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गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति का आन्दोलन !

आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है। आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का ऐसा दबदबा नहीं है।

इस साल 16 मई को ज्यों ही वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में शिवलिंग मिलने की जानकारी प्रकाश में आई हर-हर महादेव के उद्घोष से वहां की सड़कें – गलियां गूंज उठीं, जिसकी अनुगूँज पूरे देश में सुनाई पड़ी। खासतौर से चैनलों पर तो इसके सामने सारे मुद्दे हवा हो गए। सचमुच सारे मुद्दों को पृष्ठ में धकेलकर ज्ञानवापी में शिवलिंग मिलना सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। ज्ञानवापी परिसर में कमिश्नर कार्यवाई के दौरान शिवलिंग मिलने की सूचना के बाद इसकी सर्वे रिपोर्ट सामने आने के पहले ही देश के कई कोनों से हिन्दू संगठनों की ओर से यह मांग उठने लगी कि मुसलमान इस पर अपना दावा छोड़कर यह पवित्र मंदिर हिन्दुओं को सौंप दें। हिन्दू संगठनों के साथ कुछ- कुछ मुस्लिम संगठन व बुद्धिजीवी भी ऐसी मांग उठा रहे हैं। इस मामले पर राजनीतिक दल अपनी राय देने में सावधानी बरत रहे हैं। किन्तु इस पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का बड़ा बयान आया है। उन्होंने बीजेपी सरकार को घेरते हुए कहा है,’ ज्ञानवापी जैसी घटनाओं का जानबूझकर बीजेपी और उसके सहयोगियों द्वारा भड़काया जा रहा है। बीजेपी के पास महंगाई और बेरोजगारी का जवाब नहीं है इसलिए इस तरह के मुद्दे उठाये जा रहे हैं।’ ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की ओर से उसके प्रवक्ता वारिस पठान ने कहा है कि इस पूरे मामले पर बीजीपी सियासत कर रही है. उन्होंने सवाल करते हुए कहा है कि किसी ने ट्विट करते हुए कहा है कि क्या औरंगजेब इतना बेवकूफ था कि उसने पूरे मंदिर को तोड़ दिया और शिवलिंग को छोड़ दिया ताकि भाजपा उस पर सियासत करती रहे। इसके साथ ही उन्होंने कहा है ,’ अब चक्रपाणी स्वामी कह रहे हैं कि दिल्ली की जामा मस्जिद खोदने की इजाजत दो क्योंकि हमें लगता है वहां भी मंदिर है और मूर्तियाँ हैं। तो मेरी भी आस्था है और मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री जिस घर में रह रहे हैं उसके नीचे मस्जिद है। मैं भी चला जाऊँगा किसी कोर्ट में और इजाजत मांगूंगा कि मुझे वहां खुदाई करने दिया जाय, तो करने देंगे क्या ?’

लेकिन इस मामले में सबसे स्पष्ट बयान बसपा सुप्रीमो मायावती की ओर से आया है। उन्होंने भाजपा सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा है,’ भाजपा चुन-चुनकर धार्मिक स्थलों को निशाना बना रही है। इससे देश का माहौल बिगड़ रहा है। देश में निरंतर बढ़ रही गरीबी बेरोजगारी व आसमान छू रही महंगाई आदि से त्रस्त जनता का ध्यान बांटने के लिए बीजेपी व इनके सहयोगी संगठन चुन-चुन कर व खासकर यहाँ के धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है तथा इससे  कभी भी हालात बिगड़ सकते हैं’। उन्होंने आगे कहा है,’ ज्ञानवापी, मथुरा, ताजमहल व अन्य मामलों की आड़ में जिस प्रकार से षड्यंत्र  के तहत लोगों की भावनाओं को भड़काया जा रहा है, इससे देश मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर ही होगा। बीजेपी को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है ..एक धर्म समुदाय से जुड़े स्थानों के नाम भी एक-एक करके जो बदले जा रहे हैं, इससे तो अपने देश में शांति, सद्भाव और भाईचारा नहीं, बल्कि, आपसी नफ़रत की भावनाएं पैदा होंगी। यह सब अत्यंत चिंतनीय है। इस सबसे ना तो अपने देश और ना ही यहाँ की आम जनता का भला हो सकता है।’

ज्ञानवापी मस्जिद – क्यों उखाड़े जा रहे हैं गड़े मुर्दे?

