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चित्रा रामकृष्ण के अंधविश्वास पर हंगामा क्यों? (डायरी 18 फरवरी, 2022)

आडंबर, पाखंड और अंधविश्वास के अलावा कई और शब्द हैं, जिनका संबंध असल में वर्चस्ववाद से जुड़ा है। आप चाहें तो इसमें भूत-पिशाच से लेकर देवी-देवता तक जोड़ सकते हैं। एक लंबी सूची है। लेकिन आज अंधविश्वास की बात करते हैं। दरअसल, अंधविश्वास का मतलब क्या है? शाब्दिक तौर पर तो यही कि किसी भी […]

आडंबर, पाखंड और अंधविश्वास के अलावा कई और शब्द हैं, जिनका संबंध असल में वर्चस्ववाद से जुड़ा है। आप चाहें तो इसमें भूत-पिशाच से लेकर देवी-देवता तक जोड़ सकते हैं। एक लंबी सूची है। लेकिन आज अंधविश्वास की बात करते हैं।

दरअसल, अंधविश्वास का मतलब क्या है? शाब्दिक तौर पर तो यही कि किसी भी व्यक्ति व मान्यता के उपर आंख मूंदकर विश्वास। सचमुच ऐसा कब होता है जब कोई आदमी आंख मूंदकर विश्वास करता है? यह भी एक सवाल है।

दरअसल, आंख मूंदकर विश्वास करना हमेशा गलत नहीं होता। दैनिक जीवन में हम अक्सर ही ऐसा करते हैं। मसलन, जब हम ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं, हवाई जहाज में सफर कर रहे होते हैं, मेट्रो अथवा ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं, तब आंख मूंदकर चालक पर विश्वास करते हैं। हमें यह विश्वास होता है कि चालक सुरक्षित तरीके से हमें अपने गंतव्य तक पहुंचा देगा। यदि हमारे मन में जरा सा भी अविश्वास हो तो हमारे लिए सफर करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे ही अपने घर-परिवार में हम अपनों के ऊपर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं। यदि नहीं कर सकते तो हम एक घर की कल्पना ही नहीं कर सकते। वैसे ही हम स्ट्रीट फूड दुकानदारों पर विश्वास करते हैं। नुक्कड़ पर चाय बेचनेवाले पर तो इतना विश्वास करते हैं कि उसके साथ सुख-दुख सब साझा करते हैं।

[bs-quote quote=” डर हमें अंधविश्वासी बनाता है और इसके केंद्र में परजीविता है। जब हमें इसका अहसास हो जाता है कि हम परजीवी नहीं हैं, अंधविश्वास जाता रहता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, अंधविश्वास के दो रूप हैं। एक अंधविश्वास में हम किसी सजीव पर या फिर भौतिक वस्तु पर विश्वास करते हैं। भौतिक वस्तु, जैसे कि हमारी गाड़ियों के पहिए का ब्रेक, कमरों में छत से लटका पंखा आदि। हमें यह यकीन होता है कि इन वस्तुओं से हमें कोई खतरा नहीं है तभी हम सुकून का अनुभव करते हैं। लेकिन शाब्दिक तौर पर देखें तो यह भी अंधविश्वास ही है। दूसरा अंधविश्वास दूजे किस्म का है। इसमें आदमी अनदेखे पर विश्वास करता है। धर्म से जुड़ा होने की वजह से इसका दायरा बहुत बड़ा है।

मुझे तो अपना बचपन याद आता है। मां और पापा दोनों अंधविश्वासी रहे हैं। जब तक उनका मुझपर प्रत्यक्ष नियंत्रण रहा, शनिवार को बाल नहीं कटवाने दिया। मूंछों को लेकर पापा को आज भी अंधविश्वास है। पटना में रहते हुए मुझे कभी हिम्मत नहीं होती कि बिना मूंछों के रहूं। दिल्ली में अपनी मर्जी से सफाचट हो जाता हूं। कई बार खुद को अच्छा लगता है और कई बार अच्छा नहीं भी लगता है। शनिवार को दाढ़ी-बाल कटवाने का सिलसिला तो इंटर के बाद से ही शुरू हो गया था। मेरे घर में ही मेरी पत्नी गजब की अंधविश्वासी है। एक अंजाना डर उसके मन में हमेशा रहता है।

