बीते वर्ष हिंसा की आग में जले भारत के मणिपुर राज्य में चुनाव अभियान पूरी तरह ठंडा पड़ा हुआ है। राज्य के नागरिकों में आम चुनाव को लेकर उत्साह नहीं है। यहां नेताओं के भाषणों और राजनीतिक दलों के जोशीले कार्यकर्ताओं की भीड़ के स्थान पर शोक संतृप्त परिवार हैं, निराशा है, टूट चुकी उम्मीदें हैं और सरकार के प्रति नाराजगी है। मणिपुर में चुनाव अभियान मौन तरीके से चल रहा है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार मणिपुर में रैलियों का आयोजन, मंचों से भाषण, बैनर-पोस्टर पूरी तरह चुनाव अभियान से गायब हैं। गुप्त मीटिंगों और बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव अभियान चलाया जा रहा है। मणिपुर और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा अपने बड़े नेताओं और स्टार प्रचारकों को मणिपुर भेजने से बच रही है। लोगों में सरकार के खिलाफ असंतोष है।
8 फरवरी 2014 को भाजपा के घोषित पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने इम्फाल में ‘न्यू होप, न्यू मणिपुर’ रैली को संबोधित किया था। उन्होंने अपने भाषण में मणिपुर के लोगों को एक नई उम्मीद और नए मणिपुर का भरोसा दिया था।
Deeply thankful to people of Manipur for their warm welcome during the rally on 'New Hope, New Manipur' in Imphal pic.twitter.com/qRbl7FAdtU
— Narendra Modi (@narendramodi) February 8, 2014
हालांकि इस चुनाव में मणिपुर की दोनों लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने नए मणिपुर का आश्वासन देने वाली भाजपा पर भरोसा किया, क्षेत्रीय दलों के सहयोग से भाजपा अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई । 2019 के लोकसभा चुनाव में मणिपुर की 2 सीटों में से एक भाजपा के खाते में गई। 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मणिपुर में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। सरकार बनने के एक साल बाद ही मई 2023 में मणिपुर में हिंसक जातीय संघर्ष शुरू हो गए जो 10 महीनों तक चलते रहे। महिलाओं के खिलाफ बर्बरतापूर्ण अपराध किए गए।
मणिपुर में पिछले एक साल में बने हालातों के चलते लोगों का भरोसा टूटा है, जो आम लोकसभा चुनाव 2024 में साफ दिखाई दे रहा है।
अधिकारियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, ‘अशांति के बाद 50,000 से अधिक लोग शिविरों में रह रहे हैं।’ निर्वाचन आयोग ने घोषणा की है कि विस्थापित आबादी को राहत शिविरों से वोट डालने का अवसर मिलेगा।
सामान्यतः मणिपुर में मतदान प्रतिशत पारंपरिक रूप से काफी अच्छा रहता है। लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान यहां 82 फीसदी मतदान हुआ था। इस बार हालात कुछ और हैं। राज्य में हुई भीषण जातीय हिंसा का असर चुनावों पर पड़ा है। कई नागरिक समाज समूह और प्रभावित लोग मौजूदा परिस्थितियों में चुनाव कराने की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे हैं।
पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, मणिपुर में जातीय हिंसा के कारण 11 महीने पहले अपना घर गंवाने के बाद एक राहत शिविर में रह रही महिला नोबी का कहना है, ‘मैं उस जगह के प्रतिनिधि को चुनने के लिए वोट क्यों दूं जो जगह अब मेरी नहीं है… चुनाव का हमारे लिए कोई मतलब नहीं है।’
नोबी ऐसा सोचने वाली एकमात्र व्यक्ति नहीं हैं। मणिपुर में जातीय समूहों के बीच शत्रुता और झड़पों के कारण अपने घर लौट नहीं पा रहे। कई लोगों की यही धारणा है कि ‘मतदान के अधिकार से पहले जीने का अधिकार’ है और ‘मतदान से अधिक शांति’ मायने रखती है।
नोबी ने पीटीआई-भाषा को बताया, ‘‘सरकार सम्मान के साथ जीने के मेरे अधिकार को सुनिश्चित नहीं कर पाई है और अब वे वोट देने के मेरे अधिकार को सुनिश्चित कर रहे हैं? ‘मेरा घर मेरी आंखों के सामने जला दिया गया। मुझे और मेरे परिवार को वहां से रातों-रात जाना पड़ा। हमें यह भी नहीं पता कि वहां क्या बचा है।’
आगे नोबी ने कहा, ‘मैं उस जगह के प्रतिनिधि को वोट क्यों दूं जो अब मेरी नहीं है? यह सब नौटंकी है… चुनाव हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता।’
पहाड़ी राज्य मणिपुर में पिछले साल तीन मई से बहुसंख्यक मेइती समुदाय और कुकी समुदाय के बीच कई बार जातीय झड़पें हुईं हैं, जिनके परिणामस्वरूप 200 से अधिक लोगों की जान चली गई है।
मणिपुर में दो लोकसभा सीट के लिए चुनाव 19 और 26 अप्रैल को दो चरण में होंगे। आंतरिक मणिपुर और बाहरी मणिपुर के कुछ क्षेत्रों में 19 अप्रैल को पहले चरण में मतदान होगा, जबकि बाहरी मणिपुर के शेष क्षेत्रों में 26 अप्रैल को दूसरे चरण में मतदान होगा।’
पीटीआई ने इंफाल घाटी में चार राहत शिविरों का दौरा किया है, जहां विस्थापित लोगों ने चुनाव प्रक्रिया पर असंतोष व्यक्त किया है।
दीमा नामक युवती ने संघर्ष के साये में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की है। उसने कहा कि उसे नहीं पता कि वह आगे क्या करेगी। दीमा ने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘ऐसी स्थिति में मैं आगे पढ़ाई करने की योजना कैसे बना सकती हूं? मैं ऐसे समय में अपना पहला वोट क्यों बर्बाद करूं जब मुझे लगता है कि चुनाव नहीं कराए जाने चाहिए… मैं वोट नहीं दूंगी।’
के एच खंबा अपने राहत शिविर से 120 किलोमीटर दूर भारत-म्यांमार सीमा के पास मोरेह शहर के कुकी-बहुल क्षेत्र में अपना परिवहन व्यवसाय चलाते थे।
उन्होंने कहा, ‘चुनाव कराने से पहले मौजूदा स्थिति का कुछ समाधान निकाला जाना चाहिए था।’
यह पूछे जाने पर कि क्या वह अपना वोट डालेंगे, खंबा ने बताया, ‘हम इस बारे में अभी आपस में सलाह कर रहे हैं लेकिन एक बात तय है कि हम राज्य में चुनाव के समय को लेकर खुश नहीं हैं।’