सामाजिक न्याय की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि इस देश में एक वर्ग विशेष के साथ, सदियों से सामाजिक अन्याय हुआ है। यह अन्याय अब भी जारी है। जी.बी.पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट की प्राध्यापकीय भर्तियों का परिणाम बताता है कि सामाजिक न्याय के चलते सरकार भले ही पिछड़ों को आरक्षण देकर अपने कर्तव्य से मुक्त हो गई हो, किन्तु संस्थानों में पहले से विराजमान सामाजिक न्याय की विरोधी ताकतें, अब भी सामाजिक न्याय देने के मूड़ में नहीं हैं। वरना हजारों योग्य पिछड़े उम्मीदवारों की भीड़ में उन्हें कोई योग्य उम्मीदवार नज़र नहीं आया?
जहाँ मन और आँख पर भेदभाव का चश्मा जड़ा हो और संस्थानों में हर जगह आँखे, केवल अपने और अपनी ही बिरादरी के लोगों को देखने की आदी हो चुकी हों, वहाँ सामाजिक न्याय किस चिड़िया का नाम है? भला कोई कैसे जान सकता है? इन्होंने दलित, पिछड़े और आदिवासियोंको नौकरियों और संस्थानों से बाहर रखने का क्या बढ़िया तरीका निकाल रखा है, “नॉट सूटेबल फाउंड।” …अब सूटेबल कौन है? और कौन नहीं? खोजते रहिए आप। इससे पहले इनका एक बहाना होता था‘ कंडीडेट नॉट एवलेबल’ और अब जब बड़ी में कंडीडेट उपलब्ध हैं, तब उन्हें अयोग्य(NSF) करार देकर बाहर रखा जा रहा है।
…इस पूरे प्रकरण में एक चीज़ उल्लेखनीय हैकि सामाजिक न्याय के तहत मिले आरक्षण को पाने के लिए तमाम अपमान और निंदाओं को सहते दलित-आदिवासियों ने जो लंबा संघर्ष किया है, वे अब इस पर सूक्ष्म नज़र भी रखने लगे हैं और इसका सुखद परिणाम यह कि अब उनकी सीटों के आगे शायद ही कोई NFS लिखने की हिम्मत करे? इस भर्ती परिणाम में भी उनकी भर्तियाँ हुई ही हैं!!!
[bs-quote quote=”पिछड़ों को बड़े स्तर पर अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना होगा। सामाजिक न्याय की अलख जगानी होगी। सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत दलित-आदिवासी और अन्य अल्पसंख्यक जातियों और समूहों से मेल रखकर, उनके साथ मिलकर संविधान और लोकतंत्र के हाथ मजबूत करने होंगे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
…अब बात आती है पिछड़ों की इस स्थिति की, तो यह वर्ग सदैव से ही दुविधा में जीता आया है। यह सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष से दूर, बहुत कुछ सामाजिक अन्याय के पक्ष में खड़े तथाकथित सवर्णों का ही हम क़दम रहा है। बाबरी-92 से लेकर गुजरात 2000 तक। गाँवों से लेकर शहरों तक। जातिवाद और छुआछूत बरतने में यह सवर्णों से बिल्कुल पीछे नहीं हैं। बुद्ध, कबीर, फुले, डॉ.अम्बेडकर, पेरियार, ललई सिंह यादव, राम स्वरूप वर्मा, बाबू जगदेव के विचारों को अपनाने से अधिक, इन्होंने अबतक अपनी ऊर्जा मंदिर बनाने और कांवड़ ढोने में व्यय की है।
अब इसका ही यह परिणाम है कि इस वर्ग की कई जातियों की शिक्षा का स्तर, कुछ दलित जातियों की शिक्षा से भी गया-बीता है। …सामाजिक संघर्ष से दूर और वर्गीय चेतना से अनभिज्ञ पिछड़ों के अधिकारों का, आज विश्वविद्यालयों और तमाम सरकारी-ग़ैरसरकारी संस्थानों में सबसे अधिक हनन हो रहा है।
यह रुक जाए इसके लिए पिछड़ों को बड़े स्तर पर अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना होगा। सामाजिक न्याय की अलख जगानी होगी। सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत दलित-आदिवासी और अन्य अल्पसंख्यक जातियों और समूहों से मेल रखकर, उनके साथ मिलकर संविधान और लोकतंत्र के हाथ मजबूत करने होंगे। जब तक वे ऐसा नहीं करते, तब तक उनकी यह हक़मारी यूँ ही होती रहेगी।…और इसके लिए कोई दूसरा कम, स्वयं वे अधिक जिम्मेदार रहेंगे।
जितेन्द्र विसारिया ग्वालियर में प्राध्यापक हैं ।
बहुत शानदार पोस्ट