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सामाजिक आक्रोश और प्रतिकार का बिगुल हैं कविताएं

आदमखोर   केवल जानवर हो सकता है इंसान नहीं, तू भी इंसान नहीं हमारी हड्डियों को चाभने वाला दोपाया जानवर है आदमखोर जानवरl (अब मैं साँस ले रहा हूँ – से ) यह कविता पढ़ते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए l यह मात्र शब्दों का जादू नहीं बल्कि कविता में मानवीय संवेदनाओं, की संप्रेषणीयता, भावप्रवणता […]

आदमखोर  

केवल जानवर हो सकता है

इंसान नहीं,

तू भी इंसान नहीं

हमारी हड्डियों को चाभने वाला

दोपाया जानवर है

आदमखोर जानवरl

(अब मैं साँस ले रहा हूँ – से )

यह कविता पढ़ते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए l यह मात्र शब्दों का जादू नहीं बल्कि कविता में मानवीय संवेदनाओं, की संप्रेषणीयता, भावप्रवणता और डॉ असंगघोष की उन गहन अनुभूतियों की सशक्त अभिव्यक्ति का कमाल था जो एक साधारण कवि या लेखक के बूते की बात नहींl अन्याय, शोषण, असमानता, घृणा, अपमान और अस्पृश्यता के दंश को न केवल अभिव्यक्त करने अपितु उसका पुरजोर विरोध दर्ज़ करने का नाम है डॉ असंगघोषl लोग उन्हें दलित साहित्यकार के नाम से सम्बोधित करते हैं पर मैं मानता हूँ कि वे बड़े सामाजिक सरोकार के कवि हैंl

कवि असंग्घोष

मध्य प्रदेश के नीमच जनपद के जावद कस्बे के एक दलित परिवार में 29 अक्टूबर 1962 को जन्मे डॉ असंगघोष हिंदी दलित कविता में एक स्थापित नाम हैl डॉ असंगघोष के अभी तक 8 कविता संग्रह – खामोश नहीं हूँ मैं, हम गवाही देंगे, मैं दूंगा माकूल जवाब, समय को इतिहास लिखने दो, हम ही हटायेंगे कोहरा, ईश्वर की मौत, अब मैं साँस ले रहा हूँ और बंजर धरती के बीज प्रकाशित हो चुके हैं l अब मैं साँस ले रहा हूँ डॉ असंगघोष की कविताओं का 7वां संग्रह है जो कुल मिलाकर 66 कविताओं का एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें परिवर्तन, विकास, समता और सद्भाव के आगमन की प्रतीक्षा के स्वागत पुष्प हैं तो आक्रोश, विरोध, प्रतिकार, ललकार, चेतावनी और बगावत के कंटीले पर्ण भीl

डॉ असंगघोष के कृतित्व एवं साहित्यिक अवदान पर लिखे अपने सम्पादकीय ग्रन्थ तुम देखना काल! की भूमिका में सुधीर सक्सेना लिखते हैं.. ‘असंगघोष की सारी कविताएँ विकल मन की कविताएँ हैंl उनके आठों संकलनों से गुजर कर यह निष्कर्ष उभरता है, कि असंग प्रतिकार के कवि हैंl उनकी कविताएँ प्रतिकार की कविताएँ हैंl वे पाखण्ड, क्रूरता, जड़ता और निर्दयता पर लगातार प्रहार करते हैंl अमानुषिक और निर्मम शक्तियों से संघर्ष में उन्हें हिंसा से भी कोई गुरेज नहीं हैl’

आपकी कविताएँ क्रान्तिकारी कविताएँ हैं, उनमें आक्रोश है, आह्वान है, घोषणा है, चुनौती है, बगावत है, तो ललकार भी है l आइये देखते हैं इस संग्रह की पहली ही कविता जिसमें खुल्लम-खुल्ला बगावत एवं प्रतिशोध के स्वर मुखर होते हैं …

