Sunday, May 19, 2024
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वायकम के मंदिर प्रवेश आंदोलन में पेरियार की भूमिका को भुला देने के निहितार्थ

यह वही त्रावणकोर राज्य था जहाँ दलित गुलामी की जिंदगी जीते थे और नाडार, शांनार, इझवा, पुलाया, पराया, जातियों की महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार नहीं था क्योंकि ब्राह्मणवादी सत्ता ये चाहती थी कि अवर्ण समाज की महिलायें ब्राह्मणों और नायर महिलाओं की तरह नहीं दिखनी चाहिए। जातीय उत्पीड़न से तंग आकर जब इन वर्गों की महिलाओं ने क्रिश्चियानिटी को अपनाया तो कुछ बदलाव नज़र आने लगे। क्योंकि यूरोपियन सत्ता अब इसे नियंत्रण कर रही थी इसलिए महाराज 1829 में शानार महिलाओं (जो ईसाई बन गई थीं) को कूपायन यानि ऊपरी वस्त्र पहनने कि अनुमति दे दी।

यह वर्ष ऐतिहासिक वायकम सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष है। पिछले महीने की तीस तारीख को यह शुरू हुई। 30 मार्च, 1924 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन सत्याग्रही कुंजपी, बहुलेयन वेणीयल और गोविंदन पनिकर (एक नायर, एक पुलया और एक ब्राह्मण) ने आंदोलन के पहले सत्याग्रही के तौर पर इसकी शुरुआत की। केरल के कोट्टायम जिले में स्थित वायकम उस दौर में त्रावणकोर राज्य का हिस्सा था और ब्राह्मणवादी राज्य की अवधारणा का प्रतीक भी। त्रावणकोर राज्य में दलित-पिछड़ों के साथ हर किस्म का आपराधिक व्यवहार होता था और उनका न केवल मंदिरों में प्रवेश निषेध था अपितु राज्य की सड़कों पर भी वे नहीं चल सकते थे। वायकम स्थित प्रसिद्ध महादेवर मंदिर में अवर्णों का प्रवेश वर्जित था। बात केवल मंदिर की ही नहीं थी अपितु मंदिर तक जाने वाली चारों ओर की सड़कों पर भी शूद्र-अतिशूद्रों का प्रवेश वर्जित था। दरअसल, अपने ‘मैनुअल’ या राज्य डॉक्यूमेन्ट में त्रावणकोर एक हिन्दू राज्य था जो हिन्दू धर्म की परम्पराओं और संस्कृति का पालन कर रहा था और शायद यही कारण है कि छुआछूत और ब्राह्मणों का प्रभुत्व यहाँ की राज्य संस्कृति का हिस्सा था। राज्य अपनी विरासत को परशुराम से जोड़कर देखता था इसलिए यह समझ सकते हैं कि यहाँ की संस्कृति और राज्य सत्ता पर ब्राह्मणवादी नियंत्रण कितना कठोर था। ब्राह्मण 8वीं सदी में वहां आए थे और उनके अलावा नायर और अवर्ण जातियां थीं। त्रावणकोर मैनुअल के अनुसार आदि शंकराचार्य भी वहां से ही थे जिन्होंने ‘बुद्ध धम्म’ को ‘उखाड़’ फेंका था।

1725 त्रावणकोर के राजा ने पद्मनाभा मंदिर को राज्य को समर्पित किया और स्वयं को उनके आदेशानुसार राज्य चलाने का दावा किया। मतलब साफ था कि त्रावणकोर राज्य पद्मनाभास्वामी भगवान को समर्पित रहेगा और ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं के अनुसार चलेगा। इसी दौर में राजा ने सादगी पर जोर दिया और बिल्कुल परंपरावादी तरीके से रहना शुरू किया, फिजूल खर्ची और शाही खर्च खत्म कर दिए गए थे। डच और बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता होने के कारण हैदर अली और टीपू सुल्तान के हमले से बचा रहा। टीपू के राज्य से भागे 25,000 ब्राह्मणों को त्रावणकोर राज्य ने शरण दी थी और उन्हें उसे सौंपने से इनकार कर दिया था। राजशाही अत्यधिक धार्मिक थी और महिलाओं को भी सत्ता संभालने के अवसर मिले। ये ऐसा राज्य था जहाँ पद्मनाभास्वामी मंदिर वैभव का प्रतीक था और एक बार राज्य के खजाने के खाली होने पर राजा ने पाँच लाख रुपये भगवान से इस वादे के साथ लिए कि पाँच वर्ष में वह उसे 50% ब्याज के साथ लुटाएंगे। आज भी केरल का पद्मनाभा मंदिर भारत के सबसे धनी मंदिरों में से एक है। अमेरिका की प्रख्यात Forb पत्रिका के एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘इस मंदिर में 2015 में मौजूद सोने-जवाहरातों की कीमत एक ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक होगी।’ ये ही त्रावणकोर राज्य था जहाँ दलित गुलामी की जिंदगी जीते थे और नाडार, शांनार, इझवा, पुलाया, पराया, जातियों की महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार नहीं था क्योंकि ब्राह्मणवादी सत्ता ये चाहती थी कि अवर्ण समाज की महिलायें ब्राह्मणों और नायर महिलाओं की तरह नहीं दिखनी चाहिए। जातीय उत्पीड़न से तंग आकर जब इन वर्गों की महिलाओं ने क्रिश्चियानिटी को अपनाया तो कुछ बदलाव नज़र आने लगे। क्योंकि यूरोपियन सत्ता अब इसे नियंत्रण कर रही थी इसलिए महाराज 1829 में शानार महिलाओं (जो ईसाई बन गई थीं) को कूपायन यानि ऊपरी वस्त्र पहनने कि अनुमति दे दी। नतीजा यह हुआ कि दूसरी महिलाओं ने भी ऊपरी वस्त्र पहनना शुरू कर दिया जिससे ब्राह्मणों को बेहद परेशानी होने लगी। लेकिन अब अंग्रेजों के आने के बाद से राज्य में सुधारों की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी वो अब रुक नहीं सकती थी। त्रावणकोर में गुलामी की प्रथा भी थी और उन्हें खरीदा और बेचा जाता था। 17 मई, 1859 को राजा ने कंपनी सरकार को लिखकर गुलामी प्रथा खत्म करने की घोषणा कर दी। हालांकि आधिकारिक तौर पर 26 जुलाई, 1859 को त्रावणकोर राज्य ने गुलामी प्रथा खत्म करने की घोषणा कर दी लेकिन दलितों, अवर्णों पर अत्याचार और शोषण बदस्तूर जारी थे क्योंकि ब्राह्मणों की सर्वोच्चता पर कोई प्रश्न खड़े नहीं कर सकता था।

