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पेरियार का जीवन संघर्ष आज भी सामाजिक परिवर्तन की महान प्रेरणा है!

सामाजिक न्याय की शक्तियों, विशेषकर जो पिछड़ी जातियों के आत्मनिर्भर और स्वाभिमान के सवाल उठा रही हैं, को पेरियार को समझना अत्यंत आवश्यक है। पेरियार को समझने के लिए उनके पूरे जीवन संघर्ष को समझना होगा अन्यथा पेरियार को ‘जुमलों’ में बदलकर और एक जातीय रूप देकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते। पेरियार […]

सामाजिक न्याय की शक्तियों, विशेषकर जो पिछड़ी जातियों के आत्मनिर्भर और स्वाभिमान के सवाल उठा रही हैं, को पेरियार को समझना अत्यंत आवश्यक है। पेरियार को समझने के लिए उनके पूरे जीवन संघर्ष को समझना होगा अन्यथा पेरियार को ‘जुमलों’ में बदलकर और एक जातीय रूप देकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते। पेरियार जैसा होना बेहद कठिन है और उसके लिए वैचारिक मजबूती की बहुत आवश्यकता होती है। आज तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने पेरियार के जन्मदिन 17  सितम्बर को सामाजिक न्याय दिवस मनाने की घोषणा की है, जो निसंदेह स्वागत योग्य है।

पेरियार का जन्म 17 सितम्बर 1879 को इरोड के एक बड़े व्यापारी परिवार में हुआ था। परिवार बहुत पारंपरिक और वैष्णववादी था। 6 वर्ष की अवस्था में उन्हें स्कूल भेजा गया और 10 वर्ष की उम्र में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। 12  वर्ष की आयु में वह अपने पिता के व्यापार में सहायता करने लगे। उनके घर में वैष्णव गुरु आते थे और उनके माता-पिता उन सभी का बहुत सम्मान करते थे लेकिन पेरियार के मन में अंधविशवास और उससे उपजी परम्पराओं के विरुद्ध जैसे विद्रोह पैदा हो रहा था क्योंकि वह प्रश्न पूछते थे। हालाँकि उन्हें उनके जवाब नहीं मिलते थे लेकिन इसने पेरियार के अन्दर तर्क को और मज़बूत किया। 1898 में  पेरियार का विवाह नगम्माई से हुआ जिनके अन्दर पेरियार ने तर्कवादी विचार डालने के प्रयास किये। 1900 में उनकी एक बेटी हुई लेकिन वह 6 महीने में ही चल बसी। उसके बाद उनके कोई संतान नहीं हुई। 1904 में पेरियार ने अपने परिवार का त्याग कर दिया और संन्यास लेने के लिए निकल पड़े क्योंकि परिवार की परम्पराएँ और विचारधारा उनसे सहन नहीं हो पा रही थी। वह विजयवाड़ा, हैदराबाद से कोलकाता होते हुए गंगा के किनारे स्थित वाराणसी पहुंचे। वहाँ एक धर्मशाला में रहने लगे लेकिन उन्हें खाना नहीं दिया गया क्योंकि वह केवल ब्राह्मणों को दिया जा रहा था। तीन-चार दिन भूखे रहने के बाद उन्हें ख़याल आया के एक जनेऊ पहन लेंगे तो शायद लोग ब्राह्मण समझ कर भोजन दे देंगे लेकिन उनकी मूंछों ने धोखा दे दिया और फिर धर्मशाला के चौकीदारों ने उन्हें धक्का मार कर निकाल दिया। उनकी स्थिति बहुत खराब थी क्योंकि पैसों के अभाव में भूख के कारण उन्हें सड़क पर छोड़ा हुआ खाना खाना पडा। बाद में उन्हें पता चला कि यह धर्मशाला तमिलनाडु के ही किसी व्यापारी की बनाई हुई है जहाँ ब्राह्मण मजे में खा रहे हैं लेकिन तमिलनाडु का एक अब्राह्मण खाना नहीं खा सकता। इस घटना ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और ब्राह्मणवाद की चतुराइयों से उन्हें अवगत करवा दिया। पेरियार ने गृह त्याग का सपना छोड़ दिया और फिर अपने पिता  के पास  चले जहाँ उनके पिता उनसे बहुत खुश हुए। पेरियार ने फिर से व्यवसाय की ओर रुख किया और अपनी कंपनी का नाम रामासामी नायकर रख दिया।

