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पेरियार : गांव और शहर की वर्णाश्रम व्यवस्था के खिलाफ

गांवों के बारे में अपने विचार को, ‘गांव’ शब्‍द को, गांव और शहर के बीच के फर्क और दोनों में फर्क बताने वाले तरीकों को दिमाग में रखकर आप सुधार के नाम पर जो कुछ भी करेंगे, उससे आने वाला बदलाव उतना ही होगा जैसा ‘पारायर’ और ‘चकिलियार’ जातियों के नाम बदलकर ‘हरिजन’ और ‘आदि द्रविड़ार’ करने से आया है। सच्‍चा बदलाव कभी नहीं आएगा जिससे ‘पारायर’ दूसरे मनुष्‍यों के बराबर हो जाते। हो सकता है कि ‘ग्राम्‍य सुधार कार्यों की मार्फत एक गांव अच्‍छा गांव’ बन जाए, लेकिन गांव के लोगों को कभी भी शहरी लोगों जैसे अहसास या अधिकार नहीं मिल पाएगा। पेरियार का प्रसिद्ध भाषण।

अध्‍यक्षजी, साथियों!

यह बैठक वैसे तो उन प्रशिक्षु छात्रों की है, जो आगे चलकर ग्राम्‍य अधिकारी बनेंगे, लेकिन इसकी सदारत (अध्यक्षता) एक शिक्षा अधिकारी कर रहे हैं। मेरे बगल में डिप्‍टी कलेक्टर साहब बैठे हैं, जो ग्राम्‍य अधिकारियों के उच्‍चाधिकारी हैं। यानी दोनों ही अधिकारी उपयुक्‍त क्षमता और दायित्‍व वाले व्‍यक्ति हैं, लेकिन मैं तो एक नेता हूं, सामाजिक योद्धा हूं, जिसने आम लोगों का द्वेष अर्जित किया है और जीवन के हर क्षेत्र में जबरदस्‍त प्रभाव रखने वाले उच्‍च वर्ण के लोग जिसे अपने समुदाय का दुश्‍मन मानते हैं।

स्थिति और अटपटी इसलिए हो जाती है, क्‍योंकि लोगों की राय में मैं एक तर्कवादी हूं, जो आंख मूंद कर रूढ़ियों, परंपरागत प्रथाओं, बुजुर्गों के विचारों, शास्‍त्रों और उनका समर्थन करने वाली दलीलों को नहीं मानता। मैं खुद को सुधारात्‍मक विचारों वाले शख्‍स के रूप में देखता हूं और मुझे इस पर गर्व है। सुधारों के संबंध में मेरी नीति यह है कि ज्‍यादातर व्‍यवस्‍थाओं को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए और उनकी जगह एक नई व्‍यवस्‍था स्‍थापित की जानी चाहिए, जो धार्मिक कट्टरता और रूढ़ियों से परे हो। इस विचार के चलते बहुत से लोग मुझे विध्‍वंसक करार देते हैं, मेरी निंदा करते हैं।

ऐसी परिस्थिति में मुझे डर है कि ऐसे लोगों के समक्ष ‘ग्राम्‍य सुधार और गांवों के लिए भावी योजनाएं’ विषय पर मेरा बोलना उन्‍हें नहीं भाएगा। इसके बावजूद मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि मेरे कहे को थोड़ा ध्‍यान से सुनें, उसे विनोद के साथ ग्रहण करें और घर जाकर निष्‍पक्ष ढंग से उस पर विचार करें- वैसे ही, जैसे हम लोग किसी नाटक में आने वाले ऊटपटांग और विद्वेषपूर्ण व विरोधाभासी विचारों को बिना किसी शारीरिक असहजता के झेल ले जाते हैं। आप नाराज हुए बगैर अगर गहराई से इस पर सोच सके, तभी आपको अच्‍छे परिणाम मिलेंगे।

ग्राम्‍य सुधार

साथियों!

