Saturday, July 27, 2024
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उत्तर पूर्व : एक और जन्मभूमि, एक और ‘राम’– मिज़ोराम!           

बस्ती बस्ती परबत परबत जितेन्द्र भाटिया का यात्रा वृतान्त पढ़ना मतलब पढ़ना ही नहीं है बल्कि पढ़ते हुए उन इलाकों में जीवंतता से घूम भी  आना है. वे इलाकों की तहकीकात इतनी तन्मयता और एकाग्रता से करते हैं कि यदि हम वहां हों तो हो सकता उन बातों और नज़ारों पर गौर न कर सकें […]

बस्ती बस्ती परबत परबत

जितेन्द्र भाटिया का यात्रा वृतान्त पढ़ना मतलब पढ़ना ही नहीं है बल्कि पढ़ते हुए उन इलाकों में जीवंतता से घूम भी  आना है. वे इलाकों की तहकीकात इतनी तन्मयता और एकाग्रता से करते हैं कि यदि हम वहां हों तो हो सकता उन बातों और नज़ारों पर गौर न कर सकें जिनका उल्लेख भाटिया जी ने अपने लेख में किया हो. घुमक्कड़ी मिजाज़ के साथ पर्यावरणप्रेमी भाटिया जी ने उत्तर-पूर्व के उन इलाकों की सांस्कृतिक, सामजिक,आर्थिक और राजनितिक स्थितियों का  डूबकर वर्णन किया है. पढ़िए मिज़ोरम यात्रा  का यह बेमिसाल  वृत्तांत –

चुनावों की सरगर्मी के बीच मिज़ोराम जाने का ख़याल कुछ हद तक विचलित कर देने वाला था  क्योंकि कुछ महीने पहले ही असम और मिज़ोराम की सीमा पर छोटी मोटी तकरार ने गंभीर मोड़ ले लिया था और हमें अपनी यात्रा मुल्तवी करनी पड़ी थी. चुनावों के मौसम में लोगों की सहनशीलता अक्सर कम हो जाती है. लेकिन हमारा डर बेकार साबित हुआ. कहीं कहीं दीवारों पर लगे एम एन ऍफ़ (मिज़ो नेशनल फ्रंट) के नीले और कांग्रेस के हाथ चिन्ह और एकाध शाह-मोदी-कमल वाले पोस्टरों को छोड़ पूरे प्रदेश में गला फाड़ने वाले लाउडस्पीकरों, झालरों और चुनाव-प्रचार के दूसरे परिचित संकेतों का सर्वथा अभाव था.

एक जंगल में अलस्सुबह दूर से लाउडस्पीकर पर लहराती आवाज़ को जब हमने प्रचार-भाषण समझने की गलती की तो स्थानीय गाइड ने  बताया कि वह चर्च के पादरी की आवाज़ थी जो गाँव वालों के लिए मिज़ो भाषा में बाइबिल का पाठ कर रहा था. एक अन्य शहर सैतुअल में रात के समय पार्टी के दफ्तर में प्रचार की जगह सामूहिक भोज चल रहा था और कुछ नौजवान लड़के-लड़कियां सड़क पर संयत भाव से नाच रहे थे. सुदूर मुर्लेन में रविवार की सुबह चुनाव अधिकारी के घर चर्च से लौटी सुसज्जित महिलाओं का एक समूह ‘लाल चा’  के लिए आमंत्रित था. चुनाव गोया कि एक शालीन उत्सव मात्र था, जिसमें लोगों की अव्यक्त चिंताओं और मान्यताओं के बीच गुस्से और  आक्रोश के लिए कोई जगह नहीं थी.

[bs-quote quote=”ऐज़ाव्ल के हवाई अड्डे पर सिख सतर्कता अधिकारी जोगिन्दर सिंह को पता नहीं कैसे अंदेशा हुआ कि मैं विदेशी हूँ तो वह हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया. आखिरकार तंग आकर जब मैंने प्यार से उसे ठेठ पंजाबी में गाली दी, तब कहीं आधार कार्ड के बायोमेट्रिक से भी वज़नी इस भाषाई प्रमाणपत्र को सुन उसे मेरी नागरिकता पर यकीन आया” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

पूरे देश में चुनावों के दौरान बेहिसाब पैसा लुटाये जाने की व्याभिचारी परंपरा के मुक़ाबिल मिज़ोराम एक मात्र राज्य है जहां चुनाव में खड़े उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग से कुछ भ्रष्ट अधिकारियों को हटाने जाने के साथ-साथ मांग की है कि प्रति उम्मीदवार चुनाव खर्च की सीमा को 20 लाख रुपये (बड़े राज्यों के लिए 28 लाख) से घटाकर 8 लाख रुपये कर दिया जाना चाहिए क्योंकि प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए इससे अधिक पैसों की ज़रुरत नहीं होनी चाहिए. ज़रा सोचकर देखिये, अगर मिज़ोराम के उदाहरण पर सारा देश अमल करने लगे और चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर भी अंकुश लग जाए तो सरकार की छत्र-छाया में  सहचर पूंजीवाद (crony capitalism) के बूते फल-फूल रहे, चुनाव में पैसा लगाने वाले तमाम अरबपतियों की दूकानें शायद रातों-रात बंद हो जायेंगी!

