जिस तरह नदी के शीतल जल में पैर डालने के बाद हम उसमें डुबकी लगाना शुरू कर देते हैं और इसमें हमारा खुद का निर्णय कम, नदी का आमंत्रण ज़्यादा प्रभावी होता है, उसी तरह का प्रभाव इन रचनाओं ने डाला। एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, तीसरी के बाद चौथी, फिर पाँचवी, छठीं और इस तरह पूरी तिरसठ कविताएँ मैंने पढ़ डाली। जीवन के इतने करीबी और जरूरी काव्य आख्यानों को बीच में छोड़ कर कोई उठ भी कैसे सकता है? इन कविताओं के दर्पण में मुझे कवि का नहीं पाठक के तौर पर अपना ही चेहरा बार-बार दिखता रहा। कभी बेहद खूबसूरत, कभी उदास, कभी गुस्से से हल्का लाल तो कभी खुद को समझाता हुआ। हाँ पर हमेशा आश्वस्ति के एक छोर को पकड़े हुए कि 'कोई भी अंत अंतिम नहीं'।
परमेन्द्र जी के पास दुख की एक ऐसी भाषा है जो बहुत दुर्लभ है। इस भाषा में दुख का रूदन कम, उसका स्वीकार-परिष्कार और कालांतर में उपचार समाहित है। कविता ‘मेरा दुख’ में वह कहते हैं- ‘मेरा दु:ख मिटा नहीं/ कट गया-/ बच्चों की दुधिया हंसी से/ किसान की दरांती से’। सच में दुखों को काटने का यही अचूक हथियार तो रहा है हम आम लोगों के पास। ये पंक्तियाँ लोक जीवन में धंसी गहरी जिजीविषा की पंक्तियाँ हैं। पर ऐसा नहीं है कि कवि व्यवस्था की कालाबाजारी को पहचानता नहीं या उसे बक्श देता है। यही कविता आगे कहती है- ‘मेरा दुःख मिटा नहीं/ बदल गया-/ विज्ञापन में और बिक गया’। ये पंक्तियाँ पढ़ते ही सरकारी योजनाओं के विज्ञापन पर छपे हंसते-मुस्कुराते किसानों, मजदूरों, गृहणियों के तस्वीरें याद हो आईं। जो कई बार व्यवस्था द्वारा उन्हें यूँ बरते जाने से अनभिज्ञ ही रहते हैं। कवि की ये भिज्ञता मुझे भाई।
परमेन्द्र जी मुझे बहुत जंचे जब कविता हमारे बच्चे में हमारे आम घरों के बच्चों की खूबसूरत बाल हरकतों को नोटिस करते हुए एक मृदु चिकोटी सी काट लेते हैं और कहते हैं- 'मगर हमारे बच्चों की लीलाएं देखकर/ कवि उपमाएँ नहीं गढ़ते/ देवता पुष्प वर्षा नहीं करते।' ये व्यंग्य हमारी परंपरागत समझ की मजबूत दीवार को भेदकर एक ऐसा रोशनदान खोल देता है जिसके रास्ते किसी अनदेखे-अमूर्त नायकों के गौरव की प्रशस्ति धारा नहीं अपने आसपास धूल-धूसरित नायक/नायिकाओं की बाल सुलभ हरकतों के आनंद का सोता फूट पड़ता है।
कवि परमेन्द्र अपनी कविताओं से चेतना को झकझोरते हैं। उनमें चापलूसी और जयघोष की मानसिकता का लेस मात्र भी नहीं दिखता। बड़ी सहजता से वे समय की नब्ज़ को टटोलकर उसे झिझोंड़ देते हैं। कविता ‘शोकगीत’ की ये पंक्तियाँ ही देखिए- ‘एक शोकगीत/ शव के पीछे-पीछे चल रहे दर्जनों लोग/ और सैकड़ों छूट गये शवों के लिए’। ये सैकड़ों छूट गये शव कोई और नहीं हममें से ही जीवित लाखों-करोड़ों लोगों में से हैं जो जुबान सिल कर, आँखें मूंद कर और कान बंद कर बैठे हैं। उन्हें कोई भी स्थिति-परिस्थिति परेशान नहीं करती। ये भाग्यवादी-नियतिवादी लोग शव ही तो हैं। कवि को इस बात का भी भान है कि हममें सिर्फ़ हमारा सत्व ही शामिल नहीं है। वह कहता है कि यदि पृथ्वी को सारा अन्न-जल, आकाश को उसकी विशालता, नदियों-समुद्रों, दिशाओं और सूर्य का उनका अवदान लौटा दें तो फिर सोचो कि तुम कितने तुम रहोगे? (कविता- तुम कितने तुम हो)