आप अगर पूछें कि मेरी ‘ग्राम्‍य सुधार योजना’ क्‍या है, तो मैं कहूंगा कि पूरे देश के गांवों को एक झटके में खत्‍म कर दिया जाए। इतना ही नहीं, हमें यहां तक सुनिश्चित करना होगा कि शब्‍दकोश में ‘गांव’ नाम का शब्‍द ही नहीं बचे। यह शब्‍द राजनीति में भी नहीं बचना चाहिए। गांवों के बारे में अपने विचार को, ‘गांव’ शब्‍द को, गांव और शहर के बीच के फर्क और दोनों में फर्क बताने वाले तरीकों को दिमाग में रखकर आप सुधार के नाम पर जो कुछ भी करेंगे, उससे आने वाला बदलाव उतना ही होगा जैसा ‘पारायर’ और ‘चकिलियार’ जातियों के नाम बदलकर ‘हरिजन’ और ‘आदि द्रविड़ार’ करने से आया है। सच्‍चा बदलाव कभी नहीं आएगा जिससे ‘पारायर’ दूसरे मनुष्‍यों के बराबर हो जाते। हो सकता है कि ‘ग्राम्‍य सुधार कार्यों की मार्फत एक गांव अच्‍छा गांव’ बन जाए, लेकिन गांव के लोगों को कभी भी शहरी लोगों जैसे अहसास या अधिकार नहीं मिल पाएगा। इसकी वजह यह है कि शहरों की संरचना और प्राथमिकताएं गांवों की संरचना और प्राथमिकताओं से भिन्‍न हैं।

अब आप पूछेंगे कैसे! ये जो ‘गांव’ नाम का शब्‍द है, वह जगहों की सूची में या पायदान पर बिल्कुल उसी स्थिति में है जैसे वर्णाश्रम धर्म के भीतर समाज में ‘पंजामर’ की स्थिति है, यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र के बाद सबसे नीचे।

वर्णाश्रम धर्म के पीछे का सिद्धान्‍त क्‍या है? एक ऊंची जाति है और दूसरी नीची जाति। ऊंची जाति बिना कोई भौतिक परिश्रम किए बगैर जी सकती है। नीची जाति को काम करने की बाध्‍यता है। इसके अलावा वर्णाश्रम के पीछे और क्‍या दर्शन है?

इसका निहितार्थ यह है कि ‘ईश्‍वर ने चौथे और पांचवें वर्ण के लोगों को शुरुआती तीन वर्णों की जिंदगी आसान करने के लिए बनाया है।’ इसलिए चौथे और पांचवें वर्ण के व्‍यक्ति को सीधे स्‍वर्ग पहुंचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसके लिए स्‍वर्ग का रास्‍ता पहले तीन वर्णों की सेवा-सुश्रूषा से निकलता है।

इसके आगे यह बात भी है कि ‘यदि चौथे और पांचवें वर्ण के लोगों के पास कुछ धन है तो पहले तीन वर्णों के लोग उनसे वह धन जबरन छीन सकते हैं।’ इसके अलावा, ‘पहले तीन वर्ण के लोग पढ़-लिख सकते हैं, चौथे-पांचवें वर्ण के लोग नहीं। अगर वे पढ़ने-लिखने लगे तो दुनिया चल नहीं पाएगी।’ दैनिक जीवन में क्‍या यही वर्ण धर्म शहरों और गांवों के मामले पर लागू नहीं होता? सोचिए और पता करिए यह बात कितनी सच है।

गांव क्‍या होता है?