मिज़ोराम में रेल नहीं है और सड़क मार्ग से यहाँ आने के लिए पहले ट्रेन द्वारा निकटतम रेल स्टेशन सिलचर(असम) और फिर वहाँ से टूटे फूटे रास्ते पर ऐज़ाव्ल तक लम्बा सफ़र तय करना होगा. इसका एकमात्र विकल्प हवाई यात्रा है. कोलकाता से महज़ पौन-एक घंटे की हवाई दूरी पर, बांग्लादेश के दूसरी ओर, पहाड़ों और बादलों के बीच बेहद सावधानी से मिज़ोराम की राजधानी ऐज़ाव्ल में उतरने वाली तमाम उड़ानें स्थानीय निवासियों से भरी मिलेंगी क्योंकि प्रदेश में पर्यटकों की आवाजाही फिलहाल काफी कम है और बाहर से आने वालों के लिए वहाँ ‘इनर लाइन परमिट’ लेना अनिवार्य है.

[bs-quote quote=”उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों ने मिज़ो प्रमुख खल्कोम के उद्दंड व्यवहार पर काबू पाने के लिए ऐज़ाव्ल के पास अपनी सशस्त्र चौकी बनायी थी जिसने कालांतर में किसी अमीबा की तरह बढ़ते-बढ़ते शहर का रूप धर लिया था. मिज़ो जातियां अंग्रेज़ों से लगातार संघर्ष करती रही थी और स्वतंत्रता के बाद यही संघर्ष भारत सरकार के भी हिस्से में आया था. ऐज़ाव्ल, जहाँ राज्य की एक चौथाई से अधिक आबादी रहती है, शायद देश का एकमात्र शहर होगा जिसपर संघर्ष के चरम पर 1966 में, विद्रोह को दबाने के लिए हमारी अपनी वायुसेना ने हवाई हमला किया.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

ऐज़ाव्ल के हवाई अड्डे पर सिख सतर्कता अधिकारी जोगिन्दर सिंह को पता नहीं कैसे अंदेशा हुआ कि मैं विदेशी हूँ तो वह हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया. आखिरकार तंग आकर जब मैंने प्यार से उसे ठेठ पंजाबी में गाली दी, तब कहीं आधार कार्ड के बायोमेट्रिक से भी वज़नी इस भाषाई प्रमाणपत्र को सुन उसे मेरी नागरिकता पर यकीन आया. वह हँसकर मुझे समझाता रहा कि बहुत से विदेशी यहाँ से लौटकर आने की जगह बांग्लादेश या मयनमार की ओर निकल जाते हैं, इसलिए उन्हें विशेष सावधानी बरतनी पड़ती है. पश्चिम में बांग्लादेश और पूर्व में मयनमार के बीच फैले मिज़ोराम की उत्तरी सीमाएं त्रिपुरा, असम और मणिपुर को छूती हैं  और इसी लिए यह प्रदेश लम्बे अरसे से जंगलों के रास्ते आने वाले घुसपैठियों के निशाने पर रहा है. मात्र ग्यारह लाख की आबादी (जिसमें से एक तिहाई ऐज़ाव्ल शहर में रहती है) वाले इस प्रांत के लिए अपनी पहचान बरकरार रखना बेहद ज़रूरी हो चला है.

लेंगपुई हवाई अड्डे से ऐज़ाव्ल शहर की ओर जाने वाला तेईस किलोमीटर का घुमावदार रास्ता गोया कि पूरे प्रदेश के भूगोल का परिचायक है. कुछ ऊपर उठते ही आपको घाटी में ठहरे बादल और उनसे आगे फैली नीली पहाड़ियां दिखनी शुरू हो जायेंगी जो एक तरह से पूरे मिज़ोराम की स्थायी पहचान हैं. बाकी रास्तों के मुकाबले चूँकि इस सड़क पर आवाजाही कुछ ज़्यादा है, इसलिए हर मोड़ पर आपको औरतें स्थानीय सब्जियों और फलों को बेचती मिलेंगी–बड़े बड़े विशालकाय नींबू, बोतलों में भरा उनका रस, केले, साग के ढेर और दस की ढेरी के हिसाब से बिकने वाले संतरे. एक जगह हमें बोतलों में बंद ताज़ा गन्ने का रस भी मिला, जो शायद गन्नों की अलग जाति के कारण बेहद गाढ़े रंग का था.

ऐज़ाव्ल शहर को कोहिमा या ईटानगर जैसे प्रदेश की दूसरी राजधानियों से अलग पहचानना मुश्किल होगा. किसी रोग की तरह बेतरतीब मकानों से ढंकी पहाड़ियां, ऊपर-नीचे जाते पहाड़ी संकरे रास्ते, जिनपर किसी भी समय ट्रैफिक बंद हो सकता है. वही ऊपर-नीचे निकलती सीढ़ियों के दोनों ओर सटकर खड़े हुए मकान, वाहनों की चिल्लपों और दुकानों के बाहर कई तरह के पोस्टर और इश्तहार. कोलकाता की ही तरह यहाँ भी एक बड़ा बाज़ार है. लेकिन इतवार के दिन सारी सड़कें ख़ाली और वीरान दिखाई देंगी क्योंकि सन्डे यहाँ चर्च का दिन है जब सब कुछ बंद हो जाता है. देखा जाए तो मिज़ोराम की अनेकानेक चर्चें यहाँ की समूची पारिवारिक, सामजिक और राजनीतिक ज़िन्दगी को नियंत्रित करती हैं.

