Saturday, July 27, 2024
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क्या सिर्फ दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक बनेंगे योगी ‘टेरर के टारगेट’

अखिलेश ने 2017 में जिस दुस्साहसिक राजनीति का दम दिखाया था क्या अब उसी राह पर राजनीतिक कदम बढ़ा रहे हैं योगी लखनऊ। सन 2017 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ अभूतपूर्व घटित हो रहा था। सन 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में बनी समाजवादी पार्टी की सरकार साढ़े चार वर्ष पूरा कर […]

अखिलेश ने 2017 में जिस दुस्साहसिक राजनीति का दम दिखाया था क्या अब उसी राह पर राजनीतिक कदम बढ़ा रहे हैं योगी

लखनऊ। सन 2017 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ अभूतपूर्व घटित हो रहा था। सन 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में बनी समाजवादी पार्टी की सरकार साढ़े चार वर्ष पूरा कर चुकी थी। इन साढ़े चार वर्षों में बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश विकास की कुछ इबारतें लिख चुके थे पर वह कहीं न कहीं पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के सामने अपने पद और अपनी सोच को लेकर खुद को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं महसूस कर रहे थे। पार्टी के कई बड़े नेता वक्त जरूरत अपनी मनमानी कर रहे थे और अखिलेश यादव चाह कर उन पर अंकुश नहीं लगा पा रहे थे। साढ़े चार वर्ष तक अखिलेश सबकी सुनते-सहते पूरा कर चुके थे। अब उन्हें लगने लगा था कि समाजवादी पार्टी में बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जिसे समाजवादी सोच नहीं माना जा सकता। यह बात जब उनके दिमाग में पूरी तरह से घर कर गई तब उन्होंने तय किया कि अब वक्त आ गया है कि कमान अपने हाथ में ली जाए और समाजवादी पार्टी को पूरी तरह से समाजवादी विचारधारा के अनुरूप बदला जाए। इस सोच को उन्होंने जैसे ही अमली जामा पहनाना शुरू किया वैसे ही पार्टी के कई वरिष्ठ नेता अमर सिंह, आजम खान, उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव और दबे मन से मुलायम सिंह यादव भी तलवार लेकर अखिलेश यादव के खिलाफ खड़े हो गए। पार्टी के अंदर तलवार खिंच गई थी और अखिलेश पुराना चोला उतारकर अब नया लिबास धारण करने का पूरा मंसूबा बना चुके थे।

पार्टी के लोग अखिलेश को अब भी स्वतंत्र नेता के रूप में स्वीकृति देने को तैयार नहीं थे। इसी बीच मुलायम सिंह के करीबी नेता गायत्री प्रजापति को सरकार से बाहर का रास्ता दिखाकर अखिलेश ने पार्टी के पुराने नेताओं को अपनी उस सोच से अवगत करा दिया था जिसकी अब वह पैरोकारी करने वाले थे। गायत्री के सबसे बड़े पैरोकार मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव थे बावजूद इसके अखिलेश अब झुकने को तैयार नहीं थे। गायत्री प्रसाद प्रजापति का मामला तूल पकड़ रहा था, शिवपाल सिंह यादव का ‘अहम’ अखिलेश की सोच से सीधे टकरा गया था और स्थिति यह बन गई थी कि शिवपाल के तमाम समर्थक अखिलेश यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने को आतुर हो उठे थे। इसी बीच अखिलेश ने शिवपाल सिंह यादव से भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा छीन लिया और ऐलानिया तौर पर कह दिया कि समाजवादी पार्टी में अब अपराधियों के लिए कोई जगह नहीं है।

