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‘लाभार्थी बनाम भाजपा’ के साथ ‘सत्ता बनाम भुक्तभोगी’ के मुद्दे पर पड़ताल

आज फिर से उत्तर प्रदेश का चुनावी पारा  घटता-बढ़ता दिखाई दे रहा है। कभी साइकिल तेज रफ़्तार पकड़ती दिखाई देती है, तो कभी भगवा रंग ज्यादा चढ़ता दिखाई पड़ता है। इस  दिनों चुनावी बयानबाजी भी अपने चरम पर है। कोई मुफ्त में स्कूटी तो कोई लैपटाप और टैबलेट देने का वादा कर रहा है। ऐसे […]

आज फिर से उत्तर प्रदेश का चुनावी पारा  घटता-बढ़ता दिखाई दे रहा है। कभी साइकिल तेज रफ़्तार पकड़ती दिखाई देती है, तो कभी भगवा रंग ज्यादा चढ़ता दिखाई पड़ता है। इस  दिनों चुनावी बयानबाजी भी अपने चरम पर है। कोई मुफ्त में स्कूटी तो कोई लैपटाप और टैबलेट देने का वादा कर रहा है। ऐसे में मीडिया ने भी एक नया शब्द ‘लाभार्थी’ गढ़ दिया है, जिसे सत्ताधारी पार्टी भाजपा भुनाने में कोई कोर-कसर नही छोड़ रही है।

ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि क्या सचमुच में कोई ऐसा वर्ग है, जिसके ‘अच्छे दिन’ आ चुके हैं। जिसे सरकारी योजनाओं के माध्यम से गरीबी रेखा से बाहर निकाला जा चुका है, जिसे ‘लाभार्थी’ कहा जा सके। हालांकि, इन चुनावी जुगलबंदियों की तह में जाने से पहले हमें सिलसिलेवार यह भी जानना जरूरी है कि विपक्ष के पास इन नए अफसानों का जबाब क्या है। अब कौन से सामाजिक मुद्दे इस चुनाव में ज्यादा हावी दिखाई दे रहे हैं।

क्या हैं प्रमुख चुनावी दांव-पेंच

बीबीसी संवाददाता गीता पांडे लिखती हैं, ‘कोरोना महामारी के पहले यूपी की केवल 9.4 फ़ीसदी महिलाएं काम करती थीं, लेकिन ताज़े आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो साल की महामारी के दौरान यह आंकड़ा घट गया। बीजेपी सांसद गीता शाक्य ने इस पर सहमत होते हुए इसे चिंताजनक बताया और कहा कि वे इस मुद्दे को पीएम मोदी के सामने उठाएंगी। ‘[i]सुल्तानपुर जिले के तंडवा गाँव के रहने वाले दुर्गा प्रसाद कहते हैं कि अधिकांश पिछड़ा वर्ग इस बार मंहगाई से मुक्ति, रोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा सामाजिक न्याय की खातिर सरकार को वोट की चोट देने के लिए मन बना चुका है।’

पुरानी पेंशन का मुद्दा

अप्रैल 2005 के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की केंद्र सरकार ने नियुक्तियों के लिए पुरानी पेंशन को बंद करके नई पेंशन योजना लागू की थी। केंद्र सरकार के बाद पुरानी पेंशन व्यवस्था को ख़त्म करने में राज्य भी पीछे नहीं रहे। समय बीतता गया और आज लाखों सरकारी कर्मचारी नई पेंशन व्यवस्था से असंतुष्ट नजर आ रहे हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने घोषणापत्र में पुरानी पेंशन को पुनः लागू करने की घोषणा भी कर चुके हैं, जिसका तत्कालीन प्रभाव इस चुनाव में अखिलेश के पक्ष में दिखाई दे रहा है। संभवतः भाजपा को उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

[bs-quote quote=”यूरिया का बैग पहले 50 किलो का होता था, जिसे योगी सरकार ने घटाकर 45 किलो कर दिया। आज अखिलेश यादव तथा जयंत चौधरी विभिन्न राजनीतिक मंचों से भाजपा पर तंज कसते हुए कहते हैं कि योगी ने पांच किलो यूरिया चोरी कर ली। किसानों को फसलों की सिंचाई करने के लिए डीजल की आवश्यकता होती है तथा डीजल तथा बिजली के आसमान छूते दामों के कारण गरीब किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मंहगी बिजली से मुफ्त बिजली की ओर 