[bs-quote quote=”मिज़ो भाषा में धरती या जन्मभूमि को ‘राम’ कहा जाता है और इसी से मिज़ो आदिवासियों को अपने प्रदेश का नाम –मिज़ो वासियों की धरती—मिज़ोराम मिला है. मिज़ो अपनी भाषा से बेतरह प्यार करते हैं और शहरों से बाहर देहातों में शत प्रतिशत साक्षरता के बावजूद मिज़ो के अलावा  हिंदी/ अंग्रेज़ी या कोई और भाषा समझने वाला शायद ही मिले. मिज़ो चीनी-तिब्बतन मूल की पुरातन भाषा है जिसे ईसाई मिशनरियों ने अंग्रेज़ी की रोमन लिपि में ढाला.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

2018 के चुनावों ने राज्य की सत्ता कांग्रेस से छीनकर चर्च के आदेशों पर चलने वाली पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट को सौंप दी है और कांग्रेस के मुख्य मंत्री थानहावला सहित बहुत से पुराने मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा है. चुनाव जीतने के बाद एम एन एफ से चुने गए नए मुख्यमंत्री ज़ोराम थांगा ने कहा है कि विकास की अन्य योजनाओं के अलावा उनकी प्राथमिकता  सड़कों को सुधारने और राज्य में फिर से शराबबंदी लागू करना रहेगी. शराब एक लम्बे अरसे से राज्य में चुनाव का एक अहम मुद्दा रही है.

1997 में कांग्रेस सरकार ने यहाँ शराबबंदी लागू की थी तो अवैध और विषाक्त शराब से प्रति वर्ष कई लोगों की जानें जाती रही थीं, जिसके चलते 2015 में सरकार ने राजस्व विभाग की निगरानी में फिर से शराबबंदी हटा दी थी. चर्च शुरू से ही सम्पूर्ण शराबबंदी के पक्ष में रही है. लेकिन देखना होगा कि इस बार शराबबंदी से प्रदेश में शराब के प्रयोग में सचमुच कमी आती है या कि इस कदम से फिर एक बार निकटवर्ती राज्यों और म्यानमार से  शराब के अवैध आयत का धंधा फिर शुरू हो जाता है.

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों ने मिज़ो प्रमुख खल्कोम के उद्दंड व्यवहार पर काबू पाने के लिए ऐज़ाव्ल के पास अपनी सशस्त्र चौकी बनायी थी जिसने कालांतर में किसी अमीबा की तरह बढ़ते-बढ़ते शहर का रूप धर लिया था. मिज़ो जातियां अंग्रेज़ों से लगातार संघर्ष करती रही थी और स्वतंत्रता के बाद यही संघर्ष भारत सरकार के भी हिस्से में आया था. ऐज़ाव्ल, जहाँ राज्य की एक चौथाई से अधिक आबादी रहती है, शायद देश का एकमात्र शहर होगा जिसपर संघर्ष के चरम पर 1966 में, विद्रोह को दबाने के लिए हमारी अपनी वायुसेना ने हवाई हमला किया.

मिज़ो नेताओं और सरकार के बीच चले बीस वर्षों के घमासान संघर्ष के बाद 1986 में मिज़ो नेशनल फ्रंट से हुए ऐतिहासिक समझौते में इसे केंद्र प्रशासित क्षेत्र से प्रथक एक नए राज्य का दर्ज़ा मिला और लम्बी खींच-तान के बाद आखिरकार प्रदेश में शान्ति बहाल हुई. ख़ुशी की बात यह है कि यह शान्ति अब तक बरकरार है और हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में भी यहाँ अलगाव/उग्रवादी गतिविधियाँ चुनाव का मुद्दा नहीं बनी हैं. बल्कि कई पत्रकारों और प्रेक्षकों ने तो इस प्रदेश को ‘शान्ति का द्वीप’ विशेषण से नवाजा है!

[bs-quote quote=”इक से आगे अगले पड़ाव सैलम तक पहुँचने के लिए हमें वापस ऐज़ाव्ल लौटने के बाद 76 किलोमीटर का सफ़र तय करने के लिए कोई 30 किलोमीटर एक ऐसे भयानक कच्चे रास्ते पर जाना था जिसे सड़क कहलाना भी इस शब्द का घोर अपमान होगा. उस पर तुर्रा यह कि वहाँ जगह जगह ‘प्रधान मन्त्री ग्राम सड़क योजना’ के सुन्दर बोर्ड लगे हुए थे,” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मिज़ो भाषा में धरती या जन्मभूमि को ‘राम’ कहा जाता है और इसी से मिज़ो आदिवासियों को अपने प्रदेश का नाम –मिज़ो वासियों की धरती—मिज़ोराम मिला है. मिज़ो अपनी भाषा से बेतरह प्यार करते हैं और शहरों से बाहर देहातों में शत प्रतिशत साक्षरता के बावजूद मिज़ो के अलावा  हिंदी/ अंग्रेज़ी या कोई और भाषा समझने वाला शायद ही मिले. मिज़ो चीनी-तिब्बतन मूल की पुरातन भाषा है जिसे ईसाई मिशनरियों ने अंग्रेज़ी की रोमन लिपि में ढाला. आधुनिक मिज़ो भाषा का अपना साहित्य है और मिज़ोराम तथा मणिपुर विश्वविद्यालयों में अब मिज़ो भाषा के विभाग भी खुल गए हैं.

 

नागालैंड की तरह मिज़ोराम में भी ईसाई मिशनरियों ने किसी अजनबी भाषा को यहाँ आरोपित करने की जगह स्थानीय मिज़ो भाषा को ही प्रचार का माध्यम बनाया और धार्मिक पुस्तकों के अलावा शिक्षा के व्यापक प्रसार के लिए स्कूल- कॉलेज की किताबों को भी मिज़ो भाषा में उपलब्ध कराया. इन्हीं प्रयासों से बीसवीं सदी के आरम्भ में मिज़ोराम में अधिकाँश आदिवासी मूल के निवासियों को धर्म परिवर्तन द्वारा ईसाई बनाया जा सका. राज्य की लगभग 95 प्रतिशत आबादी आदिवासी  मूल की है जिनमें से अधिकाँश (कुल 87 प्रतिशत) अब ईसाई बन चुके हैं. शेष में लगभग 9 प्रतिशत चकमा बौद्ध और थोड़े बहुत हिन्दू और मुसलमान आते है.