[bs-quote quote=”वैसे योगी सरकार के 6 साल के शासन काल में 10 हजार से ज्यादा एनकाउंटर हो चुके हैं, जिनमें 183 अपराधी मारे जा चुके हैं, बावजूद इसके अपराध खत्म नहीं हो रहा है, बल्कि लगातार एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर शिफ्ट हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यूपी में अपराध को लेकर लगातार हमलावर हैं। उस हमले का जवाब देने के लिए योगी की पुलिस वजह बे वजह गोलियां दाग रही है। उन गोलियों पर भी अब सवाल खड़े हो रहे हैं कि आखिर अतीक और अशरफ हत्याकांड में कैमरे के सामने जिस पुलिस से बंदूक नहीं उठी वह बिना कैमरे की स्थिति में किस कूवत पर अपराधियों को मार गिराने का दंभ भरती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह महज ऐलान भर नहीं था बल्कि अखिलेश ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक नए रंग में रंगने की कोशिश का पहला अध्याय लिख दिया था। उस समय शिवपाल यादव प्रदेश के तमाम माफियाओं को समाजवादी के रथ पर बैठाकर सत्ता की पुनर्वापसी करना चाहते थे पर अखिलेश ने तय कर दिया था कि अब समाजवादी पार्टी में अपराधियों के लिए कोई जगह नहीं है।

मुलायम सिंह यादव के तमाम चहेते और शिवपाल का वरदहस्त पाने वाले जितने भी माफिया समाजवादी पार्टी की परिक्रमा कर रहे थे उन सब को अखिलेश ने बिना देर किये बाहर का रास्ता दिखा दिया। अतीक अहमद, रघुराज प्रताप सिंह, मुख्तार अंसारी, विजय मिश्रा जैसे बाहुबली जिनके लिए मुलायम के मन में भी प्रेम उमड़ता था उन्हें बाहर करने की वजह से अखिलेश यादव के खिलाफ मुलायम सिंह भी शिवपाल के साथ खड़े होते दिखे। पार्टी में बगावत का एक नया अध्याय लिखा जाने लगा। पुराने नेता शिवपाल यादव इस खेल में अखिलेश के सामने ज्यादा देर नहीं टिक सके और अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के नए अध्यक्ष बन गए। अब जैसा कि पहले से ही अखिलेश ने अपनी सोच से सबको वाकिफ करा दिया था कि समाजवादी पार्टी अब अपराध से दूरी बनाएगी वह उस रास्ते पर चलते हुए विधानसभा चुनाव में उतर पड़े। मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव इस चुनाव में अखिलेश का हर संभव विरोध करते दिखे। अखिलेश पार्टी की कमान पा गए थे पर परिवार के अंदर सब कुछ सामान्य नहीं हो सका था ऐसे में पत्नी डिम्पल यादव और चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव और युवा वर्ग ने अखिलेश का पूरी तरह साथ दिया। आपाधापी में टिकट बँटा। अखिलेश ने कई सीटों पर ऐसे लोगों को मैदान में उतारा जिनके पास विपक्षी पार्टियों के बाहुबल से लड़ पाने की कूवत नहीं थी। यह फैसला उत्तर प्रदेश के सियासी हालात को देखते हुए बेहद साहसिक ही नहीं बल्कि काफी हद तक दुस्साहसिक भी कहा जा सकता है।

चंद दिनों पहले जिस अखिलेश यादव को छोटे-छोटे फैसले लेने के लिए परिवार और पार्टी के पुराने नेताओं से सलाह लेनी पड़ती थी अब वही नेता अचानक से ऐसे फैसले लेते हुए दिख रहा था जिसकी कल्पना उत्तर प्रदेश की राजनीति में करना आसान नहीं था। साफ सुथरी राजनीति की पैरोकारी अखिलेश यादव को भारी पड़ गई और पूर्ण बहुमत के मुख्यमंत्री को 2017 के चुनाव में महज 47 सीटों पर सिमटना पड़ गया। दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी की आंतरिक लड़ाई का भरपूर फायदा भाजपा को मिला था और भाजपा को अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ एनडीए गठबंधन के रूप में 325 सीटें मिली थी। इस चुनाव में अखिलेश का हर फैसला उनके खिलाफ था, जिसमें पार्टी के आंतरिक मामलों के साथ कांग्रेस से गठबंधन करना और अपने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर कांग्रेस को 114 सीटें दे देना सबसे ज्यादा भारी पड़ गया था।

