खबरों की तुलना व्यंजनों से की जा सकती है। हम कह सकते हैं कि कोई खबर कितनी अच्छी है, यह उसके इंग्रेडिएंट्स पर निर्भर करता है। सामान्य शब्दों में कहें तो खबरों में भी मसाले हाेते हैं। बाजदफा तो लोग यह कहकर भी अपनी खबरें बेचते हैं कि उनकी खबरें मसालेदार हैं। वैसे सच यही है कि हर खबर में मसाले होते ही हैं। किसी में कम तो किसी में अधिक। अब यह कि वह कौन सा मसाला है, जो खबरों को बेहतर बनाता है?
अब तक डेढ़ दशक की अपनी पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि खबरों में मसालों का मतलब आंकड़ा है। असल में आंकड़े तथ्यों को संपुष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि खबर में जो कुछ कहा गया है, वह आधारहीन नहीं है। पाठकों के मन में यह विश्वास ही किसी खबर को महत्वपूर्ण बनाता है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि सरकारें आजकल आंकड़ों की बाजीगरी भी खूब करती हैं। वह ऐसे आंकड़ों को सामने लेकर आती हैं, जिनका मकसद उनके दावों को सही ठहराना है
लेकिन आंकड़े दो-धारी तलवार की तरह होते हैं। इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि एक ही आंकड़े का इस्तेमाल हुक्मरानें बार-बार नहीं कर सकती हैं, क्योंकि लोगों को एक ही तरह के आंकड़े से बार-बार संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। हुक्मरानों को नये-नये आंकड़ों की आवश्यकता होती ही है।
[bs-quote quote=”नीतीश कुमार अत्यंत ही स्वार्थी और चालाक किस्म में राजनीतिज्ञ रहे हैं। उन्हें धूर्त भी कहा जा सकता है। नीतीश कुमार जानते थे कि यदि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिला और वित्तीय आंवटन अधिक हुआ तो उसका असर यह होगा कि बिहार में विकास योजनाओं को गति मिलेगी। इससे आम जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि राबड़ी देवी हुकूमत अच्छा काम कर रही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैंने अपनी खबरों में आंकड़ों को महत्व हमेशा दिया है। इसकी भी वजह रही कि मैंने अपनी पत्रकारिता तब शुरू की, जब बिहार में आंकड़ों की बाजीगरी नीतीश कुमार ने अपने साथी सुशील कुमार मोदी के साथ मिलकर शुरू की थी। वह समय 2008-09 का था। उस समय राज्य सरकार ने जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़े जारी किये थे। दावा किया गया था कि इतिहास में पहली बार बिहार का जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद दर 14 फीसदी हो गया है। मैंने सरकार के इसी दावे के आधार पर बहुत कुछ लिखा। मेरे पास स्रोत के रूप में राज्य सरकार द्वारा जारी आंकड़े होते थे।
उन दिनों मुझे जीडीपी तो छोड़िए अर्थशास्त्र का एबीसीडी तक समझ में नहीं आता था। यहां तक कि योजना मद और गैर योजना मद के बीच का अंतर भी समझ के परे था। परंतु पत्रकारिता में इन सबसे पाला पड़ा और फिर समझ में आया कि बिहार का योजना आकार देश के अनेक छोटे राज्यों से भी कम था। फिर वह पीरियड केंद्र में यूपीए सरकार का था।
एक महत्वपूर्ण जानकारी यह कि 2004 में जब डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार बनी तब लालू प्रसाद उनके मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री थे। उनकी ही पार्टी के डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह के जिम्मे ग्रामीण विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी। हालांकि इसके पहले नीतीश कुमार भी अटल बिहारी वाजपेयी की हुकूमत में ऊंचे ओहदे पर थे। लेकिन लालू प्रसाद और नीतीश कुमार में अंतर यह रहा कि नीतीश कुमार ने इस बात की हमेशा कोशिशें की कि केंद्र से बिहार को कम से कम वित्तीय आवंटन हासिल हो। यहां तक कि जब राबड़ी देवी ने वाजपेयी से पटना के गांधी मैदान में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की तब वाजपेयी सहमत हो गए थे। लेकिन नीतीश कुमार ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से केंद्र को रोक दिया।