हमारी जीप के ड्राईवर मोया को मिज़ो के अलावा कोई भाषा नहीं आती थी लेकिन अंग्रेज़ी और हिंदी की मामूली समझ के सहारे वह भंगिमाओं से अपनी बात किसी तरह समझा ही लेता था और कभी-कभार जब असफल रहता तो बहुत मासूमियत से मुसकरा कर बात ख़त्म कर देता! हमारी यात्रा में वही हमारा सारथी, पथ प्रदर्शक और स्थानीय लोगों तथा हमारे बीच संवाद का डगमगाता लक्ष्मण झूला भी था.

ऐज़ाव्ल से रेइक की ओर रवाना होते समय उसने रास्ते के एक गाँव में हमें अपना घर दिखाया. फिर आगे एक दुकान के सामने बैठी लड़की से हमें बड़े बड़े चकोतरे दिलवाए. उन्हें खरीदना भी एक अभियान था. जब मैंने इशारे से एक चकोतरा लेने की बात मोया की मार्फ़त उस लड़की तक पहुंचायी तो वह बिफरकर मोया को ऊंची आवाज़ में  चुनिन्दा गालियाँ देने लगी, जिन्हें सुनकर मोया एक कदम पीछे हट गया. लड़की से लम्बी जिरह के बाद मोया ने सहमे स्वर में हमें एक चकोतरे की कीमत दस रुपये बतायी. इतनी कम कीमत सुनकर जब हमने एक की जगह दो लेने का फैसला किया तो उस लड़की के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कराहट लौट आयी. बीस के नोट के बदले तीनों विशालकाय चकोतरे हमें सौंप, वह जल्दी से दुकान समेट घर चली गयी. दरअसल वह तीनों चकोतरे बेचकर जल्दी से घर जाना चाहती थी और जीप में सवार हम बाबुओं की इकलौते चकोतरे की फटीचर पेशकश ने उसे गुस्से से भर दिया था. किस्सा कोतहा यह कि आगे राइक तक का बाकी सफ़र हमने अपनी जीप में तरबूज़ से भी बड़े उन तीन चकोतरों की परवरिश करते हुए गुज़ारा. ऊबड़ खाबड़ सड़क पर मोया द्वारा ब्रेक लगाते ही वे कभी सीट के नीचे लुढ़क जाते तो कभी ड्राईवर के गियर में रूकावट बनते आगे पहुंचे मिलते. एक वक्त तो जान छुडाने के लिए हमने उन्हें जीप से नीचे बाहर डालने की भी सोची. लेकिन आखिरकार रात के भोजन के समय जब हमने उन्हें  काटा तो उनकी बेहतरीन खुशबू और स्वाद ने उनको इतनी दूर तक ढोने का सारा मलाल दूर कर दिया.

ऐज़ाव्ल से तीस किलोमीटर के दूरी  और पांच हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित रेइक पहाड़ की चोटी से साफ़ आसमान वाले दिन एक ओर ऐज़ाव्ल की पहाड़ियाँ तो दूसरी ओर बांग्लादेश के मैदानी इलाके साफ़ देखे जा सकते हैं. पर्यटन विभाग ने यहाँ एक पारम्परिक मिज़ो गाँव भी बनाया है जिसमें प्राचीन मिज़ो मुखिया सरदार का मकान भी है. अंग्रेजों के दौर में  मिज़ोराम में पूर्ण स्वायत्ता वाले इन गांवों का बोलबाला था जिनमे गाँव का मुखिया सरदार सबसे ताकतवर होता था. इस मुखिया के नेतृत्व में दूसरे गांवों पर आक्रमण कर  लोगों को दास बनाया जाता और योद्धाओं के सिर काटकर गांवों के बाहर सजा दिया जाता था. लेकिन समय के साथ यह प्रथा सिर्फ़ पुरानी कहानियों में सिमटकर रह गयी है.

मिजोरम का एक गाँव रेइक

रेइक में हमें वहाँ के विशिष्ट और अत्यंत दुर्लभ पक्षी सलेटी मोर फाख्ता की तलाश थी जिसका स्वर अक्सर सुनायी देता है लेकिन जो दिखता बहुत मुश्किल से ही है. उस सर्वव्याप्त लेकिन अदृश्य फाख्ता की जगह हमें तितलियों से भरे जंगल मिले, जिनसे गुज़रते हुए अक्सर हम किन्हीं बहुत पुरानी कब्रों और उनपर मिज़ो भाषा में लिखे शिलालेखों पर आ ठहरते थे. कई दशकों पहले भेड़िये या तेंदुए का शिकार हुए बच्चे, दुर्घटना का मारा कोई समूचा परिवार और चट्टान से गिरकर जान दे देने वाला कोई मजदूर—इन सबकी कहानियाँ जंगल के उन रास्तों पर हमेशा के लिए ठहर गयी थी. अपनी सीमित भाषा में मोया उन शिलालेखों की समूची कहानी बता पाने में असमर्थ दोनों हाथों को जोड़, सोने का संकेत देते हुए मुस्कराता.

इनके अलावा पूरे मिज़ोराम में हर जगह सार्वजनिक स्थलों पर हमें मिज़ो भाषा में कंडोम इस्तेमाल का आह्वान देने वाले पोस्टर दिखाई दिए. ये पोस्टर अपने पीछे एक खौफनाक कहानी लिए हुए हैं. पूरे देश में जहां इधर एड्स का आतंक लगातार कम हो रहा है, वहाँ मिज़ोराम देश में एड्स और सेक्स रोगों का सबसे ग्रस्त राज्य है, जहाँ हर एक हज़ार लोगों में सबसे अधिक औसतन 20 या दो प्रतिशत लोग एच आई वी के शिकार पाए गए हैं.