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काफी हद तक अखिलेश भी जानते थे कि बाहुबली प्रत्याशियों का टिकट काटने से एक बड़ा वोटर वर्ग उनके हाथ से दूर चला जाएगा, जिसकी भरपाई करने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी अंतिम साँसे गिन रही कांग्रेस को 114 सीटें दे दी थी। अब तक पारिवारिक अंतर्कलह के मामले में अखिलेश के साथ समर्पित भाव से खड़े कार्यकर्ता अखिलेश के इस फैसले से खुद को ठगा महसूस कर रहा था और लड़ने से पहले ही वह आत्मसमर्पण के भाव में पँहुच गया।

हार-जीत के मसले से इतर इस चुनाव में अखिलेश ने सबसे बड़ा काम जो किया वह था- उत्तर प्रदेश की राजनीति से बाहुबली नेताओं को दूर करने का सियासी प्रतिनिधित्व हासिल करना। अखिलेश के इस फैसले से भविष्य की राजनीति का रेखांकन होने जा रहा था। अब सरकार किसी भी पार्टी की बने पर माफिया और राजनीति के संबंध पर सवाल रोके नहीं जा सकते थे। अखिलेश अपने इस फैसले से उस समय भले ही राजनीतिक रूप से बहुत कमजोर साबित हुए थे पर यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके इस फैसले ने उत्तर प्रदेश के तमाम माफियाओं के सिर से राजनीतिक सुरक्षा का ताज छीन लिया था।

चुनाव बाद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में नई सरकार बनी। जिस जनता ने चुनाव में अपराध विहीन राजनीति की डोर पकड़ने वाले अखिलेश को नकारा था वही जनता चुनाव बाद योगी के सामने चुनौती भी पेश कर रही थी और दबी जुबान से पूछ रही थी कि, “योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश को अपराधमुक्त करने की दिशा में क्या कदम उठायेंगे?”

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चूंकि योगी आदित्यनाथ खुद भी बाहुबली और आपराधिक छवि के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में आगे बढ़े थे इसलिए यह मामला खुद उनके लिए चुनौती बनता दिख रहा था जिसकी वजह से उन्होंने मुख्यमंत्री बनते ही अपने खिलाफ दर्ज मामले तुरंत प्रभाव से वापस ले लिया। ऐसा करके ना सिर्फ खुद को नई छवि के साथ पेश करने को आतुर दिख रहे थे बल्कि अपनी पूरी सरकार को भी वह आपराधिक राजनीति के खिलाफ पेश करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने मीडिया के सामने खुलेआम कहा कि अपराध मुक्त उत्तर प्रदेश उनकी प्राथमिकता है। इस पहल को साकार करते हुए सबसे पहले उन अपराधियों को चिन्हित किया गया जो उनकी पार्टी के साथ नहीं थे। उन तमाम अपारधियों को ना सिर्फ फौरी तौर पर गिरफ्तार करवाकर योगी ने अपनी हनक दिखाई बल्कि उनकी अवैध संपत्तियों की कुर्की और अवैध निर्माणों को चिन्हित करके उसे ध्वस्त करने के लिए जमकर बुलडोजर भी चलवाया।

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धीरे-धीरे बुलडोजर उत्तर प्रदेश की नई राजनीतिक पहचान बन गया। इस बुलडोजर ने तमाम अन्य मुद्दों पर सरकार की अक्षमता को छुपा दिया। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस बुलडोजर की कुचल देने वाली संस्कृति ने सबसे पहले न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को कुचलने का काम किया था पर जनता को पहली बार यह दिख रहा था कि जिससे वह डरते थे अब वह योगी से डरा हुआ है, योगी सरकार उसे कुचल रही है, यह सुख भले ही वैध नहीं था और लोकतान्त्रिक मूल्यों के खिलाफ था पर जनता किसी तमाशाई की तरह इस खेल का आनंद लेने में मशगूल थी। जनता का यह सुख धीरे-धीरे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अराजक और तानाशाही व्यवस्था में बदलने का टूल बनती जा रही थी।कोविड महामारी के समय सरकार की तमाम विफलताओं के बावजूद योगी के नेतृत्व में 2022 के चुनाव में पुनः भाजपा की सरकार बनी पर अपराध मुक्त राजनीति पर मुखर बयान देने वाले योगी के नए मंत्रिमंडल में भी 52 में 22 मंत्रियों पर अपराध के आरोप हैं। 49 प्रतिशत मंत्री कम ज्यादा अपराध से संबद्ध हैं। इनमें से 20 मंत्रियों पर गंभीर किस्म की धाराओं में मुकदमें दर्ज हैं। ऐसे में फिर वही सवाल उठता है कि सिर्फ वही अपराधी की गिनती में शामिल होंगे जो भाजपा से दूर होंगे। दूसरी ओर, विपक्ष बार-बार उन बाहुबलियों की सूची जारी करके योगी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है जो मुख्यमंत्री के स्वजातीय हैं।

