महिमा अपरम्पार
चंबल तेरी जय जयकार
भयभीत तुम्हारी लीला, पानी दिखता है पीला
क्या अजब नजारा देखा, दिल हुआ मेरा रंगीला
मेरे मन आया प्यार
चंबल तेरी जय जयकार
शेरों का इलाका चंबल, बागियों ने लड़ा दंगल
अमंगल की शिला तोड़कर निकल रहा है मंगल
प्रेम उत्पन्न सृजन का सार
चंबल तेरी जय जयकार
चंबल तेरी…….
चंबल तेरी…….
कितनी पैनी……
चंबल तेरी जय जयकार !
पंचनदा में सिंध नदी चम्बल-यमुना में मिलती है, लेकिन उनसे मिलने से पहले सिंध नदी पाहुज और फिर थोड़ी दूर पर क्वारी नदी को अपने में समाहित कर पंचनदा में महासंगम करती है। यहाँ पर खड़े होकर दिखता है कि यमुना नदी अब कैसे विशाल रूप धारण कर रही है। यमुना यहाँ से अब कालपी और जालौन की ओर प्रस्थान करती है। कालपी का वही क्षेत्र है, जहाँ से फूलन देवी का जन्मस्थान शेखूपुरा बहुत ही नजदीक पड़ता है। दरअसल, पंचनदा दो जिलों की सीमाओ को छू रही है, जहाँ एक तरफ इटावा जनपद है और पुल पार कर आप जालौन जनपद में प्रवेश करते हैं।
यमुना का अगला बड़ा मिलन हमीरपुर जिले में होता है और यहाँ मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र से निकलने वाली बेतवा नदी की यात्रा समाप्त होती है। संगम स्थल पर यमुना का बहाव और पानी लगातार बढ़ता चला जाता है। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से चलकर बेतवा भोपाल, विदिशा, झांसी, टीकमगढ़, ओरछा के रास्ते हमीरपुर में यमुना तक पहुँचने तक लगभग 590 किलोमीटर की यात्रा तय करती है, जिसमें 232 किलोमीटर की यात्रा मध्य प्रदेश और शेष 358 किलोमीटर की यात्रा उत्तर प्रदेश में तय करती है। संगम के दोनों ओर खेत हैं जो अधिकांश समय डूबे रहते हैं और केवल एक समय की फसल ही देते हैं। हालांकि, स्थानीय किसान बताते हैं कि यमुना से जुड़ा हुआ खेती का क्षेत्र बहुत ही उपजाऊ है।
हमीरपुर में यमुना-बेतवा के संगम स्थल के एक ओर तो रेलवे का पुल है और दूसरी ओर, बहुत से खेतों को पार कर आप वहाँ पहुंचते हैं। किनारे के कई खेत पानी में आधे डूबे होने के कारण नदी तक पहुंचना बेहद मुश्किल होता है। हर वर्ष मानसून में नदी से जुड़े हुए सभी खेत पानी में होते हैं और यहा भी मात्र एक फसल ही होती है। लेकिन इन स्थानों पर सब्जियाँ बहुत अधिक होती हैं।
यमुना यहाँ से आगे बढ़ते हुए बांदा जिले में प्रवेश करती है। बांदा और फतेहपुर की सीमा पर चिल्लाघाट नामक स्थान पर मध्य प्रदेश के ही कटनी जिले अहीरगंवा की उत्तर पश्चिम पहाड़ियों से निकली केन नदी पन्ना की पहाड़ियों, रीवा और सतना जिलों को काटते हुए बांदा तक कुल 427 किलोमीटर की दूरी तय करती है, जिसमें 292 किलोमीटर मध्य प्रदेश में, 84 किलोमीटर उत्तर प्रदेश में और 51 किलोमीटर दोनों प्रदेशों के बीच सीमा का काम करती है। यहाँ पर केन नदी यमुना के सामने बहुत छोटी दिखाई देती है। यमुना की चौड़ाई यहाँ बहुत अधिक है।
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मछुआरों की उपेक्षा भी है नदी प्रदूषण का एक बड़ा और गम्भीर कारण
यहाँ से यमुना आगे फतेहपुर के रास्ते इलाहाबाद की ओर प्रस्थान करती है। फतेहपुर से चिल्लाघाट तक की यात्रा बेहद थकाऊ और उबाऊ है क्योंकि यमुना के सभी तटों पर जमकर खनन का काम चलता है और रेत-बालू के बड़े बड़े ट्रक यहाँ लाइन लगाकर खड़े रहते हैं। कई बार तो बहुत दूर तक, मीलों आपको केवल ट्रक दिखाई देते हैं और आपका सांस लेना भी दूभर होता है। मैं चिल्लाघाट से फतेहपुर की यात्रा को बेहद खतरनाक कह सकता हूँ जहाँ सड़कों के नाम पर केवल गड्ढे ही गड्ढे हैं।
फतेहपुर से यमुना धीमी गति से बालू घाट के रास्ते सीधे इलाहाबाद संगम स्थल तक पहुँचती है, जहा उत्तराखंड के हिमालय की विभिन्न खूबसूरत नदियों और बाद में मैदानी भागों की बड़ी-बड़ी नदियों को अपने समेटते हुए गंगा उसका इंतज़ार कर रही होती है। यमुना और गंगा का यह मिलन प्रकृतिक रूप से ऐतिहासिक है। पौराणिक महत्व में अभी तक यमुना छोटी नदी होने के बावजूद अपनी पहचान रखती हुई दिखाई देती है लेकिन इलाहाबाद के संगम पर गंगा से बड़ी होने के बावजूद यमुना अपने को गंगा में समाहित कर देती है और आगे बनारस की ओर प्रस्थान करती है।
उत्तराखंड के हिमालय से इलाहाबाद के संगम तक की यमुना की यात्रा ने इस देश को नई पहचान दी। दिल्ली, मथुरा और आगरा तो यमुना के तट पर भारत के सबसे महत्वपूर्ण शहर हैं ही, वे राजनीतिक और धार्मिक रूप से देश की पहचान भी हैं। यमुना ने शहर बसाये और बनाए लेकिन शहरों ने यमुना को सिर्फ अपनी गंदगी दी और उसको खत्म ही कर दिया था। फिर भी प्रकृति के पास अपने बचाव के साधन हैं। चम्बल, केन और बेतवा ने अपना पानी देकर यमुना को न केवल उसके ‘नदीपन’ को बनाया और बचाया बल्कि प्रयागराज तक पहुंचते-पहुंचते वह साफ भी दिखाई देती है।
यमुना की इस यात्रा से दो बातें साफ हैं। नदी के तट पर हो रहा बेतरतीब खनन बहुत बड़ी चिंता की बात है। चाहे वह हरियाणा में हो या उत्तर प्रदेश में। अब हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में औद्योगिक प्रदूषण, सीवर और नालों का गंदा पानी यमुना मे डालना बंद करना पड़ेगा तभी यमुना पवित्र रह पाएगी। अपनी महान नदियों को यदि हम बना नहीं सकते तो उन्हे खत्म करने का अधिकार हमें कतई नहीं है। यमुना की खूबसूरती और पवित्रता को बनाए रखना बहुत आवश्यक है ताकि उसके तट पर बैठकर हम चैन और सुकून का अनुभव कर सकें।