त्रावणकोर की रियासत दक्षिण भारत में उसी प्रकार से जातिवादी व्यवस्था पर आधारित थी जैसे महाराष्ट्र में पेशवाई का राज्य था जिसके विरुद्ध फुले उठ खड़े हुए थे। केरल मे नंबूदरी ब्राह्मणों का वर्चस्व था और बाकी शूद्र-अतिशूद्र जातियों को अछूत माना जाता था और मुख्यतः इन जातियों की हालत गुलामों से भी बदतर थी। 1860 में यूरोपियन के इस क्षेत्र में आने के बाद से उनका संपर्क होने से इन लोगों में विशेषकर ईझवा जाति के लोगों में ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ा क्योंकि वे ईसाई मिशनरियों के स्कूलों में जाने लगे। 1875 में ईझवा पुरुषों में शिक्षा का प्रतिशत 3.15% था जो 1891 तक आते-आते 12% के लगभग हो गया। अब लोग अंग्रेजी स्कूलों की ओर भी जाने लगे। 1875 तक लगभग 20% ईझवा ईसाई बन चुके थे जो 1941 तक 42% हो गया था। असल में ईझवा और नाडार दक्षिण भारत में दो बहुत बड़ी शूद्र जातियां हैं जो एक समय में अछूत भी मानी जाती थीं लेकिन आज के दौर में दोनों बहुत शक्तिशाली ‘पिछड़ी’ जातियों में शामिल हैं। दोनों ही जातियां त्रावनकोर राज्य में महत्वपूर्ण थी। 1903 में ईझवा समुदाय में श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम (एसएनडीपी योगम) की स्थापना के बाद सामाजिक बदलाव की एक बहुत बड़ी मुहिम शुरू हुई थी। आज पूरे केरल में एसएनडीपी योगम के स्कूल, कालेज चाहे वह मेडिकल हो या इंजीनियरिंग और समुदाय को आर्थिक विकास के लिए अनुदान के कार्यक्रम चलते हैं जिनका वार्षिक बजट 200 करोड़ रुपये से भी अधिक का है। श्रीनारायणगुरु का केरल में ईझवा समुदाय के सामाजिक सांस्कृतिक उत्थान में बहुत बड़ा योगदान है।

त्रावणकोर राज्य बहुत प्रसिद्ध और पैसे वाला खूबसूरत क्षेत्र था, जिसमें वर्तमान में केरल के इलाकों से लेकर कन्याकुमारी जैसे क्षेत्र भी थी जो अब तमिलनाडु में है। थिरुवनंतपुरम यहाँ की राजधानी थी जिसे अंग्रेजों ने त्रिवेंद्रम कहा। यह प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण राज्य था क्योंकि न केवल खूबसूरत पहड़ियां अपितु समुद्र भी। पेरियार नदी इसके बहुत बड़े भूभाग के लिए जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। यहाँ की राजसत्ता ‘वर्णाश्रम’ धर्म को पूरी तरह से समर्पित थी और उसका अक्षरश: पालन करती थी। ब्राह्मणों की सत्ता सर्वोच्च थी और उनकी चलने वाली सड़कों पर अन्य जातीय विशेषकर शूद्रों अतिशूद्रों का चलना प्रतिबंधित था। वंचित समुदाय के बच्चे स्कूलों में नहीं जा सकते थे। जाति प्रथा के ये जोर इसके बावजूद भी था कि राज परिवार के अधिकांश सदस्य इंग्लैंड के जाने-माने स्कूलों और विश्वविद्यालयों से पढ़कर आते थे लेकिन जाति-भेद को न तो अन्याय मान रहे थे और न ही उसके विरुद्ध कोई निर्णय लेने को तैयार थे।

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हालांकि हमारे जैसे लोग उपनिवेशवाद का जन्म जन्मांतर विरोध करते हैं लेकिन एक हकीकत से आँख नहीं चुराई जा सकती और वह यह कि अंग्रेजों और यूरोपियन लोगों के हमारे देश में आने से समाज और व्यवस्था पर बहुत असर दिखाई दिए। उन्होंने भारत की वर्ण व्यवस्था पर सीधे चोट न भी करे हो फिर भी उनके आने भर से यहाँ के जातिवादी शक्तियों और उनके आकाओं को समय आने पर बदलना पड़ा।

दरअसल, वायकम का आंदोलन मुख्यतः ईझवा समुदाय के अधिकारों तक ही केंद्रित रह रहा और इसकी राष्ट्रीय धमक इस कारण से भी हुई क्योंकि 1923 में काकीनाड़ा (आंध्र प्रदेश) में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर ने त्रावणकोर से आए अपने प्रतिनिधि टीके माधवन, जो ईझवा समुदाय से आते थे, के अनुरोध पर छुआछूत विरोधी एक समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष नायर समुदाय के के कलेपपन बने जो शुरू से ही इस आंदोलन से जुड़े रहे और जिन्होंने मथरुभूमि नामक अखबार की स्थापना की। इनके अतिरिक्त केपी केसव मेनन भी इस आंदोलन के प्रमुख सत्याग्रही बने। दरअसल, आंदोलन के केंद्र बिन्दु में माधवन थे जो महात्मा श्रीनारायणगुरु के शिष्य थे जिन्होंने वायकम मंदिर की ओर जाने वाली सड़कों को ईझवा और अन्य अवर्ण लोगों वास्ते खोलने के लिए लगातार संघर्ष किया।

