काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान मैं गंगा नदी के किनारे अक्सर घूमा करता था। कभी घाटों की सीढ़ियों पर, कभी नदी उस पार रेती पर तो कभी नौका विहार करता था। इस तरह मैं बनारस के जनजीवन को समझने का प्रयास करता था लेकिन वहां बाहरी संस्कृति के अतिक्रमण के कारण बनारस की संस्कृति में एक घालमेल जैसा दिखायी देता था। विज्ञापन और मीडिया के कैमरे का फोकस भी इन जगहों पर काफी अधिक है। गंगा के घाटों पर धार्मिक स्थल की मान्यता भले ही अधिक हो किंतु अब बाजार और पिकनिक स्थल के रूप में भी उसे देखा जा सकता है। वहां हर रोज हजारों की संख्या में भीड़ आती है और हमेशा चहल-पहल रहता है। बनारस में गंगा नदी का अधिकांश हिस्सा शहरों में ही है। उस नदी के द्वारा गांव की संस्कृति और सभ्यता समझ पाना बहुत कठिन है।
इसके लिए उसके सहायक नदी का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट पिछले डेढ़ महीने से प्रत्येक रविवार लगातार वरुणा नदी यात्रा कर रहा है। यह नदी गांव-गांव, खेतों और खलिहानों से होकर जाती है। जहां नदी के किनारे कुश, घास-फूस, मेंढक, जलकुंभी, सेवार, कछुआ और आसपास लहलहाती फसलें दिखाई देती है। सरकारी बजट द्वारा गंगा की तरह वरुणा नदी का सुंदरीकरण तो नहीं किया गया है किंतु प्राकृतिक रूप से यह नदी बहुत खूबसूरत हैं।
बचपन से लेकर आज तक इस तरह की यात्रा करते हुए मैंने अभी तक किसी को नहीं देखा। आप लोग हिम्मत किए हैं तो निश्चय ही यह एक क्रांतिकारी कदम है। मैंने उनसे पूछा- ‘यह सब सागौन के पेड़ आपके हैं?’ तो वह बोला ‘इसे मैंने खुद लगाया और जिलाया है।’ अमन जी ने उनसे पूछा ‘आप लोग नदी के पानी से सिंचाई नहीं करते हैं?’
वरुणा नदी प्राकृतिक रूप से भले ही सुंदर है किंतु पिछले तीन चार दशकों से पूँजीवाद के प्रभाव के कारण तमाम कारखानों और शहरों के मल द्वारा गंदी होती जा रही है, फिर भी गांव में यह नदी काफी साफ-सुथरी दिखाई देती है किंतु पिसौर पुल के बाद नदी अपने मूल अस्तित्व को खोती हुई दिखाई देती है। नदी के किनारे पीपल-बरगद-बेल जैसे तमाम हरे-भरे वृक्ष आज भी मौजूद हैं, जिनकी छाया शीतल और हवा काफी मधुर है। इस यात्रा के दौरान यह भी देखा गया है कि इन वनों की भी कटाई तेजी से हो रही है। इससे नदी के अस्तित्व पर संकट मंडराता हुआ दिखाई दे रहा है।
गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट इसे बचाने की एक मुहिम चला रहा है। हम लोग प्रत्येक रविवार नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा के द्वारा अपनी टीम के साथ नदी के किनारे से गांव-गांव जाते हैं और वहां पर मौजूद रहवासियों से संवाद करते हैं। साथ ही उन्हें लगातार जागरूक किया जा रहा है कि आप भी नदियों की रक्षा करें, नदी को अपनी मां के समान मानिए और इसके साथ छेड़खानी न कीजिए क्योंकि नदी है तो जल है, जल है तो जीवन है, जीवन है तभी यह सृष्टि है।
24 जुलाई रविवार को गांव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा का सातवां आयोजन हुआ। इस आयोजन के प्रथम चरण में गांव के लोग टीम द्वारा करोमा से रामेश्वर घाट तक की पैदल नदी यात्रा निर्धारित की गई थी, जिसमें हम लोग नदी के किनारे चलते हुए उसकी स्थिति-परिस्थिति को परखते हुए, रास्ते में पड़ रहे गांवों के लोगों से संवाद करते हुए रामेश्वर घाट तक पहुँचें और उसी रास्ते से फिर वापस करोमा आ जायेंगे। लेकिन हमेशा वही नहीं होता जो तय होता है। नदी किनारे का रास्ता लगातार दुर्गम होता गया है। मेड़ों पर कुश और दूसरी घासें लहलहा रही हैं और अक्सर पगडंडी दिखती भी नहीं। ज़हरीले जंतुओं का भय भी रहता है। अक्सर ऐसा होता है कि सामने कोई नाला या बहा आ गया तो पोरसा भर खड़ी उतराई और फिर उतनी ही चढ़ाई चढ़ते हुए हंफरी छूट जाती है। फिर भी इस यात्रा का उत्साह जरा भी कम नहीं होता। करोमा से चले तो औसानपुर शिवमंदिर तक पहुंचकर संतोष जी ने पूछना शुरू किया – ‘अबहीं आगे ले चलबा का लोगन?’