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दरअसल, यही डर हमें अंधविश्वासी बनाता है और इसके केंद्र में परजीविता है। जब हमें इसका अहसास हो जाता है कि हम परजीवी नहीं हैं, अंधविश्वास जाता रहता है। राजनीति की बात करूं तो सबसे अधिक अंधविश्वासी मुझे राजनीतिज्ञ ही लगते हैं। कुछेक बेशक अपवाद हैं। मैं तो नीतीश कुमार को देखता हूं, जिन्होंने एक बार सूर्य ग्रहण के दौरान मसौढ़ी के तारेगना में बिस्कुट खाने का साहस किया था। हालांकि तब उन्होंने तारेगना को खगोल ज्ञान-विज्ञान का शोध केंद्र बनाने की बात कही थी। अब यह सब इतिहास है। तारेगना आज भी अपने लिए पहचान खोज रहा है और नीतीश कुमार गजब के अधंविश्वासी हो गए हैं। अब तो हालत यह है कि मुख्यमंत्री सचिवालय में सरस्वती और विश्वकर्मा की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं तथा मुख्यमंत्री घंटा बजाते दिख जाते हैं।

एक उदाहरण लालू प्रसाद का भी है। बात तब की है जब मैं सरेख नहीं था। मेरे गांव में एक प्राथमिक स्कूल का निर्माण कराया गया था। संभवत:  वह 1994 का साल था। उसका उद्घाटन लालू प्रसाद करनेवाले थे। तब पटना की डीएम राजबाला वर्मा थीं, जो अभी कुछ साल पहले झारखंड की मुख्य सचिव बनने के बाद सेवानिवृत्त हुईं। तो उस समय हुआ यह था कि लालू प्रसाद मेरे गांव में आए थे। जिस दिन गांव में स्कूल का उद्घाटन होना था, ठीक उसी दिन मेरे गांव के ब्राह्मण राजेंद्र तिवारी के कहने पर लोगों ने ब्रह्मस्थानी में प्राण प्रतिष्ठा करवा रहे थे।

[bs-quote quote=”अंधविश्वास से अधिक महत्वपूर्ण गोपनीय जानकारियों को दूसरे के साथ शेयर करना है। मैं तो कई बार चौंक जाता हूं कि जो बात केंद्रीय मंत्रिमंडल के हवाले से बाहर आनी चाहिए, वह मोहन भागवत कह जाते हैं। जाहिर तौर पर भागवत के पास कोई पारलौकिक ताकत नहीं है कि वह सबकुछ जानते-समझते हैं। ऐसे में उनके पास सूचनाएं भेजी जाती हैं। वे सूचनाएं जिनकी गोपनीयता की रक्षा की कसम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों ने खायी है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

असल में मेरे गांव का नाम ब्रह्मपुर है और ब्रह्मा का विशेष स्थान है। हालांकि यह ब्रह्मा चार मुंह वाला नहीं है। यह एक बड़ा सा पिंड है। मेरे गांव के लोग कहते हैं कि जब कोई ब्राह्मण नाराज हो जाता है या फिर उसके साथ कोई अनहोनी जैसे कि उसकी हत्या आदि हो जाती है तब वह ब्रह्मा बन जाता है। फिर वह गांव के लिए संकट बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे ‘शोले’ फिल्म के एक डायलॉग में वीरू नामक पात्र दारू पीकर पानी की मीनार पर चढ़कर गांववालों को डराता है।

खैर, लालू प्रसाद आए और उसी समय मेरे गांव के लोग कीर्तन कर रहे थे। मैं भी वहीं मौजूद था। गांव के लोगों ने लालू प्रसाद से अनुरोध किया कि वह भी कीर्तन के भागीदार बनें। लालू प्रसाद गए तो अपने ही रंग में गए। वहां उन्होंने गांववालों का हड़काया कि यह क्या नांद को उलटा कर रखा है। नांद हमारे यहां सीमेंट के बने उस पात्र को कहते हैं, जिसमें हम मवेशियों को चारा देते हैं।

बहरहाल, 1990 से लेकर 1995 तक वाले लालू प्रसाद अलग थे और अब के लालू प्रसाद अलग हैं। पहले वाले अंधविश्वासी नहीं थे और अब वाले पूर्ण रूप से अंधविश्वासी। अब आप लालू और नीतीश दोनों को एक साथ उदाहरण के रूप में देखें। दोनों को अंधविश्वासी केवल उनकी सत्तालोलुपता ने बनाया है। यदि दोनों सत्तालोलुप नहीं होते तो दोनों पेरियार होते।