तू पेरता रहा मुझे

चरखी में गन्ने की तरह

छितर कर बिखर जाने की

सीमा तकl

तेरे पेरने पर

हर बार मुझसे मिठास निकली

नामुराद मिठास के खत्म होते ही

भट्टी में जलाने के लिए

तूने फेंक दिया मुझे किनारे पड़े ढेर में

अपने हितों के लिए

मैं जलने के बाद भी

तुझे गरमी देने

अपने भीतर की उष्मा फैलाता रहा

लेकिन ध्यान तुम्हारा

मेरी मिठास में नहीं

और न ही मेरे जलने से मिली उष्मा में था

तू जिंदगी भर सिर्फ लगा रहा

मुझे निचोड़ने मेंl

 एक दिन

अपनी इसी उष्मा को संचित कर

‘फूँकूँगा तुझे मैं ही’

अपने भीतर की धधकती हुई आग मेंl

हमारे देश में, समाज में एक अवधारणा को बहुत ही बल दिया जाता रहा है और दिया जा रहा है कि हमारे देश में अब जातिवाद समाप्त हो गया है परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत ही है l जातिवाद की जड़ें हमारे समाज में इतनी गहरी हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना बच्चों का खेल नहीं है l मैं यह भी नहीं कहता कि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता, निश्चित रूप से एक दिन इसके पैर उखड़ेंगे और यह समूल नष्ट भी होगा, क्योंकि डॉ असंगघोष जैसे व्यक्तित्व अपनी कविताओं, अपने साहित्य के माध्यम से जब समाज को दिशा देने का बिगुल फूंकेंगे तो उसके दूरगामी एवं सकारात्मक परिणाम तो आयेंगे ही l इसी सत्य को उजागर करती डॉ असंगघोष की रचना का एक अंश …

मैं कहता हूँ

कि यहाँ जातिवाद है

वे नकारते हैं

यहाँ नहीं है कोई

जातिवाद !

मैं कहता हूँ

तुम्हारी दृष्टि में दोष है

इस दोष को ठीक कराओ l

 इस संग्रह अब मैं साँस ले रहा हूँ के आवरण पृष्ठ पर श्री जय प्रकाश कर्दम ने डॉ असंगघोष की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है… “सवर्ण हिन्दू अपने हितों के लिए दलितों की गिनती हिन्दुओं में करते हैं, किन्तु व्यवहार में उनके साथ घृणा, अपमान, असमानता और अस्पर्श्यता बरतते हैंl डॉ असंगघोष का हृदय, जातिगत भेदभाव के जनक और पोषक ब्राह्मण वर्ग के प्रति आक्रोश और प्रतिशोध से भरा है l वह ब्राह्मणवाद को एक दुश्मन की तरह देखता है किन्तु अन्य दलित कवियों की तरह हिंदुत्व से बाहर निकलने की बजाय वह हिन्दू ही बने रहना चाहता है और घोषणा करता है” ….इसी संग्रह की एक कविता “हाँ मैं हिन्दू हूँ” से….

तेरी परिभाषा में

मैं हिन्दू हूँ

लाखों जुल्म सहकर भी

मैंने अपना धर्म

नहीं बदला ….

 

मैं तब तक

हिन्दू ही रहूँगा

जब तक

कि उसकी श्रेष्ठता को जमीन में

गाड़ न दूँ

सौ फुट नीचे

तब तक

मैं हिन्दू हूँ !

और हिन्दू ही रहूँगा l

 असंगघोष की एक-एक कविता, समाज में व्याप्त दलित उत्पीडन की घटनाओं का सिलसिलेवार पुनर्प्रसारण करती प्रतीत होती हैl बेगारी दलित उत्पीड़न की एक ज्वलन्त समस्या रही हैl जब असंगघोष, नहीं होगी हमसे बेगार शीर्षक से कविता लिखते हैं तो शब्द स्वयं ही हमारे सम्मुख आक्रोश के स्वरों और प्रतिकार के तेवरों का निरूपण करते दृष्टिगत होते हैं …..

दरवाजे पर खड़ा हुआ

अकाल !

काल का मुँह चिढ़ाता हुआ

श्रम को ठेंगा दिखाता है,

घर में अन्न का दाना नहीं

आँतें सिकुड़ कर

पसलियों से चिपट गई हैं…

लेकिन लद गए वो दिन

अब किसी भी परिस्थिति में

नहीं होगी हमसे बेगार

भूखे पेट का समझाने

कमर पर किस तरह बाँधना है पट्टा !

