भारत विभिन्न संस्कृतियों का देश है। इस विशाल देश में भिन्न-भिन्न जाति धर्म के लोग रहते हैं। भिन्न-भिन्न भाषाएं बोली जाती हैं। भिन्न-भिन्न पहनावा, भिन्न-भिन्न रीति रिवाज। इसके बावजूद संपूर्ण जनमानस एक भावनात्मक लोक रिश्ते में आबद्ध होता है। सबका रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, चाल-व्यवहार, कला-कौशल, बोली-बानी आदि देखने में भले अलग-अलग हों, परन्तु एक ऐसा सूत्र है, जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते हैं। यही भारत की लोक संस्कृति है। श्रमजीवी जनता ही अपनी जीवन पद्धतियों के अनुसार अपने लोक का सृजन करती है। सभी जातियों की अपनी-अपनी लोक विरासत होती है। जिसका संवर्धन एवं संप्रेषण पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहता है। कुछ जातियों के लोकनृत्य एवं गीत तो आज जीवित है, मगर बहुत सी जातियों की लोकविधाएं समय के साथ विलुप्तप्राय अथवा मृतप्राय हो गईं। कुछ विरले कलाकारों ने विलुप्त होती हुई इन लोक विरासतों को सजाने-संवारने में अपने सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे विरले कलाकारों में एक उद्भट कलाकार थे हैदर अली जुगनू।
अहीर जाति का बिरहा हमारी बहुमूल्य लोक संस्कृति का हिस्सा है। मगर अपनी लोकप्रियता के कारण बिरहा गायकी आज जाति विशेष तक ही सीमित नहीं रह गई है अपितु यह जाति और धर्म की सीमा को लांघकर आम जनमानस की हृदयस्थली में अपनी छाप छोड़ चुकी है। आज भी यह उत्तर प्रदेश और बिहार की प्रसिद्ध और जनप्रिय लोक गायकी है। बिरहा के आदि गुरु बिहारी ने इस गायकी का जो छोटा सा पौधा रोपा, आज वह एक विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लोक मानस के अंतर्मन में गहरी पैठ बना चुका है। समय के साथ-साथ श्रम की थकान को मिटाने वाला बिरहा हर मेहनतकश अवाम का हृदय-गीत बन गया और उसके अंतस को झंकृत करने लगा। जब इसकी मिठास हैदर अली के कानों में घुली तो उन्होंने बिरहा से ऐसा रिश्ता जोड़ा, जो जिंदगी की आखिरी सांस तक अटूट बना रहा। अपनी लगन व समर्पण के चलते यही हैदर अली जुगनू एक दिन बिरहा जगत के बेताज बादशाह और लाखों-लाख बिरहा प्रेमियों के दुलरुआ बन गए।
इलाहाबाद जनपद के फूलपुर तहसील में ब्लाक बहरिया है। उसी ब्लॉक के अंतर्गत एक गांव मिझूरा में हैदर अली जुगनू का जन्म 7 जून 1950 को हुआ था। इनके पिता का नाम मुमताज अली तथा माता का नाम फातिमा बीबी था। इनके पिता जी जहाज में नौकरी करते थे। हैदर अली का विवाह अमीना से हुआ था। उनकी मृत्यु 20 अक्टूबर सन् 2013 को हुई थी। मगर जनमानस में तो वह आज भी जिंदा हैं और जब तक बिरहा जिंदा रहेगा हैदर अली का नाम भी अमिट रहेगा।