आरएसएस ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए इसे ‘सत्य’ बताया है और कहा है कि सत्य की राह को बहुत दिनों तक नहीं रोका जा सकता। वह अपना रास्ता बना ही लेता है।’ जहाँ तक सेकुलर और वंचित वर्गों के बुद्धिजीवियों का सवाल है, ढेरों लोगों को इसमें देशद्रोहिता नजर आ रही, इसके पीछे भाजपा का भयानक मंसूबा नजर आ रहा है। इसलिए फेसबुक पर धर्मवीर यादव जैसे बहुजन बुद्धिजीवी चेताते हुए लिखे हैं ,’ वे तुम्हें अतीत में उलझा रहे हैं, ताकि तुम अपना भयानक भविष्य न देख सको‘। समाज विज्ञानी सुब्रतो चटर्जी को इसमें जो भविष्य दिख रहा है, उसके आधार पर वह खुलकर कह दिए हैं,’ गोबर पट्टी के महानुभावाओं के लिए ज्ञानवापी में दूसरा अयोध्या बनाने की तैयारी है।’ चिंतक  प्रेम कुमार मणि का मानना है,’ शिव को लेकर एकबार फिर वैसा कोहराम खड़ा किया जा रहा है, जैसा तीन दशक पूर्व राम को लेकर किया गया था। कृष्ण को लेकर भी होगा। ’बहरहाल ज्ञानवापी में कथित शिवलिंग मिलने के बाद जिस तरह हिन्दू संगठनों में उबाल आया है, उससे सुब्रतो चटर्जी, प्रेम कुमार मणि इत्यादि की यह भविष्यवाणी सही होने जा रही है कि ज्ञानवापी दूसरा अयोध्या बनने जा रही है। इसमें राम जन्मभूमि मुक्ति के वे सारे तत्व हैं जिसे हवा देकर संघ का राजनीतिक संगठन भाजपा अप्रतिरोध्य बन गयी।

भाजपा ने जो अभूतपूर्व राजनीतिक सफलता अर्जित की है, उसके पृष्ठ में आम लोगों की धारणा है कि धर्मोन्माद के जरिये ही उसने सफलता का इतिहास रचा है, जो खूब गलत भी नहीं है. पर, यदि और गहराई में जाया जाय तो यह साफ नजर आएगा कि भाजपा के पितृ संगठन ने सारी पटकथा गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर रची और इसका अभियान चलाने के लिए ‘रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ और ‘धर्म स्थान मुक्ति यज्ञ समिति’ इत्यादि जैसी कई समितियां साधु- संतों के नेतृत्व में खड़ी की। संघ ऐसा भारतीय समाज मे साधु-संतों की स्वीकार्यता को ध्यान रखकर किया. साधु-संत हिन्दू समाज में एक ऐसेविशिष्ट मनुष्य –प्राणी के रूप में विद्यमान हैं, जिनके कदमों मे लोटकर राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति, सीएम से लेकर पीएम तक खुद को धन्य महसूस करते हैं। गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति-अभियान में उनकी भूमिका युद्ध के मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में तैनात फ़ौजियों जैसी रही. साधु- संतों के रामजन्मभूमि जैसे गुलामी के विराट प्रतीक की मुक्ति के अभियान में अग्रिम मोर्चे पर तैनात होने के कारण ही देखते ही देखते यह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों मेंस्वाधीनोत्तरभारत मे सबसे बड़े आंदोलन का रूप अख़्तियार कर कर लिया। साधु- संतों के नेतृत्व में गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक, रामजन्मभूमि की मुक्ति के नाम पर चले आंदोलन के फलस्वरूप ही भाजपा पहले राज्यों और बाद में केंद्र की सत्ता पर काबिज होते हुये आज राजनीतिक रूप से अप्रतिरोध्य बन गयी है.गुलामी के प्रतीक के रूप में राम जन्मभूमि का जितना उपयोग करना था, भाजपा कर चुकी है। न्यायालय के फैसले से राम मंदिर निर्माण का शुरू होने के बाद अब उसका राजनीतिक उपयोग करने लायक कुछ बचा नहीं है। इसलिए संघ परिवार को गुलामी के किसी अन्य प्रतीक की जरूरत थी, जिसकी मुक्ति की लड़ाई के जरिये धर्मोन्माद फैलाकर नए  सिरे से सत्ता कब्जाने का मार्ग प्रशस्त हो सके. ज्ञानवापी में मिला शिवलिंग वह कर दिया है, इसलिए बाबरी मस्जिद की भांति काशी में औरंगजेब द्वारा बनवाई गयी मस्जिद के ध्वस्तीकरण में सर्वशक्ति लगाकर संघ परिवार वैसा कुछ लाभ लेना चाहेगा जैसा, राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन से लिया था। ऐसे में देश को रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन जैसा भयावह दौर देखने की मानसिक प्रस्तुति ले लेनी चाहिए।

