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इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज साहब, मेरी भैंसों ने आपका क्या बिगाड़ा है? डायरी (2 सितंबर, 2021)

मैं तो आपके द्वारा कल दिए गए एक फैसले से संबंधित खबर का अवलोकन कर रहा हूं, जिसे दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है। शीर्षक है - गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए : हाईकोर्ट। शीर्षक को देखकर सबसे पहले तो यही लगा कि यह एक बयान है जिसे आरएसएस के किसी नेता ने जारी किया है। वजह यह कि इस तरह की मांग वे आए दिन करते रहते हैं। लेकिन यह मांग इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने की है, यह देखकर मैं चौंका।

आप इलाहाबाद हाईकोर्ट के सम्मानित जज हैं। आपका नाम शेखर कुमार यादव है। संयोग ही कहिए कि मेरी जाति भी वही है जो आपकी है। यह देखकर अच्छा भी लगा कि अब यादव समाज के लोग भी जज बन रहे हैं। यही तो डेमोक्रेसी की खूबसूरती है और इससे आप कतई इनकार भी नहीं करेंगे। डेमोक्रेसी में शासक रानी के गर्भ से पैदा नहीं होता। यही बात न्यायपालिका में भी लागू होती है। हालांकि कालेजियम सिस्टम की वजह से अभी भी अधिकांश जजों के डीएनए में किसी न किसी जज की उपस्थिति रहती है। लेकिन ऐसा भी एक समय तक ही होगा। कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सवाल पहले से उठते रहे हैं और अब तो यह और भी तेजी से उठने लगा है। आप आज हाईकोर्ट में सम्मानित जज हैं, कल सुप्रीम कोर्ट में जज बनेंगे। आप नहीं भी बन सके तो कोई बात नहीं, पिछड़ा समाज के और लोग सुप्रीम कोर्ट में जज बनेंगे।
मैं तो आपके द्वारा कल दिए गए एक फैसले से संबंधित खबर का अवलोकन कर रहा हूं, जिसे दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है। शीर्षक है – गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए : हाईकोर्ट। शीर्षक को देखकर सबसे पहले तो यही लगा कि यह एक बयान है जिसे आरएसएस के किसी नेता ने जारी किया है। वजह यह कि इस तरह की मांग वे आए दिन करते रहते हैं। लेकिन यह मांग इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने की है, यह देखकर मैं चौंका।

चौंकने की वजह भी थी जज साहब। सामान्य तौर पर जज फैसला देते हैं, और हाईकोर्ट के जजों के पास तो एक्जिक्यूटिव पॉवर होता है, फिर भी आपने मांग की। इसने मुझे चौंका दिया। जनसत्ता ने जो खबर प्रकाशित किया है, मैं उसके हवाले से ही लिख रहा हूं। खबर के मुताबिक अपने फैसले में आपने कहा है कि “गाय का भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान है और गाय को देश में मां के रूप में जाना जाता है। भारतीय वेद, पुराण, रामायण आदि में गाय की बड़ी महत्ता दर्शाई गई है। इसी कारण से गाय हमारी संस्कृति का आधार है।” आपने यह भी कहा है कि “गोमांस खाने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं हो सकता।”
आप बेहद विद्वान व काबिल जज होंगे, इसमें शक करने की मेरे पास कोई वजह नहीं है। काबिल नहीं होते तो आप इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज कैसे बनते? यह मुमकिन ही नहीं था। लेकिन मुझे आपसे बस कुछ बातें ही कहनी हैं। पहली तो यह कि आदमी के मन में कोई भी विचार स्थायी तौर पर नहीं रह सकता। हां विचारधारा जरूर स्थायी हो सकती है या फिर एक लंबे समय तक। विचार और विचारधारा दोनों दो बातें हैं। विचार तो कुछ भी हो सकता है। मसलन यह कि आप कॉफी के शौकीन हों और आपको किसी दिन चाय पीने का विचार हो। आप सिगरेट पीते हैं और किसी दिन आपका मन बीड़ी पीने या फिर हुक्का पीने का करे। इसी तरह आप साहित्य के रसिक हों और किसी दिन आपके मन में यह सवाल आए कि मंगल ग्रह पर जब कालोनियां बनने लगेंगी तब क्या आप भी वहां एक छोटा सा घर ले सकेंगे। मुझे लगता है कि आदमी हर दिन हर तरह के विचार सोचता है। वह संभोग के बारे में भी सोचता है और समाधि के बारे में भी। यही आदमी होने की शर्त भी है कि उसके मन में विविध प्रकार के विचार हों और सवाल हों।
तो होता यही है कि आदमी के विचार बदलते रहते हैं। जज साहब अपने फैसले में वेदों, पुराणों और रामायण आदि का उल्लेख किया है। मैं डॉ. आंबेडकर के बारे में सोच रहा हूं। हालांकि वह आपकी तरह जज नहीं थे। संविधान निर्माता थे। उनकी एक किताब है – हिंदू धर्म की पहेलियां और इसमें एक अध्याय है – अहिंसा की पहेली। मैं इस किताब और इसके इस अध्याय का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसमें वेद, पुराण आदि का उल्लेख किया गया है। लेकिन उसके पहले बात यह कि वेद और पुराण भारतीय नहीं हैं। एक कारण तो यह कि आर्य उनके उपर दावा करते हैं और दूसरा यह कि मैं नास्तिक आदमी हूं तथा भारतीय हूं, इस कारण वेद और पुराण मेरे नहीं हैं। मेरे जैसे अनेक लोग हैं इस देश में जो नास्तिक होंगे या फिर जिनका धर्म दूसरा है और वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। मैं नास्तिक रहूं, यह अधिकार मुझे भारतीय संविधान देता है। निश्चित रूप से आप चूंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के सम्मनित जज हैं तो आप इससे वाकिफ होंगे।