हैदर अली जुगनू भुल्लुर के अखाड़े के बिरहिया थे। भुल्लुर दादा के शिष्य रामअधार उनके गुरु थे। हैदर अली को गुरु रामअधार का सानिध्य प्राप्त होना भी एक संयोग था। जहाँ चाह वहीं राह। ऐसा कहा जाता है कि एक बार राम अधार का कार्यक्रम घीनापुर गाँव में हुआ था। ध्यातव्य है कि उस समय रामअधार का डंका संपूर्ण उत्तर प्रदेश में बजता था। वह दंगली बिरहा के पर्याय बन चुके थे। जब हैदर अली को मालूम हुआ कि रामअधार का बिरहा आज रात घीनापुर में होने वाला है तो वह अपने गांव के ही एक मित्र भरत लाल के साथ बिरहा सुनने चले गए। उस समय उनकी उम्र मात्र 14 वर्ष की थी। तब वह करनाईपुर के एक स्कूल में पढ़ते थे। रामअधार के कार्यक्रम को उन्होंने पूरी रात बड़े मनोयोग से सुना। सुबह कार्यक्रम के समापन के बाद वह घर आए और नहा-धोकर अपने स्कूल चल दिए। रास्ते में उस रात रामअधार के गाए हुए गाने को ऊँचे स्वर में उन्हीं की तर्ज पर गाते हुए चले जा रहे थे। संयोग से रामअधार जी भी उसी रास्ते से गुजर रहे थे। जब उन्होंने हैदर के सुरीले और सधे हुए स्वर को सुना तो आकृष्ट हुए बिना नहीं रह पाए। एक कलामर्मज्ञ ही किसी के अंतर्मन में बैठे हुए सच्चे कलाकार की पहचान कर सकता है। रामअधार को समझते देर न लगी कि इस लड़के के अंदर एक महान कलाकार सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। अगर इसे जागृत कर दिया जाए तो एक दिन यह बिरहा गायकी के परचम को ऊँचे आसमान तक फहरा देगा। उन्होंने हैदर को रोककर पूछा, ‘बेटा यह किसका गाना गा रहे हैं?’
‘रामअधार जी का। आज रात में ही सुना है उनका गाना।’ हैदर अली ने जवाब दिया। दरअसल वह उस समय रामअधार को नहीं पहचान पा रहे थे।
‘तुम रामअधार को पहचानते हो?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा।
हैदर कुछ विस्मित हुए। वह रात में गाने वाले रामअधार और अपने सामने खड़े हुए रामअधार का मिलान करने लगे।
‘आप राम…।’
‘हाँ पगले! रामअधार मैं ही हूं।’ वह मुस्कुराते हुए बोले।
रामअधार को अपने सामने खड़ा पाकर हैदर अली आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से नतमस्तक हो गए।
‘तुम्हारा क्या नाम है?’ रामअधार जी ने पूछा।
‘जी, हैदर अली।’
‘तुम्हारा घर कहां है?’
‘मिझूरा!’
‘बिरहा गाओगे?’
‘मैं मुसलमान हूं। मुझको भला कौन गाना गाने देगा!’
‘नहीं, तुम बिरहा गाओगे और एक दिन बहुत बड़े कलाकार बनोगे।’
रामअधार जी ने उसी दिन उनको एक वंदना गीत ‘रथिया हांका मोर भवानी, धीरे-धीरे ना’ लिखवा दिया। हैदर अली धुन के पक्के थे। इस गीत को बहुत जल्दी याद कर लिया तथा गुरु रामअधार को गाकर सुना भी दिया। उसके बाद तो गुरु शिष्य के बीच जो एकात्म स्थापित हुआ वह आजीवन कायम रहा। अपने गुरु रामअधार को वह ‘बाबू’ और गुरुमाता को ‘माई’ कहकर संबोधित करते थे। संबोधित ही नहीं करते थे अपितु आजीवन उस रिश्ते का निर्वहन भी करते रहे।