गाँधीजी और ईवी रामासामी पेरियारजी

वायकम सत्याग्रह की खास बात ये थी कि आन्दोलन के समर्थन में अकाली दल के लोग भी पंजाब से यहाँ आए थे और उनके अलावा ईसाई समुदाय का भी समर्थन रहा लेकिन गांधी के हस्तक्षेप के बाद से अकाली, ईसाई और मुसलमान उससे अलग हो गए। गांधी चाहते थे कि यह हिन्दुओं का ही अंदरूनी मसला रहे। शायद उन्हें ये अंदेशा था कि दूसरे धर्मों के लोगों की भागीदारी से उन पर हिन्दू विरोधी होने का ठप्पा लग सकता है। दूसरे यह कि गांधी की राजनीति की एक खास बात थी और उसके हम अलग-अलग तरीके से विश्लेषण कर सकते हैं। गांधी के हर एक कार्य में ‘सवर्णों’ की एक बड़ी भूमिका रही है यानि यदि दलितों पर अत्याचार हो रहा है या जातिविरोध का आंदोलन हो या छुआछूत के विरुद्ध कोई मुहिम, गांधी कभी भी सवर्णों को नाराज नहीं करना चाहते थे। वायकम में भी ऐसे ही हुआ। उन्होंने तीन समुदायों के नेताओं का समूह बनाकर बाकी लोगों को आंदोलन से अलग कर दिया।

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गांधी अगस्त 1920 में पहली बार केरल गए जब वह खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। वे मुसलमानों के बीच भी गए। वायकम के सिलसिले में गांधी 8 से 19 मार्च, 1925 में केरल में रहे, जहाँ नंबूदरी ब्राह्मणों ने मंदिर प्रवेश आंदोलन का साफ तौर पर विरोध किया। वायकम सत्याग्रह की सफलता को लेकर गांधीजी को वैसे ही नायक बना दिया गया जैसे चंपारण और पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन को लेकर वह ‘किसानों’ के नेता बन गए। आखिर वायकम में गांधी ने ऐसा क्या किया कि उन्हें तो आंदोलन की सफलता का श्रेय दे दिया गया और जिस पेरियार ने इस आंदोलन को सफल बनाया उन्हें इसका श्रेय भी नहीं दिया जाता। पूरे त्रावणकोर राज्य में शायद बड़ी मुश्किल से पेरियार की कोई प्रतिमा या मेमोरियल होगा। अब डीएम की सरकार के समय (1991) से पेरियार की एक मूर्ति वहां पर है लेकिन एक मेमोरियल अब बन रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ है और इसे समझने के लिए गांधी और गांधीवाद को जिंदा रखने वालों की जातीय और वर्गीय चरित्र को भी समझना होगा। पूरे वायकम आंदोलन की एक त्रासदी और भी है और वो ये कि केरल में दलितों के सबसे बड़े क्रांतिकारी व्यक्तित्व अय्यंकाली का जाति उन्मूलन और छुआछूत के विरुद्ध आंदोलन को न तो ब्राह्मणवादी और न ही ईझवा लोग सुनने व मानने को तैयार हैं इसलिए ऐसा लगता है जैसे वायकम से पहले कुछ हुआ ही नहीं और अचानक से गांधीजी केरल आए और जातिवाद व छुआछूत खत्म हो गई।

इस आंदोलन की पृष्ठभूमि को ईमानदारी से कभी आगे लाया ही नहीं गया लेकिन पेरियार के लेखन में वह दिखाई देता है। इतिहास को जिस बेमानी से प्रस्तुत किया गया है, वो खतरनाक है। वायकम आंदोलन की सफलता का श्रेय ‘गांधी’ को देना दक्षिण भारत के ब्राह्मणवादी ताकतों का कुटिल षड्यन्त्र था हालांकि बाद में राजनैतिक तौर पर ये सभी शक्तियां परास्त हो गयीं। दुर्भाग्य यह कि पूरे आंदोलन को पेरियार ने जी जान से मजबूत किया लेकिन ‘इतिहास’ लेखन ने इसे ‘गांधी’ की सफलता बताया। ये बात जानना जरूरी है कि गांधी के आंदोलन से दलितों और शूद्रों के लिए मंदिर प्रवेश का रास्ता नहीं खुला। चार सड़कों में से तीन सड़कों पर अब ईझवा और अन्य अछूत जातियां अब जा सकती थीं।

