बचपन की कहानियां बेकार कहानियां नहीं थीं। हालांकि अब जहन में कुछ ही कहानियां शेष हैं। अनेकानेक कहानियां अब जहन में नहीं हैं। वैसे यह भी एक सवाल है कि कहानियां हमारी जहन से गायब क्यों हो जाती हैं? कहानियों के गायब होने का संबंध मेमोरी पॉवर से बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल, हर कहानी में घटनाएं होती हैं और जब कोई वैसी ही घटना वास्तविक जीवन में घटती है, जैसी कि वह किसी कहानी में वर्णित होती हैं, तो जहन में उसके बने की रहने संभावना बढ़ जाती है। मेरे हिसाब से यह एक बड़ी वजह है। दूसरी वजह तो यह कि जब कोई कहानी बार-बार हमें पढ़ने को उपलब्ध कराया जाय तब वह हमारी जहन में बना रहता है। लेकिन बचपन की अधिकतर कहानियां तो मौखिक होती थीं। तो एक वजह यह भी है उनके मेरी जहन में नहीं रहने की।
एक कहानी अलहदा है। कहानी में एक जादूगर था और उसकी जान एक तोते में बसती थी। यह कहानी मेरी जहन में आजतक बनी है और इसकी वजह यह कि इस कहानी को मैंने राजनीति से जोड़कर देखा है। मेरी कहानी में जादूगर तानाशाह लोकतांत्रिक शासक है और लोकतंत्र वह तोता, जिसमें तानाशाह की जान बसती है।
उच्च आय वर्ग के लोग इस कोशिश में लगे हैं कि कैसे इस आर्थिक मंदी की आपदा के दौर को अवसर में बदला जाय। मध्यम आय वर्ग के अंतर्गत नौकरी करने वाले लोग अपने लिए महंगाई भत्ता की चिंता में डूबे हैं। निम्न आय वर्ग के लोगों को अपनी मजदूरी और फसल की अच्छी कीमत मिलने की चिंता है।
आज के संदर्भ में कहूं तो मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार जादूगर है और तोता संसद है। हालांकि तोता शब्द का उपयोग सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आदि के लिए भी खूब किया जाता है। लेकिन संसद का तोता होना मुझे हैरान करता रहा है। अब इस तोते यानी संसद की हालत देखिए कि मानसून सत्र को सरकार ने चार दिन पहले ही खत्म कर दिया। मुझे नहीं पता कि देश के अन्य लोग इस सवाल पर विचार करेंगे या नहीं कि मानसून सत्र को चार दिन पहले क्यों खत्म कर दिया गया? क्या संसद के पास कोई काम शेष नहीं था? क्या संसद के सदस्यों के सारे सवाल खत्म हो गए थे? क्या देश में मुद्दों की कमी थी? कोई तो वजह होनी चाहिए संसद के मानसून सत्र को चार दिन पहले खत्म करने के पीछे?
सनद रहे कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक संसद का मानसून सत्र 12 अगस्त, 2022 तक चलना था। लेकिन इसे कल ही खत्म कर दिया गया। मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं मिल सकी है कि संसद के किसी भी सदस्य ने इसका विरोध किया हो। मैं यह नहीं कह रहा कि किसी ने विरोध नहीं किया, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि मुझे इसकी जानकारी नहीं है।
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तकलीफ तब होती है जब संसद के दोनों सदनों के प्रमुख संसद की परवाह नहीं करते। कल ही लाेकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला का बयान आया कि इस बार के मानसून सत्र में 16 बैठकें हुईं और 44 घंटे कार्यवाही चली। इसकी उत्पादकता का हिसाब-किताब देते हुए ओम बिरला ने कहा कि उत्पादकता 48 फीसदी रही। वहीं राज्यसभा में 36 घंटे कार्यवाही चली। सभापति वेंकैया नायडू ने विपक्ष की यह कहकर आलोचना की कि हंगामे के कारण उच्च सदन में 47 घंटे बर्बाद हुए और प्रश्नों के जरिए कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने का अवसर विपक्ष ने गंवा दिया।
दरअसल, यह एक बड़ा सवाल है। संसद का काम ही यही है कि वह कार्यपालिका को जवाबदेह बनाकर रखे। लेकिन यह तो तभी मुमकिन है जब संसद कार्यपालिका के आगे गुलाम की भांति न रहे। मानसून सत्र के दौरान चाहे वह राज्यसभा के सभापति रहे हों या फिर लोकसभा के अध्यक्ष, दोनों का आचरण इस बार भी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता के समान रही। हालांकि यह भी कोई नई बात नहीं है। जिसकी सत्ता होती है, ये दोनों महत्वपूर्ण पद उसी पार्टी के नेताओं को दी जाती है। शासक जानता है कि यदि संसद को गुलाम बनाकर रखना है तो सबसे पहले उसके संवैधानिक प्रमुख को अपना गुलाम बनाना जरूरी है।
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दरअसल, चार दिन पहले संसद की कार्यवाही को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करने का मतलब बहुत साफ है। सरकार जवाबदेही से बचना चाहती है। अभी तो कई तरह के सवाल शेष हैं। महंगाई पर चर्चा के संबंध में ओम बिरला का कहना है कि इस सवाल पर निचले सदन में करीब 6 घंटे चर्चा हुई। लेकिन अग्निपथ योजना के सवाल कोई चर्चा नहीं की गई। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों का मसला अब भी बना हुआ है जबकि वहां 2019 से ही केंद्र का शासन है। वहां चुनाव कब होंगे, इसके संबंध में सरकार ने कोई ठोस बात नहीं कही है। चीन द्वारा सीमा का अतिक्रमण एक बड़ा सवाल था, जिसके बारे में संसद में विचार करना चाहिए था, लेकिन नहीं किया गया। ऐसे ही डॉलर के मुकाबले रुपये की अबतक की ऐतिहासिक अवमूल्यन के सवाल पर चर्चा आवश्यक थी। तो ऐसे अनेक सवाल थे, जिनके बारे में चर्चा हो सकती थी।
लेकिन यह तो तभी संभव है जब सरकार ऐसा चाहती और संसद के तमाम सदस्य ऐसा चाहते। और यह तब भी संभव होता जब दोनों सदनों के संवैधानिक प्रमुख, किसी पार्टी के कार्यकर्ता के बजाय, सदनों के प्रमुख होने की जिम्मेदारी समझते।
रही बात इस देश की जनता की तो इसके हर वर्ग की अपनी-अपनी समस्याएं हैं। उच्च आय वर्ग के लोग इस कोशिश में लगे हैं कि कैसे इस आर्थिक मंदी की आपदा के दौर को अवसर में बदला जाय। मध्यम आय वर्ग के अंतर्गत नौकरी करने वाले लोग अपने लिए महंगाई भत्ता की चिंता में डूबे हैं। निम्न आय वर्ग के लोगों को अपनी मजदूरी और फसल की अच्छी कीमत मिलने की चिंता है। कुछ और वर्ग हैं, जिनके लिए संसद कोई मायने नहीं रखती।
लेकिन यह बहुद दुखद है। संसद को संसद रहने दिया जाय। तभी इस देश में लोकतंत्र मजबूत रहेगा। और कोई चारा नहीं है।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।