गांव क्‍या है? वहां स्‍कूल नहीं होते। अस्‍पताल नहीं होते। न कोई मनोरंजन का साधन है, न पार्क हैं, न ही कोई कानूनी अदालत है। पुलिस की सुरक्षा नहीं है, यातायात सुविधाएं नहीं हैं, बिजली नहीं है, पीने का स्‍वच्‍छ पानी नहीं है। वहां सभ्‍यता के कोई संकेत नहीं हैं। पेट भरने के अलावा जीवन की सुख-सुविधाओं के लिए कमाई करने के अवसर मौजूद नहीं हैं। किसी को कोई आराम नहीं है। ज्ञान और प्रगति को इस्‍तेमाल करने के तरीके नहीं हैं। इसी तरह तमाम ऐसी सुविधाएं हैं जो ग्रामीणों को उपलब्‍ध नहीं हैं, लेकिन शहरी लोगों को सब मिला हुआ है। इन सबके अतिरिक्‍त गांव और क्‍या है?

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लेकिन कहा यह जाता है कि ‘गांव ही शहरों का आधार हैं’। यह बात केवल शाब्दिक नहीं है, वास्‍तविकता में भी हम पाते हैं कि ग्रामीणों की कड़ी मेहनत से निकलने वाले कृषि उत्‍पाद और औद्योगिक उत्‍पाद सरकार को चलाने के लिए कर उपजाने के काम आते हैं, शहरी लोगों के उपभोग के काम आते हैं और उनकी तिजोरियां भरते हैं। इस तरह गांव के लोग केवल सरकारों और शहरातियों के लिए नहीं, भगवानों, मंदिरों और उन तमाम लोगों के लिए भी बहुत काम के हैं, जिन्‍हें देवस्‍थानम के निर्देशों पर केवल हर किस्‍म का आनंद लेना है।

उदाहरण के लिए…

धान और अन्‍य फसलें उपजाने वाले इलाकों के गांवों में, जहां सिंचाई की व्‍यवस्‍था अच्‍छी है और मानसून की बारिश भी बिना चूके नियमित होती है, उस किसान की स्थिति क्‍या है, जो सूदखोरों को ब्‍याज अदा करता है? उसके घर परिवार की हालत क्‍या है? इसके समानांतर आप देखिए कि सूखे बंजर इलाकों में रहने वाले नट्टुकोट्टइ शेट्टियारों और मारवाड़ी सूदखोरों के घर कैसे हैं? इसके पीछे क्‍या कारण हैं? क्‍या वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था इसके लिए जिम्‍मेदार नहीं? सोचिएगा। साथ में गरीब भूस्‍वामियों और उनके यहां खेती करने वाले बटाईदारों के घर कैसे हैं? और इन सबके उलट, इनसे उत्‍पाद खरीद कर बेचने वाले शहरी कारोबारियों के मकान कैसे होते हैं?

सरकारों और शहरी लोगों का मानना है कि गांव के लोगों को शिक्षा से महरूम रखकर ही उनसे कठोर से कठोर काम करवाए जा सकते हैं। तभी वे फसल उगाने में और मेहनत करेंगे, उसे काटेंगे, बोरे में भरेंगे, शहर ले जाएंगे, पाला मारे हुए खराब अनाज के साथ वापस गांव आएंगे, उसका दलिया बनाएंगे और अपने बच्‍चों के साथ बैठ के भर पेट ठूंसेंगे, जैसे भैंसें नाद से भूसा खाती हैं। और इस सबके लिए वे भगवान के शुक्रगुजार होंगे। उनकी संतुष्टि के लिए क्‍या इतना पर्याप्‍त नहीं?