आंदोलन के आधारभूत कारण

टीके माधवन जो कांग्रेस के नेता भी थे और श्रीनारायण धर्म प्रतिपालन ( एसएनडीपी ) योगम के सदस्य थे। एक वकील थे और एक मुकदमे के सिलसिले में उन्हे न्यायालय में उपस्थित होना था। त्रावणकोर के राजा के जन्मदिन का समारोह था इसलिए राजमहल को जाने वाली सभी सड़कों पर फूल सजे हुए थे और ब्राह्मण मंत्रोच्चार कर रहे थे। न्यायालय राजमहल कॉम्प्लेक्स में ही था लेकिन ब्राह्मणों ने माधवन को नहीं जाने दिया क्योंकि वह ईझवा समुदाय के थे। समुदाय इसको लेकर गुस्से में था और श्रीनारायण गुरु पहले से ही छुआछूत और जातिभेद के विरुद्ध अपनी ललकार लगा चुके थे इसलिए ईझवा लोगों ने आंदोलन का निर्णय किया। वैसे माधवन ने स्थानीय अखबार देशाभिमानी में छुआछूत और मंदिर प्रवेश, सड़कों पर सभी को चलने की छूट को लेकर लेख 1917 से शुरू कर दिए थे क्योंकि जातिभेद का प्रश्न खासकर ईझवा समुदाय के लोगों के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर श्रीनारायण धर्म प्रतिपालन योगम 1903 से काम कर रहा था। 1920 माधवन ने विरोध स्वरूप वहां तक जाने का प्रयास किया जहाँ से प्रतिबंध शुरू होता था। हालांकि माधवन ईझवा समुदाय से आते थे लेकिन उनके पिता त्रावणकोर के सबसे सम्पन्न किसानों में थे फिर भी अपने शिक्षा और काबिलियत के बावजूद भी वे उन सड़कों पर नहीं चल सकते थे जिसमें कुत्ते, बिल्ली या ब्राह्मण चल सकते थे। 1921 में माधवन इस संदर्भ में गांधीजी से मिले अपनी बात रखी।  माधवन को 1923 में काकीनाड़ा कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने का मौका मिला था जहाँ उन्होंने अपनी बात रखी थी और उसके बाद ही मार्च 1924 में वायकम में आंदोलन की योजना बनी थी। कांग्रेस के लिए छुआछूत के प्रश्न पर जनता में संदेश भेजने का अवसर था और इसलिए सत्याग्रह की बात हुए। गांधीजी शुरू से दलितों और जाति के प्रश्न पर किसी भी किस्म की ‘अतिवादी’ सोच को खत्म कर देते थे और जातिविरोधी आंदोलन मे सवर्णों या बड़ी जातियों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने एक समिति बनाई जिसमें ‘प्रगतिशील’ ब्राह्मण भी शामिल थे। सत्याग्रह की शुरुआत में तीन लोगों ने उस सड़क पर चलकर प्रतिबंध तोड़ने का प्रयास किया, जो महादेव मंदिर वायकम के प्रवेश द्वार की ओर जाती थी।

सत्याग्रह में कांग्रेस के माधवन के अलावा, कलप्पन, केपी केसव मेनन और जॉर्ज जोसेफ न केवल शामिल हुए अपितु उसका नेतृत्व भी किया। कांग्रेस समिति के ही सवर्ण नेताओं को जोसेफ एण्ड अकालियों के वहां आने से परेशानी थी क्योंकि उससे इस आंदोलन को ताकत मिल रही थी। ईझवाओं का एक बहुत बड़ा समूह जातिभेद से परेशान होकर पहले ही ईसाई बन चुका था और अंग्रेजी शिक्षा की ओर अग्रसर था। सिखों के आने से उन्होंने आंदोलनकारियों के लिए लंगर लगाना शुरू कर दिया था जिससे ब्राह्मणवादी शक्तियों पर बेहद दबाव पड़ा। गांधी ने इस सिलसिले में अपनी हिन्दू राजनीति की। उन्होंने कांग्रेस के गैर हिन्दुओं को इस आंदोलन से बाहर रहने के निर्देश दे दिए और अकालियों को भी वापस जाने के लिए कह दिया। सभी को बता दिया गया कि यह हिन्दुओं का अंदरूनी मामला है। आंदोलन की शुरुआत तो हो गई और गिरफ्तारियां भी होने लगी। अप्रैल 9 तक कुल 19 लोगों की गिरफ़्तारी हुई, जिसमे माधवन, जॉर्ज जोसेफ, केसव मेनन आदि शामिल थे। उसके बाद आंदोलन बिल्कुल ठप हो गया था। त्रावनकोर राज परिवार इस पर अपनी सख्ती भी दिखा रहा था और राज्य के ब्राह्मण व नायर उनके साथ खड़े थे। मामले की गंभीरता को देखते हुए केसव मेनन और बैरिश्टर जॉर्ज जोसेफ ने पेरियार को एक पत्र लिखकर उनसे तुरंत आने का अनुरोध किया जो उस समय तक तमिल राज्य कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे और छुआछूत व जातिभेद के विरुद्ध लगातार संघर्ष कर रहे थे।

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‘आप यहाँ अवश्य आयें और इस आंदोलन को मजबूती प्रदान करें, क्योंकि ऐसा न होने पर हमें राजा से माफी माँगने के अलावा और कोई चारा नहीं है। ऐसी स्थिति में हमारा कुछ बहुत नुकसान नहीं होगा लेकिन एक महत्वपूर्ण मुद्दे की हार होगी। हमें इसी बात की चिंता है। इसलिए कृपया अतिशीघ्र आइए और आंदोलन का नेतृत्व कीजिए।’

त्रावणकोर राज्य मे छुआछूत के विषय मे पेरियार कहते हैं, ‘एक कानून था जिसके तहत अवर्ण और अंत्यज उन सड़कों पर नहीं चल सकते थे जो वायकम के मंदिर तक जाता था। उनके लिए वहां से दो-तीन फलांग दूर एक टूटी फूटी ‘सड़क’ थी और करीब एक मील लंबा चलना पड़ता था। बहुत सी दूसरी शूद्र जातियां जैसे वनियार और असरिस भी वहां नहीं जा सकते थे। दलितों की स्थिति तो और भी गंभीर थी। महत्वपूर्ण सरकारी भवन भी वायकम मंदिर के प्रवेश द्वार के आस पास ही बने थे। अधिकारियों को ले जाते समय भी कोई अछूत उन सड़कों से नहीं जा सकता था। कुलियों को भी उन सड़कों पर चलने पर प्रतिबंध था।