उनका व्यापार अच्छा चल निकला। इसी दौरान इरोड में प्लेग के फलस्वरूप बहुत मौतें हुईं।  पेरियार तब तक सार्वजनिक जीवन में कूद चुके थे और उन्होंने बहुत से शवों का अंतिम संस्कार किया। पेरियार पंडित अयोथिदासा से बहुत प्रभावित थे जिन्होंने जाति के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई और ब्राह्मणवादी सोच और परम्पराओं की सख्त आलोचना की।  ब्रिटिश सरकार ने पेरियार को आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया। अपने जीवन काल में पेरियार बहुत से ट्रस्ट और समाज कल्याण समितियों के अध्यक्ष या सदस्य थे। 1918 में वह इरोड मुनिसिपलिटी के चेयरमैन पद पर चुने गए। यहीं से उनकी दोस्ती चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से गहरी हुई और1919 में उन्होंने राजाजी के कहने पर कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की।  1920 में उन्होंने असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लिया और गाँधी जी के कहने में उन सभी 29 जन संस्थानों के अध्यक्ष पद और इरोड मुनिसिपलटी के चेयरमैन पद से त्यागपत्र दे दिया। पेरियार ने अपने परिवार के व्यवसाय से भी खुद को दूर कर लिया। गाँधी जी के आह्वान पर पेरियार ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और उनके पास जो भी ऐसा सामान था उन सबका त्याग कर दिया। 1922 में पेरियार मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए। 1922 में राज्य के तिरुपुर सम्मलेन में पेरियार ने मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए एक प्रस्ताव पारित करवाया लेकिन ब्राह्मणों ने इसका विरोध किया। 1923 में मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की सरकार ने मंदिरों में ब्राह्मणों के शोषण को ख़त्म करने के लिए  हिन्दू  रिलीजियस एंडोमेंट बोर्ड की स्थापना की। अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर पेरियार ने इसका समर्थन किया।  1924 में पेरियार ने जस्टिस पार्टी की सरकार द्वारा शिक्षा और रोजगार में आरक्षण की नीति का समर्थन किया।

वायकोम का ऐतिहासिक सत्याग्रह

इसी वर्ष पेरियार ने वायकोम में ब्राहमणों द्वारा जातिवाद और छुआछूत को बढ़ावा देने और उस पर चलने की घटना का विरोध किया और उसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया। वायकोम पहले ट्रावनकोर रियासत का हिस्सा था जो अब केरल में है और वहाँ पर प्रमुख मंदिर को जाने वाले रास्ते पर दलितों और इझवा समुदाय के लोगों के चलने पर प्रतिबन्ध था। कांग्रेस की स्थानीय इकाई ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया और पेरियार को इसके विरुद्ध चलने वाले सत्याग्रह का नेतृत्व करने को कहा। पेरियार ने आन्दोलन का नेतृत्व किया और दो बार जेल गए। 30 मार्च 1924 को वायकोम में मंदिर प्रवेश के लिए सत्याग्रह शुरू हो गया। पेरियार 13 अप्रेल को वहाँ पहुंचे और 25 नवम्बर 1924 तक वहाँ रहे जो यह प्रदर्शित करता है कि वह आन्दोलन के प्रति कितना गंभीर थे। हालाँकि ट्रावनकोर का वह क्षेत्र मद्रास से बहुत दूर था और मुख्यतः मलयालम भाषी क्षेत्र था फिर भी उन्होंने कठिन परिस्थितियों में सत्यग्रह का नेतृत्व किया। 21 मई को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उन्होंने इसे अवैध और गैरकानूनी बताया और किसी भी प्रकार का सहयोग करने से इनकार कर दिया।  न्यायाधीश ने उन्हें एक महीने के सश्रम कारावास की सजा दी। जब वह जेल से रिहा हुए तो वह अपने घर नहीं गए और पुनः आन्दोलन में शामिल हो गए। पुलिस ने उन्हें दोबारा 27 जुलाई को गिरफ्तार कर लिया। वायकोम के आन्दोलन के दौरान पेरियार ने उस वर्ष वहाँ 114 दिन गुजारे जिनमें से 74 दिन तो जेल में ही गुजरे।  8 मार्च 1925  को गांधी वायकोम आये और उन्होंने कांग्रेस के गैर हिन्दू लोगों से आन्दोलन से अलग होने को कहा। गाँधी इसे हिन्दुओं का अंदरूनी मसला मानते थे और उन्होंने सवर्णों से कहा के दलितों के मंदिर प्रवेश का आन्दोलन सवर्णों या ब्राह्मणों को करना चाहिये।