इस मामले में मिज़ोराम के बाद निकटवर्ती नागालैंड और मणिपुर का नंबर आता है. कलकत्ता के अखबार टेलीग्राफ के अनुसार 1990 में एड्स के पहले केस की शिनाख्त के बाद से यहाँ 1760 लोग इस रोग से मारे जा चुके हैं, जो राज्य की कुल 11 लाख की आबादी को देखते हुए बेहद डरावने आंकड़े हैं, जिनका समाधान देश भर में महज़ कंडोम के इस्तेमाल की सिफारिश करने वाले पोस्टरों के लगाए जाने से नहीं होगा. पारंपरिक कैथोलिक समाज सेक्स के लिए कंडोम के इस्तेमाल के विरुद्ध रहा है, हालांकि अब स्वयं पोप ने रोग से बचने के लिए लोगों से इसके प्रयोग की सिफारिश की है. कई लोग मानते हैं कि राज्य में एच आई वी की महामारी के तार शराबबंदी से भी जुड़े हैं. शराब के न मिलने से कई लोग ड्रग्स का सेवन करने लगे हैं और सीमा के पार मयनमार और बांग्लादेश में ड्रग्स के भरपूर सूत्र होने से देश में ड्रग्स के शिकार लोग गंदी सुइयों के इस्तेमाल से एड्स को बढ़ावा दे रहे हैं. कई लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि देश में आने वाली अधिकांश हेरोयन और ड्रग्स  मिज़ोराम के रास्ते ही हमारे बड़े शहरों तक पहुँचती है.

[bs-quote quote=”गाँव के एक चौथाई लोग पर्यावरण संरक्षण समिति के सदस्य हैं. समिति उन्हें पेड़ों और उसके पशु-पक्षियों को बचाने का सन्देश देती है, जिसके प्रभाव में लोगों ने गुलेल या बंदूकों से वन्य जीवों को मारना बंद कर दिया है. सैलम में चावल के अलावा संतरे भी खूब होते हैं. मिज़ोराम देश में अदरक के उत्पादन का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है. यहीं के अदरक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी उर्वरक या दवाइयों के बगैर उगाया जाता है. चावल की एक स्थानीय नस्ल दो तीन महीनों में तैयार हो जाती है और इसमें पानी भी कम लगता है.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

रेइक से आगे अगले पड़ाव सैलम तक पहुँचने के लिए हमें वापस ऐज़ाव्ल लौटने के बाद 76 किलोमीटर का सफ़र तय करने के लिए कोई 30 किलोमीटर एक ऐसे भयानक कच्चे रास्ते पर जाना था जिसे सड़क कहलाना भी इस शब्द का घोर अपमान होगा. उस पर तुर्रा यह कि वहाँ जगह जगह ‘प्रधान मन्त्री ग्राम सड़क योजना’ के सुन्दर बोर्ड लगे हुए थे, शायद हमें आगाह करने के लिए, कि देश में आजकल किसी भी काम को सचमुच करने की जगह उसका सटीक प्रचार करने भर से काम चल जाता है.

मैं जिस जयपुर शहर से वहाँ आया हूँ वहाँ चार पांच साल पहले कचरे के लिए लोहे के कूड़ेदान थे जिन्हें दिन में एक बार क्रेन युक्त गाड़ी ट्रक में उलटकर ले जाती थी. बी जे पी के निज़ाम में वे क्रेन युक्त गाड़ियाँ और वे कूड़ेदान शायद शहर निगम ने बेच खाए हैं और उनकी जगह एक छोटी सी टेम्पोनुमा गाड़ी अब गली गली चक्कर काटती है जिसे पकड़कर रोकने और हाथ से उसमें कचरा डालने की जिम्मेदारी अब बेचारे नागरिकों की है, जिन्हें उत्साहित करने के लिए गाड़ी में फिट लाउडस्पीकर पर ‘स्वच्छ भारत का इरादा कर लिया मैंने/ देश से अपने वादा कर लिया मैंने!’ का गीत बजता है और सड़ते कूड़े के खुले ढेर हर समय सड़कों पर बिखरे दिखाई देते हैं. ज़ाहिर है कि लाउडस्पीकर पर बजते ‘स्वच्छ भारत’ के देशभक्ति से ओतप्रोत गीत ने अब निगम को कचरा उठाने की वास्तविक प्रक्रिया और जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया है. यह खेल जब पूरे देश में चल रहा हो तो मिज़ोराम इससे अछूता कैसे रहे?

पता चला कि वह सड़क दस साल पहले चौड़ी की गयी थी और फिर नयी सरकार ने अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए तीन चार साल पहले वे बोर्ड लगाए, लेकिन किसी को मालूम नहीं कि सरकार ने वास्तव में सड़क के खर्च को मंज़ूरी दी भी थी या नहीं और अगर दी भी थी तो उसके खर्च का बजट और पैसा इतने सालों में आखिर कहाँ गया. हमने राज्य में अनेक कच्ची सड़कों पर इसी तरह के बोर्ड देखे लेकिन सड़कें बनने की कोई गतिविधि एक पर भी दिखाई नहीं दी. नये मुख्य मंत्री ज़ोराम थांगा ने चुनावों से पहले अपनी पार्टी के घोषणा पत्र में बाकी चीज़ों के अलावा राज्य की सड़कों को सुधारने की जिम्मेदारी ली थी. लेकिन इस वादे को सचमुच निभाने के लिए उन्हें केन्द्रीय सरकार के इन खोखले बोर्डों से आगे ठोस काम के लिए करोड़ों रुपयों की ज़रूरत होगी और यह पैसा कठिन राजनीतिक शर्तों के बगैर उन्हें मिलेगा, इसमें भारी संदेह है.

