इतिहास लेखन एक कला है। इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता। इतिहास लिखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। तथ्य जमा करने से लेकर उन्हें लिखने तक का काम इतना आसान नहीं होता। धैर्यवान होना तो सबसे अधिक अनिवार्य है। यदि धीरज न हो तो आदमी इतिहास लिख ही नहीं सकता। वैसे एक तथ्य यह भी कि इतिहास लेखन के पीछे एक निश्चित मकसद होता है और इस मकसद के भी निश्चित आयाम होते हैं। मैंने आजतक ऐसा कोई इतिहास नहीं पढ़ा है, जिसमें मकसद शामिल न रहा हो। हालांकि यूरोप के इतिहासकारों का इतिहास लेखन थोड़ा अलग अवश्य रहा है, लेकिन मकसद तो उनके पास भी होता ही है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में इतिहास लेखन अभी भी ऊंची जातियों तक सीमित है। अभी हाल के वर्षों में कुछेक दलित-पिछड़े वर्ग लोगों ने इतिहास लेखन में हाथ आजमाना शुरू किया है, परंतु उनके अंदर मकसद और धीरज दोनों का अभाव दिखता है। हालांकि मैं इसे भी महत्वपूर्ण मानता हूं। खासकर अवध का किसान विद्रोह लिखनेवाले सुभाषचंद्र कुशवाहा और आदिवासियों के इतिहास को कलमबद्ध करनेवाले अश्विनी कुमार पंकज का काम बोलता है। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतिहास लेखन के मामले में ऊंची जातियों के विद्वानों का कोई मुकाबला नहीं है। मुकाबला इसलिए भी नहीं क्योंकि इनके इतिहास लेखन में धूर्तता महत्वपूर्ण अवयव होता है।
दरअसल, कल मैं बद्री नारायण की किताब कांशीराम : बहुजनों के नायक पढ़ रहा था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का हिंदी अनुवाद सिद्धार्थ ने किया है। बद्री नारायण की जाति ब्राह्मण है और सिद्धार्थ की जाति के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है। चूंकि किताब बद्री नारायण की है तो मैं यह मानकर चल रहा हूं कि जो भी बातें इस किताब में संकलित हैं, वे उनकी ही हैं।
[bs-quote quote=”अवध का किसान विद्रोह लिखनेवाले सुभाषचंद्र कुशवाहा और आदिवासियों के इतिहास को कलमबद्ध करनेवाले अश्विनी कुमार पंकज का काम बोलता है। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतिहास लेखन के मामले में ऊंची जातियों के विद्वानों का कोई मुकाबला नहीं है। मुकाबला इसलिए भी नहीं क्योंकि इनके इतिहास लेखन में धूर्तता महत्वपूर्ण अवयव होता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बद्री नारायण ने बड़ी ही चालाकी से कांशीराम के जीवन का इतिहास लिखने के बहाने ब्राह्मणवाद घुसेड़ दिया है। एक उदाहरण है कांशीराम के जन्म के संबंध में। अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि कांशीराम का जन्म कब और कहां हुआ था। अनेक दलित लेखकों ने भी लिख रखा है। मसलन एस सिंह की एक किताब है– बहुजन नायक कांशीराम। यह किताब 2005 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में भी कांशीराम के जीवन के विभिन्न पहलुओं को संकलित किया गया है। हालांकि भाषा और शैली के लिहाज से बद्री नारायण की किताब अधिक बेहतर है। एक तो इसमें वर्तनी आदि की त्रुटियां बहुत कम हैं। लेकिन बद्री नारायण ने बदमाशियां बहुत की है।
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अब इनकी एक बदमाशी देखिए कि इन्होंने कांशीराम के जन्म के संबंध में कहानी जोड़ दी है। इसे चाहें तो किंवदंती मानकर छोड़ा जा सकता है। लेकिन यह देखने की आवश्यकता है कि इस कहानी में कहा क्या गया है। बद्री नारायण बता रहे हैं कि कांशीराम का नाम कांशीराम क्यों पड़ा। इस संबंध में वह बताते हैं कि जब कांशीराम अपनी माता के गर्भ में थे तब उनके गांव में कांशीराम नामक एक संत आता था और सत्संग आदि करता था। कांशीराम की माता बिशन कौर भी सत्संग में भाग लेती थीं। वहीं उस संत ने भविष्यवाणी की थी कि बिशन कौर के गर्भ से एक लड़के का जन्म होगा और वह एक महान नेता होगा, जिसका नाम पूरे देश में फैलेगा। बद्री नारायण बताते हैं कि उसी संत कांशीराम के नाम पर बिशन कौर और हरि सिंह ने अपने पहले बच्चे का नाम कांशीराम रखा। कांशीराम के तीन भाई और तीन बहनें थीं। स्वयं कांशीराम सबसे बड़े थे।
अब इस कहानी से समझिए बद्री नारायण की बदमाशी। उन्होंने कांशीराम के जन्म को चमत्कार से जोड़ दिया है। ठीक वैसे ही जैसे उनके पूर्वजों ने कबीर के जन्म को चमत्कार से जोड़ दिया था। कबीर के मामले में तो यह देखिए कि उन्हें कमल के फूल से निकला हुआ बता दिया।
क्रमशः जारी
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