पेरियार कांग्रेस के अन्दर की ब्राहमण लॉबी को देख रहे थे। उन्होंने समझ लिया था कि गाँधी इस आन्दोलन के बहुत क्रांतिकारी होने से डरते थे। जब प्रदेश कांग्रेस के लोगों ने देश के दूसरे हिस्सों में भी मंदिर प्रवेश के आन्दोलन करने की बात कही तो गाँधी ने उसे अस्वीकार कर दिया। गाँधी कांग्रेस में सवर्णों की सत्ता बनाये रखना चाहते थे। आन्दोलन के दवाब में मंदिर को जाने वाली चार में से तीन गलियों को सभी के लिए खोल दिया गया था लेकिन तथाकथित बड़ी जातियों में इसके विरुद्ध गुस्सा था। कांग्रेस के भी सवर्ण नेता इस विषय में बहुत साफ़ नहीं थे। पेरियार कांग्रेस के अन्दर सवर्णों के दोहरे चरित्र को देख रहे थे कि किस प्रकार से वे दलितों औरपिछड़ों के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे थे और उन्हें नेतृत्वविहीन कर रहे थे। उन्होंने ये भी देखा कि वायकोम मंदिर के जाने वाली तीन सड़कों को खोलने के बावजूद वहाँ की असेंबली में जब यह प्रस्ताव आया तो गिर गया। मतलब साफ़ था कि ब्राह्मणवादियों ने मंदिर प्रवेश के लिए लोगों के आन्दोलन के विरुद्ध अपने जातीय हितों को ऊपर रखा। आखिरकार लगभग 11 वर्ष बाद  1936 में ट्रावनकोर ने दलितों के मंदिर प्रवेश का रास्ता साफ़ कर दिया।

सत्ता में पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का सवाल

पेरियार कांग्रेस के अन्दर घुटन महसूस कर रहे थे। उन्होंने पार्टी के अन्दर सवर्णों के खेल को समझ लिया था और गाँधी के व्यवहार ने उन्हें पूरी तरह से खिन्न कर दिया था। वह गैर ब्राह्मणों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे और उनके लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात कर रहे थे। 1920 में तिरुनेलवेल्ली, 1921 में तंजावुर, 1922 में तिरपुर और 1923 में सलेम के कांग्रेस के अधिवेशनों में पेरियार ने एक ही प्रकार के प्रस्ताव रखे थे जो शिक्षा और नौकरियों में गैर ब्राह्मण जातियों के सामुदायिक प्रतिनिधित्व से सम्बंधित थे लेकिन कांग्रेस के ‘ब्राह्मण’ नेताओं की रणनीति के तहत ये सभी प्रस्ताव पारित नहीं हो पाए। सलेम में एक बड़े सम्मलेन में पेरियार ने कहा कि यदि गैर ब्राह्मणों को ब्रिटिश शासन के दौरान शिक्षा और नौकरियों में उनकी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तो ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को कभी भी चुनौती नहीं मिल पाएगी और ब्राह्मणोक्रेसी में द्रविड़ियन समाज पिसता रहेगा। नवम्बर 1925 में कांग्रेस के कांचीपुरम अधिवेशन में पेरियार ने गैर ब्राह्मणों के लिए 50% आरक्षण की फिर से मांग की और प्रस्ताव रखा लेकिन यहाँ पर भी प्रस्ताव गिर गया। यहीं से पेरियार का कांग्रेस और गांधी से पूरी तरह से मोहभंग हो गया और उन्होंने कसम खाई कि वह ब्राह्मण राज को ख़त्म करके रहेंगे। उनके साथ अनेक लोगों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी।  दिसंबर1925 में पेरियार ने कांचीपुरम में उसी स्थान पर सम्मलेन किया जहाँ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था और कहा कि आर्य ब्राह्मणों और द्रविड़ियन लोगों के बीच पुराने समय से ही बहुत मतभेद और फर्क है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता ऐसा कांग्रेस पार्टी में भी है और इसीलिये द्रविड़ समाज को अपनी संस्कृति, भाषा और नस्ल को ब्राह्मणवादी वर्चस्व से बचाए रखने के लिए स्वाभिमान की आवश्यकता है।  इस प्रकार 1925 में कांग्रेस से बाहर निकलने के बाद पेरियार ने स्वाभिमान आन्दोलन की नीव रखी।