राहुल गोयल लिखते हैं कि आज कोरोना के इस दौर में गरीब जनमानस बढ़े हुए बिजली के दामों से त्रस्त है क्योंकि योगी सरकार में उसे प्रति यूनिट 3 रूपये (ग्रामीण क्षेत्र में) से 6 रूपये (शहरी मीटर्ड कनेक्शन)[ii] तक देना पड़ता है। यही कारण है कि इस बार बिजली के दाम भी एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है। कुछ समय पहले प्रमुख विपक्षी दल समजवादी पार्टी ने 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा कर चुकी है। ऐसे में प्रति उपभोक्ता को हर महीने लगभग एक से दो हजार रूपये तक की बचत होगी। इस संदर्भ में योगेश भदौरिया कहते हैं कि ‘यूपी में करीब 3 करोड़ उपभोक्ता हैं। इसमें से घरेलू उपभोक्ताओं की संख्या 2 करोड़ 70 लाख है। इसमें 2 करोड़ 40 लाख लोग 300 यूनिट फ्री बिजली पाने केदायरे में आते हैं। वहीं किसानों की बात करें तो उनकी कुल संख्या लगभग 13 लाख है।’

उत्तर प्रदेश का पड़ोसी केंद्र शासित राज्य दिल्ली में घरेलू उपभोक्ताओं को प्रति माह 200 यूनिट बिजली मुफ्त में दी जाती है। दक्षिण भारत के राज्यों में भी किसानों के लिए मुफ्त या कम दाम पर बिजली उपलब्ध कराई जाती है। उदाहरण स्वरूप, 200 यूनिट बिजली खपत करने वाले घरेलू उपभोक्ताओं को मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल एक सौ फीसद सब्सिडी देते हैं और 201 से 400 यूनिट वालों को 50 फीसद सब्सिडी देते है। जिसका दबाव योगी सरकार पर आना स्वाभाविक है।

शिक्षामित्रों का मुद्दा

अखिलेश यादव 2012 में मुख्यमंत्री बने तथा दो वर्ष के भीतर पहले चरण के शिक्षामित्रों को बीटीसी की ट्रेनिंग मिल गई। अविनाश कहते हैं कि ‘पहले चरण में कुल 58 हजार शिक्षामित्र थे, जिन्हें सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। दूसरे बैच की ट्रेनिंग 2015 में पूरी हुई और 5 मई 2015 को करीब 90 हजार शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। सहायक अध्यापक की नियुक्ति से ठीक पहले इनकी तनख्वाह 1800 रुपये से बढ़कर मात्र 3500 रुपये तक पहुंची थी। सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त होने के बाद इनकी तनख्वाह 38,878 रुपये हो गई।‘ अखिलेश यादव का मुख्यामंत्रितव काल समाप्त होने के बाद 25 जुलाई 2017 का दिन आज भी हमारे मष्तिष्क पर एक साफ़ संदेश अंकित कर जाता है, क्योंकि लाखों शिक्षामित्रों के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट का निर्णय आया तथा उन्हें फिर से अनियमित कर दिया। जिसके विरोध में शिक्षामित्रों ने लखनऊ में सामूहिक तौर पर अपने सिर मुंडवाए और विरोध प्रदर्शन किया। वर्तमान उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी शिक्षामित्रों के साथ शत्रुवत व्यवहार करते हुए उनकी आवाज को दबा दिया। अब अखिलेश यादव पुनः शिक्षामित्रों को नियमित करने की घोषणा कर चुके हैं। ऐसे में अखिलेश यादव के पक्ष में लाखों शिक्षामित्रों का सहयोग मिलना लाजमी है।

[bs-quote quote=”प्रत्येक सरकार में गरीबों के लिए कई योजनायें लायी जाती हैं, लेकिन उसका उद्देश्य वोट प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। जिसे मीडिया आज ‘लाभार्थी’ कहकर प्रोजेक्ट कर रही है, उन लाभार्थियों के मन में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि चुनाव के समय मुफ्त बिजली देने का वादा करने वाली योगी सरकार ने पिछले पांच वर्षों में बिजली के बढ़ते दामों से सहूलियत क्यों नही दी?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पिछड़े वर्गों के हितों की अनदेखी तथा एनएफएस घोटाला

एक तो बेरोजगारी की मार और ऊपर से पिछड़े वर्गों के हितों की अनदेखी की लगातार खबरें आ रही हैं। उदाहरणस्वरूप, हाल ही में उत्तर प्रदेश के प्राथमिक शिक्षा विभाग में 69 हजार शिक्षक पद हेतु रिक्तियां निकाली गई। पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों का आरोप है कि शिक्षक भर्ती में आरक्षित वर्ग के लिए आवंटित सीटें सुनियोजित तरीके से अनारक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को दे दी गईं। पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों की लगभग 6 हजार सीटों की हकमारी की गई। इस मामले को अभ्यर्थियों ने कोर्ट में ले गए तथा साथ ही मुख्यमंत्री आवास और भाजपा कार्यालय के सामने प्रदर्शन भी किया गया। पिछले कई वर्षों से सरकारी संस्थानों में पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ कहकर हकमारी की जा रही है। जिसे बुद्धिजीवी वर्ग ने एनएफएस घोटाला नाम दिया है।

