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ग्राउंड रिपोर्ट

रोज़गार और निवाले के संकट से जूझता वाराणसी का मुसहर समुदाय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र होने के कारण वाराणसी हमेशा चर्चा में रहता है क्योंकि अक्सर यहाँ से हजारों करोड़ की विकास परियोजनाएं लांच की जाती हैं लेकिन ये योजनाएं भरे पेट वालों का राजनीतिक गान भर हैं। वास्तविकता यह है कि हाशिये पर रहनेवाले समाजों के लिए इनका अर्थ एक जुमला भर है। वाराणसी समेत पूर्वांचल की बहुत बड़ी आबादी अपने रोजगार से हाथ धोती जा रही है। आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले सवा चार करोड़ लोग हैं। अर्थात उत्तर प्रदेश का हर पाँचवाँ व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है। न उसके पास रोजगार है, न जमीन है, न शिक्षा और न ही अच्छा स्वास्थ्य है। वह आजीविका कमाना चाहता है लेकिन गांवों तक मशीनों से काम होने लगा है और इस प्रकार उनका रोजगार हमेशा के लिए छिन गया है। वाराणसी जिले के हरहुआ ब्लॉक के चक्का गाँव में रहनेवाले मुसहर समुदाय के सामने आज रोजगार और निवाले की गंभीर समस्या खड़ी है। उनकी ज़मीनों पर दबंगों का कब्ज़ा है। उनकी अनेक बुनियादी समस्याएं हैं। चक्का गाँव से अपर्णा की यह रिपोर्ट।

मुसहर बस्ती में रीता अपने रोते हुए बच्चे को चुप कराने की पूरी कोशिश कर रही थी लेकिन वह लगातार रोए जा रहा था। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘भूख से रो रहा है। आज चूल्हा ही नहीं जला, खाने को कुछ नहीं है। जब घर में चावल, आटा, तेल ही नहीं रहेगा तो क्या पकाने के लिए चूल्हा जलेगा? इसके पिता खेत पर गए हैं मजदूरी करने, शाम को मजदूरी मिलने के बाद कुछ राशन लेकर आएंगे तब कुछ पकेगा।’

रीता वाराणसी जिले के हरहुआ ब्लॉक के चक्का गाँव की मुसहर बस्ती में अपने पति और बच्चों के साथ रहती हैं। उनके हालात के बारे में जब मैंने और अधिक जानने की कोशिश की तो उन्होंने दुखी स्वर में कहा – ‘एक दिन जैसे-तैसे गुजरता है, लेकिन यह नहीं पता कि दूसरे दिन क्या होगा? चूल्हे में आग जलेगी या पेट की आग में जलना होगा?’

मैंने पूछा कि ‘महीने में कितनी बार चूल्हे में आग नहीं जलती? तब बहुत ही यातना भरी आवाज में रीता ने जवाब दिया ‘जब से मुसहर धरती पर पैदा हुए हैं, तब से यही परेशानी चल रही है। हमारा समुदाय केवल भूख से लड़ रहा है।’

आस-पास के अन्य लोगों से बात करने पर अभाव और भूख की अंतहीन और दर्दनाक कहानी सामने आती है। रोटी की चिंता में मुसहर बस्ती के लोग जीवन गुजार रहे हैं। भूख और अभाव क्या होता है, यह उनकी बस्ती में जाने के बाद साफ-साफ दिखाई देता है।

उन लोगों ने कहा कि ‘सरकार हमें थोड़ी भी जमीन देती तो कम से कम खाने के लिए कुछ तो पैदा करते। लेकिन न तो खेती है न ही कमाने के लिए कोई काम। जब कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या?’

वास्तविकता यही है। गांवों में लोगों के पास काम नहीं है। लोग काम करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें शहरों में भटकना पड़ता है। खेतों में मजदूरी करने का भी एक निश्चित समय होता है। बाकी समय लोग घर बैठने या भटकने को मजबूर हो चुके हैं। अक्सर लोग किसी पेड़ के नीचे या चबूतरे पर बैठे मिलते हैं। पूछने पर पता चलता है उनके पास काम नहीं है।

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भूखा पेट बच्चा, खाने के लिए रोता हुआ 