गाँव सैलम..प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर

उस दुर्गम सड़क को लांघ हम आखिरकार सैलम पहुंचे तो शाम ढलने को थी. हमें गाँव से बाहर जंगल के बीचोंबीच डेढ़ कमरे के एक छोटे से घर में ठहरना था. यहाँ चारों ओर जंगल की आवाजें और अपरिचित पेड़ों की खुशबुएँ थी. इस जगह को सैलम पर्यावरण संरक्षण समिति ने कुछ महीने पहले मेहमानों के लिए बनाया था लेकिन यहाँ ठहरने वाले हम दूसरे या तीसरे व्यक्ति ही थे. यहाँ पानी और बिजली थी, और कमरे से सटकर बने छोटे से रसोईघर में भोजन का इंतजाम था. हम अपनी थाली लेकर बैठे तो बाहर जंगल में पेड़ों के पीछे चाँद उग आया था.

मिज़ो भाषा के उद्गम को लेकर अलग अलग व्याख्याएं हैं और अधिकाँश लोग इसे तिब्बत और चीन की भाषाओँ से जोड़ते है. लेकिन हमारे लिए यह जानना दिलचस्प था कि इसमें भारतीय मूल का भी कुछ प्रभाव मौजूद था. हमारे कमरे से बाहर रसोईघर के दरवाज़े पर मिज़ो भाषा में रोमन लिपि में ‘चौका’ लिखा हुआ था. रसोईघर के लिए ‘चौका’ शब्द का प्रयोग हमने रेइक में भी देखा था और मोया ने शिद्दत से सिर हिलाकर इसकी पुष्टि भी की थी. रास्ते में बाजारों में प्लास्टिक के थैलों में बिकने वाले जिन गोल-गोल लाल फलों को हमने ‘चेरी’ समझने की भूल की थी, वे दरअसल वहां की ख़ास मिर्चें थी जिन्हें मिज़ो ‘मर्चाते’ कहते है. एक बार फिर दोनों शब्दों में काफी समानता थी.

[bs-quote quote=”हमारे लिए गाँव के सबसे निचले तबके के साधारण लोगों के साथ रहना, खाना, रात में उनके फर्श पर सोये बच्चों को लांघकर उनके शौचालय का इस्तेमाल करना और दिन में भाषा की सारी दीवारों को लांघ उनसे संवाद करना एक विराट अनुभव से कम नहीं था. हम जहां भी जाते, मेज़बान हमारे साथ मोबाइल पर तस्वीरें खींचते, अपनी छोटे छोटे बच्चों को हमें गोद में उठाने का अवसर देते और विदा लेते समय बेहद संवेदना के साथ हमारे हाथ भींचते.” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पूरे उत्तरपूर्व और ख़ास तौर पर मिज़ोराम के बारे में आम धारणा है कि वहां के लोग क्रिश्चियन प्रभाव के कारण मांस (विशेषतः गौमांस और सुअर का मांस) बहुत खाते हैं. यह सही नहीं है. मिज़ोराम में हालांकि इन दोनों तरह के मांस पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है, लेकिन कीमतों के चलते सुअर के मांस ‘पोर्क’ का प्रचालन अधिक है क्योंकि ‘बीफ़’ जैसा अत्यधिक महंगा मांस हर रोज़ के भोजन का हिस्सा नहीं बन सकता. यही नहीं, पूरे मिज़ोराम में ताज़ा दूध बमुश्किल ही उपलब्ध होगा. यहाँ बिना दूध की ‘लाल चा’ ही अधिक प्रचालन में है और दूध वाली चाय के लिए अनिवार्यतः डिब्बे का या पाउडर दूध ही इस्तेमाल में लाया जाता है. देहात में अक्सर गाय की जगह छोटे आकर के नर पशु ही मिले जो शायद मांस के ही काम आते होंगे क्योंकि पहाड़ियों में पशुओं से खेती का काम लेना यूं भी मुश्किल है.

मिज़ोराम की प्राकृतिक सम्पदा में सब्ज़ियों और फलों की जो विविधता है वही मिज़ो भोजन में हमें  हर जगह दिखाई दी. मिज़ोराम में संतरे जितने बड़े ‘मणिपुरी कचई नींबू’ उगाये जाते हैं और इनके रस में यहाँ की ख़ास मिर्चें कूटकर चटनी बनायी जाती है जो हर मिज़ो भोजन का एक अनिवार्य हिस्सा है.

2003 में सरकार के पेटेंट विभाग ने ‘भोगौलिक संकेत’ अधिनियम के तहत देश के विशिष्ट प्रदेशों की ऐसी वस्तुओं और उत्पादों को ‘जी आई’ टैग देने की प्रक्रिया शुरू की थी जिनकी विशेषताएँ उनके किसी भोगौलिक प्रदेश में उत्पादित होने से जुड़ी थी. इस पंजीकरण का एक प्रावधान यह भी था कि उस विशिष्ट प्रदेश से बाहर उत्पादित वस्तु उस जी आई टैग का प्रयोग न कर पाए. उत्तर पूर्व की बहुत सी प्राकृतिक वस्तुएं इस अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत हो चुकी है. इनमे प्रदेश की ‘मिज़ो मिर्च’, ‘मणिपुर का कचई नींबू’, अरुणाचल प्रदेश के संतरे और असम का ‘कर्बी ओग्लोंग अदरक’ शामिल है.