बहरहाल रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन में जिस तरह राष्ट्र की अपार संपदा और प्राण-हानि  हुई, उसे देखते हुए देश में अमन-चैन के पैरोकार मुस्लिम समुदाय पर यह दबाव बनाने की कोशिश कर सकते हैं मुसलमान इस पर अपना दावा छोड़कर इसे हिन्दुओं को सौंप दें। शिवलिंग के सामने आने के बाद खुद कुछ मुस्लिम संगठनों और बुद्धिजीवियों ने ऐसी मनसा जाहिर की है। शायद राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन से मिली तिक्त अभिज्ञता को देखते हुए मुस्लिम समुदाय हिन्दुओं को ज्ञानवापी सौंपने के लिए भी तैयार हो जाते, यदि संघ परिवार की ओर से यह गारंटी मिलता कि वे आगे से ऐसा आन्दोलन नहीं चलाएंगे। लेकिन जिस तरह गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति आन्दोलन के जरिये संघ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा को लाभान्वित कर चुका है, वह  कभी भी इसकी गारंटी नहीं दे सकता। अगर गारंटी दे भी दे तो भी कोई विश्वास नहीं करेंग।  क्योंकि उसकी लिस्ट में गुलामी के ढेरों प्रतीक जनसमक्ष आ चुके है। इन पंक्तियों के लिखने दौरान एक बहुपठित अख़बार में  उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘नमामि काशी- काशी विश्वकोष‘ में लिपिबद्ध तथ्यों के आधार पर यह खबर प्रमुखता से छपी है कि काशी में कोने-कोने में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनकी बुनियादों पर मस्जिदों और दरगाहों के कंगूरे चमक रहे हैं। काशी की ज्ञानवापी की भांति मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि को लेकर भी मामला अदालत में पड़ा है। गुलामी के प्रतीक के रूप में जौनपुर की अटाला मस्जिद, अहमदाबाद की जामा मस्जिद, बंगाल के पांडुआ की अदीना मस्जिद, खजुराहों की आलम-गिरी मस्जिद जैसी अनेकों मस्जिदें संघ के लिस्ट में हैं, जिनके विषय में इसका दावा है कि वे मंदिरों को ध्वस्त कर विकसित की गयी हैं. अगर मुसलमान शासकों ने असंख्य मंदिर और दरगाह खड़ा किये तो ईसाई शासकों के सौजन्य से दिल्ली में संसद भवन तो प्रदेशों में विधानसभा भवनों सहित असंख्य भवनों, सड़कों, रेल लाइनों, देवालयों, शिक्षालयों, चिकित्सालयों और कल -कारखानों के रूप मे भारत के चप्पे-चप्पे पर गुलामी के असंख्य प्रतीक खड़े हुए। ऐसे में संघ गुलामी के एक प्रतीक को मुक्त करेगा तो दूसरे के मुक्ति अभियान में जुट जायेगा. इस तरह मानकर चलना पड़ेगा गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति अभियान की रात का अंत नहीं। यह अनंत काल तक चलता रहेगा और इसके जोर से भारत के प्राचीन विदेशागत आर्य अनंत काल तक शासन करते रहेंगे। अब सवाल पैदा होता है यदि गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति के जरिये भारत के प्राचीनतम विदेशी आक्रान्ता आर्य देश पर अनंत काल तक शासन करने का मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे तब दलित, आदिवासी,पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित मूलनिवासी क्या करें? इसका उत्तर है मूलनिवासी इनसे हुई भूलों का सद्व्यवहार करें. मंडल उत्तरकाल में जिस तरह भारत के जन्मजात शासक वर्ग, खासकर भाजपा ने राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के जरिये मिली राजसत्ता का इस्तेमाल शक्ति के समस्त स्रोतों को हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहू- जंघा) से जन्मे लोगों को सौंपने में किया है, उससे भारत के मूलनिवासी वंचित वर्गों के समक्ष ‘गुलामी से मुक्ति’  का मुद्दा मुंह बाये खड़ा हो गया है। इसे समझने के लिए गुलाम और शासकों के मध्य पार्थक्य को जान लेना जरुरी है।