यह तरीका हमें आ गया है l

 कवि जब-जब सुनता है, देखता है, पढ़ता है, सबलों द्वारा निर्बलों को सरेआम दी जाने वाली यातनाओं के भयावह, वीभत्स मंजर, चीत्कार, तो वह आह नहीं भरता, आँसू नहीं बहाता, प्रलाप नहीं करता, बल्कि प्रतिकार करता है, विरोध करता है, ललकारता है और तलवार थामने का आह्वान भी करता है… उनकी लेखनी से निकली ऐसी ही एक अन्य कविता भी देखिये ….

इस आदमखोर का जब

इन सब अत्याचारों से मन नहीं भरा ,

तो ट्रैक्टर-जीप के पीछे बांध

सरेआम खींचते हुए मार दिया मुझे असमय।

 

कब तक चलेगा

यह सिलसिला !

थामनी है हमें ही

अपने ही हाथों में

इस हत्यारे की तलवार।

हमारे देश में सवर्ण हिन्दू आरक्षण का विरोध तो करता है, किन्तु जातिवाद का राक्षस, जस का तस अपना मुंह बाए खड़ा दलित उत्पीडन का हिमायती बना रहे, इससे उसे कोई गुरेज नहीं है l ‘असंगघोष’ बड़ी ही ईमानदारी से इस सत्य को कुछ ऐसे शब्दबद्ध करते हैं …

वह,

आरक्षण की खिलाफत करता है

और

मैं जातिवाद के विरुद्ध हूँl        

 

इस देश में

व्याप्त

घोर जातिवाद पर

वह, हर बार मौन धारण कर लेता हैl

 

वह, इस जातिवाद के खिलाफ

कभी खड़ा नहीं रहा,

मैं जातिवाद के खिलाफ खड़ा हूँl

 

वह अंत में फिर जोर से कहता है

जातिगत आरक्षण ख़त्म करो!

किन्तु, कमबख्त जाति को ख़त्म करने की बात,

कभी नहीं करताl

 ‘विद्रोह’ और ‘प्रतिकार’ के स्वर असंगघोष की कविताओं में यत्र, तत्र, सर्वत्र देखने को मिलते हैं …मुर्दा अकड़, सुन लो, उठाओ लट्ठ, बन्दर के हाथ उस्तरा, रक्तबीज और अन्य ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें हमारा साक्षात्कार इन दोनों मनोभावों से होता है…. इस सन्दर्भ में रक्तबीज कविता देखिये…

मेरे पास बंजर जमीन में बोने के लिए

अपनी वेदनाओं से उपजा आक्रोश है

उसमें झोंकने के लिए

विद्रोह की खाद है

केवल एक बार नहीं

मैं अपना आक्रोश बोऊँगा बार-बार

डालूँगा उसमें बगावत की खाद

उसे अपने खून से सींचूँगा

ताकि इन बीजों से उपजे

रक्तबीज l 

 

आदमखोर कविता का यह अंश भी देखिये ….

हर आदमखोर का हश्र

मौत होती है

अच्छे से सुन ले

समझ ले

और मरने के लिए

तैयार रह

तेरा सामना करने

मेरे पास अपने हथियार

गेंती,

सब्बल,

राँपी हैl 

 और जवाब हम देंगे कविता में कवि के तेवर और विरोध का अंतर्नाद कुछ ऐसे मुखर होता है …

तू ढाता है

हम पर जुल्म,

भेष बदल-बदलकर

जगह-जगह करता है

अमानुषिक अत्याचार,

ऐसा कब तक चलेगा ?

 

इस सवाल का जवाब

अब तू नहीं 

हम देंगे l

 इस संग्रह में डॉ असंगघोष, ने एक कविता दी है, “तुम हुंकार भरो” l इस कविता के माध्यम से कवि डॉ भीमराव अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी के रूप में प्रकट होते हैं l डॉ अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों का आह्वान किया था अपने इस बीजमंत्र से – “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो !”  इस कविता में असंगघोष भी यही उद्घोष करते हैं……

उठो साथियों !