एक आदर्श हिंदू राज्य की धारणाओं के सारे तत्व त्रावणकोर में विद्यमान थे। बाबा साहब द्वारा विश्लेषित ग्रेडेड इन इक्वालिटी का एक बेहद मजबूत उदहारण है इस राज्य की पूरी व्यवस्था जिसमें सड़कों पर चलने के नियम बेहद ‘कायदे कानून’ के हिसाब से समझाए गए थे। इतिहासकार और राजनीति विश्लेषक रॉबिन जाफरी बताते हैं – ‘एक नायर जाति का व्यक्ति ब्राह्मण से बात कर सकता है लेकिन उसको छू नहीं सकता। एक इझवा जाति का व्यक्ति ब्राह्मण से 36 कदम पीछे और पुलाया 96 कदम पीछे रहने चाहिए। एक ईझवा एक नायर से 12 कदम पीछे रहना चाहिए और एक पुलाया 66 कदम पीछे। एक पराया उससे भी दूर। एक सीरियन क्रिश्चियन नायर के साथ बातचीत कर सकता है, छू सकता है लेकिन खान-पान नहीं कर सकता। पराया दूर से बात कर सकते हैं लेकिन खान-पान या मिलना मिलाना नहीं कर सकते।’

दलितों की पलाया और पराया जातियों की हालत तो गुलामों वाली थी और वे भयानक रूप से जातिभेद का शिकार थे। 1893 में इन जातियों से ही निकले क्रांतिकारी अय्यंकाली ने त्रावणकोर में विद्रोह कर दिया और एक दिन जब उन्होंने सिर पर पगड़ी बांध कर, अच्छे कपड़े पहनकर (जो उस दौर मे केवल ऊंची जातियों के लिए ही माने गए थे) बैलगाड़ी में बैठकर उन सड़कों पर घुमाने का निर्णय किया जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी। ये अय्यंकाली के प्रतिरोध का नतीजा था कि 1900 के आते-आते त्रावणकोर राज्य में सभी सड़कों को दलितों के लिए खोल दिया गया, हालांकि मंदिरों की तरफ जाने वाले मार्ग और मंदिर प्रवेश अभी भी वर्जित था। महात्मा अय्यंकाली के हस्तक्षेप के चलते दलितों को स्कूलों में पढ़ने का अधिकार मिला। उनके जीवन संघर्षों पर अलग से बात करना जरूरी है क्योंकि मंदिर प्रवेश से अधिक उन्होंने शिक्षा और व्यवस्था में दलितों के प्रवेश की बात की और भूमि के प्रश्न को भी उठाया।

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पेरियार का आंदोलन मे प्रवेश

वायकम के आंदोलन को मजबूत करने के लिए पेरियार ने तमिल राज्य कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार राजगोपालाचारी को सौंप कर वायकम के लिए प्रस्थान किया। उन्हें लगा कि बिना वहां गए और रहे कोई आंदोलन मजबूत नहीं होने वाला। वैसे भी पेरियार मद्रास प्रेज़िडेन्सी में जस्टिस पार्टी के कार्यक्रमों से बहुत प्रभावित थे और सामाजिक बदलाव के प्रश्नों, ब्राह्मणों के अत्याचारों के खिलाफ, अंधविश्वास उन्मूलन को लेकर लगातार सक्रिय थे। 1918 में पेरियार ईरोड म्यूनिसपैलिटी के अध्यक्ष चुने गये और यहाँ से उनकी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से दोस्ती शुरू हुई। 1919 में राजगोपालाचारी के सुझाव पर उन्होंने इरोड में नगरपालिका के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और कांग्रेस मे शामिल हो गए। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भागीदारी की और नशा मुक्ति आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। पेरियार का कद इतना बड़ा था कि इस समय तक वह मद्रास प्रेज़िडेन्सी में 25 विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों के अध्यक्ष पर थे और गांधीजी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया। 1922 में पेरियार तमिल प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्होंने मद्रास प्रेज़िडेन्सी में जस्टिस पार्टी द्वारा किए जा रहे सामाजिक बदलाव के कार्यों, मंदिर प्रवेश, छुआछूत के विरुद्ध अभियान, दलित पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी आदि सभी प्रश्नों पर कांग्रेस में रहने के बावजूद समर्थन किया। उन्हें उम्मीद थी कि गांधीजी सामाजिक बदलाव के कार्यों को समर्थन देंगे। वायकम मे मंदिर प्रवेश का आंदोलन इस कड़ी में कांग्रेस के लिए भी एक अग्नि परीक्षा था क्योंकि 1923 के काकीनाड़ा सम्मेलन में यह सवाल उठ गया था लेकिन कांग्रेस को ऐसी राजनीति करनी थी जिससे सवर्ण विशेषकर ब्राह्मण भी नाराज न हो और दलितों के सवाल का भी समाधान हो जाए। दोनों बातें एक साथ शायद संभव नहीं थी।

पेरियार इस प्रश्न को बेहद महत्वपूर्ण मानते थे और इसलिए उन्होंने राजाजी को एक पत्र लिखकर उन्हें अध्यक्ष पद का कार्यभार सौंप कर वायकम लिए प्रस्थान किया। उन्हें पता था कि इस कार्य में मुश्किलें हैं और केवल स्थानीय लोगों के कारण ये सब नहीं हो सकता। वह 13 अप्रैल, 1924 को वायकम पहुंचे। उनके आने की खबर पूरे त्रावणकोर में लग चुकी थी और सरकारी अमला भी उनके स्वागत के लिए तैयार बैठा था। पेरियार वायकम नाव के जरिए पहुंचे और उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि वहां के पुलिस कमिश्नर और तहसीलदार भी उनके स्वागत के लिए वहां मौजूद थे। बताया जाता है कि त्रावणकोर के राजा श्रीमूलम थिरुनल राम वर्मा पेरियार का भव्य स्वागत करना चाहते थे लेकिन पेरियार ने इसे ठुकरा दिया।

