Saturday, July 27, 2024
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 भाषा और हमारी आनेवाली पीढ़ी (डायरी 13 नवंबर, 2021)

भाषा सचमुच एक रहस्यमयी पहेली है और शब्द वाकई कमाल के होते हैं। हर शब्द के पीछे न जाने कितनी कहानियां होंगी, जब वह चलन में आयी होंगीं, मैं तो इसकी कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठता हूं। हालांकि कितने सारे शब्द मेरी जेहन में आए और अब जेहन में नहीं हैं। लेकिन शब्दों को […]

भाषा सचमुच एक रहस्यमयी पहेली है और शब्द वाकई कमाल के होते हैं। हर शब्द के पीछे न जाने कितनी कहानियां होंगी, जब वह चलन में आयी होंगीं, मैं तो इसकी कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठता हूं। हालांकि कितने सारे शब्द मेरी जेहन में आए और अब जेहन में नहीं हैं। लेकिन शब्दों को लेकर मेरी दिलचस्पी कम नहीं हुई है। जब कभी मैं अपने बीते 15 साल की पत्रकारिता को देखता हूं तो मुझे अहसास होता है कि मेरा हासिल वे ढेर सारे शब्द हैं, जिनका उपयोग मैंने किया है। शब्दों का इतना भव्य संसार भी है, यह मेरी कल्पना के परे था। अब भी मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं नये शब्दों के बारे में जान सकूं और उनका उपयोग करूं। फिर चाहे वह किसी भी भाषा के शब्द क्यों न हों।

बाजदफा लगता है कि आदमी को भाषायिक पूर्वाग्रह से मुक्त रहना चाहिए यदि उसे शब्दों में दिलचस्पी है। यदि आप पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहेंगे तो निश्चित तौर पर आप शब्दों से परिचित नहीं होंगे जो आपके इर्द-गिर्द हैं। इस क्रम में महत्वपूर्ण यह कि शब्द काल और परिवेश के समानुपातिक होते हैं। हर शब्द के पीछे यही वैज्ञानिक सूत्र होता है।

बीते आठ दिनों से मैं एक अलहदा जीवन जी रहा हूं। अलहदा इसलिए कि इस दौरान मेरे संज्ञान में अनेक शब्द आए हैं। ये सारे शब्द कोई नये शब्द नहीं हैं, लेकिन मेरे सामने इनका उपयोग नये संदर्भ में किया जा रहा है और यह करनेवाले मेरे बेटे जगलाल दुर्गापति हैं। अभी उनकी उम्र करीब साढ़े छह साल की है। इस बार पटना में अल्पप्रवास से जब दिल्ली वापस लौट रहा था तो दुर्गापति ने मेरे साथ दिल्ली चलने की इच्छा व्यक्त की। उनका कहना था कि वह मेरे साथ रह लेंगे। हालांकि यह फैसला करना मेरे लिए बेहद मुश्किल था कि दुर्गापति को अपने साथ ले चलूं या नहीं। अंतत: मन ने यह तय किया कि बीते साढ़े चार साल में जिन अहसासों से वंचित रहा हूं, उन्हें जीने का मौका स्वयं मेरा बेटा दे रहा है, तो इसे क्यों गंवाया जाय।

[bs-quote quote=”आजकल के बच्चों के पास हमारे समय के बच्चों की तुलना में अधिक शब्द हैं और यह एक बड़ा कारण है कि आजकल के साहित्यकार बच्चों के लिए साहित्य लिख पाने में लगभग नाकाम हो रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस परिवर्तन के पीछे सूचना क्रांति है और वैश्वीकरण है। भाषायिक बंदिशें टूट रही हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दुर्गापति के शब्द बेहद निराले हैं। उनका एक शब्द है– चिड़ियापानी। इस शब्द का उच्चारण उन्होंने पहली बार तब किया था जब एक रेस्त्रां में शीशे में बंद रंग-बिरंगी मछलियों को देखा था। पहले तो मैं कंफ्यूज हुआ कि चिड़ियापानी का मतलब क्या है? लेकिन यह तो एक बच्चे के दिमाग से निकला हुआ शब्द था। उसने पंछियों को हवा में उड़ते, फुदकते देखा था और अब वह पानी में मछलियां देख रहा था। उसने उन्हें ‘चिड़ियापानी’ की संज्ञा दी। ऐसे ही अनेक शब्द हैं जो दुर्गापति ने खुद गढ़े हैं और उसके मतलब भी बेहद नायाब हैं।

