(कबीर को याद करने के सबके अपने तरीके हैं । कवि-चिंतक देवेंद्र आर्य ने एक मिथक के बहाने कबीर के ज्ञान संसार की एक यात्रा की है । वे असल में इस कविता में तथाकथित ज्ञानशास्त्र के किताबी कीड़ों के उस क्षद्म पर सवाल उठा रहे हैं जिनमें समाज में उतरने का कोई माद्दा ही नहीं है बल्कि अपनी इस अयोग्यता को सही ठहराने के कुतर्क का एक जाल है । बल्कि इस पर पोथा दर पोथा लिखने की शेख़ी है । देवेंद्र आर्य अपनी कविता में ऐसे खोजी-मेंढकों की खोजखबर लेते हुये सचमुच पूछने पर उतर आए हैं कि भाया जब तुम कलम-दवात के कबीरी निषेध का इतना जायजा लेते हुये अपने को ज्ञान-वान बताने पर तुल आए हो तो कबीर की भी कोई लाइब्रेरी तो होगी ही होगी। आखिर वह भी कहीं दिख रही है !)
कबीर दास की लाइब्रेरी
किताबें किसी को क्या से क्या बना देती हैं
नाना पुराण निगमा
पत्थर पढ़ ले तो बहने लगे
नदी पढ़ ले तो झील बन जाए
मगर बिना किताब का मुंह देखे
कोई कबीर बन जाए
कैसे सम्भव है ?
इत्ती इत्ती सी बात बताने वाले
किसी न किसी बहाने अपनी लाइब्रेरी की चर्चा करते हैं
और ई कबीर !
अनपढ़ होने की सार्वजनिक घोषणा !
कहीं यह कपड़ों से पहचान छुपाने का मामला तो नहीं
जुलाहे के भेस में
या शायद कबीर समझ चुके थे
कि आम जनता आलिम फ़ाज़िलों से दहशत खाती है
पांव लगी करके किनारे
अमल का तो प्रश्न ही नहीं उठता
साधारण का सम्मान
अनपढ़ के ज्ञान का भान
ज्ञान की सादगी का संज्ञान
कबीर ले चुके रहे होंगे
सो उन्होंने बुड़बक बने रहने का फैसला किया
ज्ञान प्रदर्शन के लोभ से मुक्त
भजन युक्त हुए होंगे कबीर
बाद में जिसकी नकल गांधी ने की
यह सब क्या बिना किताब सम्भव है ?
जीवन से अच्छी कोई किताब नहीं में भी ‘किताब’ है न !
किताब-पढ़े को छू कर
कोई ज्ञानी हो सकता है कि नहीं
कबीर इसका भी जवाब हो सकते हैं
यह भी हो सकता है कि कबीर दास की
अपनी कोई समृद्ध लाइब्रेरी रही हो
वे भी रैदास की तरह किताबों के दास रहे हों
अजन भजन आधो साधो की तान के पहले
और बाद में कूटनीतिक रूप से
किताबों से जाकर हाथ ज़रूर मिलाते रहे हों
या फिर ज्ञान स्वयं उनके गहन सम्पर्क में रहा हो
वरना उनकी बात का अर्थात जानने के लिए
इतने शोध !
इतनी किताबें !
कबीर की खर पतवारी भाषा पर इतनी माथा पच्ची !
अब तक किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया
सब उल्टीबानी
भीगे कम्बल बरसे पानी के आकर्षण में
कबीरवाद पर रगड़ घिस्स करते रहे
कोई जात खोजता रहा कोई पाँत
कोई उनके राम का उद्गम
मूलाधार की खोज हुई ही नहीं
मुझे लगता है
जल्दी ही साहित्य का कोई उत्खननजीवी
कबीर दास की गुप्त लाइब्रेरी के
पुरातात्विक सबूतों के साथ आएगा
और मसि कागद छूयो नहीं के रहस्य का सच बताएगा
कबीर, सूर और तुलसी में कबीर आरम्भ से ही मेरे लिए एक रहस्यात्मक व्यक्तित्व रहे हैं। जब कि ये तीनों कवि अपने-अपने क्षेत्र में लोहा मनवाने के लिए पूर्ण सक्षम हैं। एक तरफ सूर व तुलसी अपने भक्ति में लीन रहने वाले चरित्र रहे हैं वहीं दूसरी ओर कबीर एक फक्कड़ फ़क़ीर गवइया का रूप धारण किये एक नकारात्मकता लिए हुए समाज को बराबर सकारात्मक संदेश देने से कभी नहीं चूकते। उन्हें इसकी भी परवाह नहीं कि कोई क्या मेरे बारे धारणा बना रहा है या बनाएगा। वो हर उस बात पर खुलकर चोट करते हैं कि उस समय का समाज तो छटपटाता ही था, आज भी अच्छे-अच्छे विद्वान बगले झांकने लगते हैं। विरोधाभास देखिए कि जो व्यक्ति ईश्वरीय उपासनाओं तक को नहीं छोड़ता वहीं समाज उन्हें ईश्वर के प्रतिबिम्ब के रूप देखता है।
मेरे दृष्टि में ये भी एक साजिश है। समाज में एक ऐसा वर्ग हमेशा क्रियाशील रहता है जिसकी अपनी एक परिधि है। जो व्यक्ति या उसकी सोच (जिसे आप उसकी लाइब्रेरी कह सकते हैं ) उनकी परिधि में नहीं समाता उसे ईश्वरीय प्रतिबिम्ब के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करते हैं जैसा कि सूर और तुलसी के साथ हुआ लेकिन कोई इस फक्कड़ फ़क़ीर को बांध नहीं पाया। आज भी लोग रिसर्च किए जा रहे हैं और नये-नये अर्थ उन दो पंक्तियों के दोहों में ढूँढ रहे हैं। यही है असली कबीर की लाइब्रेरी !!