हैदर अली जितने बड़े गायक कलाकार थे उतने ही संवेदनशील इंसान भी थे। उनका सामाजिक एवं मानवीय पक्ष बहुत सशक्त था। वह गंगा जमुनी तहजीब के अलमबरदार थे, रहीम-रसखान की परंपरा के प्रतिनिधि थे। हिंदू-मुस्लिम एकता के ध्वजवाहक थे, मृदुभाषी थे। जब उनके गुरु रामअधार एवं गुरुमाता का स्वर्गवास हुआ तो वह बिलख-बिलख कर रोए। दाह संस्कार से लेकर तेरही संस्कार तक एक बेटे की तरह अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया था। गुरु रामअधार की तेरही के अवसर पर उन्होंने स्वयं बिरहा कार्यक्रम का आयोजन भी करवाया था। इन्हीं मानवीय गुणों के कारण वह जनमानस के दुलरुआ बन गए।
हैदर अली के अन्तर्मन में गायकी की जिजीविषा बहुत तीव्र थी। अपने गुरु के द्वारा लिखवाए गए बड़े-बड़े गानों को एक दो दिन में ही कंठस्थ कर लेते थे। उनकी मेहनत और लगन के कारण थोड़े ही समय में उनका नाम इलाहाबाद के बड़े गायकों में शुमार होने लगा। उस वक्त के स्थापित बड़े-बड़े ख्यातिलब्ध बिरहा गायकों से उनकी टक्कर होने लगी। चारों ओर उनकी तूती बोलने लगी। इलाहाबाद के राम कैलाश, दयाराम, बचऊ यादव, लालजी लहरी तथा बनारस के रामदेव, हीरालाल, बुल्लू और मंगल कवि, बेचन राजभर, परशुराम आदि गायकों से उनकी कांटे की टक्कर होने लगी। जैसे-जैसे हैदर अली की ख्याति बढ़ती गई वैसे-वैसे बिरहा गायकी जाति एवं धार्मिक सीमा लाँघ कर मुसलमानों में भी लोकप्रिय होने लगी तथा देश की गंगा-जमुनी तहजीब की साझी विरासत समृद्ध होती गई। हैदर अली की लोकप्रियता इलाहाबाद की सीमा को लांघकर अन्य जिलों एवं प्रदेशों पहुँचने लगी। हैदर अली के कार्यक्रमों में पच्चीसों हजार दर्शक एकत्र होने लगे। पूरी रात जनता टस से मस नहीं होती थी। जब वह मंच पर खड़े होते और श्रोताओं को प्रणाम करके अपनी सुमिरनी ‘रथिया हांका मोर भवानी, धीरे-धीरे ना’ गाना शुरू कर देते तो हैदर अली का जादू जनता के सिर चढ़कर बोलने लगता था। जनता मंत्रमुग्ध हो जाती थी। उनकी एक-एक अदा जनता का मन मोह लेती थी। कभी-कभी तो ऐसी स्थिति बन जाती थी कि विपक्षी कलाकार को जनता बैठा देती थी और कहती थी कि हैदर अली अब अकेले गाएंगे। मगर हैदर अली बड़ी विनम्रता के साथ आयोजक मंडल से कहते थे कि यह कला और कलाकार का अपमान है, जो उनके लिए असहनीय है।
हैदर अली अपने सभी समकालीन कलाकारों को अपना लोहा मनवा चुके थे। रामदेव, बुल्लू, पारसनाथ, बेचन राजभर, परसुराम, ओमप्रकाश आदि इनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे, मगर हैदर अली की गायकी की थाह कोई नहीं लगा पाया। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि उनके बिरहा दंगलों में हजारों-हजार लोगों की भीड़ उमड़ती थी। इलाहाबाद के लालजी लहरी के साथ इनका मुकाबला बहुत रोचक एवं कभी-कभी तनावपूर्ण भी हो जाता था। हैदर अली जहां सौम्य एवं विनम्र स्वभाव के थे, वहीं लालजी लहरी का तेवर थोड़ा तीखा था। कभी-कभी तो माहौल में भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच जैसा तनाव हो जाया करता था।