खैर मैं उपर उल्लिखित डॉ. आंबेडकर की किताब के हवाले से विस्तार से हू-ब-हू उद्धृत कर रहा हूं। वे लिखते हैं – अगर आप प्राचीन आर्यों की आदतों, व्यवहार और सामाजिक आचार-व्यवहार की तुलना बाद के हिंदुओं से करें तो आप पाएंगे कि उनमें इतने आमूलचूल बदलाव हुए हैं कि उन्हें सामाजिक क्रांति की संज्ञा दी जा सकती है।द्र
आर्य, जुआरियों की नस्ल थी। आर्य सभ्यता के शुरुआती काल में ही जुआ खेलने का एक पूरा विज्ञान विकसित हो गया था और इस विज्ञान की अपनी तकनीकी शब्दावली भी थी। समय को हिंदू चार युगों में विभाजित करते हैं : कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। मूलतः ये आर्यों द्वारा जुआ खेलने में इस्तेमाल किए जाने वाले पासों के नाम थे। सबसे सौभाग्यशाली पासा कृत कहलाता था और सबसे दुर्भाग्यशाली, कलि। त्रेता और द्वापर इनके बीच थे। प्राचीन आर्यों में न केवल द्यूतक्रीड़ा की कला काफी विकसित थी, अपितु बाजियां भी ऊंची-ऊंची हुआ करती थीं। बड़ी-बड़ी बाजियां तो दुनिया में अन्यत्र भी लगाई जाती थीं, परंतु आर्य जो बाजियां लगाते थे, उनका तो कोई मुकाबला ही नहीं था।

आर्य जुए में अपने राज्य, यहां तक कि अपनी पत्नियों को भी दांव पर लगा देते थे। राजा नल ने अपने राज्य को दांव पर लगाया और उसे हार बैठे। पांडव इससे भी आगे बढ़कर थे। उन्होंने न केवल अपने राज्य बल्कि अपनी पत्नी द्रौपदी तक को दांव पर लगा दिया और दोनों से हाथ धो बैठे। ऐसा भी नहीं था कि आर्यों में जुआ खेलना केवल धनिकों का व्यसन था। सभी वर्गों के लोग इसका आनंद लेते थे। प्राचीन आर्यों में द्यूतक्रीड़ा इतनी आम थी कि धर्मसूत्रों के रचयिता लगातार राजाओं को ज़ोर देकर यह सलाह देते हैं कि वे कठोर नियम बनाकर जुए पर नियंत्रण करें।”
इसी अध्याय में वे आगे लिखते हैं – “इसके पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं कि वर्तमान हिंदुओं के पूर्वज प्राचीन आर्य न केवल मांसाहारी थे बल्कि वे गोमांस भी खाते थे। कई तथ्य इसे निर्विवाद रूप से प्रमाणित करते हैं :मधुपर्क का उदाहरण लें।

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प्राचीन आर्यों में अतिथि सत्कार की एक सुस्पष्ट प्रक्रिया थी, जिसे मधुपर्क के नाम से जाना जाता था। उसका विस्तृत विवरण गृह्यसूत्रों में उपलब्ध है। अधिकांश गृह्यसूत्रों के अनुसार, छह श्रेणियों के व्यक्ति मधुपर्क के पात्र थे : 1. ऋत्विज अथवा यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण, 2. आचार्य अर्थात शिक्षक 3. वर, 4. राजा, 5. स्नातक अर्थात वह विद्यार्थी जिसने हाल में गुरुकुल में अपनी शिक्षा समाप्त की हो व 6. मेज़बान का प्रिय कोई अन्य व्यक्ति। इस सूची में कुछ लोग अतिथि को भी जोड़ते हैं। ऋत्विज, राजा और आचार्य को छोड़कर अन्य, वर्ष में एक बार ही मधुपर्क से स्वागत किये जाने के पात्र थे। ऋत्विज, राजा और आचार्य, जब भी आयें उन्हें मधुपर्क दिए जाने का प्रावधान था। मधुपर्क की प्रक्रिया में सबसे पहले मेहमान के पांव धुलाए जाते थे, फिर उसके समक्ष मधुपर्क प्रस्तुत किया जाता था, जिसे वह कुछ मंत्रों के उच्चारण के साथ पीता था।