सबसे बुरी स्थिति मनरेगा की है। यह योजना केंद्र सरकार द्वारा हर वित्तवर्ष में बजट घटाने के कारण लगातार कमजोर पड़ती गई है। ऊपर से किए जानेवाले इस नियंत्रण का स्थानीय प्रभाव बहुत भयानक हो चुका है। यह पूरी तरह से प्रधानों, रोजगारसेवकों और ग्रामसचिवों के कब्जे में है। शुरुआती दिनों में फर्जी जॉबकॉर्ड बनाने का घोटाला होता था लेकिन अब ग्रामीण मजदूरों के नाम पते सहित जॉबकार्ड बनाए जाते हैं। इजाफा यह हुआ है कि अब कॉर्डधारकों को काम ही नहीं मिलता।

मनरेगा से जुड़ी खबरों में साफ पता चलता है कि लोगों से अब लगभग नहीं कराया जा रहा है। सड़क और तालाब आदि बनाने का काम ग्राम प्रधान जेसीबी से करवाते हैं। यह मनरेगा अधिनियम का स्पष्ट उल्लंघन है लेकिन अफसरों की साँठ-गांठ से सब आराम से हो रहा है। मस्टर रोल में जिन लोगों को दिखाया जाता है उनके खातों से रकम निकाल ली जाती है और पाँच सौ रुपये उसे थमा दिया जाता है। ऐसे में लोग कैसे जिएंगे यह एक जटिल सवाल बन गया है।

कैसे चल रहा है जीवन

जो गाँव शहर से दूर हैं वहाँ मनरेगा एक बड़ा आसरा है लेकिन लोग कहते हैं कि यह आसरा अब टूट चुका है। घर चलाना बहुत कठिन हो गया है। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि सरकार गरीबों को मुफ्त राशन देकर पाल रही है लेकिन इस ढोल की पोल अब खुलती जा रही है।

चक्का गाँव की मुसहर बस्ती की औरतें बताती हैं कि उन्हें लगभग पूरे महीने के लिए राशन खरीदना पड़ रहा है इसलिए हमारे लिए रोजगार जरूरी है लेकिन सरकार कभी भी रोजगार की बात नहीं करती। मैंने पूछा कि ‘राशन क्यों खरीदना पड़ता है? क्या राशनकार्ड नहीं बना है?’ उन महिलाओं ने बताया कि ‘मिलता है लेकिन हमारा 7 लोगों का परिवार है लेकिन राशनकार्ड में नाम जुड़ा है केवल दो लोगों का। इससे 12 किलो चावल और 8 किलो गेहूं मिलता है। 7 लोगों के परिवार में इतना राशन सिर्फ 4-5 दिन ही चल पाता है। उसके बाद तो बाजार से ही खरीदना पड़ता है।’

चक्का गाँव की मुसहर बस्ती की आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे एक समूह में बैठे हुए नट संघर्ष समिति के संयोजक प्रेम नट से अपनी समस्याएं साझा कर रही थीं। उनमें से तीन-चार लोगों के हाथ में सफेद राशन कार्ड के साथ आधार कार्ड भी था।

‘इस मुसहर बस्ती में सभी की यही स्थिति है। एक दिन खाना मिलता है, एक दिन नहीं मिलता है। रोजी कमाने के लिए कोई काम ही नहीं है। जिस दिन किसी के खेत या घर में मिल गया, उस दिन राशन खरीद लाते हैं। जिस दिन नहीं मिलता, गाँव से मांग-जांच के ले आते हैं। कभी-कभी वह भी नहीं मिलता।’ एक महिला ने बताया।

गाँव में मुसहर समाज की महिलाएं अपनों समस्याएं कहने एकत्रित बैठी हुईं

सभी लोग इस बात के लिए परेशान हैं कि हम गरीबी रेखा से नीचे हैं और पकड़ा दिया सफेद राशन कार्ड।  उसमें भी परिवार के दो या तीन सदस्यों का नाम ही जुड़ा हुआ है। कार्ड में नाम नहीं जुड़े होने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि प्रधान और कोटेदार हमेशा कहते हैं कि नाम जुड़ जाएगा लेकिन बरसों-बरस हो गए आज तक नहीं जुड़ा।

दाल तो कभी सोच नहीं सकते लेकिन हरी सब्जी भी सपना ही है

 54 वर्षीय मालती के घर पर 9 सदस्य हैं, लेकिन सफेद राशनकार्ड पर केवल दो लोगों का नाम ही जुड़ा हुआ है। उनके परिवार में 4 सदस्य वयस्क और तीन बच्चे हैं। नाम जुड़वाने के लिए सबका आधार कार्ड भी बनवा लिया है। नाम जुड़वाने के लिए प्रधान और कोटेदार से अनेक बार मिलीं लेकिन उन लोगों से आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला। उन दोनों का स्पष्ट कहना है कि ऊपर से आदेश आने पर ही नाम चढ़ेगा जबकि गाँव में रहने वाले कोइरी, यादव, ब्राह्मणों के राशन कार्ड में परिवार के सभी सदस्यों के नाम चढ़े हुए हैं।