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त्रावणकोर के राजा का ऐसा व्यवहार आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन पेरियार बताते हैं कि राजा ने अपने अधिकारियों को मेरा स्वागत करने के लिए कहा क्योंकि वह ईरोड में उनके बंगलों में रुकते थे खासकर जब भी उन्हें दिल्ली जाने के लिए ट्रेन पकड़नी होती थी तो वह ईरोड आते थे और यहाँ उन्हें और उनके साथ सभी लोगों का हमेशा स्वागत किया जाता था। शायद यही कारण था कि जब राजा को ये पता चला कि पेरियार वहां आ रहे हैं तो उनका भव्य स्वागत किया गया। इसका एक और कारण ये हो सकता है कि पेरियार तमिलनाडु कांग्रेस के अध्यक्ष थे और अब छुआछूत और जातिभेद का मसला बड़े स्तर पर जा रहा था तो शायद हो सकता है कि वह न चाहते हो कि बाहर के लोग वहां आए और इस सवाल पर आंदोलन करें। स्थानीय स्तर पर तो आंदोलन पहले ही टूट चुका था।

अपने तमाम रिश्तों को दरकिनार करते हुए पेरियार ने छुआछूत और जातिभेद के खिलाफ हो रही सभाओं में भागीदारी की और सड़क पर चलने के सबके अधिकारों और पूजा-अर्चना करने के अधिकारों का समर्थन किया। पेरियार ने कहा, ‘ऐसा भगवान जो अछूतों के छू लेने भर से अपवित्र हो जाए, मंदिर में रहने योग्य नहीं है। ऐसी मूर्ति को हटाकर कपड़े धोने के लिए प्रयोग करना चाहिए।’

वायकम सत्याग्रह में पेरियार

पेरियार के ओजस्वी भाषण और तर्कपूर्ण बातें लोगों पर असर डाल रही थीं और पूरे राज्य में जगह-जगह पर उन्हें बुलाया जा रहा था। ऐसे में उनके छुआछूत और ब्रह्मणवाद विरोधी आंदोलन से राजा और उसकी ब्राह्मणवादी ताकतें ही परेशान थी ऐसा नहीं था। कांग्रेस के अंदर भी ऐसे लोग बड़ी संख्या में थे जिन्हें पेरियार की बातें बहुत खटक रही थीं। इसलिए राजा ने दस दिन इंतज़ार करने के बाद पूरे क्षेत्र में धारा 26 लगा दी जो धारा 144 की तरह थी ताकि लोग एक स्थान पर एकत्र न हो सके। आंदोलन बढ़ रहा था इसलिए पेरियार ने भी अपने आंदोलन को मजबूत करने हेतु इसका उल्लंघन किया और 21 मई को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कोट्टायम आदि जगहों पर उनकी एंट्री बंद थी। एक महीने बाद जब वह रिहा हुए तो फिर वायकम आए और तो फिर से लोगों के बीच अपनी बात रखी तो गिरफ्तार कर लिए गए और फिर चार महीने की कड़ी कैद की सजा हुई। पेरियार की मौजूदगी से आंदोलन इतना मजबूत हो रहा था कि उनको गिरफ्तार करने के बाद उन्हें वे सुविधायें नहीं दी गईं जो राजनैतिक कैदियों को दी जाती हैं। कुल मिलाकर पेरियार 141 दिन तक वायकम में रहे और 30 नवंबर, 1925 को आंदोलन के सफल होने के समय तक वहां रहे जिसमें 74 दिन वह जेल में कड़ी सजा काट रहे थे। 10 सितंबर, 1924 को पेरियार को इरोड जाना पड़ा जहाँ 11 सितंबर को राजद्रोह के एक मामले में उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और अन्य बातों के सिलसिले में दोषी करार दे दिया गया। बाद में पेरियार 12 मार्च, 1925 को वरकला आए जहाँ उन्होंने गांधी और श्रीनारायनगुरु से मुलाकात की।

वीडियो के लिए यहाँ क्लिक करें 

पेरियार की उपस्थिति ने आंदोलन मे जान डाल दी और ये समझना जरूरी है कि क्यों? पेरियार इस प्रश्न को मात्र मीठी-मीठी बातों से नहीं अपने अधिकारों के सवालों को लेकर लड़ना चाहते थे। जस्टिस पार्टी 1916 से ही मद्रास प्रेज़िडेन्सी में गैर ब्राह्मण घोषणापत्र जारी करने के बाद से ही वह कांग्रेस पार्टी के लिए दक्षिण भारत में खतरा बन गई थी। पेरियार ने जस्टिस पार्टी के आंदोलन को शुरू से ही समर्थन दिया। वह कांग्रेस में इसलिए आए क्योंकि राजगोपलाचारी चाहते थे कि वह गांधी के समाज सुधार के आंदोलनों को मजबूत करें।

क्या पेरियार को श्रेय देने से रोकने के लिए राजाजी ने गांधीजी को वहा बुलाया?