जीरो एडमिशन की नीति

वर्ष 2002-03 में केंद्र सरकार ने सरकारी सहायता प्राप्त और निजी शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति व जनजाति के शत-प्रतिशत छात्रों को निशुल्क प्रवेश की व्यवस्था लागू की थी। इसे यूपी में भी लागू किया गया, क्योंकि इस मद में जरूरी बजट का बड़ा हिस्सा केंद्र से ही मिलता है। मायावती के कार्यकाल से लेकर से अब तक अनुसूचित जाति व जनजाति के गरीब छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों में निशुल्क प्रवेश दिया जाता था। लेकिन अब सरकारी और सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में लाभ प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों को इसका लाभ मिलना बंद हो चुका है। इस संदर्भ में ईश्वर आशीष का मानना है कि ‘नए नियम से निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने वाले इन वर्गों के लगभग 2-3 लाख विद्यार्थी प्रभावित हुए। अब इन छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों में फीस देकर एडमिशन लेना पड़ता है’।‘

किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचाते पशु

अब यह किसी से छिपा नहीं है कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व काल में आवारा पशुओं में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। जिसके पीछे इस सरकार की कई नीतियां जिम्मेदार हैं। कड़ाके की ठण्ड में भी किसानों को रातभर खेतों की रखवाली करना पड़ रहा है। ग्रामीण इलाकों में आवारा पशुओं का मुद्दा अन्य मुद्दों पर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है। अयोध्या जिले के लौटन का पुरवा गाँव के निवासी प्रेम कुमार बताते हैं कि ‘मेरे गाँव के कई परिवार कई वर्षों से सिंचाई की सुविधा के अभाव में खरीफ की खेती करना बंद कर चुके है। अब आवारा पशुओं के कारण रबी की फसल पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं।‘ हालांकि कई लोग कंटीले तार लगाने की बात कर रहे हैं, लेकिन गरीब किसानों के लिए प्रति एकड़ 50 से 60 हजार रूपये कंटीले तारों पर खर्च करना मुमकिन नहीं है।

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कर्मचारियों की छंटनी

कोरोना महामारी के कारण बहुत सीमित कर्मचारियों को रखा जा रहा है। लाककडाउन से चरमरायी अर्थव्यवस्था और लघु उद्योग को भारी नुकसान भी हो चुका है, जिसके कारण अनेक कर्मचारियों की छंटनी कर दी गई। अगर हम बेरोजगारी के आंकड़ों पर नजर डालें तो हमें मालूम होता है कि पिछले पांच वर्षों में बेरोजगारी की दर लगभग दुगनी हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा के नीचे आ चुके हैं।

अन्नदाताओं का जनांदोलन

किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को इस बार पलट दिया है। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट बिरादरी के साथ तथा कुछ अन्य कृषिकार्य में संलग्न जातियां इस आंदोलन को अपनी अस्मिता से जोड़कर देख रही हैं तथा भाजपा से काफ़ी नाराज नजर आ रही हैं। आज इस आंदोलन के एक बड़े नेता राकेश टिकैत खुलकर सत्ता पक्ष के खिलाफ वोट देने की बात दोहरा रहे हैं तथा साथ ही सभी फसलों पर न्यूतम समर्थन मूल्य को लागू करने की हिमायत कर रहे हैं। अखिलेश यादव ने भी अपने घोषणापत्र में लिखा है कि ‘सभी फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान किया जाएगा और गन्ना किसानों को 15 दिन के अंदर भुगतान सुनिश्चित किया जाएगा।‘

यूरिया तथा डीजल की मार

यूरिया का बैग पहले 50 किलो का होता था, जिसे योगी सरकार ने घटाकर 45 किलो कर दिया। आज अखिलेश यादव तथा जयंत चौधरी विभिन्न राजनीतिक मंचों से भाजपा पर तंज कसते हुए कहते हैं कि योगी ने पांच किलो यूरिया चोरी कर ली। किसानों को फसलों की सिंचाई करने के लिए डीजल की आवश्यकता होती है तथा डीजल तथा बिजली के आसमान छूते दामों के कारण गरीब किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है।

उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक से सत्ता की चाभी सवर्णों के हाथों से हस्तांतरित होकर दलित-बहुजन नेताओं के हाथ में गई। जिसे मनुवादी मीडिया व तथाकथित उच्च-जाति के नेताओं ने जंगलराज, गुंडाराज और जातिवाद के रंग में रंगना शुरू किया। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या वर्ष 1990 से पूर्व यह प्रदेश यूरोप था या योगी सरकार में कार्यकाल में बन गया।

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प्रत्येक सरकार में गरीबों के लिए कई योजनायें लायी जाती हैं, लेकिन उसका उद्देश्य वोट प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। जिसे मीडिया आज ‘लाभार्थी’ कहकर प्रोजेक्ट कर रही है, उन लाभार्थियों के मन में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि चुनाव के समय मुफ्त बिजली देने का वादा करने वाली योगी सरकार ने पिछले पांच वर्षों में बिजली के बढ़ते दामों से सहूलियत क्यों नही दी?