मालती का कहना है ‘दो लोगों का मात्र 20 किलो राशन मिलता है। वह भी मात्र गेहूं और चावल। इसके अलावा तेल नमक खरीदना पड़ता है। 9 लोगों के परिवार में 20 किलो अनाज मात्र 4 से 5 दिनों में खत्म हो जाता है क्योंकि खाने के लिए हमारे पास दूसरा कुछ नहीं होता। इसलिए एक वक्त इतने लोगों के लिए डेढ़ से दो किलो चावल पकाना जरूरी होता है।

मालती, राशन कार्ड पर परिवार के सभी सदस्यों का नाम जुड़वाने के लिए सबका आधारकार्ड लिए

आप चावल या रोटी किसके साथ खाती हैं? इसके जवाब में मालती ने कहा ‘नमक के साथ या कभी हरी मिर्च के लिए पैसे हुए तो नमक के साथ उसकी चटनी बनाकर खा लेते हैं।’

‘हरी सब्जी या दाल तो सपना है। कभी हाथ में 10-20 रुपये रहे तो उसकी 50-100 ग्राम दाल खरीदकर अधिक पानी डालकर बना लेते हैं। ऐसी पनियल दाल भी मुश्किल से 10-12 दिन में एक बार खा लिए तो हम भाग्य समझते हैं। सबसे सस्ते विकल्प के रूप में रोज 5-10 रुपये का आलू लाकर उसका झोल बनाते हैं। भात और वही झोल में डला हुआ आलू खाते हैं।

‘इसके अलावा कभी दूसरी चीज खाने के लिए खरीदने की हैसियत ही नहीं है। बच्चे दुकान जाते हैं, तो रंग-बिरंगे पैकेट देखकर खरीदने की जिद करते हैं लेकिन 5 रुपया भी नहीं होता कि उनका शौक पूरा कर सकें।’

मुसहर समुदाय की गरीबी कोई मिथक नहीं बल्कि इस देश की कड़वी सच्चाई है। कुछ वर्ष पहले वाराणसी में इनके बच्चों के अँकरी घास खाने की एक खबर छपी थी। घर में राशन न होने के कारण उनके सामने यही विकल्प था। इस खबर के सामने आते ही हड़कंप मच गया था। इस अखाद्य घास को मुसहर बच्चों के खाने की खबर प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र के लिए एक कलंक थी जिसे मिटाने की कोशिश में वाराणसी के तत्कालीन जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने अपने बेटे के साथ अँकरी खाते हुये एक खबर छपवाई थी।

जिलाधिकारी महोदय का आशय था कि अँकरी खाई जा सकती है। लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय कानपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि यह घास है और मनुष्यों के खाने योग्य नहीं है।

मुसहर समुदाय के लोगों की गृहस्थी घर से बाहर भी

कोटेदार ने अपने कब्जे में रखा है मुसहर बस्ती के लोगों का राशन कार्ड

सरकार की तरफ से जारी किया गया राशन कार्ड व्यक्ति का पहचान पत्र भी होता है। जिसका राशन कार्ड है, वही व्यक्ति इसे रखता है। लेकिन वाराणसी के हरहुआ ब्लॉक के चक्का गाँव के मुसहर समुदाय के 150 परिवारों में से लगभग 100 से ज्यादा परिवारों का राशन कार्ड इस गाँव के कोटेदार बसंतलाल गुप्ता के पास जब्त हैं। राशन कार्ड बनने के बाद से सभी के कार्ड गुप्ता ने अपने पास रखे हैं। जबकि गाँव की दूसरी जातियों यादव, कोइरी, ब्राह्मण आदि के कार्ड उनके पास हैं। उनका राशन कार्ड कोटेदार ने नहीं रखा है और उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम भी जुड़े हुए हैं।

ऐसा संभवतः इसलिए है कि यदि कभी झटके से कोई जांच हो तो इस घपले का पता अफसरों को न चले। अगर पूछताछ हो तो यह कहकर बचा जा सके कि राशन कार्ड में संशोधन के लिए जमा कर लिए गए हैं।  राशन आने पर उसकी सूचना गाँव के सभी लोगों तक पहुँचा दी जाती है लेकिन मुसहर समुदाय के पास राशन आने की कोई सूचना नहीं आती।