लालजी फटका गाने के महारथी थे जबकि हैदर अली सरल एवं मृदुभाषी थे। इन दोनों महान गायकों के बीच सन् 84 के आस-पार एक मुकाबला झूँसी में हुआ था, जिसकी चर्चा तमाम बिरहा प्रेमी आज भी किया करते हैं। उस प्रोग्राम को सुनने के लिए मैं भी गया हुआ था। रात भर जोरदार बिरहा हुआ। सवाल-जवाब होते रहे। इसी बीच लालजी लहरी ने प्रसंगवश हैदर अली से कृष्ण की सोलह हजार पटरानियों के नाम पूछ लिए। इस बेतुके सवाल पर हैदर अली के गुरु रामअधार आपे से बाहर हो गए। माइक पर खड़े होकर हैदर अली को कसम धराते हुए बोले, ‘अबे हैदरवा, आज से अगर तू लालजी के साथ बिरहा गाए तब हम आपन गर्दन काट लेब।’
ध्यातव्य है कि हैदर अली और गुरु राम अधार के बीच पिता पुत्र जैसा संबंध था, इसलिए वह हैदर अली को पिता की तरह ही डांटते थे। इस घटना के बाद हैदर अली और लालजी लहरी के बीच कई सालों तक बिरहा मुकाबला नहीं हुआ था। कुछ सालों बाद में रामअधार ने हैदर को अपनी कसम से मुक्त किया तब दोनों के बीच फिर मुकाबला ही शुरू हो गया और दोनों कलाकारों के बीच मित्रता भी बहुत प्रगाढ़ हो गई।
हैदर अली की गायकी विविधताओं से पूर्ण थी। जीवन का कोई ऐसा संदर्भ नहीं जहाँ हैदर अली की दृष्टि न पहुंची हो। एक और रामायण के प्रसंग पर आधारित बिरहा ,’चंद्रमा में दाग क्यों’ में गाते हैं- ‘पूछैं भक्तन के सरताज चंद्रमा क्योंकर दागी है।’ दूसरी ओर ‘जय जवान जय किसान जय विज्ञान‘ में गाते हैं-
हल अउ कुदाल लइके मुड़वा पे पगिया
दूजा बंदूक लइके बारेला अगिया
दोनों बीरनवां के इज्जतिया खातिर
बम और गोला बनावे हो
तीनौं देशवा के लजिया बचावैं हो
‘दो भाई की कहानी’ के मार्मिक प्रसंगों को सुनकर श्रोताओं के आंसू बहते हैं तो अहीर और बनिया की कहानी, मिट्ठू हलवाई तथा रतौंधिया जीजा जैसे गाने सुनकर हंसी के फव्वारे भी फूटते हैं। चंद्रशेखर आजाद का बिरहा सुनकर श्रोताओं के भुजाएं फड़क उठती हैं तो सती अनुसुइया का बिरहा सुनकर भारतीय नारी का एक आदर्श चित्र मानस पटल पर बिम्बित हो जाता है। ननद भौजाई का बिरहा पंचायती व्यवस्था का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त राजीव गांधी हत्याकांड एवं मुंबई बम विस्फोट जैसी सामयिक राजनीतिक घटनाओं पर भी उन्होंने बिरहा गाया। कारगिल युद्ध के एक प्रसंग पर आधारित बिरहा ‘मां तुझे सलाम‘ में उन्होंने बिहार के चंपारण जिले में जन्मे अमर शहीद अरविंद कुमार पांडे की वीरगाथा को बहुत ही ओजस्विता के साथ गाया। इस देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत, करुण, मर्मस्पर्शी एवं ओजस्वी बिरहा को सुनकर श्रोताओं के हृदय सागर में देश प्रेम की का ज्वार उमड़ पड़ता है।