[bs-quote quote=”पेरियार ने वायकोम में ब्राहमणों द्वारा जातिवाद और छुआछूत को बढ़ावा देने और उस पर चलने की घटना का विरोध किया और उसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया। वायकोम पहले ट्रावनकोर रियासत का हिस्सा था जो अब केरल में है और वहाँ पर प्रमुख मंदिर को जाने वाले रास्ते पर दलितों और इझवा समुदाय के लोगों के चलने पर प्रतिबन्ध था। कांग्रेस की स्थानीय इकाई ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया और पेरियार को इसके विरुद्ध चलने वाले सत्याग्रह का नेतृत्व करने को कहा। पेरियार ने आन्दोलन का नेतृत्व किया और दो बार जेल गए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि राजनैतिक तौर पर पेरियार जस्टिस पार्टी  में चले गए क्योंकि उसकी नीतियों का वह कांग्रेस में रहते हुए भी समर्थन कर रहे थे। जस्टिस पार्टी पूरे मद्रास रेजीडेंसी में गैर ब्राह्मण समाज को एकत्र कर उनके अधिकारों के लिए लड़ रही थी और दूसरी ओर कांग्रेस ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए रखना चाहती थी और इन प्रश्नों को बड़ी कुटिलता से किनारे कर देती थी। कुछ विदेशी लोग भी इस कार्य में कांग्रेस और ब्राह्मणों की मदद कर रहे थे जिनमें एनी बेसेंट और उनकी थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया भी थी। दरअसल मद्रास प्रेसीडेंसी में 1850 में ब्राह्मणों की आबादी पूरी जनसंख्या का 3.2% थी सरकारी सेवाओं, कलेक्टर और न्यायपालिका में उनका वर्चस्व था जबकि अब्राह्मण जातियों की संख्या 85%  थी लेकिन नौकरियों में उनका प्रतिनिधत्व बेहद कम था। 1910-1920  के मध्य मद्रास प्रेसीडेंसी में एम एल सी की कुल नौ सीटें थीं जिनमें से 8 पर गवर्नर ने ब्राह्मण नेताओं की नियुक्ति कर दी थी। 20 नवम्बर 1916 को साउथ इंडियन लिबरल एसोसिएशन का गठन हुआ जिसका सबसे बड़ा एजेंडा गैर ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधित्व का था। यह पेरियार के लगातार बोलने का असर था के 1917 में मिन्टो-मार्ले सुधारों के तहत मद्रास रेजीडेंसी की कुल 63 सीटो में से 28 सीटें गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षित कर ली गईं। 19 अगस्त 1917 को कोयम्बतूर में पहला गैर ब्राह्मण सम्मलेन हुआ। दिसंबर 2016  में गैर ब्राह्मण सम्मलेन ने होम रूल लीग के सवालों को अस्वीकृत कर दिया। जस्टिस पार्टी और पेरियार के लगातार प्रयासों का ही नतीजा था कि मद्रास रेजीडेंसी में 1920 से 1936 तक के 17 वर्षो में 13 वर्षों तक जस्टिस पार्टी की सत्ता थी। 1937 में जस्टिस पार्टी की हार के बाद राजगोपालाचारी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और पुनः हिन्दी और ब्राह्मण बर्चस्व की राजनीति शुरू हो गयी। पेरियार ने इसके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया और हिंदी की अनिवार्यता को तमिलों के ऊपर आर्यों की संस्कृति को थोपना बताया जिसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।  जस्टिस पार्टी इस कठिन समय में पेरियार की ओर देख रही थी। 29 दिसंबर 1938 में पेरियार को उनकी अनुपस्थिति में पार्टी का अध्यक्ष चुना गया क्योंकि पेरियार उस समय बेल्लारी जेल में थे।