इस समुदाय की महिलाओं ने बताया कि आधार कार्ड लेकर वे लोग राशन लेने जाते हैं। वे इस डर से कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाते क्योंकि ज्यादा पूछने पर आगे से राशन मिलना ही न बंद हो जाय। महिलाएं कहती हैं कि जब परिवार के सभी सदस्यों के नाम जुड़वाने के लिए बात करते हैं तब कोटेदार का जवाब होता है कि अभी ऊपर से आदेश नहीं आया है। जब आएगा तब नाम जोड़ दिया जाएगा।

जबकि वास्तविकता यह है कि ऑनलाइन फॉर्म भरने के बाद भी राशन कार्ड बन जाता है और उसमें कोई भी अपडेट किया जा सकता है। अनपढ़ और गरीब मुसहर समुदाय इस बात से अनभिज्ञ है।

इस बस्ती में इन महिलाओं के पास ही राशन कार्ड है , बाकियों का राशन कार्ड कोटेदार के पास है

गाँव में 18 लोगों के आज तक नहीं बने हैं और केवल 5-6 लोगों के राशन कार्ड ही धारकों के पास हैं। इनमें 5 लोगों का बीपीएल राशन कार्ड (गुलाबी वाला) और बाकी लोगों का कार्ड एपीएल वाला (सफेद वाला)।

गाँव में तीन लोगों के पास राशन कार्ड है, जो अखिलेश की सरकार के समय बना था, लेकिन इस कार्ड में राशन दिए जाने की कोई प्रविष्टि वर्ष 2018 के बाद नहीं की गई। जबकि नियम यह कहता है कि राशन लेने वाला मुखिया अंगूठा लगाकर या हस्ताक्षर कर राशन ले और कोटेदार उस कार्ड में तारीख के साथ दिए गए राशन का नाम और मात्रा लिखे।

सवाल यह उठता है कि ग्राम प्रधान और कोटेदार किस अधिकार से मुसहर समुदाय के राशन कार्ड अपने पास रखे हुए हैं। उनके लिए उस कार्ड की क्या उपयोगिता है?

छानबीन करने पर जो पता चला  

इस मामले में चक्का गाँव के प्रधान से मिलने की कोशिश की गई लेकिन पता चल वे किसी काम से गाँव से बाहर गए हुए थे। उनसे फोन पर बातचीत हो पाई। फोन पर पूछा गया कि मुसहर बस्ती के लोगों का लगभग 100 से ज्यादा परिवारों का राशन कार्ड कोटेदार के पास क्यों हैं? इस सवाल पर उन्होंने अनभिज्ञता बताई। बोले पता करना पड़ेगा।

उन्होंने ऐसा भी कहा कि आजकल राशन लेते समय मुखिया के अंगूठे को वेरीफ़ाई कर राशन देते हैं। राशन कार्ड की जरूरत नहीं होती है। फिर सवाल यह भी उठता है कि जब इसकी जरूरत नहीं है तो क्यों नहीं सरकार को राशन कार्ड बनवाने का काम बंद कर देना चाहिए।

दूसरा सवाल यह है कि जब सभी मुसहर गरीबी रेखा से नीचे हैं तो इनका लाल राशन कार्ड क्यों नहीं बना? इस पर प्रधान ने जवाब दिया कि आजकल लाल राशन कार्ड नहीं बन रहा है। जिनका 15-20 वर्ष पहले बन गया, उन्हीं का है। अब सबका सफेद बन रहा है।

उन्होंने अपनी ही बात को काटते हुए कहा कि 74-75 लोगों का गाँव में लाल राशन कार्ड बना है, जिन्होंने गलत आय प्रमाणपत्र जमा कराया है। मतलब जो पात्र नहीं हैं, उन्हें मिल रहा है। जबकि सच यह है कि गलत जानकारी जमा करवाने के बाद भी उस पर खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) द्वारा प्रमाणित करवाना पड़ता है। तब सवाल उठता है कि हरहुआ ब्लॉक के खंड विकास अधिकारी ने कैसे उसे प्रमाणित कर आगे बढ़ा दिया? उन्हें भी फोन किया गया लेकिन वे बोले अभी बात नहीं कर सकता क्योंकि कचहरी में हूँ। कल बात कीजिएगा।

