वक्त की गति बहुत तेज होती है। लेकिन यह भी सापेक्षवाद के सिद्धांत का अनुसरण करता है। मतलब यह कि आदमी की गति जितनी तेज होती है, वक्त की गति भी समान अनुपात में ही तेज होती है। यानी सबकुछ आदमी पर निर्भर करता है। और जिम्मेदारियां इंसान की गति को बढ़ानेवाली महत्वपूर्ण कारक। पटना में रहते हुए जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और संभवत: यही वजह है कि मेरी अपनी गति भी बढ़ जाती है और इसी के अनुपात में वक्त की गति भी। इस बार वक्त की गति बहुत तेज है।
खैर, वक्त और मैं और एक-दूसरे से अपरिचित नहीं हैं। कल छह महीने बाद अपने शहर पटना घूमने निकला। हर बार पटना आने पर इतना समय निकाल ही लेता हूं कि अपने शहर को देख सकूं। वही शहर, जहां मैं पला-बढ़ा और सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की। हालांकि, अपने शहर को देखने की योजना कल अचानक बनी। दरअसल, हुआ यह कि कल परिजनों ने बाहर का खाना खाने की इच्छा व्यक्त की। मेरे अंदर की इच्छा भी जाग उठी। फिर यह तय करना थोड़ा जटिल था कि खाना कहां खाया जाय। जल्द ही इसका समाधान मिल गया। हम सभी ने यह निर्णय लिया कि समाजवादी खाने का आनंद लिया जाय। मेरे घर में नंदलालजी के होटल के खाने को समाजवादी खाना कहा जाता है।
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नंदलालजी का होटल वाकई में समाजवादियों का होटल रहा है। इसकी स्थापना 1968 में नंदलालजी ने की थी, जो स्वयं समाजवादी थे। यह होटल 1974 के आंदोलन के दौर में खासा चर्चित रहा था। तब यह होटल पटना के वीरचंद पटेल स्थित विधायक क्लब परिसर में हुआ करता था एक बड़े से पेड़ के नीचे। इसी वीरचंद पटेल पथ पर राज्य के तीन राजनीतिक दलों राजद, जदयू और भाजपा का प्रदेश मुख्यालय भी है। मुझे यह याद नहीं है कि वह पेड़ किस चीज का था। शायद वह बरगद था या फिर पाकुड़। लेकिन वह बहुत विशाल पेड़ था। उसकी उम्र कम से कम छह-सात सौ साल जरूर रही होगी। अब यह पेड़ नहीं है और ना ही नंदलालजी की वह दुकान अपने स्थान पर। वजह यह कि विधायक क्लब को तोड़ दिया गया है और वहां कोई आलीशान इमारत निर्माणाधीन है।
[bs-quote quote=”मेरे गांव की सड़क पर बिहार सरकार की कुदृष्टि है। पिछले एक दशक से इस सड़क की हालत जस की तस है। बरसात में इस सड़क पर अनेक मिनी तालाब बन जाते हैं। वैसे भी मैं अपने ही गांव की सड़क का अनजाना मुसाफिर बन चुका हूं। सामान्य तौर पर होता यह है कि जब रास्ते परिचित होते हैं तो आदमी के लिए उसपर चलना आसान हो जाता है। खैर, मैंने निर्णय लिया कि बेऊर गांव के रास्ते मुख्य शहर में प्रवेश किया जाय। हालांकि यह भी मेरे लिए मुश्किलों वाला ही साबित हुआ। बाइक को संकीर्ण गलियों से निकालने में मशक्कत करनी पड़ी।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
नंदलालजी के होटल के खास स्वाद की चर्चा के पहले यह दर्ज करना आवश्यक है कि इतिहास के लिहाज से इसका महत्व क्या है। हाल के अतीत में मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीस, कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद जैसे राजनेता इस होटल के लजीज समाजवादी खाने के शौकीन रहे। हालांकि नीतीश कुमार की उधारी भी इस दुकान में चलती थी। इन सब बातों की चर्चा मैंने वर्ष 2009 में अपनी एक रपट में की थी। तब