जन आन्दोलन से ही सामाजिक बदलाव संभव

पेरियार ने कांग्रेस के अन्दर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को देखा था और उन्होंने जस्टिस पार्टी को ख़त्म होते हुए भी देखा था। राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते उन्होंने अच्छे-खासे आन्दोलनों को ख़त्म होते देखा था। उनके लिए पिछड़े वर्ग के लोगों के हित सबसे महत्वपूर्ण थे और उन्हें लग रहा था कि राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के चलते ऐसा नहीं हो पाएगा और राजाजी जैसे लोग बहुत आसानी से पिछड़ों के अधिकारों को ख़त्म कर देंगे। इसलिए उन्होंने 27 अगस्त 1944  को जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ियार कजगम रख दिया जिसका उद्देश्य क्रांतिकारी द्रविड़ आन्दोलन को मज़बूत करना और उसे ब्राह्मणवाद के शोषण से बचाना था। यह निर्णय भी लिया गया कि अब आन्दोलन पूरी तरह से सामाजिक होगा और चुनावी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं होगी। यह भी कि वे लोग ब्रिटिश सत्ता से कोई मानद उपाधि भी नहीं लेंगे।

इसके बाद पेरियार ने अपने आन्दोलन एक नयी धार दी। उन्होंने अतार्किकता, छुआछूत, जातिवाद और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध तमिलनाडु में मोर्चा खोल दिया। राजाजी सरकार के हिंदी भाषा थोपने के विरुद्ध उनका आन्दोलन बेहद मजबूत हो चुका था और सी के अन्नादुरई उनके सबसे प्रमुख ‘स्वयंसेवक’ थे। पेरियार का लेखन भी जारी था और 1950 में अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 23 अप्रेल 1957 को मद्रास हाई कोर्ट के एक निर्णय के विरुद्ध जिसमें पिछड़ी जाति के एक प्रमुख अधिकारी के विरुद्ध कठोर आदेश पारित किया गया था, जिसे पेरियार ने गलत माना और उस निर्णय के खिलाफ जन आन्दोलन किया और  न्यायालय में भी उन्होंने उस निर्णय के विरुद्ध बात कही कि उसमें  ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह है। यह शायद पहला मौक़ा था जब उच्च न्यायालय के किसी निर्णय की खुले तौर पर आलोचना की गयी। इसके बाद पेरियार और मणि-अम्मई को न्यायलय की अवमानना के लिए दोषी ठहराते हुए जेल की सजा हुई।

यह पेरियार की चिंता ही थी जो 1959 में उन्हें उत्तर भारत की ओर ले आई और उन्होंने लखनऊ, कानपुर और दिल्ली का दौरा किया और वह लोगों से मुलाकात की। लखनऊ में उन्होंने अखिल भारतीय पिछड़े वर्ग के सम्मलेन में भाग लिया और कानपुर में ललई सिंह यादव और अन्य मित्रों ने उन्हें आमंत्रित किया।

[bs-quote quote=”1970 में पेरियार ने रेशनलिस्ट फोरम की स्थापना की जिससे समाज में तर्क और वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ाया जा सके और अंधविश्वास और कुरीतियों का भंडाफोड़ किया जा सके। इसका उद्देश्य यह भी था कि सरकारी कर्मचारी और गैर राजनीतिक लोग भी संगठन से जुड़े और विचारधारा का फैलाव करें। 24 दिसंम्बर 1973 को पेरियार ने अंतिम सांस ली।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल पेरियार का उत्तर भारतीय और ब्राह्मणवादी तंत्र से भरोसा पूरी तरह से ख़त्म हो गया था कि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता को ‘द्रविड़ियन’ समुदाय के लिए काला दिवस बता दिया। उनका कहना था कि यह आज़ादी उत्तर भारत के आर्यों के वर्चस्व की आज़ादी है। हालाँकि हिंदी के सवाल पर उन्हें द्रविड़ कड़गम में सभी का समर्थन था लेकिन पृथक द्रविड़ क्षेत्र की उनकी मांग को लेकर उनके सबसे बड़े शिष्य सी के अन्नादुरई का उनसे मनमुटाव हो गया। वह मानते थे कि भारतीय स्वतंत्रता केवल उत्तर भारतीयों की नहीं है। जनता में जाकर और राजनीति में हिस्सा लेकर वे बड़े बदलाव ला सकते है।  क्योंकि डी के में पेरियार ने यह निर्धारित कर दिया कि कोई चुनाव नहीं लड़ेगा। हिंदी के थोपने को लेकर अन्नादुरई और पेरियार साथ-साथ थे और तमिलनाडु में इसका बेहद असर हुआ। हालाँकि अन्नादुरई पेरियार के सबसे प्रियतम शिष्यों में थे लेकिन कई बार शिष्यों को भी अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने पड़ते हैं। किसी भी आन्दोलन का कोई मतलब नहीं रह जाता यदि उसके अंतिम उद्देश्य से हम अनभिज्ञ हो जाते हैं। पेरियार राजनीति में अवसरवाद के चलते यह मान रहे थे कि अच्छे-खासे विचारवान लोगों भी धोखा दे देते हैं। वे समाज को किसी भी कीमत पर इस स्थिति से बचाना चाहते थे लेकिन दूसरी ओर उनकी ‘अति’ के चलते नजदीकी लोगों से दूरी बढ़ रही थी। 1949 में पेरियार के मणि-अम्मई से विवाह को ‘मुद्दा’ बनाकर अन्नादुरई ने पेरियार से अलग होकर 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की स्थापना की।