अपर्णा मैम ने कहा, ‘अरे अभी तो डेढ़-दो किलोमीटर भी नहीं हुआ। और आगे चलिए उस मोड़ तक, वहां से वापस आयेंगे।’ फिर सब लोग आगे बढ़ने लगे। नदी मानो हमसे बहुत कुछ कहती है। उसकी व्यथा-कथा हर कहीं है और इस यात्रा में एक व्यापक भरा-पूरा जीवन देखने को मिल रहा है, इसलिए मैं इससे वंचित नहीं होना चाहता।
नदी यात्रा सुबह 6:00 बजे से शुरू होनी थी इसलिए मैं 5:50 बजे तक औसानपुर गेट पहुंच गया। 10 मिनट इंतजार करने के बाद मैंने रामजी सर को फोन किया तो वे बोले की दस-पन्द्रह मिनट में हम भी पहुंच रहे हैं। मुझे इंतजार करते-करते 6:20 हो गया तो मैंने पुन: फोन किया तो वे बोले कि करोमा गेट पर आना है। औसानपुर और करोमा के बीच आधे किलोमीटर की दूरी है। मैं 5 मिनट में करोमा गेट तक पहुंच गया। वहां पहुंचने के बाद रामजी सर, अपर्णा मैम, अमन विश्वकर्मा, गोकुल दलित, राजीवजी एक साथ आ पहुंचे। फिर हम लोग नदी की तरफ बढ़ने लगे। उसी रास्ते में मछेंदर नाथ की पाही है, जहां पिछली बार हम लोग देर तक विश्राम किए थे। जब वहां पहुंचे तो संतोष कुमार और मनोज यादव पहले से पहुंचे हुए थे। मनोज एक चारपाई पर लेटे हुए विश्राम कर रहे थे और संतोषजी नदी के किनारे अकेले टहल रहे थे। मछेंदरजी की भाभीजी ने हम सबको गुड़ खिलाकर पानी पिलाया। फिर हम लोग बैनर लेकर यात्रा के लिए पगडंडियों के रास्ते निकल पड़े। नदियों पर ध्यान टिकाया तो ज्ञात हुआ कि नदी पिछले सप्ताह से एक बित्ता बढ़ी हुई है तथा ठहराव की जगह वह मंद-मंद गति से प्रवाहमान है।
नदी के किनारे खेतों में महिलाएं और पुरुष एक साथ धान रोप रहे थे। बच्चे खाली पड़े खेतों में बकरियां चरा रहे थे। इन बच्चों के पैरों में चप्पल भी न थी। पूछने पर मालूम हुआ कि ये बच्चे पास के किसी सरकारी विद्यालय में पढ़ते हैं। वे वहां के मिड-डे-मील पर आश्रित हैं। उनके परिवार के लोग मजदूरी करते हैं और बच्चे बकरियां चराते हैं। मैंने उनसे पूछा कि आप घर पर कितना पढ़ाई कर लेते हो तो उनका जवाब था- घर पर नहीं पढ़ पाते हैं।
बातों ही बातों में पता चला कि उनकी जिंदगी अभावग्रस्त है, वे फीस, कॉपी, जूते और ड्रेस का बंदोबस्त नहीं कर पाते हैं। उनके घर पर शिक्षित गार्जियन भी नहीं हैं जो उनके होमवर्क करवा सकें। उनका अधिकांश समय इसी तरह बर्बाद हो जा रहा है।