अलस्सुबह उठकर तैयार हुए तो उस मकान में हमारा मेज़बान और समिति का सदस्य लालरुआतफेला लाल चाय के गर्मागर्म लाल चाय के साथ हमें जंगल दिखाने के लिए तत्पर  मिला. लालरुअतफेला पर उस छोटे से अतिथिगृह की देखभाल करने का भी जिम्मा है. पिछली रात उसी ने ड्राइवर मोया की मदद से हमारे लिए वहां भोजन बनाया था और अब हमसे भी अधिक ट्रेकिंग की वेशभूषा में वह अपने कैमरे के साथ तैनात था.

करीब आठ सौ की आबादी का छोटा सा नामालूम गाँव सैलम एक तरह से मिज़ोराम के ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधित्व कर सकता है. गाँव में दो सरकारी और एक प्राइवेट स्कूल हैं जहां आसपास के गाँव से भी बच्चे पढ़ने आते हैं. गाँव में लगभग शत प्रतिशत साक्षरता है लेकिन मिज़ो को छोड़कर अंग्रेज़ी या दूसरी भाषा जानने वाला यहाँ शायद ही मिले. गाँव में निकटवर्ती टावर्स के चलते टी वी और इन्टरनेट उपलब्ध है लेकिन टी वी पर अधिकाँश चैनल मिज़ो भाषा के हैं.

गाँव के एक चौथाई लोग पर्यावरण संरक्षण समिति के सदस्य हैं. समिति उन्हें पेड़ों और उसके पशु-पक्षियों को बचाने का सन्देश देती है, जिसके प्रभाव में लोगों ने गुलेल या बंदूकों से वन्य जीवों को मारना बंद कर दिया है. सैलम में चावल के अलावा संतरे भी खूब होते हैं. मिज़ोराम देश में अदरक के उत्पादन का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है. यहीं के अदरक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी उर्वरक या दवाइयों के बगैर उगाया जाता है. चावल की एक स्थानीय नस्ल दो तीन महीनों में तैयार हो जाती है और इसमें पानी भी कम लगता है.

दरअसल मिज़ोराम में पर्यावरण का सवाल पारंपरिक मिज़ो संस्कृति से जुड़ा है. अंग्रेज़ों के आगमन से पहले से ही यहाँ ‘सैलो’ मुखिया अपने अधीन गांवों के देखभाल की जिम्मेदारी निभाते थे. प्रत्येक गाँव के आसपास एक शाश्वत क्षेत्र ‘न्गावपुई’ होता था जहाँ पेड़ काटने या जंगल के जीव-जंतुओं को मारने की सख्त मनाही थी. लोगों का मानना था कि शाश्वत जंगलों में इनकी रक्षा करने वाले ‘रामहुआई’, ‘लासी’ और ‘च्वांगतिनलेरी’ आदि देवी-देवताओं का वास था जो गाँव को धन-धान्य देकर संपन्न रखते थे. यही परंपरा अब सैलम की पर्यावरण संरक्षण जैसी समितियों में आ गयी है जिसका संचालन अब यंग मिज़ो एसोसिएशन (वाई एम ए) के युवा सदस्य सुचारू रूप से करते हैं. क्रिश्चियन  प्रभाव आने के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है, बल्कि चर्च स्वयं इस काम में योगदान देती है. हमने पिछली एक कड़ी में मानस के जंगल की देवी का ज़िक्र किया था. यह जानना दिलचस्प है कि मिज़ोराम में भी इसी तरह की पारंपरिक सोच पर्यावरण की दिशा में कारगर है.

लालरुअतफेला भोजन के लिए हमें अपने घर ले चलते हैं तो वहाँ हम उनकी पत्नी और उनकी बहन रुथ से मिलते हैं. रुथ ने नज़दीक के शहर सरचिप में बारहवीं कक्षा तक पढ़ाई की है और अब वह सरकारी नौकरी की तलाश में है. उसने टेबल पर भोजन सजाया तो हम उसकी शाकाहारी विविधता को देखकर दंग रह गए. हमने पाया कि लगभग हर घर में गैस का चूल्हा होते हुए भी अधिकाँश भोजन फर्श पर लकड़ियों के चूल्हे पर ही पकाया जाता है.

सैलम को पीछे छोड़ हम राज्य के अंदरूनी पूर्वी इलाके की ओर बढ़े तो सड़कों की हालत इतनी खराब थी कि दो सौ साठ किलोमीटर का फ़ासला एक दिन में तय करना लगभग असंभव था. एक रात च्वांगतलाई में गुज़ारने के बाद आखिरकार हम आगे निकले तो तमाम कोशिशों के बाद हनाहलान पहुँचते हुए  फिर से शाम ढल ही गयी.

साढ़े तीन हज़ार की आबादी वाला हनाहलान एक मोहक गाँव है जिसे कई लोगों ने मिज़ोराम के रत्न की संज्ञा दी है. यहाँ के छः सौ परिवारों में से दो तिहाई जीविका के लिए काले अंगूर की खेती करते हैं. सालाना सात सौ टन अंगूर के उत्पादन ने हनाहलान को राज्य का एक समृद्ध गाँव बना दिया है.  इसकी गिनती देश में सबसे अधिक अंगूर उगाने वाले गांवों में होती है. इन अंगूरों से मिज़ोराम की सबसे लोकप्रिय शराब ‘ज़वलेदी’ बनती है, जिसका मिज़ो भाषा में अर्थ है ‘जाम-ए-मोहब्बत’! यह शराब ‘ज़वलेदी’ फिलहाल घर-घर में छानी जाती है, लेकिन नए मुख्यमंत्री ज़ोराम थांगा द्वारा चुनावों में दिया गया पूरी शराबबंदी का वादा यदि सचमुच लागू हो जाता है तो  अंगूर की इस खूबसूरत बेटी का क्या होगा, यह फिलहाल कोई नहीं जानता.