लोक का कोई छंद नहीं जो हैदर अली की गायकी की परिधि से बाहर हो। वह लोकधुनों को बहुत अधिकारपूर्वक गाते थे। कजरी, सोहर, चइता, पूर्वी, दादरा, बेलवरिया, संस्कार गीत, विवाह गीत, पचरा सब कुछ उनके लोक संसार में शामिल था। जातीय गीत जैसे अहिरउआ खड़ी बिरहा, कोहरउआ, पंवारा, धोबी गीत, मल्लाहों के गीत सब कुछ उनके यहां मिलता था। फिल्मी धुनों में उनकी कोई खास रुचि नहीं होती थी। हालांकि आवश्यकतानुसार फिल्मी धुनों का भी प्रयोग कर लिया करते थे मगर उनकी मूल चिंता तो विलुप्त होती हुई लोकधुनों को जिंदा रखना था। वह कहते थे कि फिल्म वाले हमारी लोकधुनों को चुराकर प्रसिद्ध हो जाते हैं और बेशुमार पैसे कमाते हैं। हमें अपनी माटी की खुशबू को भूलना नहीं चाहिए। वह हमारी विरासत है। हमारी संपत्ति है तथा उसे जिंदा रखने की हमारी ही जिम्मेदारी है। उनके गानों में आई हुई लोक धुनों के तमाम मुखड़े आज भी लोगों की जुबान पर हैं।
हालांकि हैदर अली मंच के सफल गायक के रूप में स्थापित हो चुके थे लेकिन जब टेप रिकॉर्डर का जमाना आया तो इलेक्ट्रॉनिक्स मार्केट में भी उन्होंने अपना परचम लहराया। उनके के गानों की धूम मच गई। टी सीरीज और गंगा कैसेट्स जैसे कई कैसेट निर्माता हैदर अली के गाने रिकॉर्ड करवा कर बाजार में ले आए और इस कालजयी गायक की मधुर आवाज गाँव-गली-घर में गुंजायमान हो गई। उनके गाये दो भाई की कहानी, ननद भौजाई का झगड़ा, चूमचटाकन, डाकू परशुराम, डाकू समशेर सिंह, सती अनुसुइया, चक्रव्यूह भेदन, जैसी करनी वैसी भरनी, एक दूल्हा दुलहिन पाँँच आदि सैकड़ों गानों के ऑडियो एवं वीडियो कैसेट्स से बाजार पट गए। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि गांव में जब लाउडस्पीकर बजता था तो लोग लाउड स्पीकर बजाने वाले को हैदर अली के गानों के सिवा कोई दूसरा कैसेट बजाने ही नहीं देते थे।
हैदर अली अपनी गायकी में ही सौम्य, सरल एवं मृदुभाषी नहीं थे बल्कि अपने निजी जीवन में भी अपनी सरलता एवं सदाशयता के लिए प्रसिद्ध थे। पहले समय की गायकी में कलाकार फटका भी गाया करते थे, जो अक्सर फ़ूहड़ होने के साथ-साथ अश्लील भी हुआ करता था। इस गीत के बहाने गायक कभी-कभी कलाकार के निजी जीवन में भी ताक-झांक करने लगते थे। मगर हैदर अली ने सस्ती लोकप्रियता के लिए कभी भी फूहड़पन का सहारा नहीं लिया। अगर उनका प्रतिद्वंद्वी कलाकार ऐसा करता था तो भी वह बड़ी शालीनता से ही जवाब दिया करते थे। वह कहते थे कि हमें ऐसा बिरहा नहीं गाना चाहिए, जिसे परिवार के साथ सुनने में शर्म महसूस हो। वह अपने से ज्यादा अपने चाहने वाले की मर्यादा की परवाह करते थे। तभी तो वह सबके दुलरुआ थे।
एक सच्चा कलाकार अपने हृदय की अंतर्वेदना को पीकर अपनी लोककला की साधना करता है तथा जनता का मनोरंजन करता है। वह अपनी पीड़ा को अपने चाहने वालों पर कभी लादता नहीं। अंदर ही अंदर खुद तो रोता है मगर अपने चाहने वालों को हंसाता रहता है। एक सच्चे कलाकार होने के नाते हैदर अली ने भी अपने चाहने वालों पर अपनी अंतर्वेदना को कभी भी आरोपित नहीं होने दिया। उन्होंने अपनी कई संतानों को खोने की पीड़ा सही। एक ओर अपने बच्चों की मृत्यु की हाहाकारी वेदना का उड़ता हुआ समुद्र और दूसरी ओर मंच पर अपने श्रोताओं का मनोरंजन-‘पतरकू काहे जदुइया डाल्या’। अद्भुत अंतर्विरोध। यह प्रमाण है हैदर अली के एक सच्चे और समर्पित कलाकार होने का। इतनी बड़ी परीक्षा केवल हैदर अली ही पास कर सकते हैं।