वहाँ धान रोपती हुई कुछ औरतों से भी बातचीत की गई। कुछ किसान खुद के खेतों में धान लगा रहे थे तो कुछ सम्पन्न किसान गरीब महिला मजदूरों से खेतों में काम करवा रहे थे। खेवली पांडेपुर के सामने डीह बाबा मंदिर के प्रांगण में पीपल की छाया में अंजना, रीता, पूनम और मताबी नामक चार महिला मजदूरों से लंबी बातचीत हुई। वे महिलाएं सुबह के समय मजदूरी करने निकली थीं। हम सबके हाथ में बैनर देखकर उनके मन में आशा जगी कि हम लोग सरकार की तरफ से कोई लाभकारी योजना लेकर आये हुए हैं। रामजी सर ने बताया कि हम लोग नदी यात्रा कर रहे हैं। रीता ने बताया कि आप लोगों के लिए नदी भले ही गंदी हो चुकी है किंतु हम मजदूरों के लिए जीवनदायिनी है। गर्मियों में खेतों में गेहूँ काटते हुए जब प्यास लगती है तो हम लोग आकर इसी नदी से पानी पी लेते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या नदी पहले से साफ है?
‘नहीं, पहले शीशे की तरह चमकती थी।’
‘यह नदी कैसे साफ हो सकती है?’
‘इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं इसे गंदा तो अमीर लोग करते हैं। परेशानी गरीबों को होती है।’
फिर अपर्णा मैम ने पूछा कि – ‘धान के खेत में मजदूरी करके आप लोग दिन भर में कितना कमा लेती हैं ?’
वे बोलीं – ‘200 रुपया प्रतिदिन!’
‘ क्या 200 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से आपको रोज काम मिल जाता है?’
‘ नहीं! जब कटाई-बुवाई का सीजन होता है तभी मिल पाता है।’
‘तो आप लोग बाहर क्यों नहीं कमाने जाती ? वहां तो इससे अधिक पैसा मिलेगा।’
बाहर कैसे निकल सकते हैं? घर में बच्चे हैं, उनको कौन देखेगा?’
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घर में बच्चे हैं उनको कौन देखेगा! यह जवाब न सिर्फ इन महिलाओं की समस्या नहीं है अपितु पूरे महिला समाज पर सटीक बैठता है। इस पर पितृसत्ता की गहरी पैठ है। बच्चों की देखभाल के लिए महिलाएं चाह कर भी बाहर नहीं निकल सकती हैं। पुरुष समाज जिसे महिलाओं की जिम्मेदारी कहता है, महिला समाज उसे अपनी मजबूरी समझती हैं।
खेवली के सामने का क्षेत्र बहुत ही खूबसूरत था। बरसात के समय में जब नदियों के किनारे घासें उग आती हैं और खेतों में फसलें लहराने लगती हैं तो वातावरण और भी खूबसूरत दिखने लगता है। वहां नदी में कपड़ा धोते हुए और नहाते हुए भी कुछ लोगों को देखा गया। चूँकि नदी के उस पार मेरा स्कूल है इसलिए वहां के जनजीवन से मैं काफी परिचित हूं। एक और जगह कुछ महिलाएं खेत में धान रोप रही थी और एक पुरुष हेंगा में रस्सी बांधकर गीली मिट्टी को समतल कर रहा था। वहां पर अपर्णा मैम ने उनसे पूछा- ‘आप क्या कर रहे हैं?’
‘मिट्टी को समतल कर रहे हैं।’
‘इसमें मेहनत नहीं लगता है?’
‘लगता तो है पर ये तो करना ही पड़ेगा। धान की खेती करने में पूरी मरम्मत हो जाती है। पहले बेहन डालो, फिर पंछियों और जानवरों से बचाते हुए इसकी रक्षा करो, फिर उसे एक खेत से उखाड़कर दूसरे खेत में मिट्टी गिली करके रोपो, बार-बार इसकी सिंचाई और निराई करो। बहुत मेहनत लगता है।’
‘क्या फसल का लागत मुल्य मिल जाता है आपको?’