इस विषय में ग्राम प्रधान का कहना है कि ऑनलाइन राशन कार्ड बनने के कारण अनपढ़ लोग नहीं बनवा पा रहे हैं और जानकार लोग गड़बड़ियाँ कर गरीबों के लिए लागू योजनाओं का फायदा उठा रहे हैं।

जबकि इस विषय में नट संघर्ष समिति के संयोजक प्रेम नट ने बताया कि ‘सरकारी योजनाओं में समाज के सबसे निचले तबके में आने वाले नट और मुसहर समाज के लिए लाल राशन कार्ड का प्रावधान है। उन्हें अपनी पात्रता साबित करनी होती है। लेकिन इस काम के लिए प्रधान या कोटेदार का सहयोग नहीं मिलता और उन्हें सफेद राशन कार्ड पकड़ा दिया जाता है और गाँव के होशियार लोग लाल राशन कार्ड बनवाकर फायदा उठाते हैं।’

मुसहर समाज में रोजगार और खाने के अभाव में बच्चे ऐसी ज़िन्दगी जीने को मजबूर

चक्का गाँव के प्रधान से जब कोटेदार बसंत लाल गुप्ता का फोन नंबर मांगा गया तो उन्होंने उनका नंबर नहीं होने की बात कही। लेकिन उस गाँव के सचिव चंद्रबली का नंबर दिया जो लगाने पर नॉट रीचेबल बताता रहा। लेकिन यह आश्चर्य की ही बात है कि ग्रामपंचायत के प्रधान के पास कोटेदार का नंबर नहीं था।

राशन कार्ड में परिवार के सभी लोगों का नाम क्यों नहीं जुड़ा है? इस पर उनका जवाब था कि ‘जिनका आधार कार्ड है उनका जुड़ा और जिनका आधार नहीं है, उनका नहीं। जिनके पास हैं, वे पंचायत भवन में जाकर नाम जुड़वा सकते हैं।’

इसके उलट मुसहर बस्ती की मालती कहती हैं कि वह अपने परिवार के सभी लोगों का आधार कार्ड लेकर कई बार गई लेकिन आज तक उनके परिवार के किसी भी सदस्य का नाम नहीं जोड़ा गया। सचिव चंद्रबली राम से बात करने पर उन्होंने कहा कि ‘वे लोग जन सेवा केंद्र पर जाकर जुड़वा सकते हैं।’

शायद सचिव को यह नहीं पता कि जन सेवा केंद्र पर जाने से वहाँ पैसे देने पड़ेंगे जबकि पंचायत भवन में कंप्यूटर है, जहां से लोगों का नाम जुड़ सकता है। सरकार ने इन लोगों की नियुक्ति ही ग्रामीणों की सेवा  के लिए की है, लेकिन इनकी लापरवाही आए दिन देखने को मिलती है।

सवाल यह उठता है कि मुख्यधारा से पूरी तरह कटा हुआ, अनपढ़ और अभावग्रस्त समाज के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त प्रत्याशी को प्रधान को चुनते हैं ताकि उनकी समस्याएं आसानी हल हो सकें। लेकिन प्रधान की प्राथमिकता में वे ही सबसे नीचे हैं।

जब फोन से ही सप्लाई इंस्पेक्टर मिथिलेश सिंह से राशन कार्ड की जानकारी ली गई तो उन्होंने कहा कि  ‘एक तो मुझे पता नहीं है, आपने बताया तो पता करवाते हैं, दूसरा मुसहर बस्ती के लोग ही वहाँ राशन कार्ड कोटेदार को दिए हों, जाकर ले लें।’

उन्होंने मुझसे कहा कि ‘आप जब चक्का गाँव जाएँ तो गाँव वालों से मेरी बात करवा दीजिएगा।’ मतलब इस सप्लाई इंस्पेक्टर मिथिलेश सिंह का वहाँ के कोटेदार, प्रधान, सचिव या ग्राम पंचायत सदस्यों से कोई संपर्क नहीं है, जिनसे वे इस जानकारी को हासिल कर सकें।

कोटेदार बसंत लाल गुप्ता पेशे से वकील हैं। उनसे बात होते ही उन्होंने कहा कि ‘मैं क्या करूंगा उन लोगों का राशन कार्ड रखकर? उन्हें हर महीने राशन मिलता है। उनका नाम ऑनलाइन रजिस्टर पर देखकर राशन दे दिया जाता है। पूरी मुसहर बस्ती को इस बात की जानकारी है।