मैं पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक आज में राजनीतिक संवाददाता था। इसी रपट में मैंने लालू प्रसाद के हवाले से इस होटल के इतिहास के बारे में लिखा था। एक खास बात यह कि इस होटल ने आजतक अपना मेन्यू नहीं बदला है। पहले भी इस होटल में शाकाहारी खाना मिलता था और आज भी यह शाकाहारी खाना ही अपने ग्राहकों को खिलाता है। अब यह मुख्य सड़क के किनारे अवस्थित है। नंदलालजी का निधन करीब डेढ़ दशक पहले हो गया था। उनके बाद उनके बेटों ने इस दुाकान को जिंदा रखा है।
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इस समाजवादी होटल में आज भी मकुनी और दो किस्म के चोखे के अलावा दाल-भात-तरकारी मिलती है। मैं और मेरे परिजन इस होटल के मकुनी और चोखे के मुरीद हैं। मकुनी एक तरह की रोटी है जिसमें सत्तू डाला जाता है और एक चोखा बैंगन तथा दूसरा चोखा आलू का। मकुनी को देसी घी के साथ परोसा जाता है। घी का स्वाद पूरे खाने को बेहद खास बना देता है।
तो कल यही तय हुआ कि हम नंदलालजी के होटल में जाएंगे और वहीं खाएंगे। लेकिन यह सोचना जितना आसान था, इसे अंजाम देना मुश्किल लगा। मुश्किल इसलिए कि मेरे गांव की सड़क पर बिहार सरकार की कुदृष्टि है। पिछले एक दशक से इस सड़क की हालत जस की तस है। बरसात में इस सड़क पर अनेक मिनी तालाब बन जाते हैं। वैसे भी मैं अपने ही गांव की सड़क का अनजाना मुसाफिर बन चुका हूं। सामान्य तौर पर होता यह है कि जब रास्ते परिचित होते हैं तो आदमी के लिए उसपर चलना आसान हो जाता है। खैर, मैंने निर्णय लिया कि बेऊर गांव के रास्ते मुख्य शहर में प्रवेश किया जाय। हालांकि यह भी मेरे लिए मुश्किलों वाला ही साबित हुआ। बाइक को संकीर्ण गलियों से निकालने में मशक्कत करनी पड़ी। बाइक पर पीछे बैठी मेरी पत्नी रीतू मुझे बार-बार सचेत भी कर रही थी। उसे इस गांव की गलियों का अनुभव कुछ अधिक ही है। वजह यह कि इसी बेऊर गांव में उसकी अपनी फुआ रहती हैं।
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खैर, हम किसी तरह मुख्य सड़क पर पहुंचे तब अहसास हुआ कि हम अपने शहर में हैं। हमारा पहला डेस्टिनेशन नंदलालजी का होटल ही था। वजह यह भी कि भूख लग चुकी थी। आगे योजना पटना में गंगा नदी किनारे नवनिर्मित सड़क पर जाने की थी।
[bs-quote quote=”नंदलाल जी के होटल के खास स्वाद की चर्चा के पहले यह दर्ज करना आवश्यक है कि इतिहास के लिहाज से इसका महत्व क्या है। हाल के अतीत में मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीस, कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद जैसे राजनेता इस होटल के लजीज समाजवादी खाने के शौकीन रहे। हालांकि नीतीश कुमार की उधारी भी इस दुकान में चलती थी। इन सब बातों की चर्चा मैंने वर्ष 2009 में अपनी एक रपट में की थी। तब मैं पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक ’आज’ में राजनीतिक संवाददाता था। इसी रपट में मैंने लालू प्रसाद के हवाले से इस होटल के इतिहास के बारे में लिखा था। एक खास बात यह कि इस होटल ने आजतक अपना मेन्यू नहीं बदला है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हम वीरचंद पटेल पथ पहुंचे और जदयू के प्रदेश कार्यालय को पार करने के बाद ही मुझे याद आया कि मुझे तो इस बात की जानकारी ही नहीं है कि नंदलालजी का वह पुराना होटल अब कहां है। वजह यह कि 2017 में जब मैं दिल्ली अस्थाई तौर पर शिफ्ट हो रहा था तभी वह होटल अपनी जगह से हट चुका था। फिर जदयू के प्रदेश कार्यालय के आगे सड़क पर एक दूसरे दुकानदार से पूछा तो जानकारी मिली कि आगे एक मंदिर है और उसके ठीक आगे और होटल पाटलिपुत्र अशोक के पहले नंदलालजी की दुकान है।