[bs-quote quote=”समाजवादी पार्टी के सदस्य सुखराम सिंह यादव के सवाल के जवाब में नित्यानंद राय ने सदन को जानकारी दी कि आर्थिक तंगी के कारण बीते तीन सालों में 25 हजार लोगों ने खुदकुशी की। इनमें करीब 16 हजार लोग ऐसे थे, जिन्होंने दिवालिया हो जाने के कारण खुदकुशी की। वहीं करीब 9100 लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर अपनी इहलीला का अंत कर लिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, नीतीश कुमार अत्यंत ही स्वार्थी और चालाक किस्म में राजनीतिज्ञ रहे हैं। उन्हें धूर्त भी कहा जा सकता है। नीतीश कुमार जानते थे कि यदि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिला और वित्तीय आंवटन अधिक हुआ तो उसका असर यह होगा कि बिहार में विकास योजनाओं को गति मिलेगी। इससे आम जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि राबड़ी देवी हुकूमत अच्छा काम कर रही है। चूंकि उनकी नजर बिहार की कुर्सी पर थी, तो वे ऐसा होने नहीं देना चाहते थे। वे सफल भी हुए और 2005 में लालू प्रसाद-राबड़ी देवी को सत्ता से बाहर कर दिया। यह एक तरह से उनके सतत षड्यंत्र का परिणाम था, जो उन्होंने वाजपेयी सरकार में रहते हुए किया।
दूसरी ओर लालू प्रसाद को यह लगा कि उनकी सरकार इसलिए गयी क्योंकि उनके उपर विकास नहीं करने का आरोप है, इसलिए लालू प्रसाद ने 2004 से लेकर 2009 के बीच बिहार के हित में बहुत काम किया। इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003 में केंद्र संपोषित योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु वित्तीय आवंटन वर्ष 2006 की तुलना में एक तिहाई से भी कम थी। रघुवंश प्रसाद सिंह ने मनरेगा और लालू प्रसाद ने रेल मंत्रालय के जरिए भी बिहार में विकास को गति दी। परंतु, लालू यह नहीं समझ सके कि आम जनता की सोच बहुत सीमित होती है। वह केंद्र को नहीं, राज्य सरकार को देखती है। मतलब यह कि यदि दाल की कीमत चार गुनी हो जाय तब लोग केंद्र को नहीं, राज्य को दोषी ठहराते हैं। सरसों तेल के मामले में भी यही होता है।
[bs-quote quote=”कोरोना के कारण हुई मौतों से जुड़े आंकड़ों की बाजीगरी बिहार में खूब की गई। पहले तो आंकड़े कम दिखाए गए और बाद में जब पटना के बांसघाट और गुलबीघाट आदि श्मशान घाटों में अर्थियों की लंबी कतारें लगने लगीं और तस्वीरें सामने आयीं तब जाकर सरकार ने अपने आंकड़ों को दुरुस्त करने की कोशिशें की।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो हुआ यह कि लालू प्रसाद के अथक प्रयास का फायदा नीतीश कुमार ने खुद को विकास पुरुष बनने का ढोंग कर उठाया और 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 2005 की तुलना में अधिक सीटें मिलीं। जबकि लालू प्रसाद की पार्टी के सदस्यों की संख्या कम होती गयी।
खैर, मैं आंकड़ों की बात कर रहा था। कल एक आंकड़ा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में जारी किया। समाजवादी पार्टी के सदस्य सुखराम सिंह यादव के सवाल के जवाब में नित्यानंद राय ने सदन को जानकारी दी कि आर्थिक तंगी के कारण बीते तीन सालों में 25 हजार लोगों ने खुदकुशी की। इनमें करीब 16 हजार लोग ऐसे थे, जिन्होंने दिवालिया हो जाने के कारण खुदकुशी की। वहीं करीब 9100 लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर अपनी इहलीला का अंत कर लिया।
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बहरहाल, यह ताजा आंकड़ा केंद्र सरकार द्वारा मैनिपुलेटेड आंकड़ा है। सरकारें ऐसा करती हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोरोना के कारण हुई मौतों का आंकड़ा है। दिलचस्प यह कि कोरोना के कारण हुई मौतों से जुड़े आंकड़ों की बाजीगरी बिहार में खूब की गई। पहले तो आंकड़े कम दिखाए गए और बाद में जब पटना के बांसघाट और गुलाबीघाट आदि श्मशान घाटों में अर्थियों की लंबी कतारें लगने लगीं और तस्वीरें सामने आयीं तब जाकर सरकार ने अपने आंकड़ों को दुरुस्त करने की कोशिशें की।
खैर, यह तो मानना ही पड़ेगा कि आंकड़ों की बाजीगरी के मामले में नीतीश नरेंद्र मोदी के उस्ताद हैं। बस नीतीश के मामले में अंतर यह है कि नरेंद्र मोदी के जैसे उनके पास अपना कोई जनाधार ही नहीं।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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