मधुपर्क किन चीज़ों से मिलकर बनता है? मधुपर्क का शाब्दिक अर्थ है ऐसा अनुष्ठान जिसमें किसी व्यक्ति के हाथों में शहद उड़ेली जाती है। आरंभ में यही मधुपर्क था। किन्तु कालांतर में इसमें मिलाई जाने सामग्री बढ़ती गई। पहले इसमें दही, शहद और मक्खन होता था। फिर इसमें पांच पदार्थ सम्मिलित हुए – दही, मधु, घी, यव और जौ। फिर इसमें नौ पदार्थ शामिल हो गए। कौशिक सूत्र नौ प्रकार के मधुपर्क मिश्रणों का वर्णन करता है। ब्रह्मा (दही और मधु), ऐन्द्र (पायस), सौम्य (दही और घी), मौसल (सायने और घी), जिसका उपयोग केवल सौत्रमणी और राजसूय यज्ञों में होता था, वरुण (पानी और घी), श्रवण (तिल का तेल और घी), परिव्राजक (तिल का तेल और खली)। अब हम मानव गृह्यसूत्र के काल में आते हैं। वह कहता है कि वेदों के अनुसार, मधुपर्क बिना मांस के नहीं बनता। इसलिए विधान है कि यदि गाय नहीं तो बकरे का मांस अथवा पायस (दूध में पकाए गए चावल) अतिथि को प्रस्तुत किये जाएं। हिर.गृ. [हिरण्यकेशी गृहसूत्र] 1. 13-14 के अनुसार, किसी अन्य जानवर का मांस प्रस्तुत किया जाना चाहिए। बौद्ध. गृ. [बौद्धायन गृहसूत्र] (1.2.51-54) कहता है कि गाय नहीं तो बकरी या भेड़ का मांस दिया जाना चाहिए या वन्यजीव का मांस (हिरण आदि) भी दिया जा सकता है क्योंकि बिना मांस के मधुपर्क नहीं बन सकता परंतु यदि कोई मांस परोसने में सक्षम न हो तो वह पिसा हुआ अनाज पकाए। परंतु अंततः मांस ही मधुपर्क का सबसे आवश्यक भाग बन गया। कुछ गृह्यसूत्रों ने यहां तक कहा कि बिना मांस के मधुपर्क नहीं बन सकता। उनका आधार ऋग्वेद (8, 101.5) है, जो कहता है “मधुपर्क बिना मांस के न हो।”
खैर, छोड़िए यह बात कि डॉ. आंबेडकर ने क्या लिखा और किन कारणों से गोकशी के सवाल को संविधान के 48वें अनुच्छेद यानी संघ की सूची से बाहर निकालकर राज्यों की सूची में डाल दिया गया। निश्चित तौर पर पूर्वोत्तर के हाईकोर्ट या फिर गोवा के हाईकोर्ट के किसी जज साहब की टिप्पणी आपकी टिप्पणी के समतुल्य नहीं होगी। वे आपसे अलग राय रखेंगे। मैं तो आपसे यह जानना चाहता हूं कि भैंसों को आप गाय से अलग कैसे मानते हैं? क्या इसकी वजह केवल उनका रंग है। भैंसें भी दूध देती हैं। उनके नर भी खेतों में जोते जाते हैं। पश्चिमी यूपी में तो मैंने भैंसों को सड़कों पर माल ढोते हुए देखा है। मतलब जैसे बैलगाड़ी, वैसे ही भैंसागाड़ी। आखिर भैंसें किस हिसाब से गायों की बराबरी नहीं कर सकतीं। कोई तार्किक कारण हो तो कृपया जरूर बताइएगा।
बाकी आप स्वस्थ रहें और जल्दी से जल्दी प्रोन्नति पाएं। शुभकामनाएं। मैं अपनी एक कविता यहां दर्ज कर रहा हूं। यह आपके लिए नहीं है। हम भारत के लोगों के लिए है।

दिन का उजाला है या अंधकार मेरे आगे,
खुदा जाने हकीकत है या ख्वाब मेरे आगे।
मुल्क की खैरियत का दावा करते हैं हुक्मरां,
नजरबंद हैं घर और खामोश चौराहा मेरे आगे।
इतिहास के पन्नों ने बदला है अपना बयान,
वाह बहुत खूब है वक्त का नजारा मेरे आगे।
अदालतों ने बदला है अपना रंग अभी-अभी,
कटघरे में हैं जज और खतरे में इंसाफ मेरे आगे।
बदल गए हैं सियासत के रस्म-ओ-रिवाज नवल,
लोग कहते जिसको सेवा, है तिजारत मेरे आगे।

 

 

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