हैदर अली की गायकी का फलक बहुत विस्तृत था। उन्होंने सती अनुसुइया, सुलोचना जैसी धार्मिक एवं पौराणिक चरित्रों पर गाने गाए तो चंद्रशेखर आजाद, शहीद-ए-आजम भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को भी अपनी गायकी का विषय बनाया। इसके अतिरिक्त राजीव गांधी हत्याकांड, मुंबई बम विस्फोट जैसे सामयिक विषयों पर भी बिरहा गाया। दो भाई की कहानी जैसे सामाजिक मुद्दे को अपना विषय बनाया। कोई भी विषय उनकी गायकी से अछूता नहीं रहा। उनके गाने के कथ्य बहुत ही यथार्थपूर्ण और मार्मिक होते थे वह भावनाओं में पूरी तरह डूब कर अपनी प्रस्तुति देते थे। उनके द्वारा गाए गए हास्य और व्यंग्य शैली के गाने बहुत लोकप्रिय हुए। रतौधिंया जीजा, मै बली हनुमान…आदि गाने सुनकर हंसते-हंसते श्रोताओं के पेट फूलते थे। दो भाई की कहानी जैसे मार्मिक गाने सुनकर दर्शक रोने लगते थे।
लोकधारा की जो मसाल हैदर अली ने जलाई आज उनके सैकड़ों शिष्य उसे आगे ले जाने का काम कर रहे हैं और बिरहा गायकी को नई ऊंचाई तक पहुंचाने में लगे हुए हैं। उनके एक बहुत ही प्रिय एवं मेधावी शिष्य हैं अभयराज यादव, जो एक युवा गायक हैं। वह रेडियो, दूरदर्शन एवं उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक कला केंद्र इलाहाबाद की तरफ से भी अपनी प्रस्तुति देते हैं। आज उनसे मुलाकात हुई तो हैदर अली पर काफी बातें हुई। मैंने उनसे पूछा कि जब आपने बिरहा गायन की शुरुआत की उस समय इलाहाबाद और बनारस में बहुत नामी-गिरामी गायक थे, मगर आपने हैदर अली को ही क्यों गुरू माना? अभयराज ने जवाब दिया कि यह सही है कि जब मेरे मन में बिरहा गाने की इच्छा जागृत हुई, उस समय एक से बढ़कर एक गायक कलाकार मौजूद थे। मगर मैंने गुरुजी में जो गंभीरता, वात्सल्य तथा सहजता देखी, वह मुझे औरों में नहीं दिखाई पड़ी। अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की जो ललक उनमें थी, मुझे अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई पड़ी। शुरू में गुरु जी की बड़ी-बड़ी आंखें देखकर मुझे डर लगा था, मगर जब उनका सानिध्य मिला तो मैंने उनके अंतस्तल में करुणा एवं समर्पण का उमड़ता हुआ सागर पाया। गुरु जी हमेशा चाहते थे कि उनके शिष्य उनसे भी बड़े गायक बने। गुरुजी के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर मैंने यह निश्चय किया कि बिरहा सीखूंगा तो हैदर अली जी से ही। एक दिन मै उनके गाँव मिझूरा गया और उनसे अपनी इच्छा जाहिर की। गुरु जी ने मुझको सहर्ष अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। वह अपने कार्यक्रमों में मुझको भी साथ ले जाने लगे और एक-दो बिरहा मुझसे भी गवाने लगे।