शिक्षित बनो

संगठित हो

संघर्ष करो …

कि छाया जीवन में घना अँधेरा

भाग खड़ा हो तुम्हारी बस्ती से,

ऐसी हुंकार भरो

तूफानों पर चढ़कर

इतना गरजो,

इतना बरसो

कि ये आदमखोर हार मान

तुम्हारे सामने से

भाग खड़े हों,

ऐसी तुम हुंकार भरोl

अभी तक हमने कवि के जिन मनोभावों का उल्लेख किया है उन मनोभावों के अतिरिक्त भी एक मानवीय मनोभाव है और वह है प्रेम ! एक कविता में प्रेम की भावना का भी प्रकटीकरण हुआ है.. लेकिन आक्रोश के स्वर .. प्रतिकार की भाषा… विद्रोह की भावना रहती है जस की तस आइये उसकी भी एक बानगी देखिये….

प्रिये !

तुम कहाँ हो !

मुझे लिखनी है

तुम पर प्रेम-कविताएँ l

 

मेरे शब्द

आक्रोश ही गढ़ते रहेंगे

नहीं लिख पाऊंगा

कभी प्रेम-कविताएँ

इसका मतलब यह नही है

कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करूंगा

मेरा आक्रोश, मेरा विद्रोह

मेरा क्रोध ही मेरे लिए प्रेम है,

इससे इतर नहीं लिख सकता

मैं प्रेम-कविताएँl

अब मैं साँस ले रहा हूँ संग्रह की सभी कविताएँ एक से बढ़ कर एक हैं जो आक्रोश, विरोध, प्रतिकार, ललकार, चेतावनी और बगावत का प्रतिनिधित्व करती हैं सभी कविताओं का उल्लेख करने का मन तो है पर मेरा यह दुस्साहस ठीक वैसे ही होगा जैसे किसी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म के उस सस्पेंस का उजागर कर देना l

डॉ असंगघोष के 8 कविता संग्रह और सभी आठ संग्रहों में आक्रोश, विरोध, ललकार, बगावत आखिर क्यों ? तो उत्तर एक ही मिलता है …

जाके पैर न फ़टी बिवाई,

सो क्या जाने पीर पराई।

मतलब बिल्कुल साफ कि दलित समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी जातिगत हिंसा, भेदभाव, बेगारी, यातनाओं का शिकार है और शिकारी है कौन ? शिकारी आज भी वही, जो कल था।इस संग्रह की शीर्षक कविता “अब मैं साँस ले रहा हूँ ” पढ़ी तो साँस थमने लगी । कितना दर्द समेटे है यह कविता …

कोई मेरी कब्र खोद गया है

निकला कुछ खास नहीं

केवल चन्द गली हुई हड्डियाँ

एक अदद खोपड़ी

सही सलामत जबड़ायुक्त

जिसमें बिंधे रह गए हैं

स्टील के तार बंधे

गिनती के दाँत

ढेर सारी मिट्टी

पसलियों के बीच से लेकर

कूल्हों-जाँघों के जोड़ तक

खुरपी से निकाल आहिस्ता से

टाट की बोरी में भरता हुआ

कहता गया वह

इसकी फॉरेंसिक जांच कर

मौत के कारण का पता लगाएंगे !

जाते समय

कम्बख्त

कब्र बन्द करना भूल गया

लम्बे समय के बाद

अब मैं साँस ले रहा हूँ।

डॉ असंगघोष एक प्रतिभावान कवि हैं, उनका अपने समाज के प्रति दृष्टिकोण एकदम स्पष्ट है। वे परिवर्तन के हिमायती हैं और किसी भी कीमत पर उसके घटित होने के लिए संकल्पबद्ध हैं। मेरी शुभकामनाएं हैं कि आप का नाम हिन्दी दलित साहित्य में ही नहीं, हिन्दी साहित्याकाश में भी एक विशिष्ठ स्थान पर सुशोभित हो आपका यश और कीर्ति एक क्षेत्र विशेष में ही नहीं चहुँ और प्रसारित होl

कश्मीर सिंह तेजस्वी आलोचक हैं। वे हैदराबाद में बैंक में कार्यरत हैं।

                             

 

 

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2 COMMENTS
  1. सम्पादक महोदय
    आपका हृदय से आभार कि आपने इस समीक्षा को इस लोकप्रिय पत्रिका में स्थान दिया ।

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