पेरियार के साथ तमिलनाडु से क्रांतिकारी नेता आयामुथू और उनकी पत्नी नगंमाई भी थी। दूसरे प्रांत से वायकम में रहकर उस आंदोलन को मुकाम तक लाने वाले नेताओं में पेरियार अकेले थे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने आंदोलनकारियों से बातचीत करने के लिए ‘गांधीजी’ को बुलाया। इस विषय में पेरियार बताते है, ‘जब आंदोलन मजबूत हो रहा था और अलग-अलग स्थानों से लोग वायकम पहुँचने लगे तो बहुत से लोगों के ‘पेट’ में दर्द होने लगा। ये आंदोलन अब ब्राह्मणवादी दकियानूसी शक्तियों के विरुद्ध अवर्णों को जोड़ रहा था। वहां के राजा और कांग्रेस के सवर्ण ब्राह्मण नेताओं ने राजाजी और गांधीजी को शिकायत भी की। राजाजी ने पेरियार को एक पत्र लिखा, ‘आप अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्य में क्यों अव्यवस्था फैलाना चाहते हो? आपके द्वारा ऐसा करना पूरी तरह से गलत है। आप तुरंत वहां से वापस आए और अपना कार्यभार सभाले’। पेरियार कहते हैं कि उस समय तक 1000 से अधिक लोग वहा आंदोलन के लिए एकत्र हो चुके थे। खबर पंजाब पहुँच चुकी थी और स्वामी श्रद्धानंद ने स्वयंसेवकों को भेजा और 2000 रुपये का योगदान भी दिया। ब्राह्मणों ने गांधी को पत्र लिखकर बताया कि इस आंदोलन में सिख, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी लोग भाग ले रहे हैं। राजगोपालाचारी ने जॉर्ज जोसेफ को आंदोलन में भाग न लेने को कहा, लेकिन वह नहीं माने। बाद में गांधीजी ने सबको आंदोलन में भाग लेने से मना कर दिया। इसके बावजूद स्वामी श्रद्धानंद वायकम आए और आंदोलन को अपना समर्थन दिया। गांधी के विरोध के बावजूद वायकम आंदोलन चलता रहा। जोसेफ ने आंदोलन की पूरी मदद की और वह कांग्रेस से निलंबन के लिए भी तैयार थे क्योंकि वैचारिक तौर पर वह चाहते थे कि छुआछूत खत्म हो। पेरियार को त्रावणकोर रियासत ने कठोर कारावास की सजा दी। 21 जुलाई, 1924 को जब वे सजा भुगत रहे थे तभी एक रात खबर आई कि राजा मूलमथिरुनल की मृत्यु हो गई। पेरियार कहते हैं जब उन्हें खबर मिली तो उस समय रात में राजा की स्मृति में उन्हें तोपों की सलामी दी जा रही थी और तोपों के चलने की आवाज सुनाई दे रही थे। वह सोचने लगे, ‘राजा के शुभचिंतक और ब्राह्मण लगातार हम लोगों की मौत के लिए प्रार्थनायें कर रहे थे लेकिन उनकी प्रार्थनाओं का इतना असर हुआ कि राजा ही चल बसे’। नए राजा क्योंकि अव्यस्क थे इसलिए उनकी माताजी के पास सत्ता आ गई। नए राजा ने राजनैतिक कैदियों को रिहा कर दिया। रिहाई के बाद पेरियार जैसे ही इरोड गए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनका वायकम जाना मुश्किल हो गया लेकिन आंदोलन अब मजबूत हो चुका था। नई राज सत्ता को लोगों के गुस्से का पता था और वैसे भी कंपनी सरकार की मदद से चल रही थी जिसने प्रशासनिक सुधार तो पहले से लागू कर लिए थे। नई महारानी इस प्रश्न का समाधान चाहती थी और इसलिए पेरियार से बातचीत करना चाहती थी लेकिन राज्य का दीवान तमिल ब्राह्मण था और उसने महारानी को सलाह थी कि उसे मुझसे सीधे बात नहीं करनी चाहिए। दीवान ने राजगोपालाचारी को पत्र लिखा। राजाजी जानते थे कि यदि पेरियार से बातचीत कर समाधान होगा तो इस सवाल का पूरा क्रेडिट पेरियार को मिल जाएगा इसलिए उन्हें इस पूरे आंदोलन में गांधी को जबरन घुसेड़ दिया। पेरियार कहते हैं कि उन्होंने इस पर ज्यादा नहीं सोचा कि इस समस्या के समाधान का श्रेय मिले क्योंकि वह तो समस्या का समाधान चाहते थे। फिर गांधी वहां 8 मार्च, 1925 को पहुँच गए और 19 मार्च तक वहां रहे जहाँ उन्होंने श्रीनारायणगुरु और पेरियार से मुलाकात की। फिर गांधी की मुलाकात वहां की राज अभिभावक सेतुलक्ष्मी बाई (जिनका पुत्र चीथिरा तिरुनल बलराम वर्मा अभी अव्यस्क था) इस समस्या का ‘समाधान’ चाहती थीं और इसलिए उन्होंने गांधी से मुलाकात की क्योंकि बड़ी जातियों के लोग ये जान रहे थे कि पेरियार इस प्रश्न को मात्र मंदिर प्रवेश या सड़क प्रवेश तक सीमित नहीं रखेंगे। खैर, महारानी ने मंदिर प्रवेश की बात से साफ तौर पर इनकार कर दिया लेकिन मंदिर के चारों की सड़कों में से तीन तरफ की सड़कों को सबके लिए खोलने का ऐलान कर दिया। एक रोड उन्होंने फिर भी नहीं खोली क्योंकि उसमें मंदिर के पुरोहित चलते थे। महारानी चाहती थी किसी तरीके से पेरियार से  हामी करवा ली जाए ताकि फिर कोई परेशानी न हो। पेरियार कहते हैं, ‘महारानी से मिलने के बाद गांधी, पेरियार को मिलने उनके गेस्ट हाउस पहुंचे और उनकी राय मांगी। पेरियार ने कहा, ‘अछूतों को सार्वजनिक सड़कों का इस्तेमाल करने का अधिकार देना/ दिलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। हालांकि मंदिर प्रवेश कांग्रेस के एजेंडे में नहीं है फिर भी ये मेरे एजेंडे में है। लेकिन आप महारानी को बता दें कि इस समय मेरा मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन करने का कोई इरादा नहीं है। मैं कोई भी निर्णय स्थिति को सुधर जाने के बाद ही लूँगा।’

