जनकवि बाबा नागार्जुन एवं दुर्गेंद्र अकारी के स्मृति दिवस के अवसर पर जन संस्कृति मंच के तत्वावधान में जनकवि सुरेंद्र प्रसाद स्मृति सभागार, नागार्जुन नगर में मंच के जिलाध्यक्ष डॉ. रामबाबू आर्य की अध्यक्षता में परिचर्चा हुई।
कार्यक्रम के आरंभ में बाबा नागार्जुन की तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित की गई तथा वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी भोला जी ने जनवादी गीतों को प्रस्तुत किया।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य प्रो. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि नागार्जुन विश्व सर्वहारा के मुक्ति संघर्ष एवं भारतीय क्रांति के उदगाता कवि हैं। बाबा जीवनभर जनमुक्ति के उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहे। नागार्जुन सबसे पहले क्रांतिकारी हैं उसके बाद कवि, साहित्यकार या अन्य कुछ! उन्होंने जो कुछ भी सृजन किया है, ख्याति के लिए नहीं बल्कि जनता के संघर्षों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से ही किया। उनके भीतर बदलाव और आमूलचूल परिवर्तन की बड़ी आकांक्षा थी। बाल्यावस्था में ही उनकी मां की हत्या हो गई। उनकी विद्रोही चेतना का नाभिनाल इस घटना से जुड़ा हुआ है। कालांतर में नागार्जुन ने सामंती व्यवस्था को ठुकरा कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बुद्ध की ही तरह उनका भी महाभिनिष्क्रमण हुआ था। श्रीलंका से लौटने के बाद वे सीधे कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े और दरभंगा के किसान सभा के जिलाध्यक्ष बनाए गए। उस दौर में वे गांव–गांव में जाकर संगठन का काम भी करते थे और कविता भी किया करते थे। उनकी रचनाओं के केंद्र में सबसे अधिक शोषित-पीड़ित स्त्री एवं दलित–वंचित होते थे। उनकी निगाह दुनियाभर के आंदोलनों पर बनी रहती थी। इसके साथ ही उन्होंने सत्ता के विद्रूप चेहरे को अपनी कविताओं में प्रमुखता से उजागर किया है। यदि नागार्जुन जीवित होते तो आज की बर्बर फासिस्ट सत्ता उनके साथ वही सलूक करती जो वरवर राव, स्टेन स्वामी, जीएन साईबाबा के साथ किया। अगर वास्तविक भारतीय कोई क्रांति होगी तो उसमें नागार्जुन का ही इंकलाबी मिजाज होगा!
अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. रामबाबू आर्य ने कहा कि नागार्जुन के लिए जनहित ही साहित्य की कसौटी है। वे साहित्य के क्षेत्र में जलते हुए अंगारे हैं, जिनके एक–एक शब्द से विद्रोह फूटता है। उनका विद्रोह साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में समानांतर रूप से परिलक्षित होता है। जहां भी आंदोलन है, जहां भी जनसंघर्ष है, वहां नागार्जुन उपस्थित होते थे। सामंती मूल्यों और धार्मिक पाखंडों के प्रति उनकी जैसी आक्रमक कविताएं अन्यत्र दुर्लभ हैं।
डॉ. संजय कुमार ने कहा कि बाबा नागार्जुन को याद करना जनाकांक्षाओं के बड़े चित्र को देखना है। बाबा देश और दुनिया के मेहनतकशों की आकांक्षाओं को संबोधित हैं। उन्होंने अपनी संवेदनाएं मनुष्येतर प्राणियों से भी उसी तरह साझा कीं जैसे मानव समाज से। उनकी विलाप जैसी कविता और पारो जैसे मैथिली उपन्यास ने मिथिला समाज में स्त्री की दोयम स्थिति को सामने लाया। इन्हीं कारणों से मिथिला के प्रभु वर्ग ने उन्हें वह सम्मान कभी नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। प्रभु वर्ग की नाराजगी का एक अन्य कारण था कि नागार्जुन के नायक उच्चवर्गीय लोग न होकर निम्न वर्गीय मेहनतकश लोग होते थे। उनकी मुक्ति ही नागार्जुन की पक्षधरता थी। वर्चस्वशाली तबकों के आलोचकों ने नागार्जुन पर आरोप लगाया था कि उन्होंने मैथिली साहित्य को कलंकित कर दिया। लेकिन युग साक्षी है कि नागार्जुन हिन्दी साहित्य के साथ–साथ मैथिली साहित्य में भी सूर्य की भांति चमचमाते मेहनतकशों के दिलों में बसते हैं।
कार्यक्रम का संचालन जिला सचिव समीर ने किया।
मौके पर बबिता सुमन, अनामिका सुमन, जिजीविषा सुमन, अशगरी बेगम सहित कई लोग उपस्थित थे।
भवदीय
समीर
जिला सचिव, जन संस्कृति मंच