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ग्राउंड रिपोर्ट

उप्र कारखाना संशोधन विधेयक 2024 : मजदूरों को गुलाम बनाने का कानून

सापेक्षिक विकास की दर एक भ्रामक संख्या होती है। औद्योगिक विकास की दर हमेशा गुणात्मक छलांग लेकर आती है। यह गणित की सरल एक रेखीय गति में नहीं होती है। मजदूरों के 12 घंटे वाले कानून का संशोधन सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं है बल्कि तमिलनाडु, कर्नाटक से लेकर राजस्थान तक में विकास की छलांग लगाने  के लिए 12 घंटे काम का प्रावधान चल रहा है। ये सारी कोशिशें पूंजी निवेश की इस उम्मीद पर की जा रही है कि चीन से निकली पूंजी भारत में आ गिरे और भारत एशिया का नया ताइवान बन जाए।

उत्तर प्रदेश के विधान सभा के  वर्षाकालीन सत्र में सरकार ने 1 अगस्त को उत्तर प्रदेश कारखाना संशोधन विधेयक, 2024 पेश किया। जिसे महज एक दिन बाद पास कर लागू दिया गया। इस पर किसी तरह की बहस या सवाल-जवाब नहीं हुए। इसके साथ ही इस विधयेक में 66 संशोधन किए गए हैं।

इस विधेयक में जो संशोधन किए गए हैं, उसमें उत्तर प्रदेश में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के काम के घंटे बढ़ाकर 12 घंटे किया गया है। जबकि  सप्ताह में निर्धारित काम की अवधि 48 घंटे निर्धारित है, उससे अधिक काम करने की अवस्था में अधिक वेतन देना होता है।

साथ ही महिलाओं की सहमति होने पर उनसे रात्रि की पाली में उनकी ड्यूटी कराने का प्रावधान भी शामिल किया गया है। यहां यह बताना जरूरी है कि अभी तक उत्तर प्रदेश में एक दिन में 9 घंटे काम लिया जा सकता है और सप्ताह में 48 घंटे की अवधि के भीतर रहने पर इस पर अतिरिक्त भुगतान की व्यवस्था नहीं है। इन घंटों में विश्राम की अवधि भी शामिल है।

इसके पहले कोरोना महामारी के दौरान उत्तर-प्रदेश सरकार ने कारखाना कानूनों में ‘आपात स्थिति के हवाले’ से कई सारे संशोधन किए थे। जिसमें मजदूरों के काम के घंटों की अवधि प्रतिदिन 12 घंटे कर दी गई थी। जहां पर मालिक को  अतिरिक्त श्रम के बदले अतिरिक्त भुगतान किया जाना था। साथ ही उन दिनों मजदूरों के यूनियन से जुड़े अधिकार और हड़ताल जैसी प्रतिरोध को निषिद्ध कर दिया गया था। जबकि मालिकों को मजदूरों की छंटनी का अधिकार बढ़ा दिया गया था।

महामारी का दौर खत्म होने के बाद भी ये प्रावधान बदस्तूर जारी थे। इसके खिलाफ ट्रेड यूनियनों ने उत्तर प्रदेश की उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर इसे निरस्त करने की मांग की थी। मई, 2022 में माननीय कोर्ट ने एक अधिसूचना के जरिए उत्तर प्रदेश द्वारा कोरोना महामारी के दौरान लाए गये संशोधित श्रम कानूनों को निरस्त कर दिया गया था।

अब एक बार फिर इसे दोबारा एक संशोधन बिल द्वारा उत्तर प्रदेश के मजदूर वर्ग पर उजरती गुलामी को और भी बदतर बना देने का प्रावधान विधानसभा में पास कर लागू कर दिया गया है।

इसे लेकर लखनऊ सहित कई जिलों में विभिन्न ट्रेड यूनियनों ने इसका पुरजोर विरोध किया और राज्यपाल के नाम ज्ञापन देकर उन्हें इस पर अपनी संस्तुति न देने का आग्रह किया है। इस समय उत्तर प्रदेश के ईपोर्टल पर 8 करोड़ मजदूरों का पंजीकरण है।