हनाहलान से सौ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर बसा च्वांगतलाई कोई डेढ़ हज़ार की आबादी वाला ऐतिहासिक गाँव है. यहीं पूर्वी इलाके में शत्रुओं को खदेड़ने वाले मिज़ो मुखिया निकुआला का पारंपरिक घर और सह्लाम का वह प्रसिद्ध पेड़ है जिससे शत्रुओं के कटे हुए सिर लटकाए जाते थे. यहीं कुख्यात नरभक्षी गुफा और वह महल भी है जहाँ अंग्रेजों ने मुखिया निकुअला को गिरफ्तार किया था. इन सारे खौफनाक मंज़रों से दूर हमने रात एक दंपत्ति के छोटे से ‘होमस्टे’ में गुज़ारी, जहां सुबह उठने पर घाटी का विहंगम दृश्य हमारे सामने था. मालिक लुनबुआंग की पत्नी ने हम सबके साथ फोटो खिंचवाने के बाद स्थानीय काले पैशन फ्रूट की एक डलिया हमें भेंट की.

चम्फाई का एक पर्यटन स्थल

मुखिया निकुअला को अतीत में पीछे छोड़ हम आगे निकल आते है. हमें मिज़ोराम के एक और बड़े शहर चामफाई से गुज़रकर जाना है. यहाँ से कच्चा रास्ता पहाड़ियों पर ऊपर चढ़ जाता है. इसके दूसरे छोर पर मुर्लेन राष्ट्रीय अभयारण्य में स्थित मुर्लेन गाँव की कुल जनसँख्या पांच सौ से ज़्यादा नहीं होगी लेकिन फिर भी यहाँ तीन चर्चें हैं जिनमें प्रेसबिटेरियन की इमारत सबसे बड़ी और भव्य है. लम्बे थका देने वाले सफ़र के बाद गाँव पहुँचने पर पता चलता है कि हमारे रहने के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है. शाम ढलने के साथ ही गज़ब की सर्दी हड्डियों तक पहुँचने लगी है. ऐसे में आखिरकार गाँव के चुनाव अधिकारी का परिवार अपना एक छोटा सा कमरा हमें देता है और बाकी लोग गांवों की एक अन्य महिला की बैठक में फर्श पर बिस्तर बिछाने पर मजबूर होते हैं. लेकिन फिर भी उन सब की मेहमाननवाज़ी में किसी तरह की कमी ढूंढना मुश्किल होगा. भोजन में उबली सब्जियों से बनी गर्मागर्म सूपनुमा ‘बए’ और मिर्च की चटनी खाने के बाद हमारी सारी ठंडक जाती रही. ‘चौके’ के इर्दगिर्द छोटे छोटे बक्सों पर बैठकर खाने का सुख अद्वितीय था. चूल्हे के ठीक ऊपर अलगनी में लकड़ियों का ढेर टंगा था. मिज़ो भोजन के दाल-चावल का स्वाद हमारी अपनी शैली से बहुत अलग नहीं है. ‘बए’ और चावल के साथ वह दाल  मिज़ोराम की रिहाइश के दौरान हमने शायद हर रोज बहुत चाव के साथ खायी होगी.

यहाँ से आगे हमें सैतुआल और फिर वहाँ से ऐज़ाव्ल के लेंगपुई हवाई अड्डे लौट जाना था. चलने से पहले हमें सैलम से ‘व्हट्सऐप’ पर रुथ का संवेदना से भरा प्रेम-सन्देश मिला था. दस दिनों तक लगातार उन दु:स्वप्न जैसी सड़कों पर कुशलता से हमें पार लगाने वाले मोया को एअरपोर्ट पर विदा देने से पहले गले लगा लिया था. शायद उन दस दिनों में उसकी हिंदी या अंग्रेज़ी में कुछ इज़ाफा ज़रूर हुआ होगा. हम कूढ़मग्जों ने तो उससे मिज़ो का एकाध शब्द ही मुश्किल से सीखा होगा.

लेकिन हमारे लिए गाँव के सबसे निचले तबके के साधारण लोगों के साथ रहना, खाना, रात में उनके फर्श पर सोये बच्चों को लांघकर उनके शौचालय का इस्तेमाल करना और दिन में भाषा की सारी दीवारों को लांघ उनसे संवाद करना एक विराट अनुभव से कम नहीं था. हम जहां भी जाते, मेज़बान हमारे साथ मोबाइल पर तस्वीरें खींचते, अपनी छोटे छोटे बच्चों को हमें गोद में उठाने का अवसर देते और विदा लेते समय बेहद संवेदना के साथ हमारे हाथ भींचते. उनके पूर्वजों ने चाहे दुश्मनों के सिर काटकर भीषण लड़ाइयाँ लड़ी हों और अब वे चाहे प्रेसबिटेरियन या मेथोडिस्ट या सेवेंथ एडवेंटिस्ट क्रिश्चियन हो गए हों लेकिन इसके बावजूद वे इस सब के भीतर अब भी खालिस गर्मजोशी से भरे निश्छल मिज़ो थे और उनकी यह तड़प या हमसे एकात्मता का गर्म अहसास ही हमारे लिए मिज़ोराम की सबसे बड़ी पहचान भी था.

 

जितेन्द्र भाटिया सुप्रसिद्ध कहानीकार,नाटककार और पर्यावरणविद हैं 

गाँव के लोग
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