‘नहीं। खाने भर का हो जाता है।’
मुझे याद आया कि बचपन में जब हमारे घर बैल हुआ करता था हमारे दादा जी बैलों के जुए में मोटी रस्सी बांधकर खेत हेंगाते थे और हम लोग हेंगा पर बैठ जाते थे। उस दौर का मजा ही अलग था।
नदी के किनारे चलते हुए एक जगह कुछ पुरुष खड़े हुए मिले। वे अनुमान लगा रहे थे कि इस मार्ग से सड़क निकलेगी और ये लोग जमीन की नापजोख के लिए आए हुए हैं, जैसे पिछले दिनों हरहुआ से मेहदीगंज के लिए चौड़ा-सा रिंग रोड निकला है। उन्होंने बैनर पर जब नदी एवं पर्यावरण चेतना यात्रा हेडिंग पढ़ा तो इस मिशन के बारे में जानने के लिए जिज्ञासु हो उठे। हमारे नदी एवं पर्यावरण संचेतना मिशन के बारे में जानकार वे बहुत प्रभावित हुए और अपनी तरफ से शुभकामनाएं दिए।
एक जगह मनोज नदी का किनारा छोड़कर खेतों की पगडंडियों पर टेढ़े-मेढ़े चल रहे थे। रामजी सर ने कहा- ‘मनोज बार-बार लीक छोड़ के चलने लगते हैं।’
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इस पर संतोष कूमारजी ने कहा- ‘मनोज नदी की तरह चलते हैं।’ फिर आपस में ठहाके की हँसी हुई।
आकाश नामक एक युवा जिसने जाते हुए हम लोगों को देखा था, लौटते समय रास्ते में मिला। वह समरसेबल के पानी से खेतों में सिंचाई कर रहा था। उसके खेतों की मेड़ों पर कतार में बड़े-बड़े सागौन के वृक्ष काफी खूबसूरत लग रहे थे। उसने नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा के बारे में पूछा। जब उन्हें ट्रस्ट के मिशन के बारे में जानकारी मिली तो बोला कि बचपन से लेकर आज तक इस तरह की यात्रा करते हुए मैंने अभी तक किसी को नहीं देखा। आप लोग हिम्मत किए हैं तो निश्चय ही यह एक क्रांतिकारी कदम है। मैंने उनसे पूछा- ‘यह सब सागौन के पेड़ आपके हैं?’ तो वह बोला ‘इसे मैंने खुद लगाया और जिलाया है।’ अमन जी ने उनसे पूछा ‘आप लोग नदी के पानी से सिंचाई नहीं करते हैं?’
‘नहीं काफी महंगा पड़ जाता है। वैसे भी डीजल के दाम आजकल काफी बढ़ गए हैं।’
‘किंतु नदियों के किनारे बहुत सी मशीनें लगी हुई हैं, जिनसे खेतों की सिंचाई हो रही है?’
‘वो सब कई साल पुराना मशीन है, जो उससे सिंचाई करते हैं, काफी परेशान हैं। उनके पास संसाधन न होने के कारण मजबूरी भी है।’
इस बातचीत में मैं, अपर्णा मैम और अमनजी पीछे हो गए थे, टीम के सब लोग काफी दूर निकल गए थे। हम लोगों ने एक बार पुनः खेतों के मेड़ों का सहारा लिया और एक दूसरे रास्ते से सड़क पर निकल आये। सड़क के द्वारा पुनः मछेंदर नाथ की पाही पर पहुंचें तो वहां सब लोग कुर्सी और चारपाई पर विश्राम कर रहे थे। श्याम जी चने की घुघुनी और जलेबी लेकर मौजूद थे। कुछ देर विश्राम करने के बाद ठंडे पानी के साथ नाश्ता हुआ और कार्यक्रम के दूसरे चरण में बातचीत की शुरुआत हुई। इस बातचीत में संतोष कुमार, रामजी यादव, अपर्णा, राजीव यादव, गोकुल दलित, अमन विश्वकर्मा, दीपक शर्मा और मनोज यादव के अलावा वहां मौजूद ग्रामीण लोगों ने भी अपनी बात रखी।
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