शासक और गुलाम के बीच मूल पार्थक्य शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) पर कब्जे में निहित रहता है। गुलाम वे हैं जो शक्ति के स्रोतों सेबहिष्कृत रहते हैं, जबकि शासक वे होते हैं, जिनका शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार रहता है। यदि विश्व इतिहास में पराधीन बनाने गए तमाम देशों के गुलामों की दुर्दशा पर नज़र दौड़ाईजाय तो साफ नजर आएगा कि सारी दुनिया में ही पराधीन बनाए गए मूलनिवासियों कीदुर्दशा के मूल में शक्ति के स्रोतों पर शासकों का एकाधिकार ही प्रधान कारण रहा। अगर शासकों ने पराधीन बनाये गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दियाहोता, दुनिया में कहीं भी स्वाधीनता संग्राम संगठित नहीं होते। शक्ति के समस्त स्रोतों परअंग्रेजों के एकाधिकार रहने के कारण ही पूरी दुनिया मे ब्रितानी उपनिवेशन के खिलाफमुक्ति संग्राम संगठित हुये। इस कारण ही अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों को स्वाधीनतासंग्राम का आन्दोलन संगठित करना पड़ा; ऐसे ही हालातों में दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासीकालों को शक्ति के स्रोतों पर 80-90% कब्ज़ा जमाये अल्पजन गोरों के खिलाफ मुक्ति संग्रामचलाना पड़ा। अमेरिका का जो स्वाधीनता संग्राम सारी दुनिया के लिए स्वाधीनता संग्रामियों के लिए एक मॉडल बना, उसके भी पीछे लगभग वही हालात रहे.गुलामों और शासकों मध्यका असल फर्क जानने के बाद आज यदि भारत पर नजर दौड़ाई जाय तो पता चलेगा कि मंडल उत्तर काल में जो स्थितियां और परिस्थितियां बन या बनाई गयी हैं, उसमें मूलनिवासीबहुजन समाज के समक्ष एक नया स्वाधीनता संग्राम संगठित करने से भिन्न कोई विकल्पही नहीं बंचा है। क्योंकि यहाँ शक्ति के स्रोतों पर भारत के जन्मजात शासक वर्ग का प्रायःउसी परिमाण में कब्जा हो चुका है, जिस परिमाण में उन सभी देशों में शासकों का कब्जारहा, जहां-जहां मुक्ति आंदोलन संगठित हुये.आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के सवर्णों जैसा शक्ति के स्रोतों पर पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट लिंग का मतलब समझती होगी, यह अपेक्षित है (डायरी 18 मई, 2022) 

आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है।  आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का ऐसा दबदबा नहीं है।  इस दबदबे ने बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, ऐसे ही हालातों में दुनिया के कई देशों में शासक और गुलाम वर्ग पैदा हुए: ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के सभी  देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए।

गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति की लड़ाई के जोर से मिली सत्ता के इस्तेमाल में भाजपा से दूसरी भूल यह हुई है कि हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों के हित में उसने उस सापेक्षिक वंचना(रिलेटिव डिप्राइवेशन )को एवरेस्ट पर पंहुचा दिया है, जो क्रांतिकारी बदलाव का सबब  बनती है।  सापेक्षिक वंचना का यह आलम न तो फ्रेंच रेवोल्यूशन पूर्व था और न ही जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में। आज की तारीख में मूलनिवासी वंचित वर्गों की लड़ाई लड़ने वाले बहुजनवादी दल अगर ‘गुलामी से मुक्ति की लड़ाई’ के साथ  सापेक्षिक वंचना का जमकर सद्व्यवहार कर दें तो  गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति की लड़ाई के सहारे अनंतकाल तक सत्ता बने रहने रहने का सपना देखने वाली भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरना खूब कठिन नहीं होगा। भाजपा की भूलों से पैदा हुए इन्हीं अवसरों का सद्व्यवहार करने के लिए निकटभविष्य में बहुजन लेखकों की ‘बहुजन डाइवर्सिटी पार्टी’ वजूद में आ रही है।

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। 

 

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
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