डॉ. सिद्धार्थ रामू समकालीन भारत के बेहतरीन लेखकों में एक हैं, जिनका लिखा खासतौर से वंचित बहुजन समाज के लोग बहुत चाव से पढ़ते हैं। हाल ही में फेसबुक पर आया उनका एक पोस्ट वायरल हो गया है। उनका यह पोस्ट फेसबुक से लेकर व्हाट्सप तक छा गया है। आजादी के 75 वर्षों बाद भी अपरकास्ट का वर्चस्व क्यों नहीं टूटा? शीर्षक से उन्होंने अपने पोस्ट में लिखा है- करीब 7वीं शताब्दी में अपरकॉस्ट ने इस देश के बहुजनों (दलितों-पिछड़ों) पर पूरी तरह वर्चस्व कायम कर लिया। सल्लतनतकाल-मुगलकाल- ब्रिटिश काल में इस वर्चस्व का स्वरूप क्या था? और यह कैसे कायम रहा, इस पर फिर कभी। फिलहाल प्रश्न यह है कि आजादी के 75 सालों बाद भी अपरकॉस्ट वर्चस्व क्यों टूट नहीं टूटा?
किसी भी शोषक-उत्पीड़क वर्ग की शोषण-उत्पीड़न की हैसियत यानि वर्चस्व कायम करने की हैसियत को खत्म करने के लिए उन आधारों को खत्म करना अनिवार्य होता है, जिनके आधार पर वह शोषण-उत्पीड़न करता है यानि बहुसंख्य समाज पर वर्चस्व कायम करता है। इसी तरह किसी शोषित-उत्पीड़ित वर्ग को शोषण-उत्पीड़न से मुक्त कराने के लिए अनिवार्य होता है कि उसे उन चीजों से लैस करना जिनके न होने के चलते उसका शोषण-उत्पीड़न होता है।
डॉ. सिद्धार्थ के पोस्ट में अपर कास्ट और बहुजनों के मध्य विषमता का जो भयावह चित्र उभरा है उसका अनुमान लगाते हुए पिछले डेढ़ दशक से बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम) की ओर से शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- के भारत के प्रमुख समाजों- सवर्ण, ओबीसी, एससी/ एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए दस-सूत्रीय एजेंडा जारी हुआ।
भारत के अपरकॉस्ट का बहुजनों पर वर्चस्व खत्म करने यानि उनका शोषण-उत्पीड़न करने की उसकी शक्ति को खत्म करने के लिए अनिवार्य था कि उससे उन सभी साधनों को छीन लिया जाए, जिसके आधार पर बहुजनों का शोषण-उत्पीड़न करता था (है) उन पर वर्चस्व कायम रखता था (है) और बहुजनों को वे साधन मुहैया कराए जाएं, जिनसे वंचित होने के चलते उन्हें शोषण-उत्पीड़न यानि अधीनता का शिकार होना पड़ता था (है)। अपरकॉस्ट से निम्न चीजें छीनने की ज़रूत थी और है:-
- आजादी के बाद मिलने वाली राजनीतिक सत्ता पर उन्हें नियंत्रण कायम करने से रोकना
- खेती की ज़मीन पर करीब-करीब उनके एकाधिकारी मालिकाने को खत्म करना
- बड़े उद्योग और बुनियादी धंधों पर उनके एकाधिकारिक मालिकाने को खत्म करना
- धार्मिक उद्योग (मठ-मंदिर) पर से उनके (ब्राह्मणों) एकाधिकारिक मालिकाने को खत्म करना
- नौकरशाही पर उसके कब्जे को खत्म करना
- न्यायपालिका पर उसके एकाधिकारिक कब्जे को खत्म करना
- बौद्धिक केंद्रों पर उसके कब्जे को तोड़ना
- मीडिया पर उसके कब्जे को खत्म करना
- देश के सुरक्षा बलों (जिसमें पुलिस भी शामिल है) पर उसके नियंत्रण को खत्म करना
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आजादी से पहले ही अपरकॉस्ट का राजनीतिक सत्ता को छोड़कर अन्य चीजों पर कमोबेश एकाधिकार और वर्चस्व था। आजादी मिलते ही उसने राजनीतिक सत्ता पर कमोबेश एकाधिकार कायम कर लिया। हां, सार्वभौमिक मताधिकार और दलितों के लिए राजनीतिक आरक्षण के चलते उसे थोड़ी-सी हिस्सेदारी देनी पड़ी। नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के चलते नौकरशाही और शिक्षा संस्थानों में थोड़ी हिस्सेदारी देनी पड़ी। लेकिन इससे कहीं भी उनका वर्चस्व नहीं टूटा। हां, इसके उलट यह ज़रूर हुआ कि बौद्धिक केंद्र, मीडिया, न्याय पालिका उद्योग-धंधे, सुरक्षा बल उनके पूर्ण नियंत्रण में आ गए और उन्होंने निजी उद्योग धंधों पर भी पूरी तरह नियंत्रण कर लिया। बहुजनों को अपरकॉस्ट के शोषण-उत्पीड़न और वर्चस्व से मुक्त करने के लिए ज़रूरी था कि उनका-
- बहुसंख्यक होने के चलते आजादी के बाद की राजनीतिक सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण कायम होता
- 85 प्रतिशत खेती की जमीन पर उनका मालिकाना होता
- कम से कम 85 प्रतिशत उद्योग धंधों पर उनका मालिकाना होता