यह सरकार किसानों और मजदूरों के खिलाफ काम कर रही है 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई मामलों में प्रधानमंत्री मोदी से भी आगे निकल जाने की होड़ में हैं। यह होड़ दोनों के बीच की टकराहटों और राजनीतिक गलियारों में उठी फुसफसाहटों में तो देखी ही गई है, यह उस समय और भी साफ हो गई, जब दोनों के बीच औपचारिक व्यवहार में हुई तल्खी भी सामने आई। जिस समय प्रधानमंत्री मोदी ने देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डालर का बना देने की घोषणा की थी, उसके कुछ ही दिनों बाद योगी ने उत्तर प्रदेश के बजट को एक ट्रिलियन डॉलर का बना देने दावा किया। उत्तर प्रदेश जिसकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार खेती  है, उसे दूर तक पहुंचा देने की घोषणा अतिरंजना की तरह थी। ये दावे उन दिनों किए गए थे जब उत्तर प्रदेश की खेती पर शहर से पलायन कर रहे मजदूरों का अतिरिक्त दबाव तेजी से बढ़ा था।

 इसी साल के अप्रैल महीने में उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास अधिकरण के अधिकारी ने मीडिया को बताया कि सरकार के पास 25 हजार एकड़ जमीन का बैंक है और जरूरतमंद उद्योगों को हम इसे तुरंत उपलब्ध करा देंगे।

इस फरवरी में जारी हुए वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में आए आंकड़ों के हिसाब से महामारी के पहले उत्तर प्रदेश की कुल जमा औद्योगिक विकास की गति 1.4 प्रतिशत थी  जो 2022 में आकर 6.6 से 7 प्रतिशत पर पहुंची। ऐसी ही वृद्धि रोजगार में भी दिखाई दी। हालांकि सकल मूल्य संवर्धन में यह बढ़ोत्तरी बहुत अधिक नहीं है। वर्ष  2016 से 2020 तक 5.1 से 5.7 तक बढ़ी जो 2022 में 5.9 प्रतिशत तक पहुंची जबकि वर्ष 2023 में भारत के अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश में उद्योगों की संख्या की बढ़ोत्तरी अन्य राज्यों के मुकाबले वृद्धि दर में सर्वोच्च स्तर 16.1 प्रतिशत तक पहुंची।

उपरोक्त आंकड़ों से यह बात सामने आई कि कुल उत्पादन और सेवा से हासिल होने वाला सकल मूल्य संवर्धन का हिस्सा तुलनात्मक तौर पर कम है, भले ही सकल घरेलू उत्पाद का आयतन बढ़ गया हो। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी है कि औद्योगिक इकाइयों की कुल पूंजी में उत्पादक पूंजी का हिस्सा अभी भी पिछड़ा हुआ है। यह मूलतः भारत की आम औद्योगिक संरचना का ही एक प्रतिरूप है, जिसमें औद्योगिक घरानों की पूंजी बड़ी होने की बावजूद उत्पादकता और रोजगार उसके अनुरूप नहीं है। जिसके कारण सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में सकल मूल्य संवर्धन में तुलनात्मक रूप से कम होती है।

उप्र के परंपरागत उद्योग और काम श्रमिकों और आर्थिक मंदी का सामना कर रहे हैं

उत्तर प्रदेश की औद्योगिक संरचना बहुस्तरीय और जटिल है। एक समय कपड़ा उद्योग की कारखाना व्यवस्था में कानपुर सबसे ऊपर था, जिसे एक समय में पूरब का मैनेचेस्टर कहा जाता था, जो देखते-देखते तबाह होता चला गया।

गोरखपुर और बस्ती में कपड़ा उद्योग लगातार मंदा होता गया। धागों पर आधारित एक कालीन उद्योग, जिसका केंद्र एक समय वाराणसी, भदोही और उससे सटे इलाके थे। अब कालीन उद्योग भी संकट से गुजर रहा है।

हस्तकला उद्योग जिसमें पीतल पर काम करने से लेकर मिट्टी और सिरामिक से बनने वाली वस्तुएं हैं। ये भी मुख्यतः परिवार के श्रम पर चलने वाली उत्पादन व्यवस्था है। उसमें भी काम करने वालों की कमी लगातार बनी हुई है।

 कन्नौज क्षेत्र में इत्र और कानपुर-आगरा क्षेत्र में चमड़े का परम्परागत उद्योग है, जिसमें एक बड़ी श्रम शक्ति परिवारों से आती है, साथ ही कुछ श्रम उजरती होते हैं। इसे सरकार की ओर से उद्योग का दर्जा दिया गया है।