इसके उलट अगर ग्रामीणों को शिक्षा दे दी गई, तो क्‍या उनके दिमाग में यह सवाल नहीं आएगा कि ‘इतनी मेहनत करने के बाद हम लोग तमाम किस्‍म की फसलें उगाते हैं, लेकिन खुद अपनी भूख मिटाने को दलिया-मांड़ खाते हैं, जबकि वे लोग जो कोई काम नहीं करते अपना मनचाहा खाना खरीदते हैं, उसे साफ करते हैं, स्‍वादिष्‍ट पकवान पकाते हैं और तब तक खाते हैं जब तक उनका पेट न फट जाए?’ यही वजह है कि गांवों को पंजामरों वाली हालत में रखा जाता है। इस यथास्थिति को कायम रखने के लिए कुछ खास किस्‍म के समूह- विशेषत: वे समूह जो वर्णाश्रम धर्म में सबसे ऊपर के पायदान पर स्थित हैं- ‘ग्राम्‍य सुधार’ जैसी फर्जी योजना का इस्‍तेमाल करके ‘सुधारकों से कहते हैं’, ‘गांवों की ओर चलो’। आप खुद सोच कर देखिए, ये लोग हर इतवार को ‘गांव की ओर चलो’ का नारा लगाते हुए कारोबारियों, वकीलों और सरकारी नौकरों के साथ गांवों में जाकर भजन गाते हुए कोई रास्‍ता बुहार दें, एक बालटी में कचरा इकट्ठा करके गैर-ब्राह्मणों वाले टोले में जाकर फेंक आवें और उसके बाद कम्‍बन की रामायण से रावण के पापों की कथा सुनाते हुए हनुमान को महिमामंडित कर दें, तो इससे गांव के लोगों की आखिर कौन सी तरक्‍की हो जाएगी?

गांव किसके लिए?

कचरे के ढेर के माफिक ऐसे गांवों की आखिर जरूरत ही क्‍या है? गांव वाले गाय, भैंस, बकरी पालते हैं। उनसे दूध, दही, घी, छाछ पैदा करते हैं, लेकिन शहर के लोग सब चट कर जाते हैं। कितनी मेहनत करनी पड़ती होगी इस सबके लिए? गांव वाले तड़के साढ़े तीन बजे सोकर उठते हैं। गायों को चरी डालते हैं। बाड़ा साफ करते हैं। फिर चार बजे उन्‍हें दुहते हैं। इसके बाद मांड़-दलिया बनाकर पी जाते हैं। पांच बजे वे दूध लेकर निकलते हैं और पांच-छह मील पैदल चलने के बाद घर-घर पहुंचते हैं। हर दरवाजे पर आवाज लगाते हैं- अम्‍मा दूधवाला! छह बजे तक वे दूध नापते हैं, जबकि उनके अपने बच्‍चे दूध-घी के स्‍वाद से महरूम रह जाते हैं। बेशक इसके बदले उन्‍हें शहरी लोग पैसा चुकाते हैं, पर इस पैसे से होता क्‍या है? एक-चौथाई पुलिस और दूसरा चौथाई नगरपालिका के कर्मचारियों को देने के बाद जो कुछ बचता है, उसे वकील और अधिकारी निचोड़ लेते हैं।

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अनाज की बिक्री

गांवों में रहने वाले बड़े जमींदारों का भी यही हाल है। फसल बोने, काटने और अनाज पैदा करने के भारी संघर्ष के बाद अगर कोई ग्रामीण अपना सौदा लेकर शहर आता है तो आढ़तिया उससे खूब मोलभाव करता है और उसे मामूली दाम पर अपना माल बेचने को मजबूर कर देता है। जितने पैसे इससे मिलते हैं, उससे किसान अपनी लागत तक नहीं निकाल पाता। बाकी, व्‍यापारी माल की तौल में उससे छल भी कर देता है और अंत में दुनिया भर के मदों में कटौती करके उसे भुगतान करता है, जैसे ब्रोकरेज, कमीशन, चंदा, सिफारिश, मजदूरी, पान-पत्‍ते का खर्चा, इत्‍यादि। गांव वाला, जिसने कभी एकमुश्‍त रकम नहीं देखी थी, वह इतने के लिए ही भगवान का शुक्रिया अदा करता है और शहर में एक कॉफी पीकर और एक सिनेमा देखकर गांव वापस लौट जाता है। उधर, व्‍यापारी उसके अनाज को भंडारित करता है, दाम बढ़ने पर बेचता है, लखपति बन जाता है, बड़ा-सा मकान बनवाता है और ऐय्याशी करता है। वहीं गांव वाला शहर में आकर इस व्‍यापारी के यहां गायें चराता है, ठेला खींचता है और घरेलू नौकर बन के उसके शरीर की मालिश करता है।