- धार्मिक उद्योग-धंधों (मठों-मंदिरों) पर राज्य का या बहुजनों का नियंत्रण होता
- ऊपर से नीचे तक की न्यायपालिका उनके नियंत्रण में होती
- बौद्धिक केंद्रों (शिक्षा संस्थान और अन्य केंद्र) में बहुजनों की 85 प्रतिशत हिस्सेदारी होती
- मीडिया पूरी तरह बहुजनों के नियंत्रण में होता
- देश के सुरक्षा बलों (पुलिस) में बहुजनों की समानुपातिक हिस्सेदारी होती। इस सबके बिना अपरकॉस्ट वर्चस्व को तोड़ा नहीं जा सकता था और न ही बहुजनों को उनके वर्चस्व से मुक्त किया जा सकता था और न किया जा सकता है।’
उपरोक्त पोस्ट में डॉ. सिद्धार्थ रामू ने जो सवाल खड़े किये उसका समाधान सुझाते हुए तीन दर्जन से अधिक कमेन्ट आये। इस स्थिति के लिए एक व्यक्ति ने अम्बेडकरी चेतना से लैश, नैतिक आचरण का व्यक्तित्व भारत का प्रधानमन्त्री न होना प्रमुख कारण माना तो एक ने लिखा, ’क्योंकि बहुजन समाज नहीं चाहता।’ एक व्यक्ति की राय रही कि ‘कांशीरामजी मालिकाना की बजाय महज हिस्सेदारी की शिक्षा तक बाँध दिया और बहुजन उसी में बंधे हैं।’ एक यादव सरनेम वाले ने लिखा, ’दर्शन के रूप में विचार ठीक है, लेकिन इनको ठोस रूप में लागू करने का कार्यक्रम भी होना चाहिए। आंबेडकरी विचारधारा की अपनी कमजोरियां और सीमाएं हैं।’ बहरहाल, डॉ. सिद्धार्थ ने अपने उपरोक्त पोस्ट में जो सवाल उठाये हैं, मेरे हिसाब से उसका निर्भूल उत्तर भारतीय लोकतंत्र को लेकर डॉ. आंबेडकर की उस चेतावनी की अनदेखी में छिपा है जो उन्होंने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर,1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए संसद के केन्द्रीय कक्ष से दिया था। तब उन्होंने कहा था- 26 जनवरी, 1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी असमानता। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं। हमलोगों को निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा, अन्यथा यह असंगति कायम रही तो असमानता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।
ऐसी चेतावनी देने वाले बाबासाहेब ने भी शायद कल्पना नहीं किया होगा कि भारतीय लोकतंत्र की ऊम्र छः दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा। लेकिन हम ऐसी स्थिति से रूबरू हैं तो इसलिए कि आजाद भारत के शासकों ने संविधान निर्माता की सावधानवाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया।वे स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी थे। अगर लोकतंत्र-प्रेमी होते तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियाँ मुख्यतः आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित होतीं। तब विषमता का यह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है। इस लिहाज से पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, जय प्रकाश नारायण, ज्योति बसु जैसे महानायकों तक की भूमिका का आकलन करने पर निराशा और निराशा के सिवाय कुछ नहीं मिलता। अगर इन्होंने डॉ.आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से ख़त्म होने लायक नीतियाँ अख्तियार की होतीं तो क्या असमानता का वह शर्मनाक और भयावह चित्र सामने आता जो विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 और डॉ. सिद्धार्थ के उपरोक्त पोस्ट में उभरा है! राजनीति के हमारे महानायकों ने गरीबी-हटाओ, लोकतंत्र बचाओ, भ्रष्टाचार हटाओ, राम मंदिर बनाओ इत्यादि जैसे आकर्षक नारे देकर महज शानदार तरीके से सत्ता दखल किया, किन्तु राज-सत्ता का इस्तेमाल उस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे में नहीं किया, जो मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है और जिसकी सर्वाधिक व्याप्ति आज भारत में है। बहरहाल, सवाल पैदा होता है हमारे राष्ट्रनायकों से ऐसी भूल कैसे हो गयी जिसके कारण आज भारत के जन्मजात सुविधाभोगी अपरकास्ट का आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बेपनाह कब्ज़ा कायम हो गया है?