दरअसल समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिहाज से देखें तो शब्दों का विकास ऐसे ही हुआ होगा। मैं 2016 में झारखंड के गुमला जिले में गया था, जहां के बिशुनपुर प्रखंड में नेतरहाट है। ऊंचे पठार पर अवस्थित यह एक खूबसूरत जगह है। यहां एक गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध करानेवाला विद्यालय भी है। हालांकि इस विद्यालय में स्थानीय आदिवासियों का प्रवेश न्यूनतम है। एक तरह से यह आधुनिक गुरुकुल है, जहां पढ़ानेवाला हर शिक्षक द्रोणाचार्य है और उसके जिम्मे केवल खास वर्ग के बच्चों को पढ़ाने की जवाबदेही है।

खैर, नेतरहाट से और उपर जाने के बाद आदिवासियों के गांव हैं। मैं जिन आदिवासियों की बात कर रहा हूं, उन्हें आदिम जनजाति कहा जाता है। इनमें असुर, बिरहोर और पहाड़िया आदि शामिल हैं। इनके गांव के नाम बहुत खूबसूरत हैं। जैसे बिशुनपुर प्रखंड में एक गांव का नाम है– सखुआपानी। इसी गांव में प्रथम असुर कवयित्री सुषमा असुर का घर है और यहीं मेरे मित्र अनिल असुर भी रहते हैं। मैंने सखुआपानी का मतलब जब अनिल से पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां सखुआ के पेड़ हैं और इन पेड़ों के नजदीक ही पानी का सोता है, इसलिए इस गांव का नाम सखुआपानी है। ऐसे ही और गांव मिले। मसलन– जोभीपाट, अमतीपानी आदि।

[bs-quote quote=”रोहतास जिले के डेहरी-ऑन-सोन निवासी वरिष्ठ पत्रकार कुमार बिंदू जी से बात हो रही थी। उनके खिलाफ बिहार के शाकद्वीपीय (सकलदीप) ब्राह्मणों ने अभियान छेड़ रखा है। दरअसल, बीते 8 नवंबर को दैनिक हिन्दुस्तान के रोहतास-कैमूर संस्करण में छठ से संबंधित उनका एक आलेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने इतिहासकार भागवत शरण उपाध्याय के हवाले से यह लिखा कि छठ का संबंध असुरों से है और असुर शब्द कोई गाली नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जब मैं अनिल से उनके इलाके के गांवों के बारे में जानकारी हासिल कर रहा था, मेरी जेहन में यह सवाल था कि प्रखंड का नाम बिशुनपुर किसने रखा होगा? मुझे यह लग रहा था कि बिशुनपुर विष्णुपुर का अपभ्रंश है। मेरा अनुमान सही निकला। यह उस इलाके का नया नामकरण था जो संभवत: आजादी के बाद किसी प्रशासनिक अधिकारी ने अपनी धार्मिक सुविधा के हिसाब से रख दिया होगा।

खैर, मैं शब्दों की बात कर रहा था। कल ही बिहार के रोहतास जिले के डेहरी-ऑन-सोन निवासी वरिष्ठ पत्रकार कुमार बिंदू जी से बात हो रही थी। उनके खिलाफ बिहार के शाकद्वीपीय (सकलदीप) ब्राह्मणों ने अभियान छेड़ रखा है। दरअसल, बीते 8 नवंबर को दैनिक हिन्दुस्तान के रोहतास-कैमूर संस्करण में छठ से संबंधित उनका एक आलेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने इतिहासकार भागवत शरण उपाध्याय के हवाले से यह लिखा कि छठ का संबंध असुरों से है और असुर शब्द कोई गाली नहीं है।

