उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विगत 4 जुलाई को अपने कार्यकाल के सौ दिन पूरे होने पर जारी अपने रिपोर्ट कार्ड में कहा – हम इन शुरुआती दिनों में सेवा, सुरक्षा और सुशासन के प्रति समर्पित रहे। प्रदेश की जनता ने हमें जो दूसरा कार्यकाल दिया है, इसमें हमने जो वादे उनसे किए थे, उनको निभाने में हम अब तक पूर्णरूप से सफल रहे हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़ों के लाभ के लिए शुरू की गई विकास योजनाओं के साथ-साथ बेरोजगारी की दर को कम करने तथा प्रदेश को सौ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया। इस दौरान करीब दस हजार बेरोजगारों को सरकारी नौकरियाँ दी गईं।
अगर मुख्यमंत्री के इस कार्यकाल को सूक्ष्मता से देखें, तो यह तस्वीर उलट है। अपराधियों तथा गैंगेस्टरों से निपटने के नाम पर ढेरों दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की कथित मुठभेड़ के नाम पर हत्याएंँ की गईं, साथ ही इस संदर्भ में उन पर यह भी आरोप लगातार लगते रहे हैं कि उन्होंने एक जाति विशेष के अपराधी गिरोहों को बचाने का काम किया तथा गिरफ्तारी होने पर उन्हें तत्काल जमानत भी मिल जाती थी। अगर ध्यान से देखें तो इनमें काफी हद तक सच्चाई भी है। उनका बुलडोजर अभियान भी इस बीच मीडिया में काफी चर्चित रहा, उसमें लगाए गए ये आरोप बिलकुल सत्य हैं कि इसमें अधिकांश गरीबों के ही घर और दुकान तोड़े गए। इसमें बड़े रसूखदार लोगों के अतिक्रमण किए गए घर-दुकान और बड़े-बड़े फार्म हाउस बख़्श दिए गए।
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परन्तु इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण है इस समय प्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी एवं उससे जनित आत्महत्याएँ। यद्यपि यह प्रवृत्ति बहुत पुरानी है, परन्तु मुख्यमंत्री के इस दूसरे कार्यकाल में ये घटनाएँ बहुत तेजी से आगे बढ़ी हैं, विशेष रूप से बेरोजगार छात्र-नौजवानों, किसानों और व्यापारियों से संबंधित ढेरों मामले इसमें शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली जनपद में अभी तीन माह पहले ही एक व्यापारी ने अपने पूरे परिवार के साथ, जिसमें दो बेटियाँ, एक बेटा और पत्नी थी; अपने घर ही पर आत्महत्या कर ली। पड़ोसी ने बतलाया कि वे लगातार व्यापार में हो रहे घाटे से बहुत परेशान थे। उनके सुसाइड नोट में भी यही बातें लिखी मिलीं।
गोरखपुर जनपद में अनाज की सबसे बड़ी मंडी साहबगंज के एक थोक व्यापारी अशोक जालान ने व्यापार में भारी घाटे और काफी कर्ज़ चढ़ जाने के कारण आत्महत्या कर ली। इसके अलावा ढेरों गरीबों ने भी आत्महत्याएंँ कीं, लेकिन ये ख़बरें कभी भी अखबारों की सुर्खियांँ न बन सकीं। अभी पिछले दिनों ही कुशीनगर जनपद के एक गाँव में कुशवाहा जाति की एक महिला ने अपने दो बेटों के साथ नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। कहा जाता है कि वह भी बेकारी और बदहाली से परेशान थी। उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाएँ प्रतिदिन घट रही हैं, परन्तु शायद मीडिया के लिए ये घटनाएँ अब बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं। फसलों में घाटे तथा ऋण न चुका पाने के कारण प्रदेश में किसानों की आत्महत्याएँ बहुत तेजी से बढ़ी हैं, यद्यपि योगी सरकार इसे हमेशा नकारती ही है।
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कुछ समय पहले की ही बात है कि प्रयाग में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। उसके छोटे भाई मनोज चौधरी ने बीबीसी को बतलाया था कि वे परीक्षाओं में लगातार हो रही असफलताओं से बहुत परेशान थे, क्योंकि इनमें शामिल होने की उनकी उम्र निकलती जा रही थी। छात्रों की आत्महत्याओं की ये घटनाएँ न केवल प्रयाग, लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर जैसे बड़े महानगरों में हो रही हैं बल्कि अब तो प्रदेश के छोटे-छोटे शहर भी इससे अछूते नहीं हैं। ये ख़बरें इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के लिए अब कोई विषय नहीं हैं, परन्तु छोटे-छोटे निजी रूप से चलने वाले न्यूज चैनल, यूट्यूब चैनल तथा वेबसाइट के कुछ साहसी पत्रकार ही इन घटनाओं को सामने ला रहे हैं और इसके लिए उन्हें सरकारी कोपभाजन का भी शिकार बनना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश कृषि के क्षेत्र में