सरकार की नजर में गांव के लोग बकरे हैं, जिन्‍हें कसाई को बेचा जाना है

इसीलिए गांव अब भी अस्‍पृश्‍य बने हुए हैं और दूसरी जगहों पर रह रहे लोगों की सेवा के लिए समर्पित हैं। ऐसी मौजूदा हालत में अगर गांवों की तरक्‍की के लिए कुछ भी किया जाता है, तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा और गांव के लोग शूद्र व अस्‍पृश्‍य ही बने रहेंगे।

हम कहते हैं कि सभी मनुष्‍यों को बराबर प्रतिष्‍ठा दिलवाने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण या पारायर के फर्क के बगैर इंसान की एक ही जात हो। ठीक उसी तर्ज पर हम यह भी कहते हैं कि मनुष्‍य की रिहाइशों में शहर और गांव का कोई फर्क न किया जाय। सबके रहने की केवल एक ही जगह हो जिसे ‘नगर’ के नाम से जाना जाए।

हर कहीं वर्णभेद है

गांवों के मामले में भी वर्णाश्रम धर्म लागू होता है इसको समझाने का एक और उदाहरण है। जनगणना के अनुसार, 100 में से 90 लोग चौथे और पांचवें वर्ण से आते हैं। शुरुआती तीन वर्णों को मिलाकर केवल 10 फीसद लोग हैं। इसी तरह जिन जगहों में लोग रहते हैं, उनमें 90 फीसद से ज्‍यादा इलाके गांव हैं। इस बैठक के अध्‍यक्ष ने कहा था कि भारत में दस लाख से ज्‍यादा गांव हैं, जबकि शहरों की संख्‍या 75000 से ज्‍यादा नहीं है यानी 10 फीसद से कम है।

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शिक्षा

करीब से देखने पर हम पाते हैं कि शहरों में ठेला खींचने वालों, अर्दलियों, पुरोहितों और पुजारियों के बच्‍चे बीए, इंजीनियरिंग, डॉक्‍टरी की पढ़ाई पढ़ते हैं, आइसीएस परीक्षा की तैयारी करते हैं और जाने क्‍या-क्‍या करते हैं। इसके उलट, किसी गांव के एक जमींदार तक को, जिसके पास सौ दो सौ एकड़ जमीन हो, अपने बच्‍चे की पढ़ाई-लिखाई पर अपनी आधी कमाई लुटा देनी होती है। एक ग्रामीण का बच्‍चा अपने पैरों पर खड़ा होते ही गाय चराने लग जाता है। सरकार का आदेश है कि शहरों में जमादारों और मैला ढोने वालों के बच्‍चों को भी अनिवार्य शिक्षा दी जाए। इसके लिए सरकार निशुल्‍क स्‍कूल चलाती है। उधर, गांव के लोगों को अपने बच्‍चों को पढ़ने के लिए शहर भेजना पड़ता है। शहर जाकर वहां किसी की छत्रछाया के बगैर लड़का शराब-कबाब की लत में बरबाद हो जा सकता है। इस सबका क्‍या मतलब निकाला जाए?

