पूरे साल का यह एकमात्र दिन होता है जब मैं खुद को गम के अंधेरे में पाता हूं। लगता ही नहीं है कि मेरे सामने कुछ है। अत्यंत निराश करनेवाला दिन। वह भी तब जब पूरी दुनिया में इब्न-ए-मरियम के पैदा होने की खुशियां मनायी जाती हैं। कई बार मेरे परिजनों को लगता है कि आज के ही दिन स्नेहल के चले जाने के कारण मैं नास्तिक हूं और वे मुझे कई तरह से समझाने की कोशिशें करते हैं। उनके तर्क बहुत मानवीय होते हैं और उनकी समझ के अनुसार होते हैं। उनके लिए मेरे नास्तिक होने का एकमात्र कारण यही है।
वैसे इस मामले में यह सच्चाई जरूर है कि स्नेहल जो कि मेरी पहली संतान थी, उसके निधन के बाद मैंने ईश्वर को समझने का प्रयास किया। हालांकि इसके पहले मैं हिंदू धर्म ग्रंथों का पाठ किया करता था, लेकिन तब सत्य शोधन उद्देश्य नहीं होता था। तब तो मैं अन्य लोगों की तरह ईश्वर में अगाध विश्वास रखता था और यह मानता था कि बिना उसकी मर्जी के पत्ता तक नहीं हिलता।
मेरे हिसाब से गालिब एकमात्र शायर हैं जो सत्य शोधन करते हैं। कवियों में यह बात दूसरे रूप में या कहिए कि ठेंठ अंदाज में कबीर की रचनाओं में मिलता है। रैदास को मैं थोड़ा कमतर मानता हूं। इसके बारे में किसी और दिन लिखूंगा। फिलहाल तो मिर्जा गालिब की बातें मुझे प्रभावित कर रही हैं। मेरे सामने 'दीवान-ए-गालिब' है।
लेकिन सब कुछ बदल चुका था स्नेहल के जाने के बाद। ईश्वर पर गुस्सा बहुत आया था। लगता था कि यह सब ईश्वर का किया धरा है। आखिर जब उसकी मर्जी से ही दुनिया में सबकुछ होता है तो उसने किस कारण से मेरी फूल-सी बच्ची को मुझसे छीन लिया?
खैर, वह दुख आज भी है और इतना है कि वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन इसने मुझे एक नया अवसर प्रदान किया कि मैं ईश्वर के बारे में सोचूं। हालांकि तब मैं कंप्यूटर प्रोफेशनल था। जितना पढ़ सकता था, मैंने पढ़ा। ईश्वर के काल्पनिक होने का प्रमाण मुझे कंप्यूटर साइंस ने ही दिया। यह प्रमाण तो कंप्यूटर की परिभाषा में ही निहित मिली। एक बड़ा सवाल था कि ऊर्जा का आदि स्रोत क्या है? क्या कोई पारलौकिक शक्ति है जो ऊर्जा उपलब्ध कराता है। दर्शनशास्त्र के विभिन्न किताबों से गुजरते हुए तब मैंने यह पाया कि ऊर्जा का कोई पारलौकिक स्रोत नहीं है। यह हर जगह विद्यमान है। आवश्यकता होती है तो केवल इस बात की कि ऊर्जा के संसाधनों का इस्तेमाल किया जाय या फिर भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ऊर्जा के स्रोतों में हलचल हो।
ईश्वर को खोजने के क्रम में मैंने लगभग हर धर्म ग्रंथ को समझने की कोशिश की। मुझे कोई ईश्वर नहीं मिला। हिंदू धर्म में तो ऐसे भी कोई ईश्वर नहीं है और उसके किसी भी मिथकीय पात्र में ईश्वर होने का गुण नहीं है। बौद्ध, ईसाई और सिक्ख धर्म में भी ईश्वर के बजाय ईश्वर के प्रति श्रद्धा व कृतज्ञता नजर आयी। लेकिन ईश्वर से मुलाकात नहीं हुई। इस्लाम से जुड़े ग्रंथों को पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बुद्ध ही सही थे– अत्त दीपो भव:। यह विचार खुदा के माफिक लगा। मतलब यह कि खुदा शब्द का निर्माण ही खुद से होता है। जो खुद पर यकीन करता है, वही खुदा है। लेकिन ईश्वर तो मुझे यहां भी नहीं मिला, जिससे पूछता कि तुमने मेरी स्नेहल को मुझसे क्यों छीना?
खैर, स्नेहल मेरे अंतर्मन में अब भी जिंदा है। कल पूरी रात उसके बारे में सोचता रहा। उसके साथ के ढाई महीने की अवधि के हरेक पल को याद किया। कुछ इमेजिन भी किया जैसे कि यदि वह आज होती तो कैसी होती। उसकी नाक मेरे जैसी थी तो उसका चेहरा भी बिल्कुल मेरी तरह होता। हां, उसका रंग मेरी तरह नहीं था। यह उसे उसकी मां ने दिया था।
लेकिन हुआ यही कि रात के तीसरे पहर तक आते-आते मन उचट गया था। पढ़ने की इच्छा हुई तो गालिब की याद आयी। गालिब ने वैसे भी लिखा ही है– इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई। मेरे दुख की दवा करे कोई।
आदमी अब सामाजिक नहीं, आर्थिक प्राणी है(डायरी, 24 दिसंबर 2021)
मेरे हिसाब से गालिब एकमात्र शायर हैं जो सत्य शोधन करते हैं। कवियों में यह बात दूसरे रूप में या कहिए कि ठेंठ अंदाज में कबीर की रचनाओं में मिलता है। रैदास को मैं थोड़ा कमतर मानता हूं। इसके बारे में किसी और दिन लिखूंगा। फिलहाल तो मिर्जा गालिब की बातें मुझे प्रभावित कर रही हैं। मेरे सामने ‘दीवान-ए-गालिब’ है। इसमें गालिब ने अपनी रचनाओं को संकलित किया है। इसकी पहली रचना का पहला शे’र गालिब को भीड़ से अलग देता है–
नक्श फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का,
कागजी है पैरहन, हर पैकर-ए-तस्वीर का।
कावे-कावे सख्तजानीहा-ए-तन्हाई न पूछ,
सुब्ह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का।
इस रचना का अंतिम शे’र है–
बस कि हूं गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा,
मू-ए-आतश-दीद: है हल्क मिरी जंजीर का।
पहले शे’र का मर्म देखिए। गालिब कहते हैं कि नक्श फरियादी है, यानी तस्वीर फरियाद करता है। फरियाद करनेवाला हर कोई तस्वीर के माफिक है और वह फरियाद भी करता है तो उसका संबंध खुद से होता है जैसे वह एक तस्वीर है। प्राचीन ईरान में लोग कागज के कपड़े पहनकर फरियाद करने जाते थे तो गालिब ने लिखा है– कागजी है पैरहन, हर पैकर-ए-तस्वीर का।
बहरहाल, स्नेहल एक असीम ऊर्जा के रूप में मेरे साथ है। वह अमूर्त है। समूर्त होती तो जीवन की तस्वीर कुछ और होती।
अब और नहीं लिख सकता स्नेहल, मेरे बच्चे, तुम्हारे लिए। उंगलियां साथ नहीं दे रहीं।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।