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पत्रकार नहीं, अखबार होते हैं रीढ़विहीन (डायरी 5 मार्च, 2022)

पत्रकार आसमान से नहीं आते। वे इसी धरती पर जन्म लेते हैं, रहते हैं और पत्रकारिता करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अन्य तरह के कामकाजी लोग होते हैं। पत्रकार के मामले में खास यह कि उसे हर विषय के बारे में लिखना ही पड़ता है। फिर चाहे कुछ भी हो। और जब वह लिखता […]

पत्रकार आसमान से नहीं आते। वे इसी धरती पर जन्म लेते हैं, रहते हैं और पत्रकारिता करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अन्य तरह के कामकाजी लोग होते हैं। पत्रकार के मामले में खास यह कि उसे हर विषय के बारे में लिखना ही पड़ता है। फिर चाहे कुछ भी हो। और जब वह लिखता है तो उसकी अपनी पक्षधरता भी होती है। कोई निष्पक्ष नहीं होता।

दरअसल, निष्पक्षता संभव ही नहीं है। वजह यह कि दुनिया सीआरटी चैंबर नहीं है जहां निर्वात की स्थिति होती है और इलेक्ट्रॉन स्वच्छंद तरीके से गमन कर सकते हैं। यह टेक्नोलॉजी टीवी सेटों में इस्तेमाल की जाती थी। हालांकि अब यह पुरानी हो चुकी। इसी तरह की टेक्नोलॉजी ट्यूबलाइट में भी की जाती थी।

[bs-quote quote=”बिहार सरकार ने उन 19 लोगों को एक-एक लाख रुपए देने का एलान किया है, जिनकी आंखें एक निजी नेत्र चिकित्सालय में आपरेशन के दौरान चली गयीं। यह मामला मुजफ्फरपुर के एक सामंती मनमिजाज वाले व्यक्ति के स्वामित्व वाले अस्पताल से जुड़ा है। कल मुख्यमंत्री ने विधानसभा में इसकी घोषणा की कि सभी पीड़ितों को मुख्यमंत्री चिकित्सा राहत कोष से एक-एक लाख रुपए दिए जा रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, दुनिया में निर्वात की स्थिति नहीं है। पत्रकार पर भी हर चीज का असर होता है। और मैं तो भारत का पत्रकार हूं। मेरा जन्म बिहार में हुआ। पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई। पत्रकारिता की शुरुआत भी बिहार में ही हुई। वही बिहार जहां सबसे अधिक गरीबी है, लाचारी है, सरकारी तंत्र की नाकामी है। जातिवाद का सबसे अधिक असर बिहार में है। अब तो वहां धार्मिक उन्माद भी खूब फूल-फल रहा है।

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तो वर्तमान में वहां हो यह रहा है कि पत्रकारिता रीढ़विहीन होती जा रही है। वैसे पहले भी रीढ़विहीनता वाली ही स्थिति थी जब पत्रकारिता में केवल ऊंची जातियों के लोग थे। कुछ नाम के वास्ते पत्रकार थे, जो दलित और पिछड़े वर्ग से आते थे। नाम के वास्ते इसलिए कि ये भी सत्ता के प्रति विशेष व्यवहार करते थे। लेकिन अब जबकि वहां की पत्रकारिता में वंचित तबके के लोगों की हिस्सेदारी बढ़ रही है, रीढ़विहीनता और बढ़ती जा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर विचार करने से पहले एक सूचना दर्ज करना चाहता हूं।

सूचना यह है कि बिहार सरकार ने उन 19 लोगों को एक-एक लाख रुपए देने का एलान किया है, जिनकी आंखें एक निजी नेत्र चिकित्सालय में आपरेशन के दौरान चली गयीं। यह मामला मुजफ्फरपुर के एक सामंती मनमिजाज वाले व्यक्ति के स्वामित्व वाले अस्पताल से जुड़ा है। कल मुख्यमंत्री ने विधानसभा में इसकी घोषणा की कि सभी पीड़ितों को मुख्यमंत्री चिकित्सा राहत कोष से एक-एक लाख रुपए दिए जा रहे हैं। इसके लिए संबंधित जिलाधिकारियों को रुपए भेजे जा चुके हैं। दरअसल पिछले साल 22 नवंबर से लेकर 27 नवंबर के बीच लोगों की आंखें चली गयी थीं।

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खैर, यह केवल सूचना है। अब खबर यह है कि इस मामले में अस्पताल संचालक का बाल भी बांका नहीं हुआ है। उस डाक्टर के खिलाफ भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी है। लेकिन यह खबर बिहार के अखबारों के लिए खबर नहीं है।

दरअसल, मेरा यह मानना है कि पत्रकार रीढ़विहीन नहीं होते। रीढ़विहीन अखबार होता है। अखबार के प्रबंधक और संपादक आदि मिलकर पत्रकारों को रीढ़विहीन बना देते हैं। किसी खास के प्रति पक्षधरता उनकी होती है। हालांकि पत्रकारों की भी अपनी पक्षधरता होती है, लेकिन वह बहुत सीमित होती है। खबर के मामले में हर पत्रकार लगभग एक जैसा ही होता है। साहसपूर्ण लेखन हर पत्रकार को अच्छा लगता है।

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अब सवाल यह कि यदि बिहार का कोई अखबार साहस करे (हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है) तो गर्भाशय घोटाले से लेकर सृजन घोटाले और आंख निकाले जाने की घटना को लेकर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। उससे सवाल किया जा सकता है कि आखिर क्यों?

बहरहाल, मैं भी कहां अखबारों के पीछे पड़ा हूं। गालिब को पढ़ रहा हूं। अपने दीवान में उन्होंने एक जगह लिखा है–

बाग़ पाकर खफ़कानी यह डराता है मुझे,

साय-ए-शाख-ए-गुल अफ़ई नजर आता है मुझे।

जौहर-ए-तेग बसर चश्म: – ए – दीगर मालूम,

हूं मैं वो सब्ज: कि जहराब उगाता है मुझे। 

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में सम्पादक हैं।

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