राशन

इतनी सारी बातें क्‍यों करनी, केवल एक उदाहरण काफी होगा- राशन का। शहर के लोगों के लिए सरकार सारी जरूरतें पूरी करती है जिससे नट्टुकोट्टइ शेट्टियार अपनी कमाई का एक हिस्‍सा भगवान को चढ़ा पाते हैं। गांव के लोगों को राशन देने की जिम्‍मेदारी किसकी है? सारी जरूरत के उत्पाद पैदा करने वाले ग्रामीणों की अपनी जरूरतें भगवान के भरोसे छोड़ दी गई हैं। भगवान ही उन्‍हें जिंदा रखेगा। इसका नतीजा यह होता है कि गांव के लोगों को शहर के व्‍यापारी के यहां से एक रुपये के भारी दाम में थोड़े से चावल खरीदने पड़ते हैं, वो भी तब जब उसने अपना पैदा किया सारा अनाज उसे ही औने-पौने दाम पर बेच दिया होता है।

कड़ी मेहनत

शहर में रहने वाले 90 फीसद से ज्‍यादा लोग बिना कठिन शारीरिक श्रम किए मौज की जिंदगी गुजारते हैं, लेकिन गांवों में रहने वाले 90 फीसद लोगों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अगर कहीं कोई झगड़ा-फसाद फंसा तो उन्‍हें इंसाफ के लिए शहर में कचहरी के चक्‍कर लगाने पड़ते हैं। इसके चक्‍कर में जितने का सामान नहीं, उतना मुकदमे पर खर्चा हो जाता है। इसी दबाव के चलते उन्‍हें दबंगों और बाहुबली लोगों के मात‍हत जीना पड़ता है।

ग्राम्‍य अधिकारी

ऐसी अजीब स्थिति में हम पाते हैं कि एक ग्राम्‍य अधिकारी की तनख्‍वाह माहवार पंद्रह रुपये होती है, जबकि दूसरे खर्चों, अपने रसूख और पद को कायम रखने से लेकर रिश्‍वत और ऊपर के शहरी अफसर का हिस्‍सा देने में ही कम से कम सौ रुपया महीने में खर्च हो जाता है। ऐसे आदमी से आप ईमानदारी की उम्‍मीद कैसे कर सकते हैं? ग्राम्‍य अधिकारी गांव वालों के लिए अधिकारी है, लेकिन शहरी लोगों के लिए महज एक कर्मचारी है। तालुके के दफ्तर में एक मामूली काम भी पड़ जाए तो उसकी कोई औकात नहीं है। वहां उन्‍हें उनके अपने नाम से नहीं, उनकी तैनाती वाले गांव के नाम से पुकारा जाता है। गनीमत है कि गांव के आदमी के साथ ऐसा नहीं होता, जो अनाज उगाता है या मवेशी चराता है।

खेतीबाड़ी की हालत

खेती अब भी उसी हालत में है जैसी दो सौ साल पहले थी। कुछ सिंचाई सुविधाएं, चकबांध और जलाशय भले बना दिए गए हैं, लेकिन कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। हां, सरकार का कृषि विभाग कुछ लोगों को बेशक नौकरी दे चुका है। बस, इतना ही। ये नौकरियां भी उन लोगों ने हासिल की हैं, जिनका कृषि से कोई लेना-देना नहीं है। उत्‍पादों में कोई अंतर नहीं आया है। उपज में भी कोई बदलाव नहीं है। खेती के तरीकों में भी कोई फर्क नहीं आया है। किसानों के पास अपनी उपज का वाजिब दाम पाने का कोई तरीका नहीं है। खेतीबाड़ी के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाने के उसने पास कोई साधन नहीं हैं।

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किसानों के मामले में सरकार के दूसरे प्रयासों को भी देखा जाना चाहिए। सरकार इस गफलत में है कि हमारे सारे किसान पश्चिमी देशों की तरह शिक्षित हैं। इसीलिए वह किसानों को निर्देश देने के लिए परचे छपवाती है। कल्‍याण परियोजनाएं लागू करने वाले कृषि अधिकारियों को इस बात का अहसास ही नहीं है कि हमारे किसान अभी तार्किक ढंग से सोचने के आदी नहीं हुए हैं, सभ्‍यतागत विकास से वे परिचित नहीं हैं और शहरों से वे दूर रहते हैं।