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एक तो ऐसा हो सकता है कि गांधीवादी-राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े स्वाधीन भारत के हमारे तमाम राष्ट्रनायक ही समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध न होने के कारण ऐसी नीतियां ही बनाये जिससे परम्परागत सुविधासंपन्न तबके का वर्चस्व अटूट रहे। दूसरी यह कि, उन्होंने आर्थिक और सामाजिक-विषमता की उत्पत्ति के कारणों को ठीक से जाना नहीं, इसलिए इसके निवारण का सम्यक उपाय न कर सके। प्रबल सम्भावना यही दिखती है कि उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक असमानता की सृष्टि शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन के कारण होती रही है। अर्थात लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक असमानता की स्थित पैदा करते रहे हैं। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देश ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, ज्ञान उद्योग, फिल्म-टीवी-मीडिया इत्यादि हर क्षेत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाया। पर, उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादी सबकुछ ही उधार लेने वाले हमारे शासकों ने उनकी डाइवर्सिटी नीति से पूरी तरह परहेज़ किया। बहरहाल, अगर शासक वर्ग ने अपने वर्गीय- हित में डॉ. आंबेडकर के चेतावनी की अनदेखी किया तो क्या खुद आंबेडकरवादियों ने आर्थिक और विषमता के खात्मे को तरजीह दिया! उत्तर नकारात्मक है। आजाद भारत में आंबेडकरवादी संगठनों और राजनीतिक दलों ने आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे में नहीं, के बराबर रूचि ली। सांस्कृतिक बदलाव और सत्ता हासिल करने के जूनून में ये न सिर्फ डॉ. आंबेडकर के 25 नवम्बर, 1949 वाली चेतवानी की अनदेखी कर गए बल्कि प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी में दिए गए अर्थशास्त्री बाबासाहेब के इस संदेश को महत्त्व नहीं दिये कि सभी मानवीय प्रयासों का केंद्र बिंदु धन है!
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बहरहाल, आज की तारीख में बहुजनवादी संगठनों और दलों की आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के प्रति भयावह अरुचि भारी विस्मय की बात है। कारण, मोदी सरकार की सवर्णपरस्त नीतियों के कारण भारत के अपरकास्ट का शक्ति के समस्त स्रोतों पर जहाँ औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो चुका है, वहीं बहुजन उस स्टेज में पहुँच गए हैं, जिसे स्टेज में पहुँचकर सारी दुनिया के वंचितों को मुक्ति की लड़ाई में उतरना पड़ा। डॉ. सिद्धार्थ के पोस्ट में अपर कास्ट और बहुजनों के मध्य विषमता का जो भयावह चित्र उभरा है उसका अनुमान लगाते हुए पिछले डेढ़ दशक से बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम) की ओर से शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- के भारत के प्रमुख समाजों- सवर्ण, ओबीसी, एससी/ एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए दस-सूत्रीय एजेंडा जारी हुआ। यह एजेंडा भारत की प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में शामिल हो चुका है। इस एजेंडे का अनुसरण करते हुए कई राज्य सरकारें नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, धार्मिक न्यासों, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति, निगमों, बोर्डों, आउटसोर्सिंग जॉब इत्यादि में वंचित जातियों के पुरुषों और महिलाओं को आरक्षण दे चुकी हैं। किन्तु इससे बहुजनवादी संगठन और राजनीतिक दल प्रायः पूरी तरह निर्लिप्त हैं। वे अगर बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने में सर्वशक्ति से जुट जाते- अपरकास्ट का वर्चस्व ध्वस्त होते देर नहीं लगती!
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
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