मुझे मुसहर बस्ती में चार लोगों ने राशन कार्ड दिखाया था। इसकी जानकारी जब मैंने उन्हें दी तो उन्होंने गुस्से में कहा कि इन चारों के पास कैसे है? लेना होता तो सबका लेता। इन लोगों ने या तो गुमा दिया है या फाड़ दिया होगा।

लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या पूरी बस्ती का राशन कार्ड फट सकता है या गुम हो सकता है।

मुसहर समाज में रोजगार और खाने के अभाव में बच्चे ऐसी ज़िन्दगी जीने को मजबूर

सरकार का दावा

दावे के अनुसार एक अरब 40 करोड़ आबादी वाले इस देश में सरकार लगभग अस्सी करोड़ आबादी को मुफ़्त राशन दे रही है अर्थात आधे से अधिक आबादी को। आलोचक कहते हैं कि रोजगार की कमी छुपाने के लिए सरकार ने 5 किलो मुफ़्त राशन देने की कवायद शुरू की थी।

इस बात के लिए जगह-जगह बड़े-बड़े बैनर लगाकर प्रचार किया बिना किसी शर्म या हिचक के। यह सोचने वाली बात है इतनी बड़ी आबादी के पास कोई ऐसा रोजगार नहीं है, जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सके। पूरी दुनिया में अलग-अलग देशों के कानून के अनुसार लोगों को मुफ़्त शिक्षा, स्वास्थ्य और पेंशन की सुविधा दी जाती है लेकिन कहीं भी मुफ़्त अनाज देकर लाचार नहीं बनाया जाता।

इतने लोगों को मुफ़्त अनाज बांटने का मतलब है कि एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषण की दृष्टि से असुरक्षित है। सरकार ने इनके लिए मुफ़्त राशन की व्यवस्था की है और इनकी आय के हिसाब से राशन कार्ड बनाया जाता है। इसके अंतर्गत गुलाबी कार्ड धारकों को बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) और सफेद कार्ड धारकों को एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) मिलता है।

गरीबी रेखा से नीचे का मानक है जिनकी सालाना आमदनी 10000 रुपए से कम है, उनका गुलाबी/लाल रंग का कार्ड बनाया जाता है और जिनकी सालाना आमदनी एक लाख बीस हजार हो उन्हें एपीएल कार्ड (सफेद कार्ड) दिया जाता है।

जबकि चक्का गाँव की मुसहर बस्ती में रहने वाले सभी दो सौ परिवारों के पास कोई भी काम-रोजगार नहीं है। महीने में 8 या दस दिन काम मिलता है और उसमें भी मजदूरी 200 रुपये से अधिक नहीं मिलती। जबकि यहाँ के चौथी बार प्रधान बने मधुबन यादव और कोटेदार बसंता गुप्ता ने इन सबके सफेद कार्ड बनवा दिए हैं और एक परिवार के सभी सदस्यों के नाम जोड़ने का काम भी नहीं किया। सफेद राशन कार्ड पर मिलने वाला राशन इनके लिए अपर्याप्त होता है।

15 जनवरी 2024 को आई एक रिपोर्ट के अनुसार योगी सरकार ने दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2013-14 में जहां 42.59 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, वहीं 9 वर्ष बाद 2022-23 में यह आंकड़ा घटकर 17.40 प्रतिशत पर आ गया। इसके अनुसार इन 9 वर्षों में करीब 5.94 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं।

विश्व जनसंख्या रिव्यू के अनुसार वर्ष 2024 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 25,70,54,568 करोड़ है, जिसमें वर्ष 2023 में गरीबी रेखा से नीचे का आंकड़ा 17.40 प्रतिशत पर आकर रुक गया। अर्थात अभी भी 4 करोड़ 25 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।

26 सितंबर 2024 को ईटीवी भारत में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक खाद्य एवं रसद विभाग के ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत हालिया आंकड़ों के अनुसार, कुल 8.31 करोड़ श्रमिकों का पंजीकरण किया गया है। इसमें 6.73 करोड़ पंजीकृत श्रमिक पहले से सरकारी राशन का लाभ ले रहे हैं। विभाग की तरफ से जारी सूचना के अनुसार सत्यापन के लिए श्रमिकों की कुल संख्या 1.58 करोड़ है, जिसमें 1.49 करोड़ श्रमिकों का सत्यापन किया जा चुका है। पात्र पाए गए 26.47 लाख श्रमिकों में 2.37 लाख को राशन का लाभ मिल रहा है। वहीं सत्यापन में 122.92 लाख श्रमिक अपात्र पाए गए हैं।

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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