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29 नवंबर, 1925 को वायकम में विजय उत्सव की अध्यक्षता करते हुई पेरियार ने कहा, ‘सत्याग्रह का उद्देश्य उन सड़कों को इस्तेमाल करने तक सीमित नहीं था जिन्हें कुत्ते और सूअर उपयोग कर सकते हैं। हमारा उद्देश्य था कि सार्वजनिक स्थल सभी लोगों के लिए समान रूप से खुलने चाहिए। इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि जो लड़ाई हमने सड़कों के इस्तेमाल करने के लिए जीती वही मंदिरों के अंदर समान रूप से इस्तेमाल करने के लिए भी होनी चाहिए।’

पेरियार कहते हैं कि बाद में राजा को ये बताया गया कि अवर्ण जातियों के अधिकांश लोग जाति उत्पीड़न से बचने के लिए ईसाई या मुसलमान बन रहे हैं और यदि उनका मंदिरों में प्रवेश वर्जित रहेगा तो आने वाले समय में स्थिति और भी गंभीर हो सकती है। हालांकि गांधीवादियों ने इसमें भी एक ‘उपलब्धि’ ढूंढ निकाली। वे कहते हैं जब गांधीजी महारानी से मिलकर मंदिर प्रवेश की बात कर रहे थे तो महारानी ने कहा कि वह यह होने नहीं देंगी और ये निर्णय तो भविष्य के राजकुमार को करना होगा। राजा मात्र 12 वर्ष का था तो गांधीजी ने उससे पूछा कि क्या अछूतों को मंदिर प्रवेश का अधिकार होना चाहिए तो उसने कहा, ‘जब मै फॉर्मली सत्ता संभालूँगा तो मंदिर में सभी का प्रवेश स्थापित कर दूंगा।’

आखिर 11 वर्षों के बाद मंदिर प्रवेश की स्वीकृति

उसके बाद महारानी ने मंदिर के चारों ओर दलितों के लिए नई रोड बना दी जो फिर भी मंदिर से बहुत नज़दीक नहीं थी। तीन रोड ही खोले गए। गांधीजी अपनी ‘सफलता से खुश थे’ ओर आखिर में 23 नवंबर, 1925 को आंदोलन वापस ले लिया गया। तीन ओर से सड़कें अवर्णों के लिए खुल गईं लेकिन मंदिर प्रवेश अभी भी प्रतिबंधित था। 12 नवंबर, 1936 को नए राजा के जन्मदिन पर त्रावणकोर राज्य में मंदिरों के द्वार सभी के लिए खोल दिए गए हालांकि ये कोई दलों में परिवर्तन नहीं था अपितु भविष्य में अपने ही प्रदेश में बड़ी आबादी का ईसाई या मुसलमान बन जाने का भी था लेकिन ये एक बहुत बड़ी जीत थी क्योंकि इसी महादेवर मंदिर में प्रवेश का प्रयास करने पर 1806 में त्रावणकोर के दीवान वेलुथामपी ने ईझवा समाज के 200 युवाओं को गोली से भुनवा दिया था। इस हत्याकांड को दलवाकुलम हत्याकांड के नाम से भी जाना जाता है। गांधीजी ने राजा के इस फैसले को सराहा।

गांधी और पेरियार की पूरी अप्रोच में ये फ़र्क था कि गांधी इसे हिन्दुओं का अंदरूनी मामला समझ, बिना बदलाव किए, ‘झगड़े’ को निपटा देना चाहते थे लेकिन पेरियार के लिए मानवाधिकारों का प्रश्न था, दरअसल ये लड़ाई आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भी थी जो बाद में पेरियार के आंदोलन का मुख्य बिन्दु भी बने। ये एक अलग बात है कि जिस प्रश्न पर पेरियार ने इतने मजबूती से अपनी लड़ाई लड़ी आज भी उन्हीं के राज्य तमिलनाडु में दलितों को बहुत से स्थानों पर मंदिरों में प्रवेश वर्जित है और सार्वजनिक सेवाओं को वे आसानी से इस्तेमाल नहीं कर सकते। हक़ीकत ये है कि तमिलनाडु और केरल की सामाजिक न्याय के मॉडल केवल पिछड़े वर्ग तक पहुँच पाए हैं और गैर ब्रह्मणवाद के नाम सत्ता का हस्तांतरण पिछड़े वर्ग के हाथों में तो हुआ है लेकिन दलितों तक अभी भी ये न्याय नहीं पहुँच पाया है। दक्षिण में ब्रह्मणवाद का विरोध कर पिछड़ी जातियों ने तो सत्ता प्राप्त कर ली है लेकिन जिस बात का विरोध करने के लिए वे एकत्र हुए उसी बात पर वही अधिकार दलितों को देने के लिए तैयार नहीं है। वायकम आंदोलन को याद करते हुए आज भी ताकतवर जातियां अपने सफलता के गीत गा रही हैं और दलितों के संघर्ष को याद भी करने को तैयार नहीं हैं। वायकम के संघर्ष को याद करते हुए हम दलित जातियों के संघर्ष को नहीं भुला सकते इसलिए महात्मा अय्यंकाली हो या पंडित आयोथीदास, उनके संघर्षों को किनारे कर इन आंदोलनों का अच्छे से विश्लेषण नहीं हो सकता। वायकम के संघर्ष को मात्र ईझवा समुदाय तक सीमित कर देना भी खतरनाक होगा और इससे अधिक महत्वपूर्ण बात ये कि वायकम संघर्ष से त्रावणकोर राज्य या रियासत के ब्राह्मणवादी जातिवादी सोच को समझ सकते हैं कि धर्म आधारित कोई भी राज्य दलित पिछड़ों और महिलाओं के लिए कितना खतरनाक होता है। धरनिरपेक्ष राजनीति और लोकतंत्र में विश्वास करने वालों को इन आंदोलनों और ऐसी राजसत्ता के विषय में जानकारी लेनी चाहिए ताकि हम उसके खतरों को पहचान सकें और भविष्य के लिए सतर्क रहें।

 

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