होटल पाटलिपुत्र अशोक से एक बात याद आयी। वह 2012 का साल था। मुंगेर के भूतपूर्व लोकसभा सदस्य डीपी यादव तब एक दिन इसी होटल में ठहरे थे। उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने नंदलालजी के होटल में चलने को कहा। डीपी यादव बड़े लिक्खाड़ थे। अपने जीवन में उन्होंने बिहार पर केंद्रित एक दर्जन से अधिक पुस्तकों व लघु पुस्तिकाओं की रचना की। वे रईस परिवार के थे और कांग्रेसी भी। वर्ष 1980 में उन्होंने मुंगेर से जीत हासिल की थी। मैं यह देखकर हैरान था कि उनके जैसा आदमी भी होटल पाटलिपुत्र अशोक जो कि भारत सरकार के अधीन एक होटल है, का खाना छोड़कर नंदलालजी के होटल में खुले आसमान के नीचे खटिया पर बैठकर मकुनी और चोखा खा रहा था।
खैर, कल मैं अपने परिजनों के साथ पहुंचा। नंदलालजी के बड़े बेटे (नाम याद नहीं है) मेरे परिचित थे। उनकी जगह नये चेहरे थे। लेकिन वह होटल नंदलालजी का ही है, इसकी पुष्टि वहां लगे साइन बोर्ड पर उनकी तस्वीर कर रही थी। हालांकि साइन बोर्ड पर मकुनी की जगह लिट्टी शब्द ने मुझे चौंका जरूर दिया। लेकिन तब चौंकने का समय नहीं था। मकुनी की गंध ने भूख को चरम तक पहुंचा दिया था। कीमत के बारे में पूछा तो चालीस रुपए प्लेट और हर प्लेट में चार मकुनी। रीतू को घी पसंद नहीं है तो उसने बिना घी और मैंने घी वाले मकुनी खाये। फिर बच्चों के लिए भी वहीं खाना पैक कराया। अब बारी आगे की योजना को अंजाम देने की थी। लेकिन जैसे ही बेली रोड पर पहुंचा तो रीतू ने इच्छा व्यक्त की कि उसे मौर्या लोक के गोलगप्पे खाने हैं। फिर क्या था। सारी योजना धरी की धरी रह गई और हम मौर्या लोक परिसर में थे। वहां विवेकानंद की मूर्ति के पीछे बाइक पार्क किया। वहीं पर पटना के सांस्कृतिक और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात हुई। इनमें प्रिय विनित भाई के अलावा अनीश अंकुर, मनजीत साहू, एक समय जदयू के प्रदेश प्रवक्ता रहे नवल किशोर शर्मा और परिचित पत्रकार राजेश ठाकुर आदि शामिल हैं। यह एक अलहदा अनुभव रहा। सभी से करीब छह साल के बाद मुलाकत हो रही थी। हालांकि दुख भी हुआ। मेरी आंखें एसए शाद को खोज रही थीं। जबकि मैं वाकिफ था कि दो साल पहले ही उनका निधन हो गया था।
रीतू को गोलगप्पे खाने थे। उसने खाए और फिर उसकी इच्छा भेलपूरी खाने की हुई। उसके साथ मेरे दो बच्चों लड्डू और जगलाल दुर्गापति ने भी मस्ती की। जगलाल दुर्गापति ने तो कल मुझसे यह वादा भी लिया कि वह यहां मसाला डोसा खाने आएगा।
हम लौट रहे थे। वीरचंद पटेल पथ पर बने पुल से गुजर रहा था। वहां सुल्तान पैलेस को अंधेरे में देखकर मन खिन्न हो गया। यह आलीशन इमारत कभी वीरचंद पटेल पथ की सबसे खूबसूरत इमारत हुआ करती थी। कुछ दिनों पहले ही मुझे यह जानकारी मिली थी कि राज्य सरकार इस इमारत को ढाह देने की योजना पर काम कर रही है।
मैंने रीतू को इसके बारे में बताया तो उसके मुंह से निकला- जा…
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।