अन्नादुरई और पेरियार

डीएम के राजनैतिक संघर्ष करती रही और डीके अपने आन्दोलन करती रही। मद्रास में पेरियार के द्रविड आन्दोलन को  पहली सफलता तब मिली जब 1967 में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके को भारी सफलता मिली और वह पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 14 जनवरी 1969 को सीके अन्नादुरई ने मद्रास राज्य का नाम आधिकारिक तौर  बदलकर तमिलनाडु कर दिया। तमिलनाडु में अन्नादुरई सरकार के जनोन्मुखी कार्यों का नतीजा यह निकला कि 1967 के बाद से अब तक तमिलनाडु में केंद्रीय राजनीति करने वाले दल हाशिये पर हैं और डीएमके या उसी से निकली हुई अन्ना डीएमके की सरकारें बनती रही हैं। यह पेरियार के आन्दोलनों और विचारधारा का ही प्रताप है कि तमिलनाडु में ओबीसी आरक्षण आज 50 प्रतिशत है जिसमे 3.5% पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के लिए और 20% अतिपिछड़ी और घुमंतू जातियों के लिए है।  अनुसूचित जातियों का आरक्षण 18% और आदिवासियों के लिए 1%  आरक्षण की व्यवस्था है। इस प्रकार पूरा आरक्षण 69% है। इसे संविधान की अनुसूची IX में रखा गया ताकि उसे बार बार न्यापालिका में चुनौती न दी जा सके।

डीएमकी जीत के बाद अन्नादुरई अपने गुरु पेरियार से मिलने तिरुचिरापल्ली गए और पेरियार से सहयोग माँगा। अन्ना ने विधानसभा में कहा के उनकी सरकार पेरियार के आदर्शों और विचारधारा की सरकार है और उस पर काम करेगी। इस सन्दर्भ में सरकार ने सबसे पहला काम आत्म स्वाभिमान विवाह को कानूनी बना दिया जिसके तहत बिना मंदिर और ब्राह्मणों के शादियाँ बेहद कम खर्चे से हो रही थीं। तमिलनाडु सरकार ने ‘त्रिभाषा’ फॉर्मुले को नहीं माना और द्विभाषा फॉर्मुले पर ही काम किया जिसके तहत तमिल के अंग्रेजी सीखने की अतिरिक्त सुविधा दी गयी। 1969  में अन्ना ने तमिलनाडु के सरकारी विभागों, सरकारी कार्यालयों से भगवान की मूर्तियाँ ओर फोटोग्राफ हटाने के आदेश दिए। 3 फरवरी 1969 को अन्नादुरई की अचानक मौत ने पेरियार को बेहद दुखी किया।

1970 में पेरियार ने रेशनलिस्ट फोरम की स्थापना की जिससे समाज में तर्क और वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ाया जा सके और अंधविश्वास और कुरीतियों का भंडाफोड़ किया जा सके। इसका उद्देश्य यह भी था कि सरकारी कर्मचारी और गैर राजनीतिक लोग भी संगठन से जुड़े और विचारधारा का फैलाव करें। 24 दिसंम्बर 1973 को पेरियार ने अंतिम सांस ली। 25 दिसंबर को उनकी मृत देह को पेरियार थिदाल, चेन्नई में दफना दिया गया। बताया जाता है कि पेरियार के अंतिम दर्शन के लिए पूरा तमिलनाडु मद्रास में उमड़ आया था।