इनमें बृजेश सिंह, धनंजय सिंह, रघुराज प्रताप सिंह ‘राजा भईया’, मुन्ना बजरंगी, पवन सिंह, अभय सिंह, वृजभूषण सिंह, उदयभान सिंह, सोनू सिंह, मोनू सिंह, अजय सिंह सिपाही, बादशाह सिंह, संग्राम सिंह, कुलदीप सिंह सेंगर, चुलबुल सिंह, अशोक चंदेल, बादशाह सिंह, विनीत सिंह जैसे बाहुबलियों को लेकर खूब सवाल उछाले जा रहे हैं। वैसे अब वक्त आ गया है कि इन बाहुबलियों को भी अब यह समझ लेना चाहिये कि कुछ ब्राह्मणों का एनकाउंटर हो जाने की वजह से अब इन पर भी राजनीति की दोधारी तलवार लटक रही है। अपने पक्ष में बढ़ रहे ब्राह्मण आक्रोश को शांत करने के लिए भाजपा कभी भी इनकी बलि चढ़ा सकती है। राजनीति का कोई भी रिश्ता सत्ता की कुर्सी से बड़ा कभी नहीं होता। समय गवाह रहा है कि जिन्हें कुर्बानी का शौक लगा है, उन्होंने देर-सबेर या सही मूल्य पाने की स्थिति में अपने पाले हुए बकरों को जबह करने में चूक नहीं बरती है।

वैसे योगी सरकार के 6 साल के शासन काल में 10 हजार से ज्यादा एनकाउंटर हो चुके हैं, जिनमें 183 अपराधी मारे जा चुके हैं, बावजूद इसके अपराध खत्म नहीं हो रहा है, बल्कि लगातार एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर शिफ्ट हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यूपी में अपराध को लेकर लगातार हमलावर हैं। उस हमले का जवाब देने के लिए योगी की पुलिस वजह बे वजह गोलियां दाग रही है। उन गोलियों पर भी अब सवाल खड़े हो रहे हैं कि आखिर अतीक और अशरफ हत्याकांड में कैमरे के सामने जिस पुलिस से बंदूक नहीं उठी वह बिना कैमरे की स्थिति में किस कूवत पर अपराधियों को मार गिराने का दंभ भरती है।

एक बात तो तय है कि अपराध और अपराधी को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने में हमेशा राजनीति का बड़ा रोल रहा है। बिना राजनीतिक सरपरस्ती के कोई अपराधी बहुत दिन तक अपनी हनक नहीं कायम रख सका था। सन 2017 को हमेशा इस रूप में याद किया जाएगा कि यही वह वर्ष था जहाँ से राजनीति और अपराध के रास्ते अलग होना शुरू हुए थे। इसका श्रेय निःसंदेह अखिलेश यादव को दिया जाएगा, जिन्होंने अपराधी के साथ सत्ता का सुख लेने के बजाय बिना अपराधी के साथ के सत्ता से दूरी स्वीकार करने का दुस्साहस दिखाया था। फिलहाल, ज्यादा शोर और कमजोर साहस के सहारे आज उस रास्ते पर योगी भी बढ़ रहे हैं पर कमजोर साहस के सहारे लड़ी गई लड़ाइयाँ इतिहास की विजित लड़ाइयों में कभी दर्ज नहीं होती हैं। हत्या और मौत को तमाशा बनाने की बजाय अगर कानून के दायरे में बिना किसी पक्षपात के इस लड़ाई को लड़ा जाए तो शायद उत्तर प्रदेश को एक नया चेहरा मिल सकता है।

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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