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अंधविश्वास को लेकर इतनी बातें इसलिए कि कल नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज की सीईओ रहीं चित्रा रामकृष्ण को लेकर एक बात सामने आयी है कि वह एक योगी कहने पर फैसले लेती थीं। चित्रा के मुताबिक, वह योगी हिमालय में कहीं रहता है। इसे लेकर हंगामा है और मेरे हिसाब से हंगामा होना ही चाहिए। वजह यह कि जितना हंगामा होगा, अंधविश्वास पर जितना हमला हो, समाज के लिए बेहतर है। लेकिन इस मामले में एक पेंच है।

दरअसल, अंधविश्वास से अधिक महत्वपूर्ण गोपनीय जानकारियों को दूसरे के साथ शेयर करना है। मैं तो कई बार चौंक जाता हूं कि जो बात केंद्रीय मंत्रिमंडल के हवाले से बाहर आनी चाहिए, वह मोहन भागवत कह जाते हैं। जाहिर तौर पर भागवत के पास कोई पारलौकिक ताकत नहीं है कि वह सबकुछ जानते-समझते हैं। ऐसे में उनके पास सूचनाएं भेजी जाती हैं। वे सूचनाएं जिनकी गोपनीयता की रक्षा की कसम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों ने खायी है।

[bs-quote quote=”अंधविश्वास को लेकर इतनी बातें इसलिए कि कल नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज की सीईओ रहीं चित्रा रामकृष्ण को लेकर एक बात सामने आयी है कि वह एक योगी कहने पर फैसले लेती थीं। चित्रा के मुताबिक, वह योगी हिमालय में कहीं रहता है। इसे लेकर हंगामा है और मेरे हिसाब से हंगामा होना ही चाहिए। वजह यह कि जितना हंगामा होगा, अंधविश्वास पर जितना हमला हो, समाज के लिए बेहतर है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि यह पहला मौका नहीं है। मैं तो पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का उदाहरण देता हूं। उनके एक पुरोहित थे– पंडित विष्णुकांत शास्त्री। राष्ट्रपति भवन उनका भी आवास हुआ करता था। पटना में इनका आवास पटना विश्वविद्यालय (दरभंगा हाऊस जानेवाली सड़क के ठीक सामने) के नजदीक था। वर्तमान में उनके खानदान के लोग रहते हैं और उनके पास राजेंद्र प्रसाद से जुड़ी अनेक तस्वीरें डिस्पले के रूप में हैं। पटना में जब मैं दैनिक आज में संवाददाता था, तब एक रपट लिखी थी। इसमें सबूत के तौर पर दो पत्र थे। दोनों पत्र राजेंद्र प्रसाद द्वारा हस्तलिखित थे। सबसे महत्वपूर्ण यह कि जिस कागज पर दोनों पत्र लिखे गए थे, उनके ऊपर राष्ट्रपति भवन का निशान था। दोनों तस्वीरें बतौर सबूत मेरी खबर के बीच में प्रकाशित किया गया था। एक पत्र में राजेंद्र प्रसाद पंडित विष्णुकांत शास्त्री से यह पूछ रहे थे कि नेहरू इन दिनों बहुत परेशान कर रहे हैं, क्या करूं? इसी पत्र में राजेंद्र प्रसाद ने यह भी कहा था कि घन्नू जी भवन आएंगे तब आपसे मिलेंगे और आपकी परेशानी का अंत हो जाएगा। मुझे लगता है कि वह घन्नू कोई और नहीं घनश्याम दास बिड़ला रहे होंगे। दूसरे पत्र में राजेंद्र प्रसाद ने चीन का उल्लेख किया था कि चीन आंखें दिखा रहा है, क्या किया जाय?

मेरे द्वारा लिखित यह खबर आज भी इतिहास का हिस्सा है और पटना से प्रकाशित दैनिक आज के पहले पृष्ठ का बॉटम न्यूज है। सोच रहा हूं कि इस बार पटना जाऊंगा तो दैनिक आज के दफ्तर में बैठकर अपनी सारी बाईलाइन खबरों का एक सेट तैयार करूंगा। एक सप्ताह की मेहनत रंग जरूर लाएगी।

बहरहाल आप यह सोचिए कि जिस देश में ऐसे महान लोग महान पुरुष में गिने जाएंगे तो फिर चित्रा रामकृष्ण को लेकर हंगामा क्यों?

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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