20 अक्टूबर सन् 2013 की मनहूस शाम! लोकगायकी का दुलरुआ हमेशा के लिए आंखें बंद करके सो गया। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर सम्पूर्ण बिरहा जगत और उनके चाहने वाले लाखों बिरहा प्रेमी स्तब्ध रह गए। वज्रपात हो गया। धर्म और जाति की सारी दीवारें टूट गईं और मिझूरा गाँव में अथाह जनसैलाब उमड़ पड़ा। पचासों हजार लोग उनकी शवयात्रा में शामिल हुए और नम आँखों से अपने दुलरुआ लोकगायक की विदाई दी। इलाहाबाद और बनारस के सभी ख्यातिलब्ध कलाकारों ने हैदर अली को खिराजे-अकीदत पेश किया। क्षेत्रीय सांसद और विधायकों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। हीरालाल, परशुराम, ओमप्रकाश, प्यारेलाल, जोखन, राममूरत, लालजी लहरी, ननकू पाल आदि गायकों ने हैदर अली को श्रद्धांजलि अर्पित किया। हीरालाल ने कहा कि ‘एक हैदर को पैदा होने में सदियां गुजर जाती हैं। परशुराम ने कहा कि ‘हैदर अली के दिवंगत होने से बिरहा का सूरज अस्त हो गया।’ इसी तरह सैकड़ों कलाकारों ने हैदर अली श्रद्धांजलि अर्पित की थी। उस दिन मिझूरा गांव लोगों से पट गया था। आज हैदर अली भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है, परंतु उनके गानों की अनुगूंज रहती धरती तक कायम रहेगी।
लोक दुलरुआ हैदर अली जुगनू आज हमारे बीच नहीं है, मगर अफसोस है कि वह जिस सम्मान के वह हकदार थे उन्हें सरकारों से नहीं प्राप्त हुआ। हालांकि हैदर अली जी ने न कभी पुरस्कार प्राप्त करने की कोशिश की और न ही किसी की चाटुकारिता की। वह तो जनता से मिलने वाले अथाह प्यार और सम्मान से ही अघाए हुए थे। उन्होंने लोकगायकी का परचम जिस ऊंचाई तक फहराया, वह काम बहुत कम ही कलाकार कर सके हैं। मगर सरकारों तथा सांस्कृतिक संस्थाओं ने उन्हें हमेशा नजरअंदाज किया। पुरस्कार पाने की योग्यता का पैमाना ही बदल गया है। अब दुम-दोलन की प्रवृत्ति में पारंगत होना ही पुरस्कार का पैमाना बन चुका है।
आज जब हमारी उजड़ती हुई लोक संस्कृति आखिरी सांसें गिन रही है, हमारे सांस्कृतिक मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं, चहुँ ओर धर्मोंन्माद बढ़ता जा रहा है, घृणा और नफरत का साम्राज्य स्थापित हो चुका है। ऐसे कठिन समय में हैदर अली जैसे लोकधर्मी कलाकारों की सख्त जरूरत है। सामाजिक सद्भाव के मिशन को आगे बढ़ाना आज के कलाकारों की जिम्मेदारी है। हमें अपनी लोक विरासत को अपने खेत खलिहानों की तरह बचाना होगा।
हैदर अली जुगनू और साथियों का बिरहा सुनिए
मोहनलाल यादव कवि-नाटककार हैं। नौटंकी, बिरहा आदि से गहरे जुड़े मोहनलाल यादव ने लोककलाओं और लोककलाकारों पर भी लिखा है।
हैदर अली जुगनू जी के जीवन के विविध पक्षों को प्रतिबिंबित करता शानदार आलेख.