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कुमार बिंदू से दूरभाष के जरिए बातचीत के दौरन ‘डेहरी ऑन सोन’ शब्द समूह से परिचय हुआ। उन्होंने बताया कि वह मगध और भोजपुर की दहलीज पर रहते हैं, जिसे देहरी भी कहा जाता है। देहरी को हम मगही में दुआरी भी कहते हैं। लेकिन जब अंग्रेज यहां आए तो उन्हें देहरी कहने में परेशानी हुई और उन्होंने इसका उच्चारण ‘डेहरी’ के रूप में किया और सोन नहर का नाम है, इसलिए अंग्रेजों ने इसका नामकरण किया– डेहरी ऑन सोन। इसी बातचीत में कुमार बिंदू जी ने एक अहम जानकारी दी कि उस पूरे इलाके में गांवों व इलाकों के नाम बौद्ध धर्म से जुड़े हैं। उस पूरे इलाके में ‘आंव’ महत्वपूर्ण है। जैसे कि अगियांव, डुमरांव। ऐसे ही सासाराम जो कि रोहतास का मुख्य शहर है, असल में ससरांव है। इसे राम के साथ जोड़ने की साजिश रची गई है। ठीक वैसे ही जैसे गुमला जिले में बिशुनपुर प्रखंड बना दिया गया।

[bs-quote quote=”आजकल के बच्चों के पास हमारे समय के बच्चों की तुलना में अधिक शब्द हैं और यह एक बड़ा कारण है कि आजकल के साहित्यकार बच्चों के लिए साहित्य लिख पाने में लगभग नाकाम हो रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस परिवर्तन के पीछे सूचना क्रांति है और वैश्वीकरण है। भाषायिक बंदिशें टूट रही हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इन दिनों मैं बच्चों के बारे में सोच रहा हूं और यकीन के साथ कह सकता हूं कि आजकल के बच्चों के पास हमारे समय के बच्चों की तुलना में अधिक शब्द हैं और यह एक बड़ा कारण है कि आजकल के साहित्यकार बच्चों के लिए साहित्य लिख पाने में लगभग नाकाम हो रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस परिवर्तन के पीछे सूचना क्रांति है और वैश्वीकरण है। भाषायिक बंदिशें टूट रही हैं। इन सबसे मेरे अंदर यह विश्वास प्रबल हो रहा है कि हमारे वर्तमान में फासीवाद, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें भले ही फन फैला रही हैं, आनेवाली पीढ़ी इनके फनों को अपने विवेक और अपनी समझ से कुचल देगी। हमें अपने आनेवाली पीढ़ी पर विश्वास करना चाहिए।

बहरहाल, कल एक शब्द जेहन में आया। शब्द था– इसरार। कुछ लिखने का प्रयास किया तो ऐसा बन पड़ा–

एक धुंधलका है मेरे आगे, आग का गुबार है,

जो भी है मेरे रहगुजर, तुम्हें पाने का इसरार है। 

 

घुमड़ते हैं बादल यादों के आसमान में रह-रहकर,

सामने है एक उजाड़ गुलिस्तां, और दिल बेकरार है। 

 

जिंदा रही है जिंदा रहने की उम्मीद अब तलक,

शहर के आखिरी मकान का खुला किवाड़ है।

 

सरों के दरख्त सी रोशनी बस रहे रू-ब-रू,

फिर जो मिले पहाड़-समंदर सब स्वीकार है।

 

क्या धौंस सहूं उसका जो न हाज़िर है न नाज़िर है,

रहें जिंदा ख्वाहिशें बस, फिर चमन अपना गुलजार है।

 

इश्क में जीने-मरने का फलसफा भी है खूब नवल,

आंख में मेरी नींद नहीं और न सुबह का इंतजार है। 

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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