आज प्रधानमंत्री से लेकर उनके कई सिपहसालार कोरोना काल में हुए नुकसान पर मुंह मोड़ते नजर आ रहे हैं। परिजनों के पास लाशों को दफ़नाने के लिए कफ़न तथा लकड़ी खरीदने तक के पैसे नही थे। लिहाजा उन लाशों को भारत की पवित्र नदी गंगा में फेंक दिया गया और जिसे प्रशासनिक लापरवाही ही कहा जा सकता है। मौत का तांडव चारों तरफ़ चल रहा था तथा लाशें गंगा में बह रही थी, जिन्हें गिद्ध, कुत्ते और कौवे नोच-नोचकर खा रहे थे। मृतक के परिजनों को लाशों के अंतिम दर्शन भी नसीब नही हुए। आक्सीजन और मूलभूत दवाओं की किल्लत होने के साथ ही कालाबाजारी भी अपने चरम अवस्था पर थी। कोरोना की दूसरी लहर में स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरीके से ध्वस्त हो गया था।

आज सत्ता पक्ष का मानना है कि आक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। इस संदर्भ में मोदी कह रहे हैं कि कांग्रेस बदनाम कर रही है। फिर क्या यह प्रश्न उठना लाजमी है कि आक्सीजन की आपूर्ति क्या पर्याप्त थी? क्या अपनों को मरते देखकर विचलित हुए ‘लाभार्थी’ लोग इतनी जल्दी अपने दर्द को भूल चुके हैं। आज नोट्बंदी से लेकर अचानक लाकडाउन के फैसले तथा कोरोना की दूसरी लहर में अपार जनहानि के बावजूद मोदी सरकार की प्रशासनिक विफलता को ‘लाभार्थियों’ की तरफ़ से क्लीनचिट मिल चुकी है?

अचानक लाकडाउन लगाने के बाद भुखमरी आने के डर से दैनिक मजदूर वर्ग पैदल चलकर ही अपने घर वापस जाने लगे। उन दौरान कई मजदूरों की जान भी चली गई, क्या उसके लिए विपक्षी पार्टियाँ जिम्मेदार है।

कई देशों ने अपनी आबादी से कई गुना अधिक टीके का आर्डर दे चुके थे, लेकिन भारत में टीके को समय से क्यों नही ख़रीदा गया? जब सब कुछ चंगा था तथा हमारे स्वास्थ्यमंत्री इतना अच्छा कार्य कार्य कर रहे थे, तो उन्हें क्यों बदला गया।

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लगभग 3.5 लाख करोड़ रूपये कृषि सम्मान निधि के जरिए किसानों को लाभ पहुँचाया गया, लेकिन तीन कृषि कानून लाने के पश्चात् मोदी सरकार के प्रति किसानों का मोह भंग हो गया। इस संदर्भ में सुल्तानपुर जिले के राम नारायण कहते हैं कि उद्योगपतियों का हजारों करोड़ रूपये का लोन एनपीए (एक तरह से माफ़) घोषित कर दिया गया। जिस पर मोदी सरकार की तरफ़ से कोई बयान नही आया। लेकिन किसानों को मात्र 500 रूपये देने के बाद गली-चौराहे पर जाकर ढिंढोरा पीटा जा रहा है। जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया ‘लाभार्थी’ कहकर मतदाताओं को सत्ता के प्रति साफ्ट रवैया अपना रही है।

आज बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का जिन्न फिर से बाहर आना शुरू हो चुका है. समय-समय पर कुशासन और पुलिस की क्रूरता भी देखने को मिल रही है। जहां एक तरफ़ सांप्रदायिक भेदभाव व हिन्दू तुष्टीकरण के कारण जनमानस में सत्ता के प्रति मोह भंग होता नजर आ रहा है और हिन्दू वोटर पिछले चुनाव की तरह लामबंद नहीं हो पा रहा है। वहीं दूसरी तरफ़, बहुतायत मुस्लिम वोटर इस बार साइकिल पर सवार होता दिखाई दे रहा है। आज मोदी लहर की रफ़्तार मंद हो चुकी है। मोदी ने बंगाल में 23 जगह पर रैलियां की थी, फिर भी लगभग उन सारी सीटों पर हार गए थे।

[i]https://www.bbc.com/hindi/india-60375948

[ii]https://hindi.oneindia.com/news/uttar-pradesh/yogi-govt-gave-relief-to-the-general-public-in-electricity-bill-656853.html

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