परियोजनाएं

अगर हम गांवों को सुधारने के बारे में वास्‍तव में गंभीर हैं तो मैं जो सुझाव दे रहा हूं, उसे अपनाया जाना चाहिए। खेतीबाड़ी का जो काम हाथों से होता है, उसे मशीनी और औद्योगिक कर दिया जाना चाहिए।

जुताई, बुवाई और कटाई मशीन से हो। कुआं खोदना, पानी निकालना और सिंचाई का काम भी मशीन से हो। काश्‍तों को आपस में मिलाकर इन बदलावों के लिए तैयार किया जाना चाहिए। ऐसे बदलावों के लिए अनुपयुक्‍त जमीनों की पहचान करके वहां ऐसे पौधे लगाए जाने चाहिए जिन्‍हें लगातार देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है।

उपज से होने वाले मुनाफे को सहकारी आधार पर किसानों तक पहुंचाया जाना चाहिए। कई गांवों को एक साथ मिलाकर उन्‍हें एक छोटे शहर में तब्‍दील कर दिया जाना चाहिए। इस शहर में स्‍कूल, अस्‍पताल, पार्क, सिनेमा हॉल, सभागार, मनोरंजन स्‍थल, वाचनालय, नियमित बस सेवा, बस अड्डा, थाना, एक योग्‍य न्‍यायाधीश वाली कचहरी और हर तरह का सामान बेचने वाली दुकानें होनी चाहिए।

समय-समय पर विभिन्‍न किस्‍म की चल प्रदर्शनियां लगाई जानी चाहिए और इन्‍हें पूरे शहर में घुमाया जाना चाहिए।

जहां कहीं जरूरी हो अपीली अदालतें लगाई जानी चाहिए और शिकायत निपटारा अधिकारियों को यहां हर हफ्ते शिविर लगाना चाहिए।

संक्षेप में, चेन्नई की आबादी दस लाख है, कोयम्‍बटूर की एक लाख और इरोड की पचास हजार है। इरोड के इर्द-गिर्द कोल्‍लमपलायम, मूलपलायम, सूरमपट्टी, मेलावलासु और कुछ अन्‍य गांवों को मिलाकर अगर एक नए नाम से एक ‘सर्किल’ में ला दिया जाए तो इन सर्किलों को शहर बनाया जा सकता है, जिनकी आबादी ढाई हजार से पांच हजार के बीच होगी। तब जाकर ये शहर दूसरे शहरी लोगों और बिचौलियों के शोषण से बच पाएंगे।

यह सोच कि ‘गांव के लोग शहरी लोगों के हित जीते हैं और उन्‍हें ऐसे ही जीना चाहिए’, को तत्‍काल बदल देने की जरूरत है। इसके अलावा, पर्यावरण के अनुकूल छोटे उद्योग स्‍थापित किए जाने चाहिए और उनमें अवसर उपलब्‍ध कराए जाने चाहिए, ताकि लोगों को आजीविका की तलाश में दूसरी जगहों पर पलायन न करना पड़े।

किसी भी व्‍यक्ति को गंवई, गंवार या गंदा कहने की जरूरत ही क्‍या है? वह भी तब जब वह अपनी नस-नस को तोड़कर मेहनत कर रहा हो?

हमें यह तय करना होगा कि ये नाम हमेशा के लिए मिट जाएं।

पश्चिमी देशों में…

पश्चिमी देशों में ज्‍यादातर गांव वैसे ही हैं, जैसी मेरी परिकल्‍पना है।

बहुत कम जगहें वहां ऐसी हैं जहां पक्‍की सड़क नहीं हो, नलके का पानी, बिजली, बस सेवा, स्‍कूल, खेल का मैदान, स्‍टेडियम, कारखाना और सामाजिक समता नहीं हो। बस रूस में कुछ जगहें ऐसी हैं जो गांव जैसा दिखती हैं। अब तक तो वे भी शहर बन चुके होंगे। अन्‍यथा यूरोप में तो उस तरह के गांव हैं ही नहीं जैसा हम सोचते हैं। अगर हैं भी, तो वहां ये वाली सोच नहीं है कि ‘गांव के लोग शहरी लोगों के हित के लिए होते हैं’ या फिर ‘भगवान ने पंजामरों और शूद्रों को केवल ब्राह्मणों की सेवा के लिए बनाया है’। उन देशों में अगर ऐसे एकाध गांव बचे भी होंगे, तो मैं कहूंगा कि एक भी नहीं बचना चाहिए।

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ऐसे में सवाल खड़ा होना स्‍वाभाविक है, ‘अगर यह हो गया तो खेती कौन करेगा?’ यह पूछना तो ऐसे ही हुआ जैसे यह सवाल, कि ‘यदि चकिलियार, पारायर ओर ओट्टारों को शिक्षा दे दी गई और उनका रुतबा बढ़ा दिया गया तो शौचालय कौन साफ करेगा?’ मेरा जवाब है, ‘एक जगह पर रहने वाले हम सभी को (हर कहीं) मिलजुल कर साझा ढंग से सारे काम करने चाहिए।’

गर्हित काम

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे देश में कोई भी काम गर्हित, नीचा, कठिन न हो जिसमें बहुत ज्‍यादा शारीरिक थकावट होती है, लेकिन जिसका उपयोग मामूली हो और जिसे तुच्‍छ माना जाता हो। राष्‍ट्रीय प्रगति का असल मतलब यही है।

कोई आदमी जहाज बनाके करोड़पति हो जाए या कोई कहीं स्‍टील का कारखाना खोल के कुबेर बन जाए, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि देश प्रगति कर रहा है।

जैसी प्रगति की बात मैं कर रहा हूं अगर उसे हासिल करना मुमकिन नहीं है, तब मेरा सुझाव यह है कि तुच्‍छ, कठिन और नीच माने जाने कामगारों को अच्‍छी आय और बेहतर सामाजिक दर्जा मुहैया करवाया जाना होगा। हम यदि उत्‍पादन में तकनीकी रूप से आधुनिक, वैज्ञानिक और मशीनी साधनों का उपयोग करने लग जाएं और इसकी शुरुआत यदि गांवों से हो, तो इन समस्‍याओं को आसानी से हल किया जा सकता है। इसके बाद ‘गांव’ शब्‍द से जुड़ी बुरी अर्थछवि और उसका दर्जा अपने आप ही बदल जाएगा।

प्रगति के इस विचार की सत्‍यता और वैधता को आसानी से समझा जा सकता है, बशर्ते इसे मूर्खतापूर्ण ढंग से साम्‍यवाद या समान न्‍याय न करार दे दिया जाए।

मजदूरों और ग्रामीणों को जो थोड़ी ज्‍यादा कमाई आज हो रही है, उसमें उन्‍हें संतुष्‍ट होकर बैठ नहीं जाना चाहिए।

इस बात को ध्‍यान में रखना होगा कि मुद्रा की ज्यादा आमद के चलते आज की तारीख में मजदूर और पूंजीपति के बीच तथा गांव और शहर के बीच का अंतर अतीत के मुकाबले और चौड़ा हो चुका है।

इस अंतर ने विभेदों, अपमानों और मानसिक असंतोष को इतना गहरा कर दिया है, जिसके चलते गरीब आदमी अब रसातल में जा चुका है।

जिन जगहों पर कोई अंतर नहीं बरता जाता, केवल वही जगहें संपूर्ण और संतोषजनक होती हैं।

(ग्राम्‍य अधिकारियों के लिए कामरेड पी. षणमुगा वेलायुथम द्वारा इरोड में 31 अक्‍टूबर, 1944 को आयोजित कार्यशाला की वार्षिक बैठक में पेरियार का भाषण)

स्रोत: कुदि अरासु, 11 नवंबर, 1944

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