पंजाब, हरियाणा या महाराष्ट्र जैसा समृद्ध प्रदेश नहीं है। यहाँ पर भरपूर मुनाफा देने वाली कोई कैशक्राप भी नहीं है, फिर भी यहाँ पर फसलों की तबाही और ऋण न चुका पाने के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं, परन्तु इनकी ख़बरें राष्ट्रीय मीडिया पर बहुत कम आ पाती हैं, क्योंकि उनका सारा ध्यान कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र, पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसानों पर रहता है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में खेती से जुड़ी आत्महत्याओं के मामले 2012 और 2013 में लगभग 745 तथा 750 थे, वहीं 2017 के बाद सरकारी आंकड़ों के अनुसार 108 और लोगों ने आत्महत्याएँ कीं। अगर हम अन्य प्रदेशों के आंकड़ों से इसकी तुलना करें, तो ये बहुत कम लगती हैं परन्तु उत्तर प्रदेश में आज जिस तरह भयानक रूप से ये घटनाएँ बढ़ रही हैं, उससे तो यही लगता है कि यह बहुत जल्दी ही अन्य प्रदेशों को पीछे छोड़ देगा।
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योगी सरकार इन आत्महत्याओं की घटनाओं को पिछली सरकारों के माथे मढ़ रही है, परन्तु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती क्योंकि योगी के कार्यकाल में कृषि में भारी तबाही हुई है। अपनी हिन्दुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए यह सरकार अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि पर भी बहुत कम ध्यान दे रही है, लेकिन इस पर भी योगी सरकार आंकड़ों तक को झुठला रही है। उसका कहना है कि, ‘उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी की दर 2017 में 17.5% से घटकर 4% हो गई है, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने सीएमआईई के डाटा पर आधारित एक विश्लेषण में पाया कि जब योगी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल 2017 में प्रदेश की सत्ता संभाली, तब से लेकर अब तक प्रदेश में वर्किंग एज पापुलेशन 12 फीसदी बढ़ी है, इसका यह अर्थ है कि काम करने के इच्छुक या काम ढूंढने वाले लोगों में 12% का इज़ाफा हुआ है। वर्किंग एज पापुलेशन की यह दर जनसंख्या में रोज़गार की डिमांड को दर्शाती है। इस विश्लेषण के मुताबिक महज़ बेरोज़गार दर प्रदेश और देश में रोज़गार की असलियत नहीं दर्शाती है।
सरकारी नौकरियों में खाली पदों को भरने की माँग को लेकर धरने पर बैठी शिखा पाल कहती हैं कि सरकार कह रही है कि उसने प्रदेश में लाखों लोगों को रोज़गार दिया है। मैं सरकार से पूछती हूँ कि कहाँ हैं वह रोज़गार? अगर रोज़गार ही होता तो हम लोग धरने पर क्यों बैठते? मैं सरकार से कहना चाहती हूंँ कि केवल जुमलेबाज़ी से बात नहीं बनती तथा बातें केवल कागज़ों पर ही नहीं चलतीं। ज़मीनी स्तर पर उन्हें देखना चाहिए कि वास्तव में कितने लोग रोज़गार पा चुके हैं।
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वास्तव में प्रदेश में भयानक बेरोज़गारी, किसानों-व्यापारियों की तबाही-बरबादी तथा आत्महत्याओं की दर बढ़ने में गहरा अंतर्संबंध है। वास्तविकता यह है कि यह सरकार भले ही कहे कि उसने हिन्दुत्व के मुद्दे को पीछे छोड़ दिया है, परन्तु उसके सौ दिन पूरे होने पर जो विकास की जुमलेबाज़ी हो रही है, उसके पीछे कहानी कुछ और ही है। संघ परिवार के ही अनेक घटक जैसे- बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद समय-समय पर प्रदेश में अनेक ऐसे साम्प्रदायिक मुद्दे जो करीब-करीब तय हो चुके हैं, जैसे- काशी विश्वनाथ मंदिर का कथित विवाद अथवा मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि बनाम ईदगाह विवाद उठाकर समाज का लगातार साम्प्रदायिकरण करते रहते हैं। यद्यपि भाजपा यह दावा करती है कि इन संगठनों से उसका कोई संबंध नहीं है, परन्तु इनके साथ उसके संबंध जग जाहिर हैं। ये वो ट्रंपकार्ड हैं जिसको आगे करके भाजपा कभी भी प्रदेश को दंगों की आग में झोंक सकती है।
अपने सौ दिनों के कार्यकाल की रिपोर्ट में योगी सरकार ने दस हजार लोगों को सरकारी नौकरी देने का जो दावा किया है, वह आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं, बेकारी-बेरोज़गारी की हत्याओं को दबाने से बेहतर है कि इनके निदान की दिशा में मजबूत कदम उठाए जाएँ।
स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र लेखक हैं।
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