20वीं सदी की शुरुआत में स्थापित हुई, गन्ना मिलें अब पूर्वांचल में दम तोड़ रही हैं। गन्ना उत्पादन खेती से जुड़ा हुआ है लेकिन इससे बनने वाले उत्पाद फैक्टरी सिस्टम का हिस्सा है। यह महुए की तरह ही है जिसका उत्पादन का मूल हिस्सा न्यूनतम मुनाफा कमाता है और आज इस कारखाना सिस्टम में किसान और मजदूरों का वर्षों से भुगतान लंबित पड़ा हुआ है।

उप्र में बढ़े हुई रोजगार आंकड़ों का गणित क्या कहता है 

उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में जब रोजगार में हुई वृद्धि की दर में बढ़ोत्तरी का आंकड़ा दिखाया, उससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि कोविड महामारी के दौरान अपने निवास स्थान पर लौटने के बाद परिवार द्वारा चलने वाले हथकरघा, हस्तकला या अन्य इसी तरह के उद्यमों में बढ़ी हुई हिस्सेदारी की वजह से हुआ है या नये उद्योगों में काम मिलने की वजह से रोजगार में वृद्धि हुई है।

उत्तर प्रदेश में शहरों के विकास के साथ बहुत ईंट भट्ठा उद्योग तेजी से बढ़ा है। इसमें लाखों मजदूर काम करते हैं। सरकार ने इसे लेकर समय-समय पर कई दिशा निर्देश जारी किये और इसे उद्योग का दर्जा दिया। लेकिन, यहां भी बाहर से आए श्रमिक मूलतः पूरे परिवार के साथ काम करते हैं और कार्य दिवस की कोई गिनती नहीं रहती।

उत्तर प्रदेश की कुल जीडीपी में अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हिस्सा आधे से अधिक है जबकि बुंदेलखंड का हिस्सा लगभग 6 प्रतिशत है। पूर्वांचल की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। इस बहुविध स्थिति में ‘प्रत्येक जिला की विशिष्ट औद्योगिक विकास’ की नीति का आधार वहां की स्थितियों के साथ जुड़ेगा या औद्योगिक घरानों की चाह से तय होगा, यह भी औद्योगिक नीतियों में साफ नहीं दिखता है।

‘हाई टेक’ उद्योग का दावा और हवाई अड्डों की भरमार से संरचनागत और औद्योगिक विकास का दावा उत्तर प्रदेश की वास्तविक विकास से मेल नहीं खाती है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, सिंगरौली, मिर्जापुर विंध्य क्षेत्र में विद्युत उत्पादन और खनिज दोहन का इतिहास 70 साल पुराना है।

यहां की जनजातीय आबादी को विस्थापित करते हुए बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई और नदी परियोजना के साथ-साथ विकास के टापू खड़े हुए। ज्यादातर सीमेंट और एल्युमीनियम की फैक्टरियाँ इसी इलाके में हैं।

उप्र के विकास में किसानों की ज़मीनें परियोजनाओं जा रही हैं 

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार लगभग 23 प्रतिशत लोग गरीबी की जिंदगी जीते हैं। 2011 के आंकड़ों में उत्तर प्रदेश के 27 प्रतिशत परिवार भूमिहीन थे। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के 15 जून, 2024 को डिजिटल पेज पर पंकज शाह की रिपोर्ट के मुताबिक जिस तरीके की विकास की नीति अपनाई जा रही है उससे प्रतिवर्ष 50 हजार हेक्टेयर जमीनों को विभिन्न परियोजनाएं खा जा रही हैं। इसमें एक्सप्रेस वे शहरी निर्माण शामिल हैं।

यहाँ की औद्योगिक संरचना में परम्परागत उद्योग, जिनका इतिहास सैकड़ों साल का है, अब भी रोजगार सृजन का मुख्य आधार बना हुआ है। इनके अतिरिक्त उद्योग का कोर सेक्टर या प्राथमिक क्षेत्र की उत्पादन गतिविधियां हमें सर्वाधिक मिर्जापुर, सोनभद्र, सिंगरौली के इलाके में ही दिखता है, जिसकी संरचना में वहां की आबादी की हिस्सेदारी नगण्य स्तर की है।

नोएडा, ग्रेटर नोएडा, हापुड़, मेरठ, बरेली जैसे इलाकों में लगाई गई फैक्टरियाँ या तो असेम्बली लाइन के आधार पर काम करती हैं या गुड्स प्रोडक्ट की दूसरे या तीसरे स्तर के  कार्य को अंजाम देती हैं।

पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी देश तकनीक और प्राथमिक पूंजी निवेश को अपने देश में अंजाम देते हैं। सामान बनाने की प्रक्रिया को वे चीन, कोरिया, फिलीपीन्स और मैक्सिको जैसे देश में कराते हैं। इसके बाद वे इस बने मॉल को साम्राज्यवादी पूंजी अपने हाथ में लेती है और इसकी मार्केंटिंग का काम करती है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन इसे मुनाफे का स्माइली बताते हैं। जिसमें उठते हुए ग्राफ साम्राज्यवादी पूंजी के हाथ में रहता है जबकि नीचे गिरता हुआ हिस्सा तीसरी दुनिया के पास जो सर्वाधिक श्रम लगाता है।

लंबी अवधि तक काम करने वालों का वेतनमान अब तक पुराना चला आ रहा है, पूंजी निवेश के एक छोर पर खड़ी है। इसे साम्राज्यवादी पूंजी की गुलामी न कहा जाये तो क्या कहा जाये? जबकि उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में परम्परागत पूंजी, कुशल श्रम आवश्यक पूंजी की उपलब्धता, सहयोग और प्रोत्साहन के बिना लगातार बदहाली को झेलने के लिए मजबूर बनी हुई है।

यहाँ की अर्थव्यवस्था के इस ढांचे में यदि हम कारखाना कानून के उस संशोधित हिस्से को रखकर देखें, जिसे सिर्फ आपात स्थितियों के दौरान ही लागू किया जा सकता है और जिसकी अवधि 3 महीने की होनी चाहिए; तब हमें एक बेहद उलझी हुई स्थिति दिखेगी। खासकर तब और भी जब पिछले कई सालों से काम के घंटे बढ़ाने के संशोधन तो आ रहे हैं लेकिन न्यूनतम वेतन का पुनरीक्षण टाला जा रहा है।

आज इस प्रदेश में न तो आपात् स्थिति है और न ही इसकी कोई घोषणा है। हम जरूर ही मेरठ-हापुड़ कोरीडोर में संरचनागत विकास की योजनाएं देख रहे हैं, प्रदेश में एक के बाद एक एक्सप्रेसवे और कई शहरों में उद्योग क्षेत्र की घोषणाएं देख रहे हैं। जेवर में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने का उद्घाटन भी देखा गया है। लेकिन, इन खर्चों के अनुरूप निवेश नहीं हुआ।

सरकार द्वारा फरवरी में जारी किया बजट का महज 13 प्रतिशत हिस्सा खेती, पादप, ग्रामीण विकास, कोऑपरेटिव और पानी आपूर्ति के हिस्से में आया है। 5 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक कल्याण के लिए। 19.2 प्रतिशत हिस्सा हवाई यात्रा की सुविधाओं और संरचनाओं के विकास के लिए था। जबकि पूंजीगत खर्चों के हिस्से में लगभग 2 लाख करोड़ रूपये का प्रावधान हुआ।

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार विकास के लिए जो रास्ता बना रही है उसमें दावा तो 21वीं सदी का है लेकिन इसके लिए वह जिन कानूनों को ला रही है, वे 150 साल पुराने भारत और इंगलैंड की फैक्टरियों के हालात को पुनर्जीवित कर रही है। हम जानते हैं कि इतिहास की गति पीछे की ओर नहीं जाती है, भले यह ऐसा प्रतीत होती हो। इसकी गति तो आगे की ओर ही है।

भाजपा और योगी सरकार लोगों में सांस्कृतिक उत्थान के नाम पर जितना भी धर्म की घुट्टी पिलाये, न्याय के नाम पर बुलडोजर और एनकाउंटर का सहारा ले, उसके विकास के सारे बिंदु अतंतः मजदूरों के सस्ते श्रम पर ही टिकेंगे। इसके लिए वह जिन प्रावधानों में मजदूरों को 12 घंटे काम के हालात में घसीटने की तैयारी में हैं, वे मजदूर 150 साल पुराने लोग नहीं हैं। वे भी 21वीं सदी के युवा हैं और वे पूंजी के मुनाफा और पूंजीपतियों की  नीति को खूब समझते हैं।

उत्तर प्रदेश का मजदूर बहुत सारे राज्यों में मजदूरी करते हुए एक विशाल अनुभव से लैस है। निश्चित ही मजदूर अपने न्यूनतम अधिकार की लड़ाई में पीछे नहीं हटेगा। काम के घंटे आठ मजदूरों द्वारा हासिल एक वैश्विक अधिकार है।

अंजनी कुमार
अंजनी कुमार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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