सामाजिक न्याय और आत्मसम्मान का दहकता हुआ सूर्य 

पेरियार अपने जीवन के अंत तक ब्राह्मणवाद की कुरीतियों पर प्रहार करते रहे और तर्क के साथ ही जिंदगी जीते रहे।  उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और किसी प्रकार की राजनीतिक पदों से हमेशा दूर रहे। वह जनता के लिए जिए और जनता के साथ ही उम्र गुजार दी। उनका तर्कवाद किसी यूरोपियन या अमेरिकन विश्वविद्यालय से नहीं आया था अपितु जो उन्होंने अपने जीवन में देखा और महसूस किया उसी से सीखा। बनारस में ब्राह्मणों के व्यवहार और फिर कांग्रेस पार्टी के ब्राह्मण नेताओं द्वारा वायकोम के आन्दोलन को पीठ पीछे ख़त्म करने को, या जस्टिस पार्टी में नेताओं की महत्वकांक्षा के चलते सत्ता से अलग होने का उनका निर्णय पेरियार इन्हीं सबक़ों का एक व्यावहारिक प्रस्फुटन था। उन्होंने सिद्धांत के नाम पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व और कुटिलता को पहचान लिया था। इसी के चलते वह जन आन्दोलन को ही महत्वपूर्ण मानते थे। हालाँकि उन्होंने राजनीति से अपने के दूर कर लिया लेकिन उनके प्रिय साथी अन्नादुरई ने उन्ही सिद्धांतों के आधार पर डीएमके को आगे बढ़ाया और तमिलनाडु को उस मुकाम पर पहुंचाया जो किसी के लिए भी गर्व की बात है। आज तमिलनाडु देश के लिए एक मॉडल स्टेट है और उसने यह साबित किया है कि आरक्षण से कोई दोयम दर्जे की क्लास नहीं बनती और यह कि आरक्षण के जरिये राज्य न केवल सामाजिक न्याय की धारणा का सम्मान करता है अपितु एक बेहद सशक्त, संवेदनशील और प्रभावकारी शासन भी देता है।

[bs-quote quote=”पेरियार कांग्रेस के अन्दर सवर्णों के दोहरे चरित्र को देख रहे थे कि किस प्रकार से वे दलितों औरपिछड़ों के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे थे और उन्हें नेतृत्वविहीन कर रहे थे। उन्होंने ये भी देखा कि वायकोम मंदिर के जाने वाली तीन सड़कों को खोलने के बावजूद वहाँ की असेंबली में जब यह प्रस्ताव आया तो गिर गया। मतलब साफ़ था कि ब्राह्मणवादियों ने मंदिर प्रवेश के लिए लोगों के आन्दोलन के विरुद्ध अपने जातीय हितों को ऊपर रखा। आखिरकार लगभग 11 वर्ष बाद  1936 में ट्रावनकोर ने दलितों के मंदिर प्रवेश का रास्ता साफ़ कर दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पेरियार का जीवन यह भी सन्देश देता है कि राजनीति और सामाजिक कार्य तब तक आगे नहीं बढ़ेंगे जब तक उसका नेतृत्व करने वाले नए लोगों को मौक़ा नहीं देंगे। पेरियार के आदर्शों पर चलने वालों की कमी नहीं थी। पेरियार ने स्वयं को सत्ता की तिकड़मों से दूर रहकर अपनी पूरी ऊर्जा आन्दोलन और विचारधारा को मज़बूत करने में लगाया। पेरियार के आन्दोलन का एक सबक यह भी है कि किसी भी आन्दोलन की ताकत और सफलता की गारंटी उसकी विचारधारा होती है क्योंकि उसके अभाव में लोग समझौता करते हैं और आन्दोलन को ले डूबते हैं। पेरियार के महान व्यक्तित्व और द्रविड़ आन्दोलन की सफलता उत्तर भारत में बहुजनों के नाम पर करने वाले राजनैतिक दलों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो अपने समुदायों में एकता करवाने के बजाये उन्हीं लोगों को इज्जत देकर ‘सलाह’ मांग रहे हैं, जिनकी मूल विचारधारा शोषण पर आधारित है। पेरियार आज और भी अधिक प्रभावकारी हो सकते हैं, विशेषकर उत्तर भारत के सन्दर्भ में। लेकिन इसके लिए हमारे राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी वैचारिक शक्ति को मजबूत करना होगा। लोकतान्त्रिक होना होगा और ईमानदार होना होगा ताकि नया नेतृत्व उभर सके और सभी उत्पीड़